‘क्लॉड ईथरली’ – गजानन माधव मुक्तिबोध

Claude Eatherly

Claude Eatherly

विगत 30 जुलाई को ‘हिरोशिमा’ और ‘नागासाकी’ पर परमाणु बम गिराने वाले पायलटों के समूह के अन्तिम व्यक्ति की मृत्यु हो गयी। परमाणु बम गिराने से पहले हिरोशिमा व नागासाकी के मौसम की रेकी करने वाले पायलट का नाम “क्लाड इथरली” था। क्लाड इथरली की रिपोर्ट के आधार पर उन दोनो शहरो पर बम गिराया गया। क्लाड इथरली को यह नही पता था कि यह परमाणु बम क्या है? उसने इसे सामान्य बम ही समझा था। लेकिन बम गिरने के बाद जब उसने इसकी विभीषिका देखी तो बेहद विचलित हो गया। उसकी अन्तरात्मा उसे बुरी तरह झकझोरने लगी। वह युद्ध विरोधी अभियानों में शामिल होने लगा। हिरोशिमा व नागासाकी के प्रभावित बच्चों की विभिन्न तरीके से मदद भी करने लगा। क्लाड इथरली ने अपनी ‘वार हीरो’ की इमेज को तोड़ने के लिए कई छोटे मोटे अपराध भी जानबूझ कर किये,ताकि वह अपनी उस इमेज से छुटकारा पा जाये जो इस बर्बर नरसंहार में शामिल होने से बनी थी। उसने अपनी अन्तरात्मा की आवाज को सुनते हुए एक बेहद महत्वपूर्ण किताब भी लिखी- Burning Conscience. लेकिन इसके बावजूद उसकी बेचैनी खत्म नहीं हुई, बल्कि बढ़ती ही गयी। उसे लगता था कि इतिहास के इस सबसे अधिक बर्बर नरसंहार का वह भी बराबर का जिम्मेदार है। और अन्ततः वह पागल हो गया। इसी स्थिति में 1978 में उसकी मृत्यु हुई।
‘मुक्तिबोध’ ने इसी नाम से एक कहानी लिखी है। यह कहानी प्रकट रूप में तो ‘क्लाड इथरली’ पर नही है, लेकिन उन सब पर है जो अपनी अन्तरात्मा की आवाज सुनते है और उसके अनुसार काम भी करते है। इस कहानी में मुक्तिबोध ने एक महत्वपूर्ण सूत्रीकरण किया है- “जो आदमी आत्मा की आवाज कभी कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उसने छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। जो आत्मा की आवाज को लगातार सुनता है, और कहता कुछ नहीं, वह भोला भाला सीधा-सादा बेवकूफ है। जो उसकी आवाज बहुत ज्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज विरोधी तत्त्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदमी आत्मा की आवाज जरूरत से ज्यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है, वह निहायत पागल है। पुराने जमाने में सन्त हो सकता था। आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है।”
प्रस्तुत है वह कहानी

पीली धूप से चमकती हुई ऊँची भीत जिसके नीले फ्रेम में काँचवाले रोशनदान दूर सड़क से दीखते हैं।
मैं सड़क पार कर लेता हूँ। जंगली, बेमहक लेकिन खूबसूरत विदेशी फूलों के नीचे ठहर-सा जाता हूँ कि जो फूल, भीत के पासवाले अहाते की आदमकद दीवार के ऊपर फैले सड़क के बाजू पर बाँहें बिछाकर झुक गये हैं। पता नहीं कैसे, किस साहस से व क्यों उसी अहाते के पास बिजली का ऊँचा खम्भा—जो पाँच-छह दिशाओं में जानेवाली सूनी सड़कों पर तारों की सीधी लकीरें भेज रहा है-मुझे दीखता है और एकाएक खयाल आता है कि दुमंजिला मकानों पर चढ़ने की एक उँची निसैनी उसी से टिकी हुई है। शायद, ऐसे मकानों की लम्ब-तड़ंग भीतों की रचना अभी पुराने ढंग से होती है।
सहज, जिज्ञासावश देखें, कहाँ, क्या होता है। दृश्य कौन-से, कौन से दिखाई देते हैं ! मैं उस निसैनी पर चढ़ जाता हूँ और सामनेवाली पीली ऊँची भीत के नीली फ्रेमवाले रोशनदान में से मेरी निगाहें पार निकल जाती हैं।
और, मैं स्तब्ध हो उठता हूँ।
छत से टँगे ढिलाई से गोल-गोल घूमते पंख के नीचे, दो पीली स्फटिक-सी तेज आँखें और लम्बी शलवटों भरा तंग मोतिया चेहरा है जो ठीक उन्हीं ऊँचे रोशनदानों में से, भीतर से बाहर, पार जाने के लिए ही मानो अपनी दृष्टि केन्द्रित कर रहा है। आँखों से आँखें लड़ पड़ती हैं। ध्यान से एक-दूसरे की ओर देखती हैं। स्तब्ध एकाग्र।
आश्चर्य ?
साँस के साथ शब्द निकले। ऐसी ही कोई आवाज उसने भी की होगी !
चेहरा बहुत बुरा नहीं है, अच्छा है, भला आदमी मालूम होता है। पैण्ट पर शर्ट ढीली पड़ गयी है। लेकिन यह क्या !
मैं नीचे उतर पड़ता हूँ। चुपचाप रास्ता चलने लगता हूँ। कम से कम दो फर्लांग दूरी पर एक आदमी मिलता है। सिर्फ एक आदमी ! इतनी बड़ी सड़क होने पर भी लोग नहीं ! क्यों नहीं ?
पूछने पर वह शख्स कहता है, “शहर तो इस पार है, उस ओर है; वहीं कहीं इस सड़क पर बिल्डिंग का पिछवाड़ा पड़ता है। देखते नहीं हो !”
मैंने उसका चेहरा देखा ध्यान से। बायीं और दाहिनी भौंहें नाक के शुरू पर मिल गयी थीं। खुरदरा चेहरा, पंजाबी कहला सकता था। पूरा जिस्म लचकदार था। वह निःसन्देह जनाना आदमी होने की सम्भावना रखता है ! नारी तुल्य पुरुष, जिनका विकास किशोर काव्य में विशेषज्ञों का विषय है।
इतने में, मैंने उससे स्वाभाविक रूप से, अति सहज बनकर पूछा, “यह पीली बिल्डिंग कौन-सी है।” उसने मुझे पर अविश्वास करते हुए कहा, “जानते नहीं हो ? यह पागलखाना है-प्रसिद्ध पागलखाना !”
“अच्छा…!” का एक लहरदार डैश लगाकर मैं चुप हो गया और नीची निगाह किये चलने लगा।
और फिर हम दोनों के बीच दूरियाँ चौड़ी होकर गोल होने लगीं। हमारे साथ हमारे सिफर भी चलने लगे।
अपने-अपने शून्यों की खिड़कियाँ खोलकर मैंने—हम दोनों ने—एक-दूसरे की तरफ देखा कि आपस में बात कर सकते हैं या नहीं ! कि इतने में उसने मुझसे पूछा, “आप क्या काम करते हैं ?”
मैंने झेंपकर कहा, “मैं ? उठाईगिरी समझिए।”
“समझें क्यों ? जो हैं सो बताइए।”
“पता नहीं क्यों, मैं बहुत ईमानदारी की जिन्दगी जीता हूँ; झूठ नहीं बोला करता, पर स्त्री को नहीं देखता; रिश्वत नहीं लेता; भ्रष्टाचारी नहीं हूँ; दगा या फरेब नहीं करता; अलबत्ता कर्ज मुझ पर जरूर है जो मैं चुका नहीं पाता। फिर भी कमाई की रकम कर्ज में जाती है।
इस पर भी मैं यह सोचता हूँ कि बुनियादी तौर से बेईमान हूँ। इसीलिए, मैंने अपने को पुलिस की जबान में उठाईगिरा कहा। मैं लेखक हूँ। अब बताइए, आप क्या हैं ?”
वह सिर्फ हँस दिया। कहा कुछ नहीं। जरा देर से उसका मुँह खुला। उसने कहा, “मैं भी आप ही हूँ।”
एकदम दबकर मैंने उससे शेकहैण्ड किया (दिल में भीतर से किसी ने कचोट लिया। हाल ही में निसैनी पर चढ़कर मैंने उस रोशनदान में से एक आदमी की सूरत देखी थी; वह चोरी नहीं तो क्या था। सन्दिग्धावस्था में उस साले ने मुझे देख लिया।)
“बड़ी अच्छी बात है। मुझे भी इस धन्धे में दिलचस्पी है, हम लेखकों का पेशा इससे कुछ मिलता जुलता है।”
इतने में भीमाकार पत्थरों की विक्टोरियन बिल्डिंग के दृश्य दूर से झलक रहे थे। हम खड़े हो गये हैं। एक बड़े-से पेड़ के नीचे पान की दूकान थी वहाँ। वहाँ एक सिलेटी रंग की औरत मिस्सी और काजल लगाये हुए बैठी हुई थी।
मेरे मुँह से अचानक निकल पड़ा, “तो यहाँ भी पान की दूकान है ?”
उसने सिर्फ इतना ही कहा, “हाँ, यहाँ भी।”
और मैं उन अधविलायती नंगी औरतों की तस्वीरें देखने लगा जो उस दूकान की शौकत को बढ़ा रही थीं।
दूकान में आईना लगा था। लहर थीं धुँधली, पीछे के मसाले के दोष से। ज्यों ही उसमें मैं अपना मुँह देखता, बिगड़ा नजर आता। कभी मोटा, लम्बा तो कभी चौड़ा। कभी नाक एकदम छोटी, तो एकदम लम्बी और मोटी ! मन में बड़ी वितृष्णा भर उठी। रास्ता लम्बा था, सूनी दुपहर। कपड़े पसीने से भीतर चिपचिया रहे थे। ऐसे मौके पर दो बातें करनेवाला आदमी मिल जाना समय और रास्ता कटने का साधन होता है।
उससे वह औरत कुछ मजाक करती रही। इतने में चार-पाँच आदमी और आ गये। वे सब घेरे खड़े रहे। चुपचाप कुछ बातें हुईं। मैंने गौर नहीं किया। मैं इन सब बातों से दूर रहता हूँ। जो सुनाई दिया उससे यह जाहिर हुआ कि वे या तो निचले तबके में पुलिस के इनफार्मर्स हैं या ऐसे ही कुछ !
हम दोनों ने अपने-अपने और एक-दूसरे के चेहरे देखे ! दोनों खराब नजर आये। दोनों रूप बदलने लगे। दोनों हँस पड़े और यही मजाक चलता रहा।
पान खाकर हम लोग आगे बढ़े। पता नहीं क्यों मुझे अपने अनजबी साथी के जनानेपन में कोई ईश्वरीय अर्थ दिखाई दिया। जो आदमी आत्मा की आवाज दाब देता है, विवेक चेतना को घुटाले में डाल देता है। उसे क्या कहा जाए ! वैसे, वह शख्त भला मालूम होता था। फिर क्या कारण है कि उसने यह पेशा इख्तियार किया ! साहसी, हाँ, कुछ साहसिक लोग पत्रकार या गुप्तचर या ऐसे ही कुछ हो जाते हैं, अपनी आँखों में महत्त्वपूर्ण बनने के लिए, अस्तित्व की तीखी संवेदनाएँ अनुभव करने और करते रहने के लिए !
लेकिन प्रश्न यह है कि वे वैसा क्यों करते हैं ! किसी भीतरी न्यूनता के भाव पर विजय प्राप्त करने का यह एक तरीका भी हो सकता है। फिर भी, उसके दूसरे रास्ते भी हो सकते हैं। यही पेशा क्यों ? इसलिए, उसमें पेट और प्रवृत्ति का समन्वय है ! जो हो, इस शख्त का जनानापन खास मानी रखता है।
हमने वह रास्ता पार कर लिया और अब हम फिर से फैशनेबल रास्ते पर आ गये, जिसके दोनों ओर युकलिप्टस के पेड़ कतार बाँधे खड़े थे। मैंने पूछा, “यह रास्ता कहाँ जाता है ? उसने कहा, “पागलखाने की ओर।” मैं जाने क्यों सन्नाटे में आ गया।
विषय बदलने के लिए मैने कहा, “तुम यह धन्धा कब से कर रहे हो ?”
उसने मेरी तरफ इस तरह देखा मानो यह सवाल उसे नागवार गुजरा हो।
मैं कुछ नहीं बोला। चुपचाप चला, चलता रहा। लगभग पाँच मिनट बाद जब हम उस भैरों के गेरुए, सुनहले, पन्नी जड़े पत्थर तक पहुँच गये, जो इस अत्याधिक युग में एक तार के खन्भे के पास श्रद्धापूर्वक स्थापित किया गया था, उसने “कहा मेरा किस्सा मुख्तसर है। लार्ज शरम दिखावे की चीजें हैं। तुम मेरे दोस्त हो, इसलिए कह रहा हूँ। मैं एक बहुत बड़े करोड़पति सेठ का लड़का हूँ। उनके घर में जो काम करनेवालियाँ हुआ करती थीं, उनमें से एक मेरी माँ है, जो अभी भी वहीं है। मैं, घर से दूर, पाला-पोसा गया, मेरे पिता के खर्चे से ! माँ पिलाने आती। उसी के कहने से मैंने बमुश्किल तमाम मैट्रिक किया। फिर, किसी सिफारिश से सी.आई.डी. की ट्रेनिंग में चला गया। तबसे यही काम कर रहा हूँ। बाद में पता चला कि वहाँ का खर्च भी वही सेठ देता है। उसका हाथ मुझ पर अभी तक है। तुम उठाईगिरे हो, इसलिए कहा ! अरे ! वैसें तो तुम लेखक-वेखक भी हो। बहुत से लेखक और पत्रकार इनफॉर्मर हैं ! तो इसलिए मैंने सोचा, चलो अच्छा हुआ। एक साथी मिल गया।”
उस आदमी में मेरी दिलचस्पी बहुत बढ़ गयी। डर भी लगा। घृणा भी हुई। किस आदमी से पाला पड़ा। फिर भी, उस अहाते पर चढ़कर मैं झाँक चुका था इसलिए एक अनदिखती जंजीर से बँध तो गया ही था।
उस जनाने ने कहना जारी रखा, “उस पागलखाने में कई ऐसे लोग डाल दिये गये हैं जो सचमुच आज की निगाह से बड़े पागल हैं। लेकिन उन्हें पागल कहने की इच्छा रखने के लिए आज की निगाह होना जरूरी है।”
मैंने उकसाते हुए कहा, “आज की निगाह से क्या मतलब ?”
उसने भौंहें समेट लीं। मेरी आँखों में आँखें डालकर उसने कहना शुरू किया, “जो आदमी आत्मा की आवाज कभी कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उसने छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। आत्मा की आवाज को लगातार सुनता है, और कहता कुछ नहीं, वह भोला भाला सीधा-सादा बेवकूफ है। जो उसकी आवाज बहुत ज्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज विरोधी तत्त्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदी आत्मा की आवाज जरूरत से ज्यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है, वह निहायत पागल है। पुराने जमाने में सन्त हो सकता था। आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है।”
मुझे शक हुआ कि मैं किसी फैण्टेसी में रह रहा हूँ। यह कोई ऐसा वैसा कोई गुप्तचर नहीं है। या तो यह खुद पागल है या कोई पहुँचा हुआ आदमी है ! लेकिन वह पागल भी नहीं है न वह पहुँचा हुआ है। वह तो सिर्फ जनाना आदमी है या वैज्ञानिक शब्दावली प्रयोग करूँ तो यह कहना होगा कि वह है तो जवान पट्ठा लेकिन उसमें जो लचक है वह औरत के चलने की याद दिलाती है!
मैंने उसे पूछा, “तुमने कहीं ट्रेनिंग पायी है ?”
“सिर्फ तजुर्बे से सीखा है ! मुझे इनाम भी मिला है।”
मैंने कहा, “अच्छा !”

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The Internet’s Own Boy: The Story of Aaron Swartz

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पिछले माह 27 जून को अमरीका में ‘एरान स्वार्ट्ज’ [Aaron Swartz] पर एक बेहद रोचक और सूचनाप्रद डाक्यूमेन्ट्री रिलीज हुई। शायद आपको याद होगा कि पिछले वर्ष की शुरूआत में अमरीकी मीडिया में एरान स्वार्ट्ज की मौत की खबर छायी हुई थी। एरान ने 11 जनवरी 2013 को आत्महत्या कर ली थी। एरान एक कम्प्यूटर प्रोग्रामर, लेखक, राजनीतिक संगठनकर्ता और हैक्टिविस्ट थे। 2012 के अंत में अमरीकी खुफिया एंजेसी ‘एफबीआई’ ने उन्हे गिरफ्तार कर लिया था। उन पर आरोप था कि उन्होने अमरीका स्थित ‘एमआईटी इन्स्टीट्यूट’ की लाइब्रेरी से कई जीबी डाबा चुराया है। कुछ माह जेल में रहने के बाद उन्हे बेल मिल गयी थी, लेकिन उन पर जिन धाराओें में मुकदमा चलाया जा रहा था उसमें अधिकतम सजा आजीवन कारावास की थी। जेल में उन्हे तन्हाई में रखा गया था। जेल से आने के बाद वे डिप्रेशन में चले गये और 11 जनवरी को उन्होने आत्महत्या कर ली।
दुनिया में उनकी इमेज एक ‘हैकर’ के रूप में है। लेकिन यह उनका अधूरा परिचय है। इस फिल्म से आपको पता चलेगा कि एरान मुख्यतः एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे। इंटरनेट पर सरकार और बड़ी कम्पनियों के वर्चस्व के खिलाफ दुनिया भर में चल रही लड़ाई में वे अग्रिम पंक्ति में थे। अमरीकी में इंटरनेट पर बड़ी कम्पनियों के वर्चस्व को मजबूत बनाने के लिए जब ‘सोपा’ [Stop Online Piracy Act] जैसा कुख्यात कानून आया तो इसके खिलाफ एरान सड़कों पर भी उतरे और कई विरोध प्रदर्शनों को संगठित किया। अन्ततः सरकार को यह कानून वापस लेना पड़ा।
फिल्म के अंत में एरान जैसे लोगो का महत्व बहुत शिद्दत से समझ में आता है। 15 साल के ‘जैक एन्ड्राका’ ने ‘पैन्क्रियाज कैन्सर टेस्ट’ में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की। उसने अपनी सफलता का श्रेय एरान को देते हुए बताया कि यदि एरान ने सम्बन्धित जर्नलों को हैक करके नेट पर फ्री में ना डाला होता तो मै इन जर्नलों को पैसे देकर नही प्राप्त कर सकता था (जिनकी कीमत प्रायः 10 पेज के लिए 35 डालर तक होती है)। और उस स्थिति में मै यह उपलब्धि हासिल नही कर सकता था। जैक ने आगे बताया कि सभी विश्वविद्यालय और शोध केन्द्र जनता द्वारा दिये गये टैक्स से चलते है। इसलिए इसके परिणामों पर भी जनता का ही हक है। लेकिन होता यह है कि वैज्ञानिक अपने शोधपत्रों को निजी प्रकाशकों को बेच देते हैं और वे भारी फीस लेकर ही इसे लोगो को उपलब्ध कराते है।
बहरहाल पूरी फिल्म आप यहां देख सकते हैं।
एरान स्वार्ट्ज 2007 मे बनी एक अन्य महत्वपूर्ण फिल्म ‘Steal This Film’ का हिस्सा थे। फिल्म के शीर्षक से ही यह स्पष्ट है कि यह कापीराइट की बजाय ‘कापीलेफ्ट’ की पक्षधर है। इसमें ‘पाइरेट बे’ जैसी फाइल शेयरिंग वेबसाइट्स और ईएफएफ [eff.org] जैसी सुरक्षा से सम्बन्धित वेबसाइट्स से जुड़े लोगों के महत्वपूर्ण साक्षात्कार हैं। इस फिल्म को आप यहां देख सकते है।
ऐरान स्वार्ट्ज ने जुलाई 2008 में एक महत्वपूर्ण घोषणापत्र लिखा था। इससे आपको एरान के परिवर्तनकारी विचारों की एक झलक मिल जायेगी। प्रस्तुत है यह घोषणापत्र-
गुरिल्ला ओपन एक्सेस मैनीफेस्टो [Guerilla Open Access Manifesto]
सूचना एक ताकत है। लेकिन लोग सभी ताकतों की तरह इस ताकत का इस्तेमाल भी सिर्फ अपने लिए करना चाहते है। चंद निजी कंपनियां, किताबों और जर्नलों में प्रकाशित विश्व की समूची वैज्ञानिक और सांस्कृतिक धरोहर की ई-कापी तैयार कर रही हैं और उसे कापीराइट के बहाने सात तालों में बन्द कर रही हैं। वैज्ञानिक प्रयोगों के विख्यात शोधपत्रों को यदि आप पढ़ना चाहते है तो आपको ‘रीड इल्सेवियर'[Reed Elsevier] जैसे प्रकाशकों को बड़ी राशि देनी होगी।
इन सब को बदलने की लड़ाई भी चल रही है। ‘ओपन एक्सेस मूवमेन्ट’ ने बहादुरी से यह लड़ाई लड़ी है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वैज्ञानिक अपना कापीराइट प्रकाशकों को ना बेचे। इसके बजाय इसे इंटरनेट पर इस रूप में प्रकाशित करें कि कोई भी जरूरतमंद इसे आसानी से हासिल कर सके।
आज इन शोध पत्रों के लिए जिस राशि की मांग की जाती है, वह बहुत ज्यादा है। अपने ही सहयोगियों के शोध पत्रों को पढ़ने के लिए पैसे खर्च करने पड़ते है। कैसी अजीब बात है। समूची लाइब्रेरी का स्कैन करके उन्हे सिर्फ गूगल पर पढ़ने की अनुमति देना क्या जायज है ? वैज्ञानिक शोध पत्रों को सिर्फ विकसित दुनिया के अभिजात्य विश्वविद्यालयों में काम कर रहे लोगों को पढ़ने देना और तीसरी दुनिया के बच्चों को इससे वंचित रखना कहां का इंसाफ है। यह बिल्कुल भी स्वीकार करने योग्य नही है।
‘बहुत से लोग कहेंगे कि मैं इससे सहमत हूं। लेकिन हम क्या कर सकते है। कंपनियों के पास कापीराइट है और वे शोध पत्रों के लिए बड़ी राशि चार्ज करती हैं। और यह कानूनन सही है। हम उन्हें रोकने के लिए कुछ नही कर सकते।’ लेकिन हम कुछ तो कर सकते हैं। और यह शुरू भी हो चुका है। हम इसके खिलाफ लड़ सकते हैं।
छात्र, लाइब्रेरियन और वैज्ञानिक इस काम के लिए थोड़ा ज्यादा सक्षम हैं। आप ज्ञान की टोकरी में अपने अपने संसाधनों को पूल कर सकते हैं। निश्चित रूप से आप अपने अपने संसाधनों, ज्ञान को सिर्फ अपने तक सीमित नही रखेंगे। यह नैतिक रूप से भी ठीक नही है। आप का यह कर्तव्य है कि आप इसे दुनिया के साथ सांझा करें। आप अपने सहयोगियों के साथ सम्बन्धित पासवर्ड को शेयर कर सकते हैं और दोस्तों की डाउनलोड की मांग को पूरा कर सकते हैं।
जिन्हे ताला लगे इस ज्ञान के भवन से बाहर रखा गया है, उन्हे चुप बैठने की जरूरत नही हैं। उन्हे इसके छिद्रों से अन्दर झांककर और इस भवन की बाउन्ड्री पर चढ़कर प्रकाशकों द्वारा बन्द किये गये ज्ञान को मुक्त कराने और इसे दोस्तों के बीच सांझा करने की जरूरत है।
लेकिन यह सब काम अभी तक अंधेरे कोनो में और गुप्त तरीके से चल रहा है। इसे चोरी या पायरेसी का नाम दिया जाता है, जैसे कि ज्ञान का आदान प्रदान करना और एक जहाज को लूटना और उसके चालक की हत्या करना एक बराबर है। ज्ञान को बांटना अनैतिक नही है। बल्कि उल्टे यह एक नैतिक अनिवार्यता है। लालच से अंधा व्यक्ति ही अपने दोस्त को कापी करने की इजाजत नही देगा।
बड़ी कम्पनियां निश्चित रूप से लालच से अंधी हैं। वे जिन कानूनों के तहत काम करती हैं वे भी ऐसे ही हैं। उनके शेयर धारक भी लालच में अंधे है। इसमें कुछ भी बदलाव होने पर वे विद्रोह कर देंगे। राजनीतिज्ञों को इन्होने खरीद रखा है। इसलिए वे उनके समर्थन में ऐसे कानून पास करते हैं ताकि इसका अधिकार उनके पास रहे कि कौन कापी करेगा और कौन नहीं।
अन्यायपूर्ण नियमों को मानना न्याय नही है। अब समय आ गया है कि हम अंधेरे कोनों से निकल कर प्रकाश में आयें और नागरिक अवज्ञा की अपनी महान परंपरा के अनुसार जन-संस्कृति की इस निजी चोरी के खिलाफ अपना पक्ष घोषित करें।
ज्ञान जहां भी एकत्र हो, हम उसे हासिल करें, उसकी कापी बनायें और दुनिया के साथ उसे बांटे। कापीराइट के बाहर जो भी चीजे है उन्हे तुरन्त हासिल करें और उसे अपनी आर्काइव का हिस्सा बनायें। गुप्त डाटा बेस को खरीदकर उसे नेट पर डालने की जरूरत है। वैज्ञानिक जर्नलों को डाउनलोड करके उसे फाइल शेयरिंग नेटवर्क पर डालने की जरूरत है। हमें ‘गुरिल्ला ओपन एक्सेस’ के लिए लड़ने की जरूरत है।
पूरी दुनिया में यदि हम ज्यादा से ज्यादा संख्या में हो जाये तो हम न सिर्फ ज्ञान के निजीकरण के खिलाफ एक कड़ा सन्देश देंगे वरन् ज्ञान के निजीकरण को अतीत की वस्तु बना देंगे। क्या आप हमारा साथ देंगे।
एरान स्वार्ट्ज
जुलाई 2008

इसके अलावा यदि आपको हैकिंग की राजनीति को समझना हो तो यह किताब [Hacking Politics] आपके लिए बेहद महत्वपूर्ण है। इसे आप यहां से hackingpolitics_txtwithcvfb डाउनलोड कर सकते है।
दरअसल इस वक्त अपने समाज की तरह ही नेट की दुनिया में भी एक तीखा संघर्ष चल रहा है। समाज की तरह यहां भी एक तरफ सर्वसत्तावादी लोग हैं जो चाहते हैं कि सब कुछ उनकी मुट्ठी में हो और दूसरी तरफ वे बहुतायत लोग हैं जो एक बेहतर कल के लिए लड़ रहे है और इसीलिए चाहते हैं कि सब कुछ सांझा हो। इस लड़ाई में हमें भी अपना पक्ष तय करना है। हम रीड इल्सेवियर प्रकाशक जैसे सर्वसत्तावादी ताकत के साथ खड़े नज़र आना चाहते है या फिर एरान स्वार्ट्ज जैसे इंटरनेट योद्धा के साथ हाथ मिलाना चाहते हैं।

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कैपिटल-असामनता का अर्थशास्त्र — रवीश कुमार

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थामस पिकेटी की एक किताब आई है- कैपिटल इन दि ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी। पिकेटी पेरिस स्कूल आफ इकोनोमिक्स के प्रोफेसर हैं। भारत सहित दुनिया भर के कई अर्थशास्त्रियों ने मिलकर लगभग तीन सदियों के दौरान उपलब्ध आय और संपत्ति से जुड़े आंकड़ों का अध्ययन किया है। इन आंकड़ों के आधार पर लगभग बीस विकसित मुल्कों में इस पूंजीवादी व्यवस्था के तहत आई आर्थिक असामनता का अध्ययन किया गया है। देखा गया है कि इन आर्थिक नीतियों से समाज में आर्थिक असामनता कम हुई है या बढ़ी है। यह किताब जिस निष्कर्ष पर पहुंचती है वो हमें मजबूर करती है कि हम मौजूदा दौर की आर्थिक नीतियों के प्रति राजनीतिक रूप से कोई प्रतिक्रिया तैयार करें। पिकेटी यह भी दावा करते हैं कि उनकी किताब पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ है। वो सिर्फ इतना दावा करती है कि चंद कमज़ोरियों के कारण जो बहुत हद तक किसी के हाथ में नहीं है यह असमानता बढ़ेगी ही कम नहीं हुई है। हर सरकार और उसकी आर्थिक नीतियों के साथ जो गरीबी दूर करने का भ्रम फैलाया जाता है,होता ठीक इसके उलट है। पूंजी का संचय चंद हाथों में होता है और इस परिधि के बाहर की व्यापक जनता ग़रीब रह जाती है। कार्ल मार्क्स के दास कैपिटल के बाद करीब साढ़े सात सौ पन्नों की इस किताब को पढ़ना चाहिए। पूरी दुनिया में ग्रोथ रेट, विकास के दावों को इस किताब के बहाने तथ्यात्मक चुनौती दी जा रही है। हिन्दुस्तान में भी ज़रूरी है कि इस किताब को व्यापक संदर्भों में पढ़ा जाए और पूंजीवादी व्यवस्था में ही उन विकल्पों को खोज कर देखा जाए कि क्या प्रतिभा या मेधा पर आधारित इस बाज़ार व्यवस्था पर हम गरीबी दूर करने या आर्थिक समानता के उच्चतम स्तर कायम करने का भरोसा कर सकते हैं। इस पुस्तक का निष्कर्ष तो वैसा नहीं है।

किताब कुजनेट्स नाम के अर्थशास्त्री के काम की सराहना से शुरू होती है लेकिन इन्हीं के काम से सबक सीखते हुए अपने शोध का आधार तैयार करती है और नतीजे में पाती है कि कुज़नेत्स की जो खोज थी वो दरअसल अल्पकालिक थी। कुज़नेत्स अमरीकी अर्थशास्त्री थे और अमरीका में उपलब्ध आय, आयकर और संपत्ति के आंकड़ों के आधार पर दावा करत हैं कि पूंजीवादी विकास के उच्चतम चरण में समाज में आर्थिक असामनता घटती है। ग्रोथ उस ज्वार की तरह जो सभी नावों को उठा लेता है। यानी समाज के व्यापक तबके को इसका लाभ होता है और सबका उत्थान होता है। कुज़नेत्स दावा करते हैं कि 1913-48 के बीच अमरीका में आय असमानता घट जाती है। चोटी के पूंजीपतियों की आमदनी या पूंजी संचय में दस से पंद्रह प्रतिशत की कमी आती है और यह कम हुई पूंजी समाज के दूसरे तबकों में वितरित होती है यानी कुछ और लोग भी अमीर होते हैं। हालांकि कुजनेत्स को पता था कि यह जो कमी आई है वो किसी नियम के तहत नहीं बल्कि दुर्घटनावश आई है। इसी दौरान दुनिया को दो विश्वयुद्धों का सामना करना पड़ा था। 1970 से दुनिया के अमीर देशों में फिर से आर्थिक असमानता बढ़ने लगती है जो आज तक जारी है। कभी भी यह प्रक्रिया उल्टी दिशा में नहीं चली। यानी ग्रोथ रेट की राजनीति या अर्थव्यवस्था से सबका भला नहीं होता।

पिकेटी कुज़नेट्स के आंकड़ों पर सवाल करते हुए अपने आंकड़ों और सोर्स को और व्यापकर करते हैं। 1913 में अमरीका में और 1922 में आयकर लागू हो चुका था। कुछ मुल्कों में इससे पहले और कुछ मुल्कों में इसके बहुत बाद लागू हुआ। फ्रांस, ब्रिटेन, अमरीका, स्वीडन, जर्मनी, भारत, चीन,जापान सहित बीस देश इस अध्ययन में शामिल हैं। दो सदियों के आंकड़ों का अध्ययन कम चुनौतीपूर्ण और रोचक नहीं रहा होगा। इस काम में तीस शोधकर्ता लगे रहे और इन्होंने दुनिया का सबसे बड़ा ऐतिहासिक डेटाबेस तायार कर दिया जिसे वर्ल्ड टाप इनकम डेटाबेस कहते हैं। पिकेटी समझाते हैं कि हम और आप दो तरह से आमदनी हासिल करते हैं। एक वर्ग में तनख्वाह,मज़दूरी,बोनस आदि हैं तो दूसरे वर्ग में किराया, सूदखोरी, डिविबेंट, ब्याज,लाभ,कैपिटल गेन्स इत्यादि। पिकेटी का कहना है कि संपत्ति के वितरण का इतिहास हमेशा से राजनीतिक रहा है। इसे सिर्फ आर्थिक ढांचे तक संकुचित कर नहीं समझा जा सकता। यानी पिकेटी कह रहे हैं कि आपके गांव में पहले एक ज़मींदार थे लेकिन बाद में कुछ और ज़मींदार पैदा हुए इसके पीछे राजनीतिक फैसले का भी हाथ रहा है न कि सिर्फ कुछ लोगों ने मजदूरी कर उतनी ज़मीन जायदाद खरीद ली। इसका भी राजनीति कारण रहा कि कुछ लोग मजदूरी ही करते रह गए और गांव में संपत्ति के मामले में ज़मींदार के बराबर कोई पैदा नहीं हो सका। गांव और ज़मींदारी का यह उदाहरण मैं आपको अपनी समझ से दे रहा हूं।

पिकेटी इस धारणा को धीरे धीरे चुनौती देते हैं कि ज्ञान और कौशल (जिसे आप अंग्रेजी में नौलेज और स्किल बोलते हैं) पर खर्च करने या विकास करने से आर्थिक असमानता कम होती है। यानी ज्ञान का जितना विस्तार और मिश्रण होता है उससे समाज के व्यापक तबके को आर्थिक अवसरों का लाभ उठाने का मौका मिलता है। पिकेटी कहते हैं कि कोई यह मान सकता है कि समय के साथ उत्पादन तकनीकि को व्यापक कौशल(स्किल) की ज़रूरत होती है। ऐसा होने पर आय में पूंजी का हिस्सा कम होने लगेगा और श्रम का हिस्सा बढ़ने लगेगा। इसे इस तरह से समझिये कि मानवीय श्रम (ह्यूमन लेबर) की जो पूंजी है उसकी वित्तीय पूंजी और रियल स्टेट पर विजय होगी। यानी सिर्फ बिल्डर कंपनियों और स्टाक मार्केट के खिलाड़ी ही इस विकास से लाभांवित नहीं होंगे।( ऐसा मैंने समझा)। एक काबिल मैनेजर की शेयर बाज़ार के सटोरियों से ज्यादा पूछ होगी। बाज़ार में भाई भतीजावाद की पराजय होगी और कौशल जीतेगा। वैसे हम हिन्दुस्तानी राजनीति में ही परिवारवाद से ठीक से नहीं लड़ सके और बिजनेस की दुनिया में तो भाई भतीजावाद, जिसे अंग्रेजी में नेपोटिज्म कहते ही मतलब काफी व्यापक हो जाता है, को सामान्य रूप से स्वीकार कर लेते हैं। जैसे यह बिजनेस का प्राकृतिक नियम हो। पिकेटी समझाते हैं कि ऐसा नहीं है। यह नेपोटिज्म फलता फूलता ही राजनीतिक कारणों से है। पिकेटी अपनी किताब में इस अवधारणा को चुनौती दे रहे हैं कि यह सोच की दुनिया में जो असामनता है वो प्रतिभा की कमी के कारण है गलत है।

पिकेटी एक और आशावादी मान्यता को खंगालते हैं, वह यह कि क्या सचमुच इस पूंजीवादी बाजार अर्थव्यवस्था में क्लास वारफेयर यानी वर्ग युद्ध की स्थिति समाप्त हो जाएगी। मतलब ऐसा होगा कि पूंजी का संचय और वितरण रेंटियर( सूदखोर, संपत्तियों के मालिक) के वंशजों और वंचितों के वंशजों के बीच टकराव का कोई कारण नहीं रहेगा। यह एक भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं है। हमारी राजनीति में युवा युवा का शोर ज्यादा सुनाई देता है। पिकेटी कहते हैं( और इसे ठीक से समझे जाने की ज़रूरत है जिसमें मैं सझम नहीं हूं) कि मेडिसिन और जीवन शैली मे सुधार के कारण जीवन प्रत्याशा बढ़ी है। लोग युवावस्था में ज्यादा संपत्ति संचय करते हैं। आप यह देखते भी होंगे कि जो युवा है उसे ही बैंक या बीमा वाले प्राथमिकता देते हैं। ख़ैर, पिकेटी कहते हैं कि यह दोनों ही बातें भ्रामक हैं। इस बात के कम ही प्रमाण हैं कि राष्ट्रीय आय में श्रम का हिस्सा लंबे समय तक बढ़ा है। इसका मतलब यह है कि जो आप जीडीपी वगैरह देखते हैं उसमें आपकी हिस्सेदार कम है उनकी हिस्सेदारी ज्यादा है जो गिनती के थोड़े हैं और जिनकी पूंजी क्षमता कई लाख करोड़ तक पहुंच गई है। जबकि तथ्य है कि उन्नीसवीं, बीसवीं और अब तक की इक्कीसवीं सदी में गैर मानव पूंजी(नान ह्यूमन कैपिटल) जिसके हाथ में उसी के हाथ में रहा। यानी वो तबका ज्यादा संपत्ति संचय करता है जिसके पास पहले से ज़मीन जायदाद है, शहरों में संपत्ति है। इस किताब में एक उदाहरण दिया गया है। जैसे किसी कंपनी में बाकी लोग भी स्किल्ड हैं मगर तनख्वाह या बोनस का बड़ा हिस्सा गिनती के शीर्ष मैनेजरों में बंट जाता है। शेष लोग अपनी कमाई जोड़ते रहते हैं और महीने के मैनेजर या एक्सेलेंट जैसे तमगे पाकर छोटे मोटे कूपनों से संतोष कर लेते हैं यह सोच कर कि प्रतिभा का उचित सम्मान हुआ है।

जब अर्थव्यवस्था के विकास दर से पूंजी पर ब्याज की कमाई का हिस्सा बढ़ने लगता है तब ऐसी स्थिति में बाप-दादा(इनहेरिटेंस) की पूंजी या संपत्ति का विकास तेजी से होता है। जो पूरा जीवन श्रम में लगा देते हैं उनसे कहीं ज्यादा बाप दादा वालों के पास पूंजी संचय होता है। पूंजी का संग्रह इन्हीं चंद लोगों के हाथ में रह जाता है। पिकेटी और उनके अर्थशास्त्रियों की टीम दुनिया भर के आंकड़ों से यह स्थापित करती है। यानी हम और आप इस भ्रम में जी रहे हैं कि यह जो खुली बाज़ार अर्थव्यवस्था है उसमें प्रतिभा के दम पर सबके लिए समान अवसर हैं। प्रतिभा की अवधारणा पर ऐसा तर्कपूर्ण किया गया है जिसे और गंभीरता से परखने की ज़रूरत है। पिकेटी कहते हैं कि आने वाले समय में अर्थव्यवस्था का ग्रोथ रेट और कम होगा। तब स्थिति और भयंकर हो जाएगी।

अब मैं यहां दो उदाहरण देना चाहता हूं। ब्लूमबर्ग पर एशिया के समबसे अमीर ली का शिंग का एक बयान मिला जिसमें वे आगाह कर रहे हैं कि अगर इसका समाधान नहीं खोजा गया तो खतरा यह है कि हम इसे नार्मल की तरह बरतने लगेंगे। हांगकांग के ली का शिंग कहते हैं कि सरकार को ऐसी नीतियां मजबूती से लागू करनी चाहिए जो समाज में संपत्ति या संसाधन का पुनर्वितरण करें। ली के भाषण का शीर्षक है “Sleepless in Hong Kong” जिसे उन्होंने अपनी वेबसाइट पर पोस्ट किया है। संसाधनों की बढ़ती कमी और विश्वास में घटोत्तरी के कारण उन्हें रातों को नींद नहीं आती। जिस तरह का गुस्सा और ध्रुवीकरण समाज में बढ़ रहा है उससे विकास की प्रक्रिया थमेगी और असंतोष बढ़ेगा। विश्वास हमें समन्वय में जीने लायक बनाता है। अगर यह नहीं रहा तो ज्यादा से ज्यादा लोगों का सिस्टम से भरोसा कम होगा। यह बात कोई नक्सल नहीं कह रहा बल्कि वो कह रहा है जो इस व्यवस्था का लाभार्थी है।

आज के इंडियन एक्सप्रेस में मराठा आरक्षण पर राजेश्वरी देशपांडे और नितिन बिरमल का लेख छपा है। इसमें राजेश्वरी बताती हैं कि कैसे महाराष्ट्र की राजनीति में मराठा समुदाय के नेताओं का वर्चस्व तो रहा मगर इसका लाभ समाज के कुछ तबकों को ही मिला। पश्चिम महाराष्ट्र के हिस्से में मराठा नेताओं के पास पूंजी आई तो मराठवाड़ा के मराठा गरीब और पिछड़ेपन की तरफ धकेले गए। इसी इंडियन एक्सप्रेस में कुछ दिन पहले एक लेख छपा था कि महाराष्ट्र की करीब 170 चीनी मिलों में से 160 मराठा समुदाय के हैं और ज़मीन का सत्तर फीसदी हिस्सा इसी समुदाय के हिस्से में है। इस लिहाज़ से समुदाय कितना ताकतवर लगता है मगर संपत्ति और आय के वितरण की नज़र से देखें तो उस राजनीतिक वर्चस्व का फायदा उन्हीं को मिला होगा जिनके पास बाप-दादा की संपत्ति होगी। क्या पिकेटी की बात उनकी किताब से बाहर भी सच हो रही है। मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी नहीं हूं और खास समझ भी नहीं रखता फिर भी चाहता हूं कि आप सब इस किताब को पढ़ें। निष्कर्ष से ज्यादा पिकेटी के माडल को देखें और उसके आधार पर अपने आस पास के समाज को देखें। पिकेटी का एक ब्लाग भी है।
[http://www.naisadak.org से साभार]
पूरी किताब आप यहाँ से piketty_capital_in_the_21_century_2014 डाउनलोड कर सकते है — संपादक

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Gas Wars, Sahara: The Untold Story, The Descent of Air India

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इस वर्ष मार्च, अप्रैल और मई में कारपोरेट भ्रष्टाचार (पब्लिक सेक्टर और प्राइवेट सेक्टर दोनो) और सरकार से उनके सांठगांठ पर तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुई। भारत में यह एक नई शुरुआत है। क्योकि इससे पहले इस विषय पर नजर डालने से मात्र एक ही किताब नजर आती थी- आस्ट्रेलियाई पत्रकार Hamish MacDonald की ‘Polyester Prince’ जो रिलायन्स इण्डस्ट्रीज का विशेषकर ‘धीरुभाई अंबानी’ का कच्चा चिट्ठा खोलती है। हालांकि 90 के दशक में छपी इस किताब को भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया था। लेकिन इसकी पायरेटेड कापी धड़ल्ले से भारत में बिकती रही।
इन तीनो किताबों को भी रोकने का भरपूर प्रयास किया गया लेकिन किसी तरह ये किताबें अब मार्केट में आ चुकी हैं।
बहरहाल, ये किताबें हैं ‘Tamal Bandyopadhyay’ की ‘Sahara: The Untold Story’, ‘Jitendra Bhargava’ की ‘The Descent of Air India’ और ‘Paranjoy Guha Thakurta’ की ‘Gas Wars:crony capitalism and the Ambanis’ । तीनो ही किताबों पर मानहानि का दावा क्रमशः सुब्रत राय, प्रफुल्ल पटेल (यूपीए सरकार में ‘Civil Aviation Minister’ ) और मुकेश अंबानी ने ठोका और किताब पर बैन की मांग की। सुब्रत राय और मुकेश अंबानी ने तो क्रमशः 200 करोड़ और 100 करोड़ का मानहानि का दावा ठोक दिया। नतीजा यह हुआ कि ‘The Descent of Air India’ के प्रकाशक ‘Bloomsbury India’ ने बिना लेखक से मशवरा किये एकतरफा तरीके से सार्वजनिक मांफी मांग ली और किताबें मार्केट से हटा ली। जबकि लेखक मुकदमा लड़ने को तैयार था। लेखक ‘Air India’ के Executive Director रह चुके हैं। मजबूरत लेखक ने अपनी किताब की ई-कापी जारी की। दूसरे मामले में अन्ततः लेखक को किताब में मजबूरन ‘डिसक्लेमर’ लगाना पड़ा,और तब जाकर किताब प्रकाशित हो पायी। तीसरा मामला तो और भी महत्वपूर्ण है। Paranjoy Guha Thakurta की ‘Gas Wars’ को कोई भी प्रकाशक छापने को तैयार नही हुआ। ‘पालिस्टर प्रिन्स’ का उदाहरण सबके सामने था। अन्ततः लेखक को मजबूरन खुद ही इसे छापना और वितरित करना पड़ा। इस किताब पर मुकदमा अभी कोर्ट में चल रहा है। जहां मुकेश अंबानी ने लेखक पर 100 करोड़ का मानहानि का मामला दर्ज किया है।
इन तीनो किताबों में सबसे महत्वपूर्ण है Paranjoy Guha Thakurta की ‘Gas Wars:crony capitalism and the Ambanis’ । बहुत ही शोध के साथ लिखी इस किताब से पता चलता है कि हमारे देश में राजनीति और व्यवसाय का जो मकड़जाल (इसे लेखक ने उचित ही क्रोनी कैपिटलिज्म की संज्ञा दी है।) है वो प्रायः हमारी आंखों से ओझल रहता है। मीडिया या तो इस पर पर्दा डालता है या फिर इस मकड़जाल का हिस्सा होता है। ‘पी. साइनाथ’ तो इससे आगे जाकर कहते हैं कि क्रोनी कैपिटलिज्म में ‘क्रोनी’ मीडिया ही है।
बात शुरु होती है सन 2000 से जब कृष्णा गोदावरी बेसिन के ब्लाॅक की नीलामी शुरु हुई। रिलायन्स ने यह बोली जीत ली और उसने भारत सरकार के साथ समझौता करके उन ब्लाकों से गैस निकालकर भारत सरकार को बेचने का अधिकार पा लिया। भारत में तेल और गैस निकालने वाली सबसे बड़ी कम्पनी सार्वजानिक क्षेत्र की ‘ओएनजीसी’ है। केजी बेसिन भी ओएनजीसी की ही खोज है। यह भी ध्यान रहे कि इसे उत्पादन लायक बनाने में ओएनजीसी नीलामी के पहले ही काफी खर्च कर चुकी है।
लेखक ने बड़े दिलचस्प तरीके से बताया है कि रिलायन्स को यह नीलामी जितवाने में ओएनजीसी के बड़े अधिकारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। और नीलामी से पहले रिलायन्स को महत्वपूर्ण गोपनीय सूचनाएं सप्लाई की। ओएनजीसी के पूर्व चेयरमैन ‘सुबीर राहा’ ने भी बाद में बताया कि उनके द्वारा पद संभालने के बाद उन्होने बहुत सी महत्वपूर्ण फाइले मिसिंग पायी। बाद की घटनाओं ने इन्हे और भी पुष्ट कर दिया, जब रिलायन्स को केजी बेसिन का ठेका मिलते ही ओएनजीसी के कई बड़े अधिकारी रिलायन्स में शामिल हो गये।
रिलायन्स के साथ सरकार का समझौता भी बड़ा अजीबोगरीब है। समझौते के अनुसार जब तक रिलायन्स अपने निवेश के बराबर की राशि गैस बेचकर नहीं निकाल लेती तब तक सरकार को कोई प्राफिट नही मिलेगा। इस लूप होल्स का फायदा उठाकर रिलायन्स अपना निवेश बढ़ता जा रहा है और 14 साल बाद भी सरकार को वस्तुतः कोई प्रोफिट नही मिला है। लेखक का कहना है कि ज्यादा संभावना है कि रिलायन्स अपने निवेश में यह बढ़ोत्तरी महज अकाउन्ट में ही करता होगा। असल में नही। यह बात इससे भी पुष्ट होती है कि रिलायन्स अभी तक इसकी आडिट सीएजी से कराने को तैयार नही है। सीएजी कई बार सरकार को इसकी दरख्वास्त दे चुकी है कि रिलायन्स का आडिट किया जाय ताकि पता चले कि वस्तुतः केजी बेसिन में कितना निवेश हुआ है और गैस निकालने पर कितना खर्च आ रहा है। लेकिन सरकार ने अभी तक कोई कार्यवाही नही की है। यह मुद्दा गैस के दाम से सीधे रुप से जुड़ा है। नीलामी के समय रिलायन्स ने $2.34 प्रति यूनिट की दर से एनटीपीसी जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को गैस देने का वादा किया था। उसके बाद बढ़ते निवेश और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में गैस के बढ़ते दाम का वास्ता देकर जून 2007 में गैस का दाम $4.20 प्रति यूनिट करा लिया। यूपीए के समय जो बेहिसाब मंहगायी बढ़ी उसका एक बढ़ा कारण यह वृद्धि थी। क्योकि इससे फर्टलाइजर, पावर व यातायात पर सीधा असर पड़ा। ‘मणिशंकर अय्यर’ ने बाद में इस पर चुटकी लेते हुए कहा कि यह दाम यानी $4.20 भारतीय दंड संहिता की धारा 420 की याद दिलाता है। बहरहाल रिलायन्स का पेट इससे भी नही भरा तो उसने दाम और बढ़ाने की मांग की। रिलायन्स के दबाव में सरकार ने इसके लिए ‘रंगराजन कमेटी’ का गठन किया। इसी रिपोर्ट के आधार पर पिछली सरकार ने गैस का दाम पुनः बढ़ाकर $8.30 प्रति यूनिट कर दिया। इसे 1 अप्रैल 2014 से लागू किया जाना था, लेकिन चुनाव आचार संहिता के कारण चुनाव आयोग ने इस पर रोक लगा दी। अब नयी सरकार को इसे लागू करना है। उम्मीद है कि जुलाई से इसे लागू कर दिया जायेगा। इसके लागू होने से एक बार फिर मंहगाई आसमान छूने लगेगी। लेकिन इसके साथ ही रिलायन्स का मुनाफा भी आसमान छूने लगेगा। सरकार को ज्यादा चिंता रिलायन्स के मुनाफे की है ना कि मंहगाई की। रंगराजन कमेटी ने दाम बढाने का जो फार्मूला निकाला वह भी बड़ा अजीबो गरीब है। रंगराजन कमेटी ने दुनिया के चंद देशों में गैस के दाम का औसत निकाला। और कुछ गुणा भाग करके इस नतीजे तक पहुंच गये। मजे की बात यह है कि इसमें जापान भी शामिल है जो शत प्रतिशत गैस का आयात करता है। और वहां गैस के दाम सबसे ज्यादा है। सवाल बहुत सीधा है, हम अपने घर की चीज का दाम लगाने के लिए दुनिया का चक्कर क्यों लगा रहे है।
गैस के दाम को लेकर चली मुकेश और अनिल अंबानी की लड़ाई का भी बहुत विस्तृत और रोचक विवरण इसमें पेश किया गया है। हालांकि यह अनावश्यक रुप से काफी विस्तृत है और इसलिए कहीं कहीं बोरिंग भी है। खैर दोनो भाइयों की लड़ाई में जो मुख्य बात है वह यह है कि रिलायन्स के बंटवारे के समय दोनों भाइयों में लिखित समझौता हुआ था कि अनिल के दादरी पावर प्लान्ट के लिए मुकेश केजी बेसिन से $2.34 प्रति यूनिट की दर से पर्याप्त गैस उपलब्ध करायेंगे। मुकेश बाद में इससे मुकर गये और कहा कि वह अनिल को उसी दर से गैस देंगे जिस दर पर वह सरकारी कम्पनियों को देंगे और सरकार की प्राथमिकता के हिसाब से ही देंगे। सरकार ने जो प्राथमिकता सूची बनायी है उसमें फर्टिलाइजर पहले और पावर सेक्टर दूसरे स्थान पर है। अनिल अंबानी कोर्ट चले गये। मुंबई हाई कोर्ट ने अनिल अंबानी के पक्ष में फैसला सुनाया लेकिन सुप्रीम कोर्ट में मुकेश की जीत हुई और अनिल अंबानी की महत्वाकांक्षी योजना खटाई में पड़ गयी। यहां सवाल यह है कि भारत के एक प्राकृतिक संसाधन पर कब्जेदारी के लिए दो भाई इस तरह से लड़ रहे है मानों यह उनकी अपनी पुश्तैनी संपत्ति हो और सरकार, जिसे जनता की ओर से प्राकृतिक संसाधनों का ट्रस्टी माना जाता है, वह इस सम्बन्ध में मूकदर्शक बनी हुई है। यहा तक की हाई कोर्ट ने भी, दोनो भाइयों के बीच गैस के बंटवारे को लेकर जो समझौता हुआ था, उसे कानूनन सही ठहराया और पुश्तैनी संपत्ति के बंटवारे की तरह अपना फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने जरुर इसे राष्ट्रीय संपत्ति बताते हुए सरकार को उसके कर्तव्य की याद दिलायी।
इस मामले का सबसे गम्भीर पहलू यह है कि 2009 के बाद रिलायन्स ने जितना गैस निकालने का वादा किया था उससे महज 15 प्रतिशत ही निकाल रही है। कम गैस का कारण तकनीकी समस्या बतायी जा रही है। जबकि सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा है कि रिलायन्स जानबूझ कर यह कमी कर रहा है। यह एक तरह की जमाखोरी है। एक तरफ रिलायन्स इससे सरकार को ब्लैकमेल करके गैस के दाम बढ़वाना चाह रही है वही दूसरी तरफ वह ज्यादा से ज्यादा गैस उस समय के लिए सुरक्षित रख रही है जब गैस के दाम बढ़ जायेगे और वह उन्हे मंहगे दामों पर बेच सकेगा। सीएजी की इसी रिपोर्ट के आधार पर तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री ‘जयराम रमेश’ ने रिलायंस पर 1.8 बिलियन डालर का जर्मुाना लगा दिया। जयराम रमेश को इसकी कीमत अपनी कुर्सी देकर चुकानी पड़ी। इस पूरे घटनाक्रम का काफी रोचक ब्योरा लेखक ने दिया है।
समझौते के अनुसार एक समय सीमा में रिलायन्स को एक एक करके सभी ब्लाॅक्स सरकार को लौटाने होंगे ताकि सरकार इन्हे दुबारा से नीलाम कर सके। लेकिन अभी तक रिलायन्स ने एक भी ब्लॅाक सरकार को नही लौटाया है। वस्तुतः रिलायन्स ने 7000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र पर अवैध कब्जा जमाया हूआ है।
दूसरा इससे जुड़ा मामला यह है कि अगस्त 2011 में रिलायन्स ने गैस निकालने के अपने 21 ब्लॅाक्स में 30 प्रतिशत हिस्सेदारी ब्रिटिश पेट्रोलियम को 7.2 बिलीयन डालर में बेच दी। यह उसी तरह का मामला है कि जैसे मैने आपको अपना 3 कमरों वाला मकान किराये पर दिया और आपने बिना मुझसे पूछे इसका एक कमरा दुबारा किराये पर उठा दिया। आखिरकार ये ब्लॅाक्स राष्ट्रीय संपत्ति है, अंबानी की कोई निजी मिल्कियत नही। लेकिन सरकार ने इस पर कोई आपत्ति नही की।
इससे जुड़ा एक मामला तो और भी संगीन है। दरअसल ओएनजीसी और रिलायन्स के ब्लाक्स केजी बेसिन में काफी पास पास हैं। ओएनजीसी ने कई बार रिलायन्स पर गंभीर आरोप लगाये हैं कि वह गुप्त तरीके से ओएनजीसी के कुएं से गैस चुरा रहा है। लेकिन अभी तक सरकार ने इस पर कोई कदम नही उठाया है।
इससे जुड़ा एक और मामला अत्यन्त गंभीर है, लेकिन उस पर सबसे कम ध्यान दिया जाता है। वह है पर्यावरण का। कृष्णा और गोदावरी आन्ध्र प्रदेश की दो महत्वपूर्ण नदियां है। या वो कहे कि ये दोनो नदियां प्रदेश की जीवन रेखा हैं। केजी बेसिन से गैस निकालने की प्रक्रिया में जो ‘प्रेशर लास’ होगा उससे आसपास के उर्वर क्षेत्र डूब जायेंगे। एक अनुमान के अनुसार इस प्रक्रिया में 100 लाख टन चावल पैदा करने जितनी जमीन डूब जायेगी। इस क्षेत्र को अभी ‘धान का कटोरा’ कहा जाता है। इससे करीब 1 करोड़ लोगो की रोजी रोटी प्रभावित होगी। इसके खिलाफ इस क्षेत्र के लोगों ने आन्ध्र प्रदेश हाई कोर्ट में याचिका भी डाल रखी है।
रिलायन्स और सरकार के बीच कई जटिल विषयों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में मुकदमें चल रहे हैं। इसके अलावा रिलायन्स के खिलाफ कई जनहित याचिकाएं भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। इसमें प्रमुख है- सीपीआई के ‘गुरुदासदास गुप्ता’ की याचिका और ‘कामन काज’ नामक एक एनजीओ की याचिका। गुरुदासदास गुप्ता संसद में अनेको बार रिलायन्स और सरकार की सांठगांठ को बेनकाब कर चुके हैं।
इन मुकदमों की जटिलताओं और इसमें लग रहे लंबे समय को देखते हुए रिलायन्स ने सुप्रीम कोर्ट में सरकार और रिलायन्स के बीच मध्यस्थता (arbitration) की अर्जी लगायी। रिलायन्स और सरकार दोनो ने अपने अपने मध्यस्थ चुन लिये। इसमें तीसरा मध्यस्थ कौन है? यह तीसरा मध्यस्थ ‘जेम्स जैकब स्पाईगेलमैन’ हैं। ये महाशय आस्ट्रेलिया के चीफ जस्टिस रह चुके हैं। इनका यहां क्या काम। क्या यह लड़ाई दो देशों के बीच की लड़ाई है जिसमें एक तीसरे तटस्थ देश का होना अनिवार्य हो जाता है। इस बात का कोई जवाब सरकार के पास नही हैं।
दरअसल किताब पढ़ते हुए आप पायेंगे कि पूरा मामला इस तरह से चल रहा है जैसे सरकार और रिलायन्स बराबर के कोई देश हो। सरकार का रिलायन्स पर कोई प्रभाव ही नही हैं। शायद इसीलिए मुकेश अंबानी ने काग्रेस को अपनी दुकान बताया था। दो साल पहले रिलायन्स पर 1.8 बिलीयन डालर का जुर्माना लगाया गया था। लेकिन आज तक उस पर कोई कार्यवाही नही हुई। सरकार की तरफ से इसके बारे में कोई चर्चा तक नही होती। यही सरकार आम आदमी से कैसे जुर्माना वसूलती है। इसे आप समझ सकते हैं।
इस पूरे मामले में सरकार को विभिन्न तरीके से जो नुकसान उठाना पड़ा है, यदि उसकी गणना करे तो यह अब तक का सबसे बड़ा घोटाला साबित होगा। या यो कहें कि सभी घोटालों का बाप साबित होगा।
दरअसल ‘सरकार बनाम रिलायन्स’ का मामला इनका दोस्ताना अन्तरविरोध है। अन्दर से इनकी सांठगांठ काफी गहरी है। एक शब्द में कहें तो सरकार ही रिलायन्स हैं और रिलायन्स ही सरकार है।

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‘The price of a toilet’ by Prashant Pandey

dalit

The only Dalit family of a Pratapgarh hamlet moves out after 5-yr-old son has his penis cut off for relieving himself near OBC owner’s flour mill.
The two cousins in Badaun found raped and killed had left home at night to go to the toilet in the open. The five-year-old Dalit boy escaped that fate. But, for relieving himself once too often near the flour mill of an OBC owner, he may end up passing urine from his rectum for the rest of his life.
On June 1, the son of a Pasi brick kiln worker was lured with Rs 50 into a small, dry canal at his Babullapur hamlet under the Korali gram sabha in Pratapgarh district, had pebbles forced into his mouth, and was struck with a brick on his penis till it got severed from the roots.
When the boy returned home crying, father Shesh Ram Saroj first took him to the gram pradhan, who directed him to the police station, barely a kilometre away. From there, the boy was taken to a community health centre, which told Shesh Ram to rush him to the district hospital. There, the boy was referred to the Swaroop Rani Nehru Hospital in Allahabad. The doctors operated upon him and provided for passage of urine through his rectum.
“Doctors told me there is no possibility of grafting the penis back. It is now part of evidence,” says Shesh Ram. It will take nearly two months for his son to heal.
The incident happened in the afternoon as he was preparing food, the father recalls. “My wife had delivered a girl two days earlier. My son insisted on going to play in the mango orchard. Around half an hour later, he returned with blood oozing from his private parts. He told me that chakkiwale (the mill person) had done it.”
The accused, Ambarish Maurya, in his mid-20s, has been arrested. The grandson of the flour mill and mango orchard owner Shiv Asre Maurya, Ambarish guarded trees at the site for money.
The flour mill, the orchard and the canal where the boy was attacked are just 100 metres from Shesh Ram’s mud hut. His is the only Dalit house in Babullapur, the rest all belonging to Mauryas. He moved here on account of lack of space at their joint family home in Korali village.
“My father’s share of two bighas had been distributed into seven parts as we are seven brothers. So there was little space. We asked Shesh to build a house on land belonging to us in Babullapur,” says elder brother Ram Prasad Saroj.
Shesh Ram built his hut more than five years ago, around the time the five-year-old, his eldest, was born. It is a two-room structure with a small courtyard, a thatched roof and no toilet. Shesh Ram and his wife have three other children.
Right from the time they settled in Babullapur, Shesh Ram says, he felt tension between him and the Mauryas. “Fearing trouble, we left some part of our land close to theirs. But they encroached and built their boundary right next to our house,” he says.
Ram Prasad claims the Mauryas tried to set Shesh Ram’s hut on fire once, and that a year ago, he was accused of stealing their gun.
Gram pradhan Kailash Bhadauria confirms the theft charge and that “there may have been other issues”. “But it had not come to my notice,” he claims.
The five-year-old’s mother Sunita Devi says the Mauryas often confronted them about building their house near the mill. At other times, they accused her son and his siblings of venturing into their area and urinating. Says Sunita: “Ab bachchon ko har samay hum kaise rok sakat hai? Aur oo log bhi to bahare jaate hain (How can I stop the children all the time? And they too go out in the open to relieve themselves).”
Mill owner Shiv Asre Maurya denies any hand in what happened. “There was a wedding at the house, of my other grandson, Ambesh, on May 30. On June 1, there was a reception. All of us were at home,” he says. He also denies harassing Shesh Ram’s family.
Inspector R K Singh Chandel, the in-charge of Nawabganj police station, rejects Maurya’s claim. “There was a wedding, but the accused told us during initial interrogation that he was angry with the boy’s habit of relieving himself in the precincts of the mill. We have recovered the Rs 50 note and the blood-stained brick. Also, there is no reason to disbelieve the 5-year-old boy,” says Chandel.
Apart from charges of attempt to murder and causing grievous injury, Ambarish has been booked under the SC/ST (Prevention of Atrocities) Act.
With money pooled from his brothers and relatives, Shesh Ram managed treatment for his son. On days that his family couldn’t get him food to the hospital 80 km away in Allahabad, he didn’t eat anything. “I didn’t have the money to buy food from outside,” Shesh Ram says.
On June 2, the family moved back to Korali, to the same cramped space they left five years ago. Sunita indicates there may be no going back. “If this is what they have done to my son, they can do similar things to my other children and me,” she says.
[http://indianexpress.com/ से साभार]

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Capitalists, Technocrats and Fanatics: The Ascent of a New Power Bloc by James Petras

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Introduction: The sweeping electoral victory of the Bharatiya Janata Party (BJP) in India is the latest expression of the world-wide advance of a new power bloc which promises to impose a New World Order harnessing ethno-religious fanaticism and narrowly trained technocrats to capitalist absolutism.

The far-right is no longer at the margins of western political discourse. It is center-stage. It is no longer dependent on contributions by local militants; it receives financing from the biggest global corporations. It is no longer dismissed by the mass media. It receives feature coverage, highlighting its ‘dynamic and transformative’ leadership.

Today capitalists everywhere confront great uncertainty, as markets crash and endemic corruption at the highest levels erode competitive markets. Throughout the world, large majorities of the labor force question, challenge and resist the massive transfers of public wealth to an ever reduced oligarchy. Electoral politics no longer define the context for political opposition.

Capitalism, neither in theory nor practice, advances through reason and prosperity. It relies on executive fiats, media manipulation and arbitrary police state intrusions. It increasingly relies on death squads dubbed “Special Forces” and a ‘reserve army’ of para-military fanatics.

The new power bloc is the merger of big business, the wealthy professional classes, upwardly mobile, elite trained technocrats and cadres of ethno-religious fanatics who mobilize the masses.

Capitalism and imperialism advances by uprooting millions, destroying local communities and economies, undermining local trade and production, exploiting labor and repressing social solidarity. Everywhere it erodes community and class solidarity.

Ethno-Religious Fanatics and Elite Technocrats

Today capitalism depends on two seemingly disparate forces. The irrational appeal of ethno-religious supremacists and narrowly trained elite technocrats to advance the rule of capital. Ethno-religious fanatics seek to promote bonds between the corporate-warlord elite and the masses, by appealing to their ‘common’ religious ethnic identities.

The technocrats serve the elite by developing the information systems, formulating the images and messages deceiving and manipulating the masses and designing their economic programs.

The political leaders meet with the corporate elite and warlords to set the political-economic agenda, deciding when to rely on the technocrats and when to moderate or unleash the ethno-religious fanatics.

Imperialism operates via the marriage of science and ethno-religious fanaticism- and both are harnessed to capitalist domination and exploitation.

India: Billionaires, Hindu Fascists and IT “Savants”

The election of Narendra Modi, leader of the BJP and long-time member of the Hindu fascist Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS) para-military organization was based on three essential components:

(1) Multi-billion rupee funding from corporate India at home and abroad.

(2) Thousands of upwardly mobile IT technocrats mounting a massive propaganda campaign.

(3) Hundreds of thousands of RSS activists spreading the “Hindutva” racist doctrine among millions of villagers.

The Modi regime promises his capitalist backers that he will “open India”– namely end the land reserves of the tribes, convert farmland to industrial parks, deregulate labor and environmental controls.

To the Brahmin elite he promises to end compensatory quotas for lower castes, the untouchables, the minorities and Muslims. For the Hindu fascists he promises more temples. For foreign capitalists he promises entry into all formerly protected economic sectors. For the US, Modi promises closer working relations against China, Russia and Iran… The BJP’s ethno-religious Hindu fanaticism resonates with Israel’s notion of a “pure”Jewish state. Modi and Netanyahu have longstanding ties and promise close working relations based on similar ethno-racist doctrines.

Turkey: The Transition to Islamic-Capitalist Authoritarianism

Turkey under the rule of Erdogan’s Justice and Development Party has moved decisively toward one-man rule: linking Islam to big capital and police state repression. Erdogan’s ‘triple alliance’ is intent on unleashing mega-capitalist projects, based on the privatization of public spaces and the dispossession of popular neighborhoods. He opened the door to unregulated privatization of mines, communications, banks – leading to exponential growth of profits and the decline of employment security and a rising toll of worker deaths. Erdogan has shed the mask of ‘moderate Islam’ and embraced the jihadist mercenaries invading Syria and legislation expanding religious prerogatives in secular life. Erdogan has launched massive purges of journalists, public officials, civil servants, judges and military officers. He has replaced them with ‘party loyalists’; Erdogan fanatics!

Erdogan has recruited a small army of technocrats who design his mega projects and provide the political infrastructure and programs for his electoral campaigns. Technocrats provide a development agenda that accommodates the foreign and domestic crony corporate elite.

The Anatolian Islamists, small and medium provincial business elite, form the mass base – mobilizing voters, by appealing to chauvinist and ethnocentric beliefs. Erdogan’s repressive, Islamist, capitalist regime’s embrace of the “free market” has been sharply challenged especially in light of the worst mining massacre in Turkish history: the killing of over 300 miners due to corporate negligence and regime complicity. Class polarization threatens the advance of Turkish fascism.

Israel and the “Jewish State”: Billionaires , Ethno-Religious Fanatics and Technocrats

Israel, according to its influential promoters in the US, is a ‘model democracy’. The public pronouncements and the actions of its leaders thoroughly refute that notion. The driving force of Israeli politics is the idea of dispossessing and expelling all Palestinians and converting Israel into a ‘pure’ Jewish state. For decades Israel, funded and colonized by the diaspora, have violently seized Palestinian lands, dispossessed millions and are in the process of Judaizing what remains of the remnant in the “Occupied Territories”.

The Israeli economy is dominated by billionaires. Its “society” is permeated by a highly militarized state. Its highly educated technocrats serve the military-industrial and ethno-religious elite. Big business shares power with both.

High tech Israeli’s apply their knowledge to furthering the high growth, military industrial complex. Medical specialists participate in testing the endurance of Palestinian prisoners undergoing torture (“interrogation”). Highly trained psychologists engage in psych-warfare to gain collaborators among vulnerable Palestinian families. Economists and political scientists, with advanced degrees from prestigious US and British universities (and ‘dual citizenship’) formulate policies furthering the land grabs of neo-fascist settlers. Israel’s best known novelist, Amos Oz condemned the neo-fascist settlers who defecate on the embers of burnt-out mosques.

Billionaire real estate moguls bid up house prices and rents “forcing” many “progressive” Israelies, who occasionally protest, to take the easy road of moving into apartments built on land illegally and violently seized from dispossessed Palestinians. ‘Progressives’ join neo-fascist vigilantes in common colonial settlements. Prestigious urbanologists further the goals of crude ethno-racist political leaders by designing new housing in Occupied Lands. Prominent social scientists trade on their US education to promote Mid-East wars designed by vulgar warlords. Building the Euro American Empire : Riff-Raff of the World Unite!

Empire building is a dirty business. And while the political leaders directing it, feign respectability and are adept at rolling out the moral platitudes and high purposes, the ‘combatants’ they employ are a most unsavory lot of armed thugs, journalistic verbal assassins and highly respected international jurists who prey on victims and exonerate imperial criminals.

In recent years Euro-American warlords have employed “the scum of the slaughterhouse” to destroy political adversaries in Libya, Syria and the Ukraine.

In Libya lacking any semblance of a respectable middle-class democratic proxy, the Euro-American empire builders armed and financed murderous tribal bands, notorious jihadist terrorists, contrabandist groups, arms and drug smugglers. The Euro-Americans counted on a pocketful of educated stooges holed up in London to subdue the thugs, privatize Libya’s oil fields and convert the country into a recruiting ground and launch pad for exporting armed mercenaries for other imperial missions.

The Libyan riff-raff were not satisfied with a paycheck and facile dismissal: they murdered their US paymaster, chased the technocrats back to Europe and set-up rival fiefdoms. Gadhafi was murdered, but so went Libya as a modern viable state. The arranged marriage of Euro-American empire builders, western educated technocrats and the armed riff-raff was never consummated. In the end the entire imperial venture ended up as a petty squabble in the American Congress over who was responsible for the murder of the US Ambassador in Benghazi.

The Euro-American-Saudi proxy war against Syria follows the Libyan script. Thousands of Islamic fundamentalists are financed, armed, trained and transported from bases in Turkey, Jordan, Saudi Arabia, Iraq and Libya to violently overthrow the Bashar Assad government in Syria. The world’s most retrograde fundamentalists travel to the Euro-American training bases in Jordan and Turkey and then proceed to invade Syria, seizing towns, executing thousands of alleged ‘regime loyalists’ and planting car bombs in densely populated city centers.

The fundamentalist influx soon overwhelmed the London based liberals and their armed groups.

The jihadist terrorists fragmented into warring groups fighting over the Syrian oil fields. Hundreds were killed and thousands fled to Government controlled regions. Euro-US strategists, having lost their original liberal mercenaries, turned toward one or another fundamentalist groups. No longer in control of the ‘politics’ of the terrorists, Euro-US strategists sought to inflect the maximum destruction on Syrian society. Rejecting a negotiated settlement, the Euro-US strategists turned their backs on the internal political opposition challenging Assad via presidential elections.

In the Ukraine, the Euro-Americans backed a junta of servile neo-liberal technocrats, oligarchical kleptocrats and neo-Nazis, dubbed Svoboda and the Right Sector. The latter were the “shock troops” to overthrow the elected government, massacre the federalist democrats in Odessa and the eastern Ukraine, and back the junta appointed oligarchs serving as “governors”.

The entire western mass media white-washed the savage assaults carried out by the neo-Nazis in propping up the Kiev junta. The powerful presence of the neo-fascists in key ministries, their strategic role as front line fighters attacking eastern cities controlled by pro-democracy militants, establishes them as central actors in converting the Ukraine into a military outpost of NATO. Euro-America Empire Building and the Role of Riff-Raff

Everywhere the Euro-American imperialists choose to expand – they rely on the ‘scum of the earth’: tribal gangs in Libya, fundamentalist terrorists in Syria, neo-Nazis in the Ukraine.

Is it by choice or necessity? Clearly few consequential democrats would lend themselves to the predatory and destructive assaults on existing regimes which Euro-US strategists design. In the course of imperial wars, the local producers, workers, ordinary citizens would “self-destroy”, whatever the outcome. Hence the empire builders look toward ‘marginal groups’, those with no stake in society or economy. Those alienated from any primary or secondary groups. Footloose fundamentalists fit that bill – provided they are paid, armed and allowed to carry their own ideological baggage. Neo-Nazis hostile to democracy have no qualms about serving empire builders who share their ideological hostility to democrats, socialists, federalists and culturally ‘diverse’ societies and states. So they are targeted for recruitment by the empire builders.

The riff-raff consider themselves ‘strategic allies’ of the Euro-American empire builders. The latter, however, have no strategic allies – only strategic interests. Their tactical alliances with the riff-raff endure until they secure control over the state and eliminate their adversaries. Then the imperialist seek to demote, co-opt, marginalize or eliminate their ‘inconvenient’ riff-raff allies. The falling out comes about when the fundamentalists and neo-Nazis seek to restrict capital, especially foreign capital and impose restrictions on imperial control over resources and territory. At first the empire builders seek ‘opportunists’ among the riff-raff, those willing to sacrifice their ‘ideals’ for money and office. Those who refuse are relegated to secondary positions distant from strategic decision-making or to remote outposts. Those who resist are assassinated or jailed. The disposal of the riff-raff serves the empire on two counts. It provides the client regime with a fig leaf of respectability and disarms western critics targeting the extremist component of the junta.

The riff-raff, however, with arms, fighting experience and financing, in the course of struggle, gains confidence in its own power. They do not easily submit to Euro-US strategies. They also have ‘strategic plans’ of their own, in which they seek political power to further their ideological agenda and enrich their followers.

The riff-raff, want to ‘transition’ from shock troops of empire into rulers in their own right. Hence the assaults on the US embassy in Libya, the assassination of Euro-American proxies in Syria, Right Sector riots against the Kiev junta.

Conclusion

A new power bloc is emerging on a global scale. It is already flexing its muscles. It has come to power in India, Turkey, Ukraine and Israel. It brings together big business, technocrats and ethno-religious fascists. They promote unrestrained capitalist expansion in association with Euro-American imperialism.

Scientists, economists, and IT specialists design the programs and plans to realize the profits of local and foreign capitalists. The ethno-fascists mobilize the ‘masses’ to attack minorities and class organizations threatening high rates of returns.

The Euro-Americans contribute to this ‘new power bloc’ by promoting their own ‘troika’ made up of ‘neo-liberal clients’, fundamentalists and neo-Nazis to overthrow nationalist adversaries. The advance of imperialism and capitalism in the 21st century is based on the harnessing of the most advanced technology and up-to-date media outlets with the most retrograde political and social leaders and ideologies.
[http://petras.lahaine.org/ से साभार ]

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Coal Curse: A film on the political economy of coal in India

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मशहूर पत्रकार ‘परंजय गुहा ठकुरता’ की एक महत्वपूर्ण किताब GAS WARS:crony capitalism and the Ambanis अभी पिछले माह ही छपकर आयी है। इस पर मुकेश अंबानी ने 100 करोड़ का मानहानि का दावा ठोका है और इस किताब पर बैन की मांग की है।
इसी तरह पिछले वर्ष परंजय गुहा ठकुरता ने एक बेहतरीन डाकूमेन्ट्री Coal Curse: A film on the political economy of coal in India बनायी थी। इस फिल्म पर भी काफी विवाद हुआ था। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है यह फिल्म यूपीए के अब तक के सबसे बड़े घोटाले कोल स्कैम पर है। इसे परंजय गुहा ठकुरता और ग्रीन पीस ने मिलकर बनाया है। हालांकि फिल्म मुख्यतः कोल स्कैम पर है, लेकिन फिल्म के दूसरे हिस्से में यह मध्य प्रदेश के ‘सिंगरौली’ में स्थित पावर प्लांट को एक केस स्टडी के रुप में लेते हुए भारत में विकास के माडल पर ही सवाल खड़ा करती है।
2012 के अंत में जब सीएजी ने अपनी रिपोर्ट दी तो उसमें कहा गया कि कोल ब्लाक की नीलामी न करके उसे अपनी मर्जी से आवंटित करने के कारण सरकार को 1 लाख 86 हजार करोड़ का नुकसान हुआ। यह राशि करीब 33 बिलियन अमेरिकी डालर के बराबर है। अब आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि इस राशि से क्या क्या हो सकता है।
डाकूमेन्ट्री में यह मजेदार तथ्य बताया गया है कि बहुत से कोल ब्लाक उन लोगो को दिये गये जिनका कोयले से जुड़ी परियोजना अर्थात पावर जनेरेशन या स्टील प्लांट आदि से कोई लेना देना नही था। कोई तम्बाकू बना रहा है तो कोई सीडी निर्माण के बिजनेस में है। ये लोग कोयले का करेंगे क्या? जाहिर है उन लोगों को कोयला बेंचेगे जिन्हे इसकी जरुरत है। और उस चीज से करोड़ो का मुनाफा कमायेंगे जिसे बनाने में न तो उनकी एक पैसे की पूँजी लगी है और न एक पैसे का श्रम।
डाकूमेन्ट्री में इस सवाल को सही तरीके से उठाया गया है कि प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल बहुत सोच समझ कर किया जाना चाहिए क्योकि ये संसाधन बहुत सीमित हैं। इसलिए ‘मार्केट प्राइस’ का नियम यहां लागू नही होता। मशहूर पर्यावरणविद् ‘अनुपम मिश्र’ इसे बहुत ही रोचक तरीके से रखते हैं- धरती हमारी मदर है, मदर डेरी नही कि जितना पैसा डालो उतना ले जाओ। यह एक पंक्ति प्राकृतिक संसाधनों के पूरे राजनीतिक अर्थशास्त्र को साफ कर देता है।
डाकूमेन्ट्री में एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट का जिक्र किया गया है। इसमें कहा गया है कि जंगलो के बाहर भी बहुत से कोयले के भंडार है। इसे निकालने से पर्यावरण का उतना नुकसान नही होगा जितना जंगल के अंदर कोयले की खुदाई से होता है। लेकिन पूंजीपति और सरकार जंगल के अंदर खुदाई पर ज्यादा जोर दे रहे हैं, क्योकि बाहर खुदाई की लागत ज्यादा आती है। यानी चंद पैसे बचाने के लिए पर्यावरण की बलि चढ़ाई जा रही है। दूसरा कारण यह है कि जंगल में रहने वाली जातियां अभी हाल तक काफी कमजोर मानी जाती थी और यह माना जाता था कि उनके साथ मनमाना व्यवहार किया जा सकता है।
1973 में जब देश के कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया गया तो यह तर्क दिया गया कि इन खदानों में मजदूरों का बहुत शोषण हो रहा है। बड़े पैमाने पर दुर्घटनाएं हो रही है। लेकिन राष्ट्रीयकरण के इतने सालों बाद आज भी उपरोक्त दोनों चीजे बदस्तूर जारी है। लेकिन इस पहलू पर फिल्म में ज्यादा जोर नही दिया गया है। हां कुछ सशक्त दृश्यों के माध्यम से यह चीज सम्प्रेषित जरुर हो जाती है। फिल्म में इस पहलू पर यदि उचित जोर दिया जाता तो फिल्म और भी प्रभावकारी बन जाती।
फिल्म में ‘सिंगरौली’ को एक रुपक की तरह लेकर विस्थापन की समस्या के सभी पहलुओं को रखने की कोशिश की गयी है।
डाकूमेन्ट्री में ‘काला पत्थर’ जैसी कुछ फिल्मों के दृश्योें का रोचक इस्तेमाल किया गया है। इसके अलावा पुराने आर्काइव फुटेज का भी अच्छा इस्तेमाल किया गया है। डाकूमेन्ट्री की एक और खास बात है इसका म्यूजिक। पूरी फिल्म में लोक गीतों का बहुत अच्छा और प्रासंगिक इस्तेमाल हुआ है। कुछ गीत तो बहुत ही कर्णप्रिय है। ये गीत आपको संबधित विषय से भावनात्मक रुप से जोड़ देते हैं। ‘इंडियन ओसियन म्यूजिक बैंड’ के ‘झीनी’ नामक एलबम का भी इसमें इस्तेमाल किया गया है। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि यह फिल्म हिन्दी में भी उपलब्ध है।
दरअसल अभी तक हमारे जेहन में डाकूमेन्ट्री को लेकर जो तस्वीर बनती थी वह दूरदर्शन द्वारा बनायी गयी डाकूमेन्ट्री होती थी जो बेहद नीरस किस्म की होती थी। लेकिन इधर विशेषकर 2000 के बाद जो डाकूमेन्ट्री बन रही हैं वे बेहद प्रयोगधर्मी हैं- न सिर्फ विषय के स्तर पर बल्कि तकनीक के स्तर पर भी। कहीं कहीं तो ‘फिक्शन’ और ‘नान फिक्शन’ की बाउन्ड्री भी धुंधली पड़ती जा रही है।
सिर्फ भारत में ही इस समय करीब 1000 डाकूमेन्ट्री का निर्माण हर साल हो रहा है। यानी सभी भाषाओं में बनने वाली कुल फिल्मों से भी ज्यादा।
बहरहाल आप यह फिल्म यहां देख सकते हैं।

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The Tale of An Unmarked Finger — Ananyo

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After seeing people proudly showing their fingers marked with voting ink, i thought why not then i also show my middle finger not marked with voting ink. But showing an unmarked finger rather than a marked one needs many things to be answered as our general consensus about voting is -“it’s our democratic rights, it’s my contribution, it’s my job towards my country etc etc ”. So there must be some reasons of why one’s finger remained intentionally unmarked amidst this fetishism of election. Am i not political? Am i not concerned about my country? I am asking the same questions to my friends who are proudly showing their marked fingers. Majority of them claim to be “apolitical”, ‘not interested in politics’ but at the time of election they are found to be very patriotic. It’s quite a riddle for me. So I thought why not i share my view on this event and let people decide who’s more concerned about his/her rights and country? and who’s logical….

As five years have gone passed since the 15th Loksabha was formed, the elections in the country are being conducted in a routine manner. This time the election process for forming 16th Loksabha is the longest in the parliamentary history of India. This is the first time the general elections are being conducted in nine phases too. These general elections are also experiencing largest deployment of polling personnel and security forces in a bid to conduct a ‘free and fair’ election. In the present 15th parliament, clashes between various parties on various issues broke the previous records. Although ostensibly they clashed repeatedly on a number of issues, a large number of bills were passed in a very least amount of time, without any discussion and without an opportunity for the people to ponder on them and with the collusion of the ruling and the opposition parties. How many of the voters with proud inked finger know about the bills which have been passed in the parliament? What bills have been passed and why? I would be very delighted to see some of them talking on these. Because these bills passed in the 15th Loksabha would have a long lasting grave effect on the society, economy and polity of our country.
Its for sure that the coming 16th Loksabha would be formed by continuing the legacy of the previous Loksabha and unfortunately this ‘exercise of democracy’ would actually take place upto getting your fingers inked. Otherwise the policies being implemented before, since this process of election has begun would have been completely pro-people whereas we are seeing just the opposite. Election commission also only says “18 years old? It’s time to vote” but does it say anything about giving space to people’s aspiration in the policy making or in the implementation? How the planning would be done and who would be the beneficiaries? Even some multinational companies produce advertisements where a bollywood superstar would suggest you to lift your finger and make difference for a better India whereas the same companies also are found to be connected in illegal mining, various scams, forceful evictions, money laundering, exploiting the workers! Without going into page long statistics about what the condition of India really is and assuming you to be a very responsible citizen who knows about his/her own country (because you are showing your marked finger on the basis of the same notion-being a responsible citizen), my question is to my friends is – how your vote actually influence the policy making? Has it done anything alike? On the contrary, there is not a single policy which has been proposed from within the parliamentary system in the last 19 years of India polity; most of the policy proposals only came as a reaction to people’s relentless struggle for their rights and these emerged completely outside of the paradigm of parliamentary system.
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65 years have passed since so-called independence, the overwhelming majority of the people are still poor in our country. None of the basic issues have been solved. None of the parliamentary parties have an independent path for the development of the country. All of these parties are saying that they would develop our country through neo-liberal policies, privatisation and by bringing in more FDI into our country (read-by evicting people from their livelihood in the name of development), some say a hindu state might do something good and they go on doing muslim pogrom. But where does your vote go my friend?

Moreover,the huge amounts of election expenses of all major all-India and regional parties beg a query as to where they are getting such gigantic amounts of funds. How could every candidate for a parliament seat spend 10 crores of rupees and every candidate for an assembly seat spends 2 crores of rupees on an average? How many of these candidates are free of corruption and criminal records? How much is the role played by caste, religion, region, money and muscle power in candidates getting elected? Is there a single party that is beyond all these? Why are the ruling classes trying to satisfy the electorate with NOTA button without giving the people the right to recall? Why they are deploying state forces ranging from a few thousands to more than one lakh for every district and why are they not able to conduct elections without such huge deployments?
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Actually your vote is being used to delude you as well as others in a bid to curtain the real face of the society, where all the parliamentary political parties are actually the same, they serve the same cause- to mark your finger, take your vote, tight the mask and say democracy prevails and then serve the people whom they have been serving from the beginning and its not you and me my friend, thats for sure. On the contrary, your statement about contributing for the country through vote is actually doing just the opposite of that you are thinking- it’s destroying the nation.
Whereas my unmarked fingers is a potent weapon, is a denial as well as a call and an oath to fight for real democracy, a call for building up people’s parliament; it’s an act of rebellion where my mind denies to get influenced by hundreds of crores of rupees spent by the rulers to refurbish the image of the rotten parliamentary system. And this weapon does frighten them because from Bollywood and Tollywood, cricket stars, industrialists, multinational corporations, media foundations, and non-governmental organisations (NGOs) are carrying out non-stop propaganda about the virtues of democracy, the sanctity of the vote, the necessity of NOTA, how not casting the vote was tantamount to aiding criminals win, and so on only in a bid to pacify people’s discontent. There was no end to web sites and blogs calling on people to exercise their franchise. To lend an air of credibility to their propaganda they asked the voters to use their wisdom to choose between the good and the bad, if there is none to be chosen then choose NOTA, reject the criminals and corrupt elements, and to elect the virtuous, as if there is a possibility of ‘virtuous people’ being left in the parliamentary pigsty!
So, I’m proud and I’m exposing my unmarked finger as I’ve denied to be deceived, to be deluded because my unmarked fingers could not be used as the weapon to deceive others, those would not be helping the rulers to continue their oppression, their autocracy and to continue with the sham of democracy where you can only get your finger marked but can’t get democracy, can’t get your voice being heard and your dreams being fulfilled. I’m proud because in fact I do care more for my country.
[http://toanewdawn.blogspot.in/ से साभार]

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Nero’s Guests

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‘रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था’- इसके बारे में हम सब जानते हैं। लेकिन इसके आगे की कहानी कहीं अधिक भयावह है। जब रोम जल रहा था तो लोगों का ध्यान बंटाने के लिए नीरो ने अपने बाग में एक बड़ी पार्टी रखी। लेकिन समस्या प्रकाश की थी। रात में प्रकाश की व्यवस्था कैसे की जाय। नीरो के पास इसका समाधान था। उसने रोम के कैदियों और गरीब लोगो को बाग के इर्द गिर्द इकट्ठा किया और उन्हे जिन्दा जला दिया। इधर रोम के कैदी और गरीब लोग जिन्दा जल रहे थे और उधर इसके प्रकाश में नीरो की ‘शानदार पार्टी’ आगे बढ़ रही थी। इस पार्टी में शरीक लोग कौन थे? ये सभी नीरो के गेस्ट थे-व्यापारी, कवि, पुजारी, दार्शनिक, नौकरशाह आदि।

दीपा भाटिया की सशक्त डाक्यूमेन्टरी ‘Nero’s Guests’ में उपरोक्त कहानी को उद्धृत करते हुए विख्यात जन पत्रकार ‘पी साइनाथ’ इतिहासकार ‘टैसीटस’ के हवाले से कहते हैं कि नीरो के मेहमानों में से किसी ने भी इस पर सवाल नही उठाया कि प्रकाश के लिए इन्सानों को जिन्दा क्यो जलाया जा रहा है। बल्कि पार्टी के सभी गेस्ट जलते इन्सानों की रोशनी का पूरा लुत्फ ले रहे थे। फिल्म में पी साइनाथ आगे कहते हैं कि यहां समस्या नीरो नही है। वह तो ऐसा ही था। समस्या नीरो के गेस्ट थे। जिनमें से किसी ने भी इस पर आपत्ति नही की।
इस कहानी को आज के भारत से जोड़ते हुए पी साइनाथ आज के नीरो और उनके मेहमानों की पूरी फौज को जिस तरीके से इस फिल्म में बेनकाब करते हैं, वह स्तब्ध कर देने वाला है। पी साइनाथ उन लाखों करोड़ो लोगों के दुःख दर्द को भी शिद्दत से बयां करते हैं जो आज नीरो और उनके मेहमानो के लिए ‘जिन्दा जलने’ को बाध्य हैं।
डाक्यूमेन्टरी वास्तव में किसानों की विशेषकर विदर्भ के किसानों की आत्महत्याओं और भारत में बढ़ती असमानता पर है। इस पूरे मामले में मीडिया नीरो के गेस्ट की तरह ही काम कर रहा है।
पी साइनाथ बताते है कि जब विदर्भ में 8-10 आत्महत्यायें प्रतिदिन हो रही थी तो उसी समय मुम्बई में ‘लक्में फैशन वीक’ चल रहा था। ‘लक्में फैशन वीक’ को कवर करने के लिए बाम्बे में करीब 500 पत्रकार मौजूद थे, लेकिन विदर्भ की आत्महत्याओं को कवर करने के लिए कोई भी पत्रकार नही था।
एक अर्थ में देखे तो यह डाक्यूमेन्टरी पी साइनाथ पर केन्द्रित है। लेकिन इसे इस तरह से तैयार किया गया है कि यह किसानों की आत्महत्या, असमानता और मीडिया के रोल पर पी साइनाथ के काम और उनके विचारों कर केन्द्रित हो जाता है। पी साइनाथ इन ज्वलन्त विषयों के लिए सिर्फ माध्यम भर रह जाते है। विषय प्रमुख हो जाता है।
पी साइनाथ के काम और उनकी पत्रकारिता की यह खास बात है कि वे चीजों को ऐसे कोण से उठाते हैं कि आप न सिर्फ उस विषय से परिचित होते है वरन् अन्दर तक विचलित भी हो जाते हैं। उदाहरण के लिए पी साइनाथ विदर्भ के किसानों की आत्महत्याओं पर बात करते हुए बताते हैं कि विदर्भ में करीब 8 घण्टे बिजली की कटौती रहती है, लेकिन इस कटौती से पोस्टमार्टम करने वाले अस्पतालों को मुुक्त रखा गया है क्योकि वहां 24 घण्टे आत्महत्या किये हुए किसानों की लाश लायी जा रही हैैं।
आत्महत्या के आर्थिक पहलुओं की पड़ताल करते हुए यह डाक्यूमेन्टरी बताती है कि ये आत्महत्यायें एक तरह से हत्या है जो सरकार की अमीर परस्त और साम्राज्यवाद परस्त नीतियों का नतीजा है। इन्ही नीतियों का परिणाम है कि भारत में असमानता किसी भी देश से कही तेज गति से आगे बढ़ रही है। पी साइनाथ इसे रोचक तरीके से यूं कहते है-‘भारत में सबसे तेज गति से विकसित होने वाला सेक्टर आई टी सेक्टर नही है। यह ‘असमानता’ का सेक्टर है।’ असमानता की चर्चा करते हुए पी साइनाथ एक सच घटना को बयां करते हुए बताते हैं कि जब धीरुभाई अंबानी की मौत हुई तो अखबार वालों ने प्रशंसा भाव से यह रिपोर्ट लगायी कि उनकी चिता के लिए 450 किलोग्राम चंदन की लकड़ी इस्तेमाल हुई। और इसे कर्नाटका से मंगाया गया। उसी समय कर्नाटक के ही गुलबर्ग शहर के एक गांव में एक दलित सुशीलाबाई के पति की मौत हो गयी। इस गांव में यह प्रथा है कि दलित अपने परिजनों को दफनाते हैं जबकि गांव की ऊंची जातियां अपने परिजनों को जलाती हैं। लेकिन इस दलित को दफनाया भी गया और जलाया भी गया। क्यो? क्योकि गांव के ऊंची जातियों के लोगों ने गांव के नजदीक उसे दफनाने की इजाजत नही दीे। वास्तव में जब दफनाने की प्रक्रिया चल ही रही थी उसी समय ऊंची जाति के लोगों ने आकर जबर्दस्ती इसे बीच में ही रोक दिया। मजबूरन सुशीलाबाई ने अपने पति के मृत शरीर को चिता के हवाले किया, लेकिन आवश्यक लकड़ी और तेल का पूरा इन्तजाम न कर पाने के कारण वह मृत शरीर आधा ही जल पाया। यह है इस देश के एक गरीब दलित की नियति। उसका दलित होना मौत के बाद भी उसका पीछा नही छोड़ता।
डाक्यूमेन्टरी में आत्महत्या करने वाले एक किसान ‘श्री कृष्णा कालंब’ की दो कविताओं को उद्धृत किया गया है। पहली कविता की एक पंक्ति ही है कि ‘हम अपने परिजनों को आधा ही जला पाते हैं।’
दूसरी कविता और भी मार्मिक हैै-
भूखा बच्चा
अपनी मां से रोटी मांगता है,
मां, आंखों में आंसू लिए
रक्तिम होते सूर्य की ओर इशारा करती है।
तो मुझे वही रोटी दे दो ना,
मैने रात से कुछ नही खाया,
भूख से पेट सिकुड़ रहा है।
उस गरम रोटी को ठंडा होने दे मेरे बच्चे।

अभी यह इतना गरम है कि
तेरे मुंह में छाले पड़ जायेगे।
गर्म सूरज की यात्रा खत्म हुई,
और वह पहाड़ के पीछे डूब गया।
और उस रोटी के इन्तजार में
भूखा बच्चा
एक बार फिर भूखा ही सो गया।

कुल मिलाकर यह उन कुछ चुनी हुई डाक्यूमेन्टरी में से एक है जिसे देखने के बाद आपकी दुनिया और दुनिया को देखने का आपका नजरिया वही नही रह जाता। यह फिल्म इसलिए भी देखनी चाहिए कि इसे देखकर हम अपने आपसे यह सवाल कर सकें कि कहीं हम भी तो नीरो के मेहमानों में शामिल नहीं हो चुके हैं?
और यह सवाल अपने आपसे बार बार पूछा जाना चाहिए। क्योकि नीरो के मेहमानों की तादाद आज काफी बढ़ चुकी है।

पूरी फिल्म आप यहां देख सकते हैं।

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करीब से……

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ज़ोहरा सहगल की 102 साल की भरीपुरी जि़न्दगी की एक झलक मिली उनकी आत्मकथा ‘क़रीब से’ में। हालांकि एक शतक की पूरी जि़न्दगी 241 पन्नों की किताब में समेट पाना बेहद मुश्किल है, वह भी तब जब जीवन में इतना कुछ घटित हो रहा हो। लेकिन उस जि़न्दगी को पढ़ कर एक सुकून मिला कि चलो कोई तो है जो जि़न्दगी को इतना सम्पूर्ण जीता है। थोड़ा सा गिला अपनी जि़न्दगी से हुआ कि काश हम थोड़ा सा भी ऐसा जी लेते। पर कोई भी पूरा कहां जी पाता है। ज़ोहरा को भी थोड़ा गिला रह गया – ‘‘सच बोलूं तो मैं बहुत कुछ और कर सकती थी। मुझमे कुछ हुनर था और मुझे वह मौक़े मिले जो मेरी पीढ़ी की बहुत सी औरतों को नहीं मिले।…………..हालांकि मुझे लगता है कि मुझे कुछ कम मिला, लेकिन मैंने अपने लिए थोड़ी सी पहचान बनाई, बहुत सारा तजु़र्बा कमाया और कड़ी मेहनत के बावजूद अपने काम से बेपनाह खुशियां र्पाइं। और क्या चाहिए, मैं इसे ऐसा चाहती थी।’’ ज़ोहरा की आत्मकथा की ये अन्तिम पंक्तियां हैं। जि़न्दगी को और क्या चाहिए। सारा जीवन अपनी मर्जी से जीना। यही तो एक व्यक्ति के जीने का मक़सद होता है। ज़ोहरा ने जीवन का एक-एक पल अपनी मर्जी से जिया।
मशहूर अदाकरा ज़ोहरा सहगल का जन्म 27 अप्रैल 1912 में उत्तरप्रदेश के सहारनपुर में हुआ था। उनके अब्बा एक पठान सरदार थे। उनके पुरखे 1761 में हिन्दुस्तान में आए और बाद में वे रामपुर में बस गए। उनकी मां नजीबाबाद रियासत के नवाबी खानदान की थीं जो बाद में मुरादाबाद में बस गया। इस तरह ज़ोहरा को विरासत में नवाबी और रईसी मिली थी जिसकी ठसक उनकी पूरी जि़न्दगी में देखने को मिलती है। हालांकि अपने पैशन, थिएटर के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की और पृथ्वी थिएटर के दौरों के दौरान सभी के साथ ज़मीन पर भी सोती थीं और अपने कपड़े खुद धोती थीं। बकौल जोहरा ‘दौरों की इस ‘कैम्प’’ की सी जि़न्दगी ने मेरे अन्दर की अभिजात ठसक को काफ़ी हद तक चकनाचूर कर दिया था।’
सबसे महत्वपूर्ण है कि उस वक्त 20वीं शताब्दी के पहले दशक में पैदा होने के बावजूद उनकी परवरिश अपेक्षाकृत एक उदारवादी माहौल में हुयी। उन्होंने लाहौर के विख्यात क्वीन मैरी’ज़ कालेज में ऐडमिशन लिया और होस्टल में रहते हुए तालीम हासिल की। यह काॅलेज विशेषतौर पर रईस खानदान की लड़कियों के लिए बनाया गया था। यहां मध्यम वर्ग के बच्चों को भी ऐडमिशन नहीं दिया जाता था। स्वयं ज़ोहरा बताती हैं कि उनके स्कूल में एक बार एक ठेकेदार की बेटी पढ़ने आई तो उन लोगों ने बहुत नाकभौं सिकोड़ा और व्यंग्य किया। ज़ाहिर है अभिजात्यता उनके रग-रग में थी। बहरहाल उस ज़माने में एक लड़की को ऊंची शिक्षा दिया जाना विरली ही बात थी। यही नहीं उन्हें अपनी मर्जी से जीवन तय करने की भी छूट थी। क्वीन मेरी’ज़ कालेज में शिक्षा पूरी होने के बाद उन्होंने अपनी इच्छा ज़ाहिर की कि वे मंच की कलाकार बनना चाहती हैं तो उन्हें फौरन इसकी इजाज़त मिल गयी। यूरोप की यात्रा के दौरान उन्होंने इज़ाबेला डंकन से प्रभावित होकर नृत्यांगना बनना चाहा और उन्हें फ़ौरन इसकी भी इजाज़त मिल गयी। इसके बाद उन्होंने जर्मनी में रह कर नृत्य सीखा। इस तरह उनकी अदाकारी की शुरुआत नृत्य से हुयी।
भारत लौटने के बाद वह उदयशंकर की नृत्य मण्डली के साथ संयुक्त हो गयीं । 1939 में उदयशंकर द्वारा अल्मोड़ा में खोले गए सांस्कृतिक केन्द्र में वह शुरू से ही सम्बद्ध रहीं। यहीं उनकी मुलाक़ात एक अन्य ज़हीन कलाकार और उनके शिष्य कामेश्वर सहगल से हुयी। यह मुलाकात पहले दोस्ती फि़र प्यार और फि़र शादी में तब्दील हो गयी। 1943 में दोनो ने अल्मोड़ा छोड़ दिया और लाहौर में अपनी नृत्य अकेडमी खोल ली -ज़ारेश डांस इन्स्टीट्यूट।
1945 में सहगल दम्पत्ति बाॅम्बे शिफ्ट हो गए। उस ज़माने की रवायत के हिसाब से वह फौरन इप्टा से जुड़ गयीं। लेकिन इप्टा उनके व्यक्तित्व पर विचारधारात्मक असर छोड़ पाने में नाकामयाब रहा। सम्भवतः इप्टा आन्दोलन की यह सबसे बड़ी कमी रही कि इससे जुड़े अधिकांश लोगों की विचारधारात्मक परिपक्वता एवं वर्ग चेतना कभी भी बहुत तीखी नहीं रही। शायद इसी लिए वह ज़ोहरा पर भी अपना ज़्यादा असर नहीं डाल सका। हालांकि वह कहती हैं कि उस दौर का हर वह कलाकार जिसका थोड़ा भी नाम हो, इप्टा में शामिल था। कलाकार इप्टा की ओर ऐसे खिंचे चले आते थे जैसे मधुमक्खियां शहद की ओर। इप्टा को लेकर उनकी समझ यह थी कि 1947 के बाद इसका असर कम होता गया, शायद इसलिए कि इसके बहुत से कलाकार फि़ल्मी दुनिया में मशहूर हो गए और बिना कुछ लिए इप्टा के कामों में खटने का जज़्बा उनमें बाकी नहीं रहा। कुछ कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा से इत्तेफ़ाक़ न रखने कारण इसे छोड़ कर चले गए। और अन्त में उन्हें लगता है कि आज़ादी मिलने के बाद विदेशी हुक्मरान चले गए तो शिकायत करने की कोई वजह नहीं रह गयी।
इसके बाद वह पृथ्वी थिएटर में शामिल हो गयीं। और 1960 में इसके बन्द होने से कुछ पहले इसे छोड़ दिया। उन्होंने बहुत ही तफ़सील से पृथ्वी थिएटर की गतिविधियों एवं उसके विभिन्न नाटकों और उनके साथ अपने जुड़ाव को क़लमबद्ध किया है। पृथ्वीराजकपूर के साथ उनका काफ़ी क़रीबी सम्बन्ध था। इस तरह वे अपने दो गुरुओं को रेखांकित करती हैं। नृत्य के लिए उदयशंकर दादा और थिएटर के लिए पृथ्वीराज कपूर पापा। पृथ्वीराज कपूर के बराबरी के जज़्बे और कड़ी मेहनत की वह क़ायल थीं। उन्होंने ताउम्र इसे क़ायम रखा।
1959 में उनके पति कामेश्वर सहगल की मौत हो गयी। इसके बाद ज़ोहरा ने बाॅम्बे छोड़ दिया और लगभग पागलपन की स्थिति में दिल्ली आ गयीं और बाद में नाट्य अकादमी का कार्यभार संभाला और प्रशासनिक काम देखने लगीं। इसी दौरान उन्होंने रूस सहित यूरोप के विभिन्न देशों का दौरा किया। प्रशासनिक काम करने से ऊब कर एक बार फि़र वह लंदन मे रहने लगीं। यहां उन्होंने आजीविका के लिए छोटे बड़े बहुत से काम किये। इसमें ड्रेसर की नौकरी भी शामिल है। यहां रहते हुए वह विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों एवं बीबीसी से जुड़ी रही।
1989 में अन्ततः वह दिल्ली, अपने वतन, अपने लोगों के साथ रहने के लिए आ गयीं। यहां आने के बाद उन्होंने अपने लिए एक बसेरे का इन्तज़ाम किया और अब वहीं रह रही हैं। यहां आने के बाद भी अभी हाल तक ज़ोहरा सहगल अभिनय की दुनिया से जुड़ी रहीं। अप्रैल 2012 में उन्होंने अपने जीवन का शतक पूरा किया।
कुल मिला कर इस किताब के हर पन्ने से वही जि़न्दगी छलकती हुयी मिलती है जो इस किताब के कवर पर छपे ज़ोहरा के जीवन्त चित्र से छलकती है। जैसा कि हर किताब के पढ़ने के पूर्व एक प्रत्याशा होती है, मेरी इस किताब से भी थी। मैंने सोचा था कि इस किताब के माध्यम से इप्टा को क़रीब से जान पाउंगी। पर ज़ोहरा शायद विचारधारात्मक रूप से इप्टा से कभी नहीं जुड़ीं। फि़र भी उनके द्वारा अल्मोड़ा स्थित उदयशंकर के सांस्कृतिक केन्द्र एवं पृथ्वी थिएटर के विषय में किया गया बारीक विवरण एक कलात्मक अभितृप्ति देता है।
किताब का अनुवाद किया है -दीपा पाठक ने। उन्होंने किताब और ज़ोहरा के जीवन के मर्म को समझा है और विषयवस्तु के अनुरूप हिन्दी उर्दू शब्दों प्रयोग करते हुए बेहतरीन अनुवाद किया है।

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