‘ये साल भी यारों बीत गया’ —– गौहर रज़ा

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ये साल भी यारों बीत गया

कुछ खू़न बहा कुछ घर उजड़े

कुछ कटरे जल कर ख़ाक हुए

एक मस्जिद की ईंटों के तले

हर मसला दब कर दफ्न हुआ

जो ख़ाक उड़ी वह ज़ेहनो पर

यूं छायी जैसे कुछ भी नहीं

अब कुछ भी नहीं है करने को

घर बैठो डर कर अबके बरस

या जान गवां दो सड़कों पर

घर बैठ के भी क्या हासिल है

न मीर रहा न ग़ालिब हैं

न प्रेम के ज़िंदा अफ़साने

बेदी भी नहीं मंटो भी नहीं

जो आज की वहशत लिख डाले

चिश्ती भी नहीं, नानक भी नहीं

जो प्यार की वर्षा हो जाए

मंसूर कहां जो ज़हर पिए

गलियों में बहती नफ़रत का

वो भी तो नहीं जो तकली से

अब प्यार के ताने बुन डाले

क्यूं दोष धरो हो पुरखों पर

खु़द मीर हो तुम ग़ालिब भी तुम्हीं

तुम प्रेम का जि़न्दा अफ़साना

बेदी भी तुम्हीं, मंटो भी तुम्हीं

तुम आज की वहशत लिख डालो

चिश्ती की सदा, नानक की नवा

मंसूर तुम्हीं तुम बुल्लेशाह

कह दो के अनलहक़ जि़न्दा है

कह दो के अनहद अब गरजेगा

इस नुक़्ते विच गल मुगदी है

इस नुक़्ते से फूटेगी किरण

और बात यहीं से निकलेगी….

इस शानदार कविता को गौहर रज़ा की शानदार आवाज में सुनना चाहते हों तो यहाँ आएं

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