जीएसटी का जंजाल: किसी का बोझ, किसी के सिर —- देविंदर शर्मा

GST

कल्पना कीजिए कि मेरा पड़ोसी अपने घर को नए सिरे से सजा-संवार रहा है. हर पुरानी चीज को हटाकर नए सिरे से नई तकनीक के साथ घर की साज-सज्जा का काम हो रहा है. मुझे भरोसा है कि नया घर अत्याधुनिक सुख-सुविधाओं से संपन्न होगा. वास्तु के हिसाब से सटीक होगा, आंतरिक साज सज्जा भी आला दर्जे की होगी.

लेकिन तब क्या होगा जब मेरा पडो़सी इस साज-श्रृंगार का मोटा बिल भुगतान के लिए मेरे पास भेज दे? कोई भी कहेगा कि यह ठीक नहीं है. मेरे पड़ोसी के घर की साज-सज्जा का घर मुझे क्यों देना पड़े?

बिल्कुल इसी बात को हम ‘ऐतिहासिक’ और ‘नई जमीन तोड़ने’ वाली गुड्स एंड सर्विसेज़ टैक्स (जीएसटी) की बहस में नजरअंदाज कर रहे हैं.

आर्थिक सुधार

वित्त मंत्री अरुण जेटली को हमने बार-बार यह कहते हुए सुना है कि प्रस्तावित जीएसटी बिल भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए निर्णायक मोड़ सिद्ध होगा. करों में सुधार के लिए लाए जा रहे जीएसटी बिल के जरिए वर्तमान में लगाए जाने वाले सभी अप्रत्यक्ष कर समाप्त कर दिए जाएंगे. इसमें सेंट्रल इक्साइज ड्यूटी, सेल्स टैक्स, वैल्यु एडेड टैक्स, सर्विस टैक्स और लक्जरी टैक्स आदि शामिल है.

यह बात मुझे कभी समझ नहीं आई कि इतनी बड़ी संख्या वाली टैक्स व्यवस्था इतने दशकों से चल कैसे रही है. सिर्फ टैक्स की संख्या, टैक्स के ऊपर टैक्स और उनसे बढ़ने वाली लागत ही समस्या नहीं है. इसकी वजह से टैक्स वसूली के हर क्षेत्र में व्यापक रूप से भ्रष्टाचार फैला हुआ है.

कारण चाहे जो भी हों लेकिन सच्चाई यह है कि हमेशा इस बढ़ी हुई लागत को उपभोक्ता को चुकाना पड़ता है. उत्पादक को इस बहुस्तरीय टैक्स व्यवस्था में माथापच्ची जरूर करनी पड़ती है लेकिन अंतत: इस बढ़ी हुई लागत का बोझ उपभोक्ता ही उठाता है.

जीएसटी लागू होने के बाद उत्पादकों को एक आसान टैक्स व्यवस्था उपलब्ध होगी. उपभोक्ता सामान और सेवाओं पर लगने वाले बहुस्तरीय टैक्स की बजाय सिर्फ एक ही टैक्स चुकाना होगा.

इससे विकास की दर में इजाफा होगा या नहीं यह कहना अभी थोड़ा मुश्किल है लेकिन एक बात जरूर कही जा सकती है कि इससे व्यापार के लिए एक सकारात्मक माहौल बनेगा.

इससे व्यापार को राहत तो मिलेगी लेकिन एक बात अभी भी समझ नहीं आ रही है कि अंत मेें सारा बोझ उपभोक्ता को ही उठाने के लिए क्यों मजबूर किया जा रहा है.

मौजूदा बहु स्तरीय टैक्स व्यवस्था के मुकाबले जीएसटी में राजस्व वसूली का स्तर गिरना तय है

आप मेरी इस बात से सहमत होंगे कि जिस तरह से घर की साज-सज्जा का खर्च उन लोगों को उठाना चाहिए जो इस टैक्स सुधार का लाभ पा रहे हैं. बिल्कुल उसी तरह इस मामले में भारतीय उद्योग जगत जो कि इसका सबसे बड़ा लाभार्थी होगा उसे ही इसका बड़ा हिस्सा चुकाना चाहिए.

इसकी बजाय यह बोझ आसानी से बेचारे उपभोक्ता के सिर पर डाल दिया गया है. जीएसटी की उच्च दर को यथोचित ठहराने के लिए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने पहले ही 2015 के राष्ट्रीय बजट में सर्विस टैक्स को 12.36 से बढ़ाकर 14 फीसदी कर दिया है.

वर्तमान वित्त वर्ष में बढ़ी हुई दर से सरकार ने आम उपभोक्ता के जेब से कितना पैसा निकाला है इसका सही आंकड़ा 2016 के बजट से सामने आएगा. एक अंदाजा के लिए आपको बता दें कि पिछले वित्त वर्ष में केवल बढ़े हुए सर्विस टैक्स के जरिए सरकार ने 50,000 करोड़ रुपए इकट्ठा किए.

अगर हम सर्विस टैक्स में होने वाली सतत वृद्धि के आधार पर आकलन करें, यह देखते हुए कि सर्विस टैक्स को जीएसटी के साथ मर्ज कर दिया जाएगा. इसकी अनुमानित दर 18 फीसदी होगी. इससे बेचारे उपभोक्ताओं पर 2.5 लाख करोड़ का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा.

दूसरे शब्दों में कहें तो जीएसटी के नाम पर हो रही पूरी टैक्स सुधार की कवायद का बोझ उपभोक्ता को उठाना पड़ेगा. और इसका सबसे बड़ा लाभार्थी भारतीय उद्योग जगत बिना कुछ खर्च किए आसानी से बच निकलेगा.

जीएसटी एकमात्र टैक्स होगा. सर्विस टैक्स को उसके साथ मिला दिया जाएगा. यह तार्किक लगता है. लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है कि मौजूदा टैक्स कलेक्शन (जिसे रेवेन्यु न्युट्रल रेट से मापा जाता है) की दर गिरने न पाए.

मौजूदा बहु स्तरीय टैक्स व्यवस्था के मुकाबले जीएसटी में राजस्व वसूली का स्तर गिरना तय है. इस कमी को पूरा करने का तरीका क्या है- आम आदमी के ऊपर कुछ और टैक्स थोप दिए जाय.

पेट्रोलियम, बिजली, रियल इस्टेट और शराब जीएसटी के दायरे से बाहर है

सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम के नेतृत्व वाली कमेटी की रिपोर्ट में इस बात की साफ ताकीद की गई है कि टैक्स वसूली की ऊंची दर को बनाए रखने के लिए एहतियाती कदम उठानेे होंगे.

इसमें रेवेन्यु न्युट्रल रेट की दर 15-15.5 फीसदी का लक्ष्य रखा है. यह दोहरे स्तर का होगा. कुछ क्षेत्रों में इसकी दर 12 फीसदी और बाकी में 17-18 फीसदी तक का लक्ष्य रखा है. कमेटी ने माना है कि सही आकलन के लिए आरएनआर के आंकड़े बेहतर हैं.

रिपोर्ट कहती है कि जिन 160 देशों ने वैट लागू किया है (जीएसटी भी वैट का ही एक रूप है) वहां कई समस्याएं हैं. चाहे वो एकल दर वाली जीएसटी व्यवस्था हो या फिर दोहरी दर वाली जीएसटी, जिसका प्रस्ताव भारत में है. इसमें कई खामियां अभी मौजूद हैं.

विश्व की तमाम बड़ी संघीय अर्थव्यवस्थाओं मसलन यूरोपीय यूनियन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील और इंडोनेशिया में इसको लागू करने में भारी दिक्कतें आ रही हैं.

हम इसको लागू करने में होने वाली दिक्कतों में नहीं पड़ते हैं, यह तो आएंगी ही. हम आम आदमी पर पड़ने वाले अतिरिक्त खर्च का आकलन करते हैं.

कीमत

रिपोर्ट बताती है कि तमाम बड़े देशों, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में जीएसटी लागू करने का नतीजा महंगाई में तेज बढ़ोत्तरी के रूप में देखने को मिला. यह कहना की कीमतें बाद में कम हो जाएंगी, इन देशों के आधार पर कह सकते हैं कि यह सिर्फ आर्थिक जुमलेबाजी है.

दाल की कीमतों को लीजिए. जून से अक्टूबर के बीच इसकी कीमतें 70 रुपए से 170 रुपए तक पहुंच गईं.

अब अगर यह कीमत 120 रुपए प्रति किलो हो जाय तो तकनीकी रूप से कह सकते हैं कि महंगाई कम हो गई है लेकिन असल में कीमतें 70 रुपए प्रति किलो से 120 रुपए प्रति किलो हो गई हैं. अब अगले साल दाल की कीमतों में किसी भी तरह की तेजी का आकलन 120 रुपए को आधार मानकर किया जाएगा.

मोटा सर्विस टैक्स कई और तरह के दुष्प्रभाव पैदा करता है. कीमतों में बढ़ोत्तरी के लिए अकेले सर्विस टैक्स को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. रिपोर्ट में 24 टैक्स का जिक्र है. इसमें यात्रा, हॉस्पिटैलिटी, मनोरंजन, बीमा, ढुलाई, भवनों और मशीनरी की मरम्मत, टेलीफोन और गिफ्ट आदि शामिल हैं.

ज्यादातर विशेषज्ञों का मानना है कि जीएसटी की न्युनतम सीमा 12 फीसदी और अधिकतम 22 फीसदी के आस पास होगी

इन अतिरिक्त टैक्सों से महंगाई बढ़ती है जो कि एक अप्रत्यक्ष टैक्स सरीखी हो जाती है. लिहाजा आपके ऊपर अतिरिक्त टैक्स लगाए जाने की संभावना दोगुनी है.

पेट्रोलियम, बिजली, रियल इस्टेट और शराब जीएसटी के दायरे से बाहर है. रिपोर्ट का कहना है कि पेट्रोलियम और शराब राज्यों की आय का सबसे बड़ा जरिया है. अप्रत्यक्ष करों का 29 फीसदी और कुल करों का 41.8 फीसदी हिस्सा जीएसटी के तहत आ जाएगा.

चुंकि हमारे यहां दोहरी जीएसटी प्रणाली लागू होने जा रही है. लिहाजा इस बात की संभावना प्रबल है कि केंद्र और राज्यों द्वारा लगाए जाने वाले टैक्सों की स्पर्धा में इसका असली फायदा मिल ही न सके. मसलन जब केंद्र ने तेल पर एक्साइज ड्युटी कम की तो कितने राज्यों ने वैट की दर बढ़ाई, हाल ही में वित्तमंत्री संसद में इसको समझा रहे थे.

हमें कहा जा रहा है कि जीएसटी की एकरूप दर 18 फीसदी होगी. लेकिन सच्चाई यह है कि वित्तमंत्री इसको संवैधानिक सीमा बनाने के लिए तैयार नहीं हैं. यह बताता है कि अपर लिमिट अभी भी खुला हुआ है.

ज्यादातर विशेषज्ञों का मानना है कि जब जीएसटी पूरी तरह से प्रभावी हो जाएगी तब इसकी न्युनतम सीमा 12 फीसदी और अधिकतम 22 फीसदी के आस पास होगी. इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि सर्विस टैक्स की सीमा को 22 फीसदी तक बढ़ा दिया जाय. इसी वजह से सरकार अपर लिमिट को घोषित नहीं कर रही है.

जब सर्विस टैक्स को 12.36 फीसदी से 14 फीसदी किया गया तब किसी ने आपत्ति नहीं की. बाद में इसे स्वच्छ भारत सेस के नाम पर .5 फीसदी और बढ़ा दिया गया. इस तरह लगातार धीर-धीरे सर्विस टैक्स को बढ़ाकर उसका भार उपभोक्ताओं के ऊपर डाला जा रहा है और उसे इसका अहसास नहीं होने दिया जा रहा.

इसलिए आज की तारीख में यह जरूरी है कि जीएसटी टैक्स का बोझ उपभोक्ताओं के सिर न थोपने दिया जाय. इस पर संसद में ईमानदारी से स्पष्टीकरण जारी हो और जीएसटी के मॉडल नियमावली में भी इसे साफ उल्लिखित किया जाय.

क्या करना होगा

इसका एकमात्र तरीका है सर्विस टैक्स पर अपर लिमिट लगाना. भारत दोहरी जीएसटी प्रणाली को अपनाने जा रहा है. मेरी सलाह है कि सर्विस टैक्स को जीएसटी की न्यूनतम दर 12 फीसदी के साथ जोड़ दिया जाय. आदर्श दर जो कि 18 फीसदी के आस पास रहने की संभावना है, को लचीला रखा जा सकता है लेकिन न्यूनतम दर को 12 फीसदी की सीमा से बढ़ने की छूट न दी जाय.

टैक्स के दायरे को बढ़ाकर और कॉरपोरेट को दी जाने वाली तमाम छूटें कम करके (जो कि इस समय 2.7% है) टैक्स रेवेन्यु को शर्तियां बढ़ाया जा सकता है.
hindi.catchnews.com से साभार

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