मजदूरों के ‘इण्टरनेशनल’ के 150 वर्ष

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2014 में प्रथम विश्वयुद्ध के 100 साल पूरे हुए। इसे मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग में विस्तार से याद किया गया और इसके विविध आयामों पर कई महत्वपूर्ण लेख भी लिखे गये। कई डाकूमेन्ट्री भी इसी साल इस विषय पर बनी। लेकिन 2014 में एक अन्य महत्वपूर्ण घटना के 150 साल पूरे हुए। यह महत्वपूर्ण घटना है- मार्क्स-एंगेल्स के नेतृत्व में 28 सितम्बर 1864 को ‘इण्टरनेशनल वर्किगमेन्स एसोसिएशन’ यानी मजदूरों के पहले इण्टरनेशनल (‘International Workingmen’s association’ or First International) की स्थापना (यह सुखद संयोग है कि 28 सितम्बर ‘भगत सिंह’ का भी जन्म दिवस है)। आज जिसे हम ‘मार्क्सवाद’ कहते हैं, वह इसी इण्टरनेशनल में अनेकों तीखे वैचारिक संघर्षों के दौरान स्थापित हुआ। लेकिन आश्चर्य की बात है कि इसे ना तो वैकल्पिक मीडिया में याद किया जा रहा है और ना ही अपने आप को मार्क्सवादी कहने वाले बुद्धिजीवी या मार्क्सवादी कहलाने वाली पार्टियां ही याद कर रही हैं।
हांलाकि ‘कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो’ फर्स्ट इण्टरनेशनल की स्थापना से काफी पहले 1848 में आ चुका था, लेकिन इसकी मूलभूत प्रस्थापना को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान और स्थापना फर्स्ट इण्टरनेशनल के दौरान ही मिली। ‘कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो’ के अबतक के सबसे खूबसूरत नारे – ‘मजदूरों का कोई देश नही होता, दुनिया के मजदूरों एक हो, मजदूरों के पास खोने के लिए अपनी जंजीरों के अलावा कुछ नही है, पाने को पूरी दुनिया है’, इसी इण्टरनेशनल के दौरान स्थापित हुए और चरितार्थ होने लगे। फर्स्ट इण्टरनेशनल से पहले तक यूरोप का पूंजीपति वर्ग अपने-अपने देश के मजदूरों की हड़ताल को तोड़ने के लिए दूसरे देश के मजदूरों का प्रयोग करता था। लेकिन इण्टरनेशनल की स्थापना के बाद से पूंजीपति के हाथ से उसका यह महत्वपूर्ण हथियार पूरी तरह से छिन गया। यह यूरोप के मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीय एकता के कारण ही संभव हुआ। और इसके पीछे की मुख्य ताकत थी- फर्स्ट इण्टरनेशनल ।
आज हम मजदूर आन्दोलन के क्षेत्र में जितनी भी प्रवृत्तियां पाते हैं, उनकी जड़े इसी इण्टरनेशनल में है। अर्थवाद, अराजकतावाद, शुद्ध ट्रेडयूनियनवाद…… आदि सभी। मार्क्स ने इण्टरनेशनल के भीतर इन सभी प्रवृत्तियों से (विशेषकर ‘अर्थवाद’ और ‘अराजकतावाद’ से) तीखा संघर्ष चलाकर ही मार्क्सवाद को स्थापित किया। मार्क्स का बृहद कार्य ‘दि कैपिटल’ का पहला भाग भी 1867 में छपकर आया। इन्टरनेशनल ने सभी मजदूर नेताओं से इसे पढ़ने का आग्रह किया। इस रुप में ‘दि कैपिटल’ के भी 150 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। 2008 की भयावह मंदी के बाद ‘दि कैपिटल’ का महत्व काफी बढ़ गया है। और मुख्यधारा की मीडिया में भी ‘मार्क्स की वापसी’ के नारे लग रहे हैं। 2008 के बाद से ‘दि कैपिटल’ के पुर्नमुद्रण की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है।
इस तथ्य को बहुत कम लोग जानते हैं कि यह इण्टरनेशनल का ही प्रभाव था कि ब्रिटेन उस वक्त अमरीका में चल रहे गृहयुद्ध में प्रतिक्रियावादी दक्षिण की तरफ से चाहकर भी हस्तक्षेप नही कर पाया। इण्टरनेशनल के प्रभाव में ब्रिटेन का मजदूर दासप्रथा के खिलाफ चल रहे युद्ध में वहां के नागरिकों, मजदूरों का पुरजोर समर्थन कर रहा था। इण्टरनेशनल की तरफ से ‘अब्राहम लिंकन’ को एक प्रशस्ति पत्र भी भेजा गया था जो संभवतः मार्क्स द्वारा ही लिखा गया था।
यह तथ्य बेहद महत्वपूर्ण है कि मजदूरों ने पहले पहल अपने आपको राष्ट्रीय स्तर पर नही बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संगठित किया। चाहे फर्स्ट इण्टरनेशनल हो या फिर इसका पूर्ववर्ती ‘कम्युनिस्ट लीग’ हो, या उससे भी पहले ‘इग्जाइल लीग’ (Exile League) और ‘फेडरेशन आॅफ जस्ट’ (Federation of Just) हों। राष्ट्रीय स्तर पर बहुत बाद में जाकर मजदूरों की राजनीतिक पार्टी बननी शुरु हुई। तथ्यतः देखे तो यूरोप में सबसे पहले जर्मनी में 1869 में मशहूर समाजवादी ‘बेबेल’ और ‘लीब्नेख्त’ के नेतृत्व में मजदूरों की पहली राजनीतिक पार्टी बनी।
मजदूरों की पहली सफल क्रान्ति ‘पेरिस कम्यून’ (1871) भी फर्स्ट इण्टरनेशनल के दौरान ही हुई थी। इसमें इण्टरनेशनल की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका थी। एंगेल्स ने तो ‘पेरिस कम्यून’ को फर्स्ट इण्टरनेशनल की संतान कहा। पेरिस कम्यून पर मशहूर फिल्मकार ‘पीटर वाटकिंग’ ने बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्म ‘ला कम्यून’ बनायी है।
इण्टरनेशनल के ही एक सदस्य कम्युनार्ड ‘Eugene Pottier’ ने ही मजदूरों का मशहूर अन्तर्राष्ट्रीय गीत ‘दि इण्टरनेशनल’ इसी समय जून 1871 में लिखा।
आज जिसे हम ‘आत्मनिर्णय के अधिकार’ (यानी प्रत्येक समुदाय और राष्ट्र को अपना भाग्य खुद चुनने का अधिकार है।) के रुप में जानते है, वह इसी इण्टरनेशनल में स्थापित हुआ था। इण्टरनेशनल ने उस वक्त आयरलैण्ड (जो उस वक्त इग्लैण्ड के खिलाफ अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहा था) और पोलैण्ड (जो जारशाही रुस के खिलाफ अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहा था) की आजादी की मांग को न सिर्फ जोर शोर से उठाया था, वरन उनके समर्थन में अनेकों हड़तालें भी आयोजित की थी।
पेरिस कम्यून के पतन के बाद पूरे यूरोप के शासक वर्ग ने इण्टरनेशनल को अपने निशाने पर ले लिया और ब्रिटेन को छोड़कर प्रायः हर जगह इसे प्रतिबंधित कर दिया गया। इसके अलावा अराजकतावादी ‘बाकुनिन’ जैसे भितरघातियों ने इसे अन्दर से कमजोर करना शुरु कर दिया। ऐसी स्थिति में मार्क्स-एंगेल्स ने इण्टरनेशनल को बचाने के लिए इसका हेडक्वार्टर लंदन से अमरीका शिफ्ट कर दिया। लेकिन अमरीका में उस वक्त मजदूर आन्दोलन की बागडोर वहां के गोरे अभिजात्य मजदूरों के हाथ में थी। और वहां के काले मजदूर, महिला मजदूर, अप्रवासी मजदूरों की वहां की स्थापित यूनियनों में कोई भूमिका ना थी, जबकि वास्तविक संघर्षो में ये मजदूर ही अग्रिम पंक्ति में होते थे। ऐसी स्थिति में वहां जाकर इण्टरनेशनल काफी सुस्त हो गया। अन्ततः अनेकों वस्तुगत-आत्मगत कारणों के चलते मजदूरों का यह पहला इण्टरनेशनल 1876 में समाप्त हो गया। मशहूर मार्क्सवादी लेखक “मारसेलो मुस्तो” [Marcello musto] ने अपनी हालिया प्रकाशित पुस्तक The International 150 years Later में इस पहले इण्टरनेशनल के बहुत से महत्वपूर्ण दस्तावेजों को संकलित किया है।
हालांकि एक दशक से कुछ वर्ष बाद ही इसी कड़ी में ‘बास्तीय किले’ (फ़्रांसीसी क्रान्ति के दौरान) पर हमले की 100 वीं बरसी पर 1889 में पेरिस में मजदूरों के दूसरे इण्टरनेशनल की स्थापना कहीं अधिक व्यापक पैमाने पर हुई।
इतिहास कहां रुकता है।

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