अब्बू की नज़र में जेल-5

जेल में शनिवार का दिन हमारे लिए बहुत खास होता है। इस दिन अब्बू की मुलाकात अपनी मौसी से और मेरी मुलाकात अपनी पत्नी/प्रेमिका/फाइली [co-accused] अमिता से होती है। हालांकि यह मुलाकात महज आधे घण्ठे की होती है मगर फिर भी हमें इस मुलाकात का बेसब्री से इन्तजार रहता है। अब्बू तो लगभग हर दिन एक दो बार पूछ ही लेता है-मौसा शनिवार कब आयेगा, या शनिवार आने में अभी कितना दिन बाकी है। शनिवार के दिन सुबह सुबह तैयार होकर अब्बू माइक की तरफ ही कान लगाये रहता था। हालांकि हमारा नाम 12 बजे के आसपास ही पुकारा जाता था। नाम सुनते ही अब्बू बिना मेरा हाथ पकड़े ही आगे आगे गेट तक भाग जाता था, लेकिन यहां पहुंच कर वह ठिठक जाता और मेरा इंतजार करता क्योकि उसे पता था कि अब आगे का रास्ता अपमानजनक तलाशियों से होकर जाता है। सभी बैरकों से मुलाकाती कैदी जब गेट पर इकट्ठा हो जाते तो हमें जोड़े में खड़े होने का आदेश दिया जाता। फिर हमारी गिनती होती-2 4 6 8 10। सुबह की गिनती और फिर बैरक की अन्य दो गिनती (दोपहर और फिर रात की) भी इसी तरह जोड़े में होती। जोड़ा बनाने में पीछे रहने वाले कैदी को अपमानजनक गालियों से नवाजा जाता। अब्बू ने एक बार पूछ ही दिया- मौसा यहां गिनती 1 2 3 4 5 6 क्यों नहीं होती। 2 4 6 8 क्यो होती है। मुझे भी कोई जवाब नहीं सूझा तो मैंने कह दिया कि यहां की गिनती यहीं है। लेकिन अब्बू संतुष्ट नहीं हुआ। फिर मैंने मन ही मन सोचा कि चूंकि यहां जिंदगी ही आधी है, इसलिए शायद गिनती भी आधी है। या शायद यहां सिर्फ पुरूष पुरूष हैं इसलिए विषम नम्बर को निकाल दिया गया है। बाद में मैंने सोचा था कि इसके बारे में पता करूंगा कि आखिर ऐसा क्यो है। लेकिन बाद में मैं भूल गया।
यहां जब लोग महिला मुलाकात के लिए जाते है तो अपने प्यार व सरोकार का इजहार करने के लिए कुछ सामान भी ले जाते है। जैसे बिस्किट नमकीन का पैकेट आदि। जो ज्यादातर यहां की कैन्टीन से खरीदे हुए होते हैं। लेकिन उधर से यानी महिलाओं की तरफ से हाथ से बनाया सामान ज्यादा आता है, जैसे दही, चटनी, पराठा आदि, जो कुछ महिलाएं अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए या पैसे के बल पर किचेन में घुस कर बना लेती थी। गरीब पुरूष व महिलाएं अक्सर खाली हाथ ही आते। असमानता जेल में भी पीछा नहीं छोड़ती। मेरे दोस्त बन चुके कैदियों के घर से यदि कोई अच्छा खाने का सामान आता तो मेरे ये दोस्त कैदी उसका कुछ हिस्सा ‘भाभी जी’ के लिए ले जाने को कहते। मेरे ना कहने पर वो अक्सर इसरार करते तो मैं रख लेता, नही ंतो हम अक्सर सिर्फ पारले जी लेेकर जाते थे। अब्बू अब तक यहां का रंग ढंग काफी कुछ समझ चुका था। मैं अक्सर मजे में उससे पूछता-‘अब्बू जेल में वो कौन से टू ‘जी’ हैं जिनका बोलबाला है?’ अब्बू को भी इसका जवाब देने में बड़ा मजा आता- ‘मौसा, पारले जी और गांधी जी।’ आसपास के लोग अब्बू को छेड़ने के लिए यह सवाल अक्सर पूछते और अब्बू बड़े मजे से इसका जवाब देता। वह जान चुका था कि यहां कई सुविधाएं सिपाही या नम्बरदार को पैसा देने से मिल जाता है।
जेल में किसी भी तरह के मीठे आइटम पर पाबंदी है। मीठे के नाम पर सिर्फ पारले जी ही मिलता है। इसलिए कभी कभी अब्बू मीठे के लिए मचल जाता। हम दोनो को ही मीठा बहुत पसंद है। ऐसे समय पर अब्बू बोल ही देता कि मौसा सिपाही को पैसे देकर मेरे लिए बाहर से चाकलेट मंगवा दो ना। लेकिन मेरे कुछ बोलने से पहले ही वह अपना कदम वापस ले लेता- नहीं मौसा रहने दो, ये बुरी बात है। मैं पारले जी ही खा लूंगा। इतने छोेटे बच्चे को अपने आप पर नियंत्रण करते देख कर मेरा मन भारी हो जाता। एक बार अब्बू ने पूछ ही लिया कि मौसा यहां मीठा खाने पर मनाही क्यो है? मैं क्या जवाब देता। मैंने वही घिसा पिटा जवाब दोहराया- ‘क्योकि यह जेल है।’ अब्बू संतुष्ठ नहीं हुआ और आगे पूछा- क्या जेलर को मीठा पसन्द नहीं। मैंने कहा, नहीं उसे तो मीठा बहुत पसन्द है, तभी तो वह इतना मोटा हो गया है। अब्बू ने फिर आगे पूछा और मोदी को? मैंने अब गम्भीर होकर कहा- सुन अब्बू! इन सब को मीठा पसन्द है। लेकिन कैदी लोग मीठा खाये, ये इनको पसन्द नहीं। अब्बू ने तुरन्त कहा-क्यों? मैंने कहा-‘क्योकि मीठा खाकर हम खुश हो जायेंगे।’ आगे की बात अब्बू ने ही पूरी कर दी- और हम खुश रहें ये उन लोग को पसन्द नहीं। यह कहकर वह भाग गया और हाते में चारो तरफ दौड़ने लगा।
खैर, हमने अपनी तलाशी दी, अपना सामान चेक करवाया। अब्बू अपनी तलाशी का नम्बर आने से पहले ही अपने जेब के भीतरी अस्तर उलटने लगता। यह देख मुझे हरिश्चंद्र पाण्डेय की एक कविता याद आ जाती थी-‘बच्चे अपनी तलाशी में जेबों के अस्तर तक उलट देते हैं, इसलिए बच्चों के बारे में जब भी सोचो गम्भीरता से सोचो।’ खैर, तलाशियों का दौर खत्म होने के बाद हम एक बड़े हाल की ओर चल दिये, जहां अपनी अपनी महिला सम्बन्धियों से हमारी मुलाकात होनी थी। अब्बू मेरा हाथ पकड़कर मुझे खींचे जा रहा था, तभी पीली वर्दी पहने नम्बरदार ने तेज आवाज में हमें रुकने को कहा। हम जहां थे वहीं ठिठककर खड़े हो गये। उतनी ही तेज आवाज में दूसरा आदेश हुआ कि हम तुरन्त जोड़े में बैठ जाये। थोड़ी अफरातफरी के बाद सब जोड़े में बैठ गये। अब्बू का चेहरा थोड़ा मायूस हो गया कि अब यह कौन सी मुसीबत आ गयी। तभी हमने देखा कि हमारे पीछे से जेल का एक बड़ा अधिकारी अपने लाव लस्कर के साथ अवतरित हो गया। तो हमें रोकने का यह कारण था। उस जेल अधिकारी ने आदेशात्मक स्वर में पूछा-‘इनके सामान की तलाशी ली गयी?’ आदेश देने के साथ ही वह आगे बढ़कर एक कैदी का झोला खुद ही चेक करने लगा। उसके झोले में भेलपूरी थी। उस जेल अधिकारी ने उसे डांटते हुए कहा-‘मुलाकात के लिए जाते हो या पिकनिक मनाने।’ यह कहते हुए वह अपने लाव लश्कर के साथ आगे बढ़ गया। हम सबने चैन की सांस ली। अब्बू थोड़ा खीझ कर बोला-‘यह बिना हम लोगों को डिस्टर्ब किये भी तो जा सकता था।’ यह बात बोल कर वह मुलाकात कक्ष की ओर भाग गया। लेकिन अब्बू की इस बात ने मेरी विचार प्रक्रिया को तेज कर दिया। भारत में ‘पावर’ के प्रति एक अजीब सी सनक है। उस जेल अधिकारी को यह बर्दाश्त नहीं हुआ कि वह बिना कुछ बोले यहां से निकल जाये। उसके पास पावर है तो इसे बिना दिखाये वो कैसे गुजर जाये। दिखावा सिर्फ पैसे का ही नहीं पावर का भी होता है। सड़क पर ड्यूटी करते एक आम सिपाही और किसी भी आफिस के चपरासी तक में आप इस सनक/दिखावे के दर्शन कर सकते हैं। भारत में यह एक विकराल समस्या है। विशाल ‘लोकतान्त्रिक’ छाते के नीचे लगभग सभी संस्थाएं राजशाही युग के पदसोपान क्रम में काम करती हैं। इसी सन्दर्भ में मुझे ‘फूको’ का मशहूर कथन भी याद आया-‘पावर करप्ट्स’। यही सब सोचते हुए मैं हाल के पास पहुंच गया। अब्बू पहले ही भाग कर वहां पहुंच चुका था।
यहां पहुंचकर सबसे पहले अच्छी जगह पर कब्जा करने के लिए होड़ लग जाती। पैसे वालों के लिए सिपाही पहले से ही स्थान बुक किये रखते है। बहरहाल फर्श पर अपना अपना चद्दर या अखबार बिछाकर हम सब बैठ जाते और महिलाओं का इन्तजार करने लगते। अब्बू बेसब्र होकर हाल में घूमने लगा। अब्बू की बेसब्री का कारण महज उसकी मौसी ही नहीं थी, बल्कि वे बच्चें भी थे जो महिलाओं के साथ आते थे। यहां 6 साल तक के बच्चों को मां के साथ रहने का अधिकार है। हर शनिवार की मुलाकात के कारण अब्बू की यहां आने वाले कुछ बच्चों से दोस्ती हो गयी है। आधे घण्टे ये बच्चें आपस में खेलते, और धमाचैकड़ी करते थे। इन बच्चों को देखकर हम कुछ समय के लिए ही सही यह भूल जाते कि हम जेल में हैं। बीच बीच में अब्बू हमारे पास आ जाता और पूछता-मौसी तुम कैसी हो! फिर पूछता, मौसा अभी कितना समय बचा है। जब मैं बोलता कि जा अभी खेल ले। अभी समय है, तो वह खुश हो जाता। लेकिन आधे घण्टे कपूर की तरह उड़ जाते। और सिपाही आकर हमें उठाने लगता। यह देख अब्बू धीमी चाल और दुःखी मन से हमारी तरफ आता। कभी कभी पूछता-‘मौसा तुमने मौसी से सारी बातें कर ली?’ मेरा जवाब सुने बिना कहता- ‘काश मौसी भी हमारे साथ चलती।’ एक दिन उसने गम्भीरता से पूछा- ‘मौसा, हम मौसी के साथ ही क्यो नहीं रह सकते।’ फिर उसने खुद ही जवाब दे दिया, क्योकि इससे हम खुश रहेंगे।
एक शनिवार की मुलाकात में अब्बू को उसका प्यारा दोस्त सूरज नहीं दिखायी दिया। अब्बू और सूरज दोनों लगभग 6 साल के है। इसलिए दोनो में अच्छी दोस्ती हो गयी थी। अब्बू ने तुरन्त मौसी से पूछा- ‘मौसी आज सूरज क्यो नहीं आया।’ मौसी उसके इस सवाल से थोड़ा असहज हो गयी। खुद को संयत करते हुए उसने अब्बू से कहा कि अब्बू उसकी तबियत खराब हो गयी थी, इसलिए उसे घर भेज दिया गया। अब्बू बुझे मन से दूसरे बच्चों के साथ खेलने चला गया। अब्बू के जाने के बाद अमिता ने सूरज के बारे में जो वास्तविक घटना बयां की वह हदयविदारक थी। जेल प्रशासन को जैसे ही पता चला कि सूरज 6 साल का पूरा हो गया है, उसने उसे घर भेजने का आदेश दे दिया। लेकिन झारखण्ड के किसी गांव में रहने वाले इन लोगों के घर में कोई नहीं था जो सूरज की देखभाल कर सके। लिहाजा जबर्दस्ती सूरज को उसकी मां से छीन कर उसे अनाथालय में डाल दिया गया। किस तरह से जेल प्रशासन ने मां से उसके कलेजे के टुकड़े को अलग किया, यह बताते बताते अमिता खुद रोने लगी। यह दारूण दृश्य अमिता की आंख के सामने ही घटित हुआ था। मेरा मन भी भारी हो गया।
मैंने सोचा कि ऐसे ना जाने कितने नियम कानून की गिरफ्त में यहां जिंदगी दम तोड़ रही है। इसी बीच मैंने देखा कि अब्बू व अन्य बच्चे खेलते खेलते हाल के बाहर निकल गये। सिपाही उन्हें रोकने के लिए उनके पीछे दौड़ा। उन्होंने हाल के बाहर ना जाने का नियम जो तोड़ दिया था। मुझे अच्छा लगा कि कहीं तो जिंदगी भी नियमों कानूनों की धज्जियां उड़ा रही है।

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