अब्बू की नज़र में जेल- 4

ट्रांजिट रिमान्ड के बाद एटीएस कार्यालय में रिमांड का पहला दिन। कमरे में दाखिल होते ही मुझे आदेश मिला कि मैं कमरे के एक कोने में बिछे मोटे गद्दे पर बैठ जाउं। इस गद्दे के अलावा कमरे में महज कुछ कुर्सियां व एक बड़ी मेज थी। पूरी बिल्डिंग नयी थी और नयेपन की खुशबू लिये थी। अज्ञात का भय अब्बू के चेहरे पर साफ दिख रहा था। वो पूरी तरह मुझसे सट कर चल रहा था और मेरी उंगली कस कर पकड़े था। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि वो अब्बू नहीं बल्कि मेरा ही विस्तार है। हम दोनों के गद्दे पर बैठते ही 23-25 साल का एक हष्ट पुष्ट नौजवान अपनी काली वर्दी में एके-47 लिये कमरे में दाखिल हुआ। उसके हाथ में हथकड़ी थी। वो तुरन्त मेरे सामने बैठते हुुए मुझे हथकड़ी लगाने लगा। अब्बू डर गया और अपने दोनों नन्हें हाथों को मेरे गले में डाल मेरे उपर लगभग झूल गया। मैंने इंस्पेक्टर की तरफ देखते हुए कहा- ‘इसकी क्या जरुरत है।’ उसने बड़े सौम्य भाव से कहा-‘चिन्ता मत कीजिए, यह महज एक औपचारिकता है।’ मैंने मन ही मन कहा कि यह कैसी औपचारिकता है। जिन्दगी में पहली बार ऐसी औपचारिकता से दो चार हो रहा था। हथकड़ी लगाने के बाद सभी लोग कमरे से निकल गये। मुझे अब्बू को समझाने का मौका मिल गया। मैंने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा-‘अब्बू, मैंने तुझे भगत सिंह की कहानी सुनाई थी ना!’ अब्बू ने तुरन्त कहा-‘हां हां याद है, जिन्होंने अंग्रेजों को मार भगाया था और उनको फांसी हो गयी थी।’ मैंने कहां-हां, उनको भी तो हथकड़ी लगा कर रखा गया था। अब तक अब्बू थोड़ा सामान्य हो गया था। अचानक उसने पूछा-‘मौसा तुम्हें हथकड़ी से दर्द तो नहीं हो रहा है।’ मैंने कहा-‘नहीं।’ अब्बू ने तुरन्त लाड़ में मेरी कलाई चूम ली। यह देख मेरी आंखे भर आयी। लेकिन तभी मेरी नज़र हथकड़ी पर लिखे शब्द पर ठहर गयी। आंसुओं के कारण धुंधला धुंधला दिख रहें शब्द अब स्पष्ट होने लगे, जैसे कोई गोताखोर धीरे धीरे पानी से ऊपर आता है। हथकड़ी पर लिखा था-‘मेड इन इंग्लैण्ड।’ मेरी आंखें ‘मेड इन चाइना’ पढ़ने की अभ्यस्त थी, इसलिए ‘मेड इन इंग्लैण्ड‘ पढ़ कर अजीब सा लगा। लेकिन अगले ही पल मुझे महसूस हुआ कि समय पिघल रहा है और मैं 1930-31 में पहुंच गया हूं। भगतसिंह को जो हथकड़ी पहनाई गयी होगी, उस पर भी तो यही लिखा होगा-‘मेड इन इंग्लैण्ड।’ इस भावपूर्ण अनुभव ने मुझे गर्व से भर दिया।
अचानक अब्बू ने मेरी तन्द्रा तोड़ी-‘मौसा क्या सोच रहे हो, देखो वो सामने।’ मेरे सामने एटीएस का एक इंस्पेक्टर खड़ा था। उसने शान्त भाव से पुनः अपनी बात दोहराई- यात्रा से काफी थके होगे और रात भी ज्यादा हो गयी है, अब सो जाइये। कल सुबह से काम (पूछताछ) शुरु होगा। उसके जाते ही दो लोगों ने कमरे में प्रवेश किया और अपना कम्प्यूटर निकाल कर मेज पर रख दिया। मैं समझ गया कि इन दोनों की रात की ड्यूटी है, मुझ पर नज़र रखने की।
आज अब्बू बिना प्रयास के ही सो गया। यात्रा की थकान का असर था शायद। लेकिन मुझे नींद नहीं आ रही थी। कमरे में पूरा अंधेरा था, लेकिन कम्प्यूटर स्क्रीन की रोशनी के कारण एक खास तरह के तिलिस्म का अहसास हो रहा था। यह तिलिस्म किसका है?
यात्रा की थकान मुझे भी थी, लेकिन मेरे लिए यह कोई सामान्य रात नहीं थी। मेरी ज़िदगी रुपी नदी अब एक नया मोड़ लेने को व्याकुल हो रही थी। रह रह कर उछाल मार रही थी। इसी प्रक्रिया में मैं लगातार करवटें बदल रहा था। मेरी हर करवट पर हाथ में बंधी हथकड़ी खनक उठती और अपने अपने कम्प्यूटर पर बैठे एटीएस के दोनों बन्दे चौक कर मेरी ओर देखने लगते। हथकड़ी खनकने और उनके चौक कर मेरी ओर देखने के इस दृश्य ने मेरे दिमाग में अंकित पुराने एक दृश्य को जगा दिया। थोड़ी देर दिमाग पर जोर डालने पर मुझे देहरादून में वरवर राव से मेरी पहली मुलाकात याद आ गयी। प्रारम्भिक औपचारिकता के बाद वरवर राव ने मुझसे पूछा-‘हिन्दी कविता में क्या चल रहा है।’ मैंने कहा-‘कुछ खास नही। लेकिन अभी किसी पत्रिका में मैंने एक अनुदित कविता पढ़ी। बहुत शानदार कविता थी। कविता कुछ इस तरह थी-‘उसने मुझे हथकड़ियां पहनायी,
लेकिन मेरी हथकड़ियों की झंकार से वह डर गया।’
वरवर राव मुस्कुराये और धीमें से बोले-‘यह मेरी ही कविता है।’
जब आप दुश्मन के चंगुल में होते हैं तो वरवर राव जैसे न जाने कितने लोग आपके साथ आकर खड़े हो जाते हैं। इस काव्य सत्य का यथार्थ अनुभव मुझे इसी रात हुआ।
दूसरे दिन 11-12 बजे अचानक से हड़बड़ी में मेरी हथकड़ी खोल दी गयी और इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात मुझे यह लगी कि हथकड़ी को छिपाने के अंदाज में वहां मौजूद आलमारी के पीछे डाल दिया गया। मैंने दिमाग पर जोर डाला तो अचानक मेरी समझ में आ गया-मुझसे मिलने के लिए सीमा विश्वविजय आने वाले हैं। करीब 15-20 मिनट बाद सीमा विश्वविजय और मेरे वकील कमरे में दाखिल हुए। मैं पहले से ही मानसिक रूप से तैयार हो चुका था कि क्या सन्देश देना है। मैंने सबके सामने ही जल्दी जल्दी सीमा को उल्टी भाषा (टील्उ षाभा) में कुछ जरुरी जानकारी दी। संयोग से सभी अपने अपने कामों में व्यस्त थे और किसी ने नोटिस नहीं लिया कि मैं किस भाषा में सीमा से बात कर रहा हूं। बचपन में ईजाद की गयी यह भाषा आज हमारे काम आयी।
सीमा विश्वविजय के जाते ही एटीएस के एक अधिकारी ने आश्चर्य से पूछा-‘ये आपकी सगी बहन थी।’ मैंने कहा-‘हां।’ उसने पुनः आश्चर्य जताते हुए कहा-‘कोई रोना धोना नहीं, कोई इमोशनल सीन क्रियेट नहीं हुआ। ऐसा लग रहा था, जैसे आप लोग किसी काफी हाउस में बैठे हों।’ फिर उसने व्यंग्य से कहा-‘माओवादियों में इमोशन नहीं होता क्या।’ मैंने शान्त भाव से कहा-‘होता है, बिल्कुल होता है। लेकिन आप जैसे लोगों के सामने इसका इजहार करना हम अपमानजनक समझते हैं।’ उसने पुनः व्यग्य से कहा-‘अच्छा तो इसमें भी राजनीति है।’ इस बार मैं कुछ नहीं बोला। अचानक से हथकड़ी खोलने वाला सिपाही वापस आया और आलमारी के पीछे से हथकड़ी निकाल कर मुझे पुनः पहनाने लगा। मेरे हथकड़ी लगते ही एक बार फिर सब एक एक कर कमरे से बाहर निकल गये। एक बार फिर कमरे में मैं और अब्बू बचे। यह समय मेरे लिए लिबरेटिंग समय [liberating time] होता था, जब सिर्फ मैं और अब्बू होते थे, हालांकि ऐसा समय बहुत कम आता था।
अब्बू तुरन्त मेरे पास आया और बोला-‘तुम्हारी बहन के आने पर उन्होंने तुम्हारी हथकड़ी क्यों हटा दी।’ मुझे पता था कि वह यह सवाल जरूर करेगा। मैंने कहा-‘ताकि मेरी बहन को गुस्सा ना आ जाय।’ अब उसका अगला सवाल था-‘उसे गुस्सा आता तो वह क्या करती।’ मैंने कहा-‘अब्बू मेरी बहन में एक जादुई ताकत है, जिससे वह सब कुछ उलट पुलट कर सकती है। और सच बताउ तो सबकी बहनों में एक जादुई ताकत होती है।’ अब्बू ने तुरन्त आंख फैलाकर कहा-‘मेरी बहन झिनुक मे भी है।’ हां बिल्कुल- मैंने कहा। लेकिन एक दिक्कत है। अब्बू को जैसे किसी कहानी के क्लाईमेक्स का इन्तजार था। उसी बेसब्र भाव से उसने पूछा-‘क्या दिक्कत है?’ मैंने कहा-‘सभी बहनों को एक दूसरे से मिलना होगा। देख, मेरी बहन तेरी बहन को जानती ही नहीं, उससे मिली ही नहीं। इसलिए यह जादू काम नहीं कर रहा।’ उसने खुश होते हुए कहा-‘मौसा अगली बार अपनी बहन से बोलना कि वो मेरी बहन से जरूर मिल ले और सबकी बहन से मिल ले और अपना जादू चलाए और सब कुछ उलट पुलट कर दे।’ बड़ा मजा आयेगा। अब्बू के चेहरे पर यह खुशी देख मेरा दिल भर आया और मैंने उसे चूम लिया। मेरे भीतर एक कविता कौधीं-
दुःख तुम्हें क्या तोड़ेगा, तुम दुःख को तोड़ दो।
केवल अपने सपनों को औरों के सपनों से जोड़ दो।।

(इसके लिखे जाने के बाद एक मुलाकात में सीमा ने बताया कि जामिया व रोशनबाग की बहनों महिलाओं ने सचमुच सब कुछ उलट पुलट दिया।)

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