‘ख़बर इतिहास का पहला कच्‍चा ड्राफ्ट होती है’: ‘द पोस्‍ट’

‘ख़बर इतिहास का पहला कच्‍चा ड्राफ्ट होती है’ और ‘प्रेस को शासकों की नहीं शासितों की सेवा करनी चाहिए’ पत्रकारिता के इन दोनो उसूलों का पालन करते हुए ‘द पोस्‍ट फ़िल्म की प्रोटेगेनिस्‍ट कैथरिन ग्राहम ने अपने अंतरद्वंद को हल किया. बहुुचर्चित फ़िल्म ‘द पोस्‍ट’ देख कर उठी तो देर तक ये दोनो पंक्तियां कानों में गूंजती रही. एक निर्वाक् कर देने वाली फ़िल्म. खैर अब हालीवुड की फ़िल्मों यहां तक कि बालीवुड की फ़िल्मों के लिए भी यह टिप्‍पणी करना कि वे तकनीकी रूप से बेहद उन्‍नत हैं या कि उनकी एडिटिंग बेहद कसी हुयी है, एक सामान्‍य कमेंट है. फिल्‍ममेकिंग आमतौर पर जिस उंचाई पर पहुंच गयी है वहां तकनीक की सराहना करना दरअसल उस उंचाई को नहीं छू पाता. लेकिन किसी फिल्‍म के प्रस्‍तुतिकरण में स्क्रिप्‍ट और निर्देशन और अभिनय उस फिल्‍म को अन्‍य फ़िल्मों से अलग करते है. इस मायने में फ़िल्म ‘द पोस्‍ट’ बेजोड़ है.
‘द पोस्‍ट’ दरअसल फिल्‍म है इसकी सशक्‍त अभिनेत्री मेरिल स्‍ट्रीप की. उनका बेजोड़ अभिनय इस फिल्‍म को बेहद असरदार बना देता हैं. मेरिल स्‍ट्रीप ने इस पिक्‍चर में कैथरीन ग्राहम की भूमिका निभाई है. कैथरीन यानी के ग्राहम, अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार द वाशिंगटन पोस्‍ट की प्रकाशक मालकिन है. जो अपने पति की मौत के बाद अखबार का कामकाज देखती है. लाज़मी है कि उस वक्‍त उसे पितृसत्‍तात्‍मक सोच से भी निपटना पड़ता है.
ये कहानी बुनी गयी है (दरअसल यह एक सच्‍ची कहानी है और इन कागज़ात के चोरी होने का साहस करने वाले लोगों पर अमेरिका में पहले ही एक डाक्‍यूमेंट्री फिल्‍म ‘1971’ के नाम से बन चुकी है. जिसमें दिखाया गया है कि पेंटागन से इन सीक्रेट दस्‍तावेजों को चुराने वाले कुछ लोगों को सालों छिप कर जीवन जीना पड़ा था.) 1971 के अमेरिका की पृष्‍ठभूमि में. जब अमेरिका वियतनाम युद्ध में बुरी तरह से फंसा हुआ था. विगत तीस सालों से यह युद्ध लड़ा जा रहा था जहां हज़ारों अमरीकी सैनिकों ने अपनी जान गंवा दी थी. अमरीकी जनता इसका पुरज़ोर विरोध कर रही थी. समूचे अमेरिका में युद्ध विरोधी प्रदर्शन चल रहे थे. इसी माहौल में कुछ साहसी लोग अमेरिका के रक्षा आॅफिस पेंटागन से कुछ सीक्रेट कागज़ात चोरी करके उसे मीडिया में लीक कर देते हैं. अमेरिका के एक अन्‍य बड़े अखबार ‘द न्‍यूयार्क टाइम्‍स’ में पहली बार खबर छपती है. सुरक्षा का हवाला देकर अमरीकी सरकार उस पर वैधानिक कार्यवाई करती है. इसी समय वाशिंगटन पोस्‍ट को भी उससे सम्‍बन्धित दस्‍तावेज हासिल हो जाते हैं. अब सम्‍पादक बेन ब्रैडली ( अभिनेता टॉम हैन्‍क) और उसके सहयोगियों में मतभेद हो जाता है. एक पक्ष इन रिपोर्टों को छापने के पक्ष में है और दूसरा उसके विरोध में. अन्तिम फैसला के ग्राहम को करना है. जो इसका अर्थ अच्‍छी तरह जानती है कि रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद हो सकता है कि उसे जेल जाना पड़ता या अखबार को बन्‍द करना पड़ता. उसके कई पुरुष सलाहकार उसे ऐसा न करने की सलाह देते हैं, बल्कि उसे एक तरह से धमकाते भी हैं. ढेर सारे अन्‍तरद्वन्‍दों के बाद अन्‍तत: के ग्राहम अपने सम्‍पादक के साथ खड़ी होती है. और एक स्‍वतन्‍त्र प्रेस की भावना जीत जाती है.
समूची कहानी ऐसी सधी हुयी है कि दर्शक को एक थ्रिलर का मज़ा आता है. स्‍पीलबर्ग का निर्देशन निर्विवाद रूप से अद्भुत है. फिल्‍म के अन्‍त में मीडिया को व्‍हाइट हाउस में न घुसने देने का राष्‍ट्रपति के आदेश को तथ्‍यात्‍मक रूप देने के लिए स्‍पीलबर्ग निक्‍सन की वास्‍तविक आवाज़ को सुनाते हैं. वाह।
अमेरिका का मौजूदा निजाम यानी ट्रम्‍प भी मीडिया से कुछ वैसा ही भड़कता है. लेकिन उतने प्रतिगामी माहौल में भी वहां का मीडिया इतना रीढ़विहीन नज़र नहीं आता जितना कि आज के प्रतिगामी माहौल में भारतीय मीडिया लिजलिजा है. सम्‍भवत: ऐसा वहां के विगत के जनवादी आन्‍दोलनों का यह असर है। लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए वहां का मीडिया भी कारपोरेट साम्राज्‍यवाद की ही सेवा करता है. लेकिन इतने विचलन मे भी वहां के समाज में ऐसे पत्रकार, अखबार और फिल्‍ममेकर हैं जो सच्‍चाई को सामने लाने का साहस करते हैं और वहां की जनता उन्‍हें हाथोंहाथ लेती है.
यह फिल्‍म इसलिए और अधिक कन्‍ट्रास्‍ट पैदा करती है कि आज भारत में मीडिया के तमाम माध्‍यमों में जिस तरह के हालात हैं उससे लगभग घिन आती है. अगर सोशल मीडिया पर भी कोई खुलकर अपने विचार व्‍यक्‍त करता है तो उसे पकड़कर जेल में डाल दिया जाता है. अभिव्‍यक्ति के तमाम रास्‍तों को रोक कर लुच्‍चे लफ्ंगे खड़े हैं. जिन्‍होंने अपने सारे जीवन में एक भी इतिहास की किताब नहीं पढ़ी होगी वह इतिहास के नाम पर तलवार भांज रहे हैं. फिल्‍मकार सती जैसे कर्मकाण्‍ड को महिमामण्डित कर रहे हैं. तमाम सारे टीवी चैनल लगातार नफरत की भाषा बोल रहे हैं. वे सरकार की चाटुकारिता की सारी हदें पार कर चुके हैं.
ऐसे में ‘द पोस्‍ट’ मूवी एक आइना है जिसे भारतीय मीडिया संस्‍थानों के कोर्स में कम्‍पल्‍सरी कर देना चाहिए. आज जब सरकार राफेल सौदे को ‘सुरक्षा’ का हवाला देते हुए उस पर हुए खर्च का ब्‍यौरा देने को तैयार नहीं, ऐसे में भारत में ‘द पोस्‍ट’ जैसी फिल्‍में बनने में न जाने कितना वक्‍त लगेगा. जबकि साहसी पत्रकारिता का दम भरने वाले अखबार द इंडियन एक्‍सप्रेस ने कुलभूषण जाधव का सच सामने लाने वाले पत्रकार प्रवीण स्‍वामी को नौकरी से निकाल दिया है……………
‘द पोस्‍ट’ के साथ ही एक और शानदार फिल्‍म ‘डार्केस्‍ट आवर’ आयी है. इन दोनो का केन्‍द्रीय विषय एक ऐसा अन्‍तर्द्वन्‍द है जहां उनके प्रोटेगेनिस्‍ट को अहम फैसला करना है और दोनो ही फिल्‍में आस्‍कर के लिए नामांकित हैं…..

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