कई दिनो से एक किताब मेरे सिरहाने खामोश (?) पड़ी थी… पढ़े जाने का इन्तज़ार करते हुए… न जाने क्यों मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी उस किताब को पढ़ने की….पता नहीं क्यों मुझे लगता कि मेरे कलेजे की तरह यह किताब भी धड़क रही है….धीरे-धीरे सुलग रही है…कश्मीर की तरह…जहां आग पिछले 25 वर्षों से अधिक समय से कभी बुझी ही नहीं…………..
‘डू यू रिमेम्बर कुनान पोशपोरा?’ (क्या आपको कुनान पोशपोरा याद है?). यही किताब थी वह जो सुलग रही थी मेरे बिस्तर पर. मुझे कुनान पोशपोरा याद था. जिसका जिक्र मैंने बशारत पीर की ‘कर्फ़्यूड नाइट’ में पढ़ा था. आखिरकार मैंने एक दिन हिम्मत करके उस किताब को पढ़ना शुरू ही कर दिया. मुझमें पूर्व प्रस्तावना व प्रस्तावना पढ़ने की ताब नहीं थी. मैं सीधे किताब के पहले अध्याय पर आ गई. ‘कुनान पोशपोरा और कश्मीर की औरतें’.
कुनान और पोशपोरा कश्मीर के संवेदनशील कुपवारा ज़िले के एक दूसरे से लगे दो छोटे- छोटे गांव है. 23 फ़रवरी 1991 की सर्द रात 11 बजे 4थी राजपुताना रायफ़ल्स के ‘जवानो’ ने इन दोनो गांव में क्रैक डाउन किया. हरेक घर से पुरुषों को यातना देने के लिये बाहर निकाल दिया गया. घर की औरतों पर बारी-बारी से ‘जवानों’ ने बलात्कार किया. इनमें 11 साल से लेकर 60 साल की 31 औरतें शामिल थीं. ‘जवानों’ ने एक 8 माह की गर्भवती औरत का भी बलात्कार किया, जिसके परिणामस्वरूप पेट में ही उसके बच्चे की हड्डियां टूट गईं.
आरम्भिक यातना के बाद शुरू हुआ सेना के ‘जवानों’ के खिलाफ़ प्रतिरोध का अन्तहीन सिलसिला. 8 मार्च 1991 को त्रेहगाम पुलिस स्टेशन में पहली एफ़आईआर दर्ज़ हुई. पुलिस वालों की शर्मनाक ‘कार्यवाई’ के बाद 21 अक्टूबर 1991 को इस केस को समाप्त कर दिया गया. लेकिन मजिस्ट्रेट के समक्ष क्लोज़र रिपोर्ट नहीं दर्ज़ की गई.
इसके पूर्व बी.जी वर्गीज़ के नेतृत्व में सरकार और सेना प्रायोजित प्रेस काउंसिल आफ़ इन्डिया की टीम ने कुनान पोशपोरा की घटना को झूठ करार दिया. इसने ‘जवानों’ के मनोबल को और बढ़ा दिया. इसी को आधार बना कर कोर्ट और पुलिस ने मामले की ठीक से तफ़्तीश ही नहीं की. ज़ाहिर है सेना को राज्य का वरद हस्त मिला हुआ था.
कहते हैं कश्मीरी औरतें दुनिया में सबसे अधिक यौनिक हिंसा की शिकार औरतों में से एक हैं. सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत के बाद कश्मीर में सेना ने पहला रेप बिदाई की बस से निकाल कर एक नववधु का किया था. तबसे लेकर आज तक औरतों के साथ सेना के दुर्वयव्हार का अन्तहीन सिलसिला जारी है. 10 अक्टूबर 2010 को शोपियां में 11 साल और 60 साल की दो औरतों के साथ हुए बलात्कार ने कश्मीर कॊ जला दिया था. तब से आज तक कश्मीर की औरतें सेना की ज़्यादतियां झेल रही हैं. वे यौनिक और मानसिक दोनो तरह से यातना की शिकार हैं. इनमें वे आधी विधवाएं हैं, जिनके शौहर को सेना उठा के ले गई और आज भी वे हर दस्तक पर चौंक उठती हैं, कहीं ये वही तो नहीं. इनमें वे मांएं हैं जिनके बच्चे अपनी आज़ादी की राह पर कुर्बान हो गए, जो सेना की गोली या पैलेट गन का शिकार हो गए. इनमे अगली पीढ़ी की वे बेटियां हैं जिनके भाई-पिता सुरक्षा बलों की यातना के शिकार हुए. (इनमें इस किताब की एक लेखिका के पिता भी शामिल हैं). आज ये औरतें प्रतिरोध आन्दोलन में आगे बढ़ कर हिस्सा ले रही हैं. आज उनके हाथों में पत्थर है, तख्तियां हैं, बैनर है. आज भी कश्मीर में औरत होना और देश में और हिस्सों में औरत होना बिल्कुल भिन्न बात है. कश्मीर की औरतों का दर्द आज प्रतिरोध में अभिव्यक्त हो रहा है. कुनान पोशपोरा में घटी उस घटना के विरोध में 23 फ़रवरी को आज कश्मीर की औरतों के प्रतिरोध दिवस के रूप में मनाया जाता है.
संवेदनशील लोगों के लिये अतीत की कुछ घटनाएं, परम्पराएं व इतिहास दिल में फ़ांस की तरह चुभते रहते हैं और वक्त आता है जब उन्हें इतिहास में अपनी भूमिका तय करनी ही पड़ती है. और अगर बात कश्मीर, उत्तर-पूर्व या युद्धरत क्षेत्रों की औरतों की हो तो दोहरी मानसिक यातना से गुज़रना होता है. एक, राज्य मशीनरी द्वारा औरतों के खिलाफ़ सोचे-समझे तरीके से की जाने वाली यौनिक हिंसा के आक्रमण से होने वाली यातना तो दूसरी ओर पितृसत्तात्मक सोच के कारण होने वाली यातना. ये यातना पीढ़ी दर पीढ़ी छन कर नई पीढ़ी पर तारी हो जाती है. ऐसा ही हुआ कुछ कश्मीरी युवतियों के साथ.
उन्होंने कश्मीर की घायल स्मृतियों को कुरेद कर कुनान पोशपोरा में 25 साल पहले हुई उस घटना को फ़िर से जीवित किया. अप्रैल 201३ में कश्मीर की 50 औरतों ने इस केस को फ़िर से खोलने के लिये हाईकोर्ट में पीआईएल दर्ज़ की. हालांकि कोर्ट ने इसे ‘प्री मच्योर्ड’ कह कर खारिज कर दिया. जब पीआईएल की तैयारी हो रही थी, तो रहस्यात्मक रूप से पुलिस ने मजिस्ट्रेट के समक्ष इस केस के क्लोज़र की पेशकश की. कुनान पोशपोरा के नागरिकों ने इसके खिलाफ़ प्रतिरोध जताया. कुपवारा के सेशन कोर्ट के जज ने इसके पुन: जांच के आदेश दिया.
कश्मीर की पांच युवतियों एसार बतूल, इफ़्रा बट्ट, समरीना मुश्ताक, मुनाज़ा राशिद, नताशा राथेर ने प्रकाशक ज़ुबान की श्रृंखला के लिये इस घटना को पुनर्रचित किया. ये लड़कियां कुनान पोशपोरा की घटना के वक्त या तो दो-तीन साल की थीं या पैदा ही नहीं हुईं थीं. लेकिन कश्मीर में जवान होना और एक लड़की के रूप में जवान होना बेहद जुदा अनुभव हैं. ये लेखिकाएं बहुत बाद में यह समझ पाईं कि उनकी मां और दादी उन्हें उस रास्ते से बचने की सलाह क्यों देती थीं जहां पर कोई फौजी खड़ा हो. जैसे-जैसे ये लेखिकाएं बड़ी हुईं, कुनान पोशपोरा में घटी घटनाएं उनके मन मस्तिष्क पर छाने लगीं. उन्होंने वकील और मानवाधिकार कार्य्कर्ता परवेज़ इमरोज़ के सहयोग से इस केस को पुन: सतह पर लाने का फ़ैसला किया. उन्होंने कश्मीर की औरतों से इसके खिलाफ़ एक पीआईएल पर हस्ताक्षर करने की अपील की. उनके सामने उन्होंने एक प्रश्न रखा – ‘क्या आपको कुनान पोशपोरा याद है?’ अन्त में 100 औरतें इस पर हस्ताक्षर करने को तैयार हो गईं. राज्य ने उनसे अपना पहचान पत्र जमा करने को कहा. कुछ औरतें विभिन्न कारणों से इससे पीछे हट गईं. अन्तत: कुल 50 औरतों ने पीआईएल दर्ज किया.
लेखिकाओं मे से एक इस किताब में कहती हैं -‘भारत एक आज़ाद मुल्क है. यहां सभी के लिये कुछ मौलिक अधिकारों की गारण्टी की गई है. भारतीय सुरक्षा बलों को भी कुछ आज़ादी है. हमारे हिसाब से इस आज़ादी का मतलब है- हत्या करना, विकलांग बनाना, यातना देना और बलात्कार करना….कश्मीरियों के लिये इस आज़ादी का अर्थ है – खामोश रहना, अपनी आवाज़ कभी न उठाना और भारत की अधीनता को स्वीकार करना. कश्मीर ही नहीं, उत्तर-पूर्व के अनेकों हिस्सों मे भारतीय सेना को ये ‘अधिकार’ मिले हुए हैं. अफ़्पसा के रूप में भारतीय राज्य ने उन्हें वह अमोघ अस्त्र दिया हुआ है जिसका इस्तेमाल करते हुए वे किसी को भी यातना दे सकते हैं, किसी की भी हत्या कर सकते हैं और किसी का भी बलात्कार कर सकते हैं. दुनिया की किसी भी अदालत में इस पर कोई अर्ज़ी दाखिल नहीं कर सकता. मणिपुर औरतों का प्रदर्शन हम कभी नहीं भूल सकते जिसमें उन्होंने सेना मुख्यालय के समक्ष नंगे हो कर प्रदर्शन किया था – ‘भारतीय सेना आओ हमारा बलात्कार करो’.
सम्भवत: पूरी दुनिया में शासक वर्ग की सेना को यह प्रशिक्षण दिया जाता है कि प्रतिरोध आन्दोलन को मानसिक रूप से तोड़ने के लिये उनकी औरतों का बलात्कार करो. लेकिन जहां प्रतिरोध जीने का सलीका बन जाता है वहां दमन की कोई भी इन्तेहां अन्तिम नहीं होती.
यही जज़्बा दिखाया है इस किताब की लेखिकाओं ने और कश्मीर की औरतों ने. लेखिकाओं ने न केवल कुनान पोशपोरा में घटे इस सोचे-समझे हमले से जुड़े दस्तावेजों को एकत्र किया, बल्कि इस दौरान उन्होंने उन शिकार औरतों और अन्य ग्रामीणों से तदनुभूतिक रिश्ता भी कायम किया. और बहुत ही समझदारी और संवेदनशील तरीके से इसे कलमबद्ध किया. उनके इस प्रयास से कुनान और पोशपोरा में 25 साल पहले हुई वह घटना फ़िर से सतह पर आ गई. सवाल फ़िर से उठने लगे.
कुछ वर्ष पहले दिल्ली में बलात्कार के बाद एक युवती की मौत ने सबको हिला दिया था. एक बड़ा आन्दोलन उठ खड़ा हुआ. जिसने संसद को अधिनियम बनाने पर मजबूर कर दिया. लेकिन यह किताब सवाल करती है जब कश्मीर में या उत्तरपूर्व में वर्दी में लोग बलात्कार करते हैं तो पूरे देश में कोई तूफ़ान नहीं उठ खड़ा होता. क्यों?????? 23 फ़रवरी केवल कश्मीर की औरतों का ही प्रतिरोध दिवस क्यों है, पूरे भारत की औरतों का प्रतिरोध दिवस क्यों नहीं.???
चिनार तले
आफ़रीन फ़रीदी
नंगे चिनार अपनी झाड़ियों मे सिहर उठे
चांदनी रात में अपने गांव को नींद से जागते देख
भयावह तूफ़ानी तरंग की तरह आते उस काफ़िले से दूर
चूल्हे के सामने पनाह के लिये तड़पते देख.
दर्द में भी वह चिलक उठी
जब उसके बच्चे ने हौले से कोख में उसे कोहनी मारी.
एक गरमाहट तारी हो गई
मानो कांगेर को और कस कर समेट लिया हो.
एक खिलता मौसम बेताब है, वसन्त के फूलने को……..
(इसी किताब से)