Daily CEO Pay Now Exceeds U.S. Workers Annual Salary – Richard Smallteacher

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U.S. corporate CEO salaries rose 16 percent in 2012 according to a new report from research firm Equilar. Top salary: Larry Ellison of Oracle – over $96 million. Top exit bonus: James Mulva of ConocoPhillips – $156 million.

Average salary for the CEOs of the top 200 U.S. companies with revenue of over $1 billion was $5.3 million. The big money, however, is paid out in stock and options which added another $9 million to the median compensation package for the CEOs.

Worst off were the workers at these companies whose median pay is now at a historic low compared to the CEOs. In 1965, according to a new report from the Economic Policy Institute, the average CEO made 20 times the average worker. Now the ratio is 273 to 1 ie the average CEO’s daily salary is now greater than the annual salary of their workers.

Ellison did even better – he was paid the equivalent of the average U.S. salary of $45,790 every single hour last year.

“So much for the idea that shareholders were finally getting through to corporate boards on the topic of reining in pay,” writes Gretchen Morgenson at the New York Times. The salary survey was commissioned by her newspaper.

And CEO’s sometimes do even better when they quit.

Take for example, James Mulva of ConocoPhillips. He was paid $140.8 million in 2011 but topped that in 2012 when he left the company after 10 years as CEO. Once he cashed out his stock options, took his retirement bonus and got his final paycheck, he collected a whopping $260 million in 2012.

The New York Times has a list of the rest of the top ten in departure bonanzas: Edward Breen was paid $46.2 million after leaving Tyco International, George Lindemann of Southern Union got $44.1 million, Kevin Sharer of Amgen was paid $40.4 million, Douglas Foshee of El Paso Corporation got $37.4 million, James Skinner of McDonald’s and Brian Duperreault of Marsh & McLennan were each paid $33 million, Michael Szymanczyk of Altria got $27.9 million, while John Chapman of Axis Capital Holdings made $26.5 million. Lynn Elsenhans of Sunoco was the only woman in the group with $23.6 million.

Mulva may have made the most in 2012 but three CEOs would have received even more under their current contracts had they been let go, according to Bloomberg News. David Zaslav of Discovery Communications will get $224.7 million if he’s fired, Les Moonves of CBS will get $251.4 million and John Hammergren of McKesson Corporation tops the charts with a potential $303.4 million.

These “golden parachute” arrangements have had a negative impact on corporate performance, say experts. “If you have a safety net of this type of gargantuan size, it starts to undermine the CEO’s desire to build long-term value for shareholders,” Paul Hodgson, a director at corporate governance researcher at BHJ Partners, told Bloomberg. “You don’t really care if you’re fired or not.”

Not all corporate titans did quite as well in 2012. Another Equilar survey conducted for the Financial Times shows that the top 15 bankers made an average of just $11.5 million down 10 percent on the previous year. Highest paid was John Stumpf of Wells Fargo who got $19.3 million followed by Jamie Dimon of JP Morgan who was paid $18.7 million.
www.CorpWatch.org से साभार

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जिजीविषा और प्रतिरोध की प्रतीक ‘हेलन केलर’

Helen Keller and Anne Sullivan

Helen Keller and Anne Sullivan

‘हेलन केलर’ का जन्म 27 जून 1880 को अमरीका के ‘अलाबामा’ शहर में हुआ था। जन्म के महज 18 माह बाद एक बीमारी के कारण उनकी सुनने और देखने की शक्ति खत्म हो गयी। ना देख पाने व ना सुन पाने की बेचैनी के कारण बचपन में वे काफी आक्रामक और जिद्दी हो गयी थी। इससे घर में अक्सर समस्या खड़ी होती रहती थी। हेलन केलर के पिता उन्हे अनाथालय में भेजने का मन बना चुके थे। लेकिन हेलन की मां को यह मंजूर नही था। इसी बीच उन्हे ऐसे टीचर के बारे में पता चला जो अंधे और बहरे बच्चों को पढ़ा सकती है। मां ने किसी तरह हेलन केलर के पिता को इस पर सहमत कर लिया कि हेलन केलर को टीचर की निगरानी में रखा जाय। इस टीचर का नाम था- ‘एन्नी सूलीवान’।
मशहूर लेखक ‘मार्क ट्वेन’ ने बाद में ‘एन्नी सूलीवान’ को ‘मिरैकल वर्कर’ का नाम दिया। और इसी नाम से बाद में हेलन केलर और एन्नी सूलीवान के रिश्तों पर एक बेहद खूबसूरत फिल्म बनी। हिन्दी में बनी ‘ब्लैक’ फिल्म इसी फिल्म से प्रेरित है।
एन्नी सूलीवान खुद भी लगभग अंधता की शिकार थी। उन्हे बहुत ही कम दिखायी देता था। जीवन के अन्तिम 3 वर्ष तो उन्होने पूर्ण अंधता में बिताये। शायद इसी कारण वे हेलन केलर को अच्छी तरह समझती थी। बहरहाल हेलन केलर के आक्रमक व्यवहार और उनके जिद्दीपन का लगातार शिकार होते हुए भी अन्ततः उन्होने अपने इस छात्र का विश्वास जीत ही लिया। हाथों पर साइन के माध्यम से उन्होने आसपास के तमाम चीजों के नाम से हेलन केलर को परिचित कराया। पहला अक्षर उन्होने सिखाया – ‘वाटर’। किसी वस्तु के नाम को हम आसानी से ग्रहण कर लेते हैं। लेकिन एक अन्धे और बहरे के लिए यह बेहद कठिन काम है। लेकिन असली चमत्कार तो तब हुआ जब एन्नी सूलीवान ने हेलन केलर को बोलना सिखाया। ऐसी बच्ची के लिए जो 18 माह में ही बहरी हो गयी हो, बोलना लगभग असंभव है। दरअसल हेलन केलर ने अपनी अध्यापिका के होंठ पर, नाक और गले के larynx [स्वर यंत्र] पर एक साथ उंगली रख कर कड़े अभ्यास से प्रत्येक अक्षर को कैसे उच्चारित किया जाता है, यह सीख लिया। यह वास्तव में एक चमत्कार था। लेकिन यह हो गया। आज भी ‘लिप रीडिंग’ बहुत ही कठिन विधा है।
इसी बीच उन्होने ब्रेल लिपि भी सीख ली। और तेज गति से लिखने व पढ़ने लगी।
इसके बाद शुरु हुई उनकी राजनीतिक विकास यात्रा।
1909 में उन्होने ‘अमरीकी समाजवादी पार्टी’ की सदस्यता ग्रहण कर ली। वे ‘अमरीकन सिविल लिबर्टीज यूनियन’ के संस्थापक सदस्यों में थी। वे ‘आईडब्लूडब्लू’ [Industrial workers of the world] की भी सदस्य रही। अमरीका में ‘महिला मताधिकार’ के पक्ष में और युद्ध विरोधी आन्दोलनों में उनकी अग्रणी भूमिका रही। अमरीकी कम्युनिस्ट पार्टी के कई सदस्यों के साथ उनकी गहरी दोस्ती रही। हेलन केलर ने ‘WOODROW WILSON’S DOCTRINE’ जैसी विस्तारवादी अमेरिकन विदेश नीति का पुरजोर विरोध किया. 1955 में मैकार्थिज्म के शिकार मशहूर कम्युनिष्ट नेता ‘एलिजाबेथ फ्लायन’ को जेल में जब हेलन केलर ने बधाई सन्देश भेजा तो उस समय एक बड़ा बवाल खड़ा हो गया। ‘एफ बी आई’ की नजरों में हेलन केलर खटकने लगी।
दरअसल जब से हेलन केलर ने अपने समाजवादी विचारों को सामने लाना शुरु किया तभी से पूंजीवादी मीडिया ने निर्लज्जता के साथ उन पर आक्रमण शुरु कर दिया था। यह दिलचस्प है कि पहले जो मीडिया उनकी जिजीविषा की जयकार कर रहा था वही अब उनकी शारीरिक असमर्थता को उनके प्रगतिशील विचारों का कारण बताने लगा। और उन्हे तथा लोगों को बार बार याद दिलाने लगा कि हेलन केलर अंधी और बहरी हैं, इसलिए उनके विचारों को गम्भीरता से नही लेना चाहिए। ऐसे ही एक अखबार ‘ब्रुकलीन इगल’ के संपादक से हेलन केलर की बहस काफी दिलचस्प है जिसे हेलन केलर ने अपने एक लेख ‘How I Became a Socialist’ में विस्तार से बताया है। उन्होने चुनौती दी की मेरे विचारों का जवाब विचारों से दिया जाय। मेरे विचारों के आगे मेरे अंधेपन और बहरेपन को ना खड़ा किया जाय।
उन्होंने देश विदेश में घूम घूम कर सैकड़ों लेक्चर दिये। इनमें से ज्यादातर आज भी उपलब्ध हैं।
उन्होनें अपनी आत्मकथा सहित कुल 12 किताबें और सैकड़ों लेख लिखे हैं। ऐसे ही एक लेख में उन्होंने अमरीकी पूंजीवादी व्यवस्था पर बहुत ही तल्ख टिप्पणी की है। उन्होने इसे औद्योगिक रुप से अंधा और सामाजिक रुप से बहरा कहा।
इसके अलावा हेलन केलर पर दर्जनों डाक्यूमेन्टरी और फिल्में बन चुकी हैं। लेकिन अफसोस कि किसी भी फिल्म या डाक्यूमेन्टरी में उनके राजनीतिक विचारों और उनकी राजनीतिक कार्यवाहियों को जगह नही दी गयी है। इससे यह सवाल उठता है कि हेलन केलर का असल परिचय क्या है- अंधी बहरी हेलन केलर या अंधी बहरी इस व्यवस्था के खिलाफ संघर्षरत राजनीतिक हेलन केलर
हेलन केलर का निधन 1 जून 1968 को हुआ।
हेलन केलर और उनकी शिक्षिका एन्नी सूलीवान का एक दुर्लभ वीडियों आप यहां देख सकते हैं। इसे 1928 में शूट किया गया था।

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सभ्यता की सीढ़ी पर पहले कदम महिलाओं के ही पड़े…..

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सामाजिक श्रम ही वह विशेषता है जो मनुष्यों को पशुओं से अलग करता है। शुरुआत में यह विशेषता सिर्फ महिलाओं के पास थी। इस तरह से हम कह सकते है कि महिला ही मानव जाति की पहली किसान, पहली डाक्टर, पहली वैज्ञानिक, पहली नर्स, पहली आर्किटेक्ट, पहली इंजीनियर, पहली अध्यापक, पहली कलाकार, पहली भाषाविद, और पहली इतिहासकार थी। वे जिस घर का संचालन करती थी, वे महज रसोई और नर्सरी ही नही थे, वरन पहली फैक्टरी, पहली प्रयोगशाला, पहली क्लिीनिक, पहले स्कूल, व पहले सामाजिक केद्र थे।
ख्यात समाजवादी नेत्री एवलिन रीड ने यह विचार अपनी पुस्तक Woman’s evolution में रखा है।
दरअसल हम जिस शिक्षा व्यवस्था व समाज व्यवस्था में पले बढ़े है, वहां मानव का विकास आदमी [male] के विकास के पर्यायवाची के तौर पर पढ़ाया जाता है। याद कीजिए वानर से नर बनने की प्रकिया बताते समय जो चित्र किताबों में उधृत किया जाता है वह आदमी [male] का ही होता है। अवचेतन में यह बात होती है कि हमेशा ही महिलाओं ने पुरुषों का अनुसरण किया है। इस धारणा का प्रमुख कारण आज का पितृसत्तात्मक समाज है जिसने हमारे दिमाग को कई रुपों में ‘कन्डीशन्ड’ किया हुआ है।
यहां तक कि जब तक ‘एन्थ्रोपोलाजी’ में महिला शोधकर्ताओं का प्रवेश नही हुआ था तब तक एन्थ्रोपालाजी में भी प्रागैतिहासिक काल में महिलाओं की भूमिका को नजरअंदाज किया जाता था। एन्थ्रोपालाजी में महिला शोधकर्ताओं के प्रवेश और मार्क्सवादी विचारों के प्रभाव के बाद ही प्रागैतिहासिक काल में महिलाओं की भूमिका पर समुचित प्रकाश पड़ा।
अब तो इस पर तमाम गम्भीर शोध हो चुके है। इन्ही शोधों को आधार बनाकर एवलीन रीड ने यह महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। और इस बात को सफलतापूर्वक स्थापित किया है कि सभ्यता की सीढ़ी पर पहले कदम महिलाओं के ही पड़े। पुरुषों ने महिलाओं का अनुसरण किया।

EVELYN REED

EVELYN REED


आज पुरुष प्रधान समाज में अक्सर महिलाओं की भिन्न शारीरिक संरचना को समाज में उनके दोयम दर्जे के लिए जिम्मेदार समझा जाता है।
लेकिन एवलीन रीड कहती हैं कि यह भिन्न शारीरिक संरचना यानी ‘मातृत्व की क्षमता’ शुरुआत में महिलाओं की ताकत थी कमजोरी नही। एवलिन रीड लिखती है – ‘अपनी शारीरिक संरचना के कारण ‘फीमेल सेक्स’ कमजोर नही बल्कि मजबूत स्थिति में थी। निश्चित रुप से उस समय ‘मेल सेक्स’, ‘फीमेल सेक्स’ से शारीरिक रुप से मजबूत था और उसके नुकीले दांत उसकी लड़ने की क्षमता को बढ़ा देते थे। लेकिन ‘फीमेल सेक्स’ अपनी आपसी सहयोग की क्षमता और सामूहिक कार्यवाही की ताकत के कारण किसी ‘एक मेल सेक्स’ पर बहुत भारी पड़ती थी।
इसके अलावा ‘मां’ के रुप में उनका अपने नौजवान लड़कों पर सामाजिक प्रभाव उस समय के नजदीक के बन्दर जाति से कही अधिक होता था। महिलाओं की इसी विशेष स्थिति ने उन्हे इस योग्य बनाया कि वे सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक नियम कानून को संस्थाबद्ध कर सकी।

वास्तव में इस बात पर बहुत कम ध्यान दिया गया है कि कैसे ‘मातृत्व’ ने व्यक्ति से समाज की ओर छलांग लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। मशहूर एन्थ्रोपोलाजिस्ट राबर्ट ब्रीफाल्ट ने तीन भागों में लिखी अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक मदर्स में मातृत्व की भूमिका पर महत्वपूर्ण रोशनी डाली है। एवलिन रीड ने अपनी पुस्तक में राबर्ट ब्रीफाल्ट को विस्तार से उदधृत करते हुए मातृत्व को महिला की ताकत के रुप में दर्शाया है। एवलिन रीड लिखती है – ‘अपनी पुस्तक ‘मदर्स’ में राबर्ट ब्रीफाल्ट ने दिखाया है कि कैसे पशु जगत में मातृत्व की देखभाल ने मानव जगत के व्यापक व उच्चतर विकास के लिए जमीन तैयार की, जिसे हम सामाजिक देखभाल कह सकते हैं, जहां झुण्ड के सभी लोग एक दूसरे की सुरक्षा व देखभाल करते है। दूसरे तरीके से इसे हम यूं कह सकते हैं कि ‘फीमेल सेक्स’ में लालन पालन का जो सहज गुण होता है उसने ‘फीमेल सेक्स’ को इस योग्य बनाया कि वह अपने विकास क्रम में पशुजगत की इस सहज प्रवृत्ति को उंचे धरातल पर ले जाकर इसे सामाजिक व्यवहार से बदल दे।’ ………
वास्तव में ‘मेल पशु’ को जहां सिर्फ अपनी चिन्ता होती है वही ‘फीमेल पशु’ को अपने साथ साथ अपने बच्चों की भी चिन्ता करनी होती है। व्यक्तिवाद से अलग यह प्रवृत्ति ही वह शुरुआती बिन्दु था जो पशु जगत की प्रवृत्तियों को परिवर्तित करते हुए विकास के क्रम में वहां पहुंचा जहां सामाजिक प्राणियों के लिए जरुरी नई आदतों का निर्माण सम्भव हुआ।
फ्रेडरिक एंगेल्स ने विस्तार से यह बताया है कि वानर से नर बनने की प्रक्रिया में निर्णायक भूमिका श्रम की है। यहां यह ध्यान रखना जरुरी है कि विशेष शारीरिक बनावट के कारण महिलाओं और पुरुषों के बीच पहला श्रम विभाजन यह था कि पुरुष शिकार पर केन्द्रित थे जबकि महिलाएं अपने निवास के आसपास फल – अनाज संग्रह पर केद्रित थी। महिलाएं कन्द मूल इकट्ठा करने के लिए डिगिंग [खोदना] का सहारा लेती थी। इसी डिगिंग प्रक्रिया से आगे चलकर खेती की शुरुआत हुई। इसलिए अब यह मानी हुई बात है कि खेती की शुरुआत महिलाओं ने ही की। यह भी स्थापित बात है कि जहां शिकार भोजन का स्थाई स्रोत नही था वहीं प्रारंभिक खेती या अन्न संग्रह भोजन का स्थाई स्रोत था। मातृसमाज बनने में इस फैक्टर ने निश्चय ही महत्वपूर्ण भूमिका निभायी होगी।
वानर से नर बनने में जिस श्रम की बात एंगेल्स करते है वह निश्चय ही सामाजिक श्रम है। और यह न मानने का कतई कोई कारण नही है कि सामाजिक श्रम की परिस्थितियां महिलाओं की तरफ ज्यादा अनुकूल थी।
मशहूर इतिहासकार गार्डन चाइल्ड ने अपनी पुस्तक what happened in history में इसे इस तरह कहा है- ‘नियोलिथिक रिवोल्यूशन को पूरा करने के लिए मानवजाति ने बल्कि निश्चित रुप से कहे तो महिलाजाति ने न सिर्फ उपयुक्त पौधों की और इसे पैदा करने की विधि की खोज की बल्कि जमीन को खोदने, बुआई करने और फसल को सहेज कर रखने और इसे भोजन में बदलने के लिए उचित उपकरणों की भी खोज की।’
गार्डन चाइल्ड ने मिट्टी के बर्तन बनाने की रासायनिक विधि, बुनकरी की भौतिकी, लूम की गतिकी और कपास की बाटनी को इजाद करने का श्रेय भी महिलाओं को ही दिया है।
निश्चित रुप से आग की खोज भी इसी प्रक्रिया में हुई। और यह पढ़कर सुखद आश्चर्य होता है कि आग का आविष्कार भी महिलाओं ने ही किया। एवलिन रीड तो यहा तक कहती हैं कि प्रारम्भ में महिलाएं आग का इस्तेमाल न सिर्फ पशुओं से अपनी रक्षा के लिए करती थी वरन पुरुषों से भी अपनी रक्षा के लिए इसका इस्तेमाल करती थी। पुरुषों ने बहुत बाद में जाकर आग पर काबू पाया।
एवलिन रीड मातृसत्तात्मक समाज और उससे पहले के युग में महिला पुरुषों के बीच सेक्स संबधों पर विस्तार से प्रकाश डालती है और इससे सम्बंधित आज के हमारे कई पूर्वाग्रहों को ध्वस्त करती हैं और यह स्थापित करती हैं कि महिलाओं का लंबे काल तक अपने सेक्स पर पूर्णतया अधिकार रहा है। यह अधिकार महिलाओं ने सिर्फ पितृसत्ता में आकर खोया है।
कुल मिलाकर यह किताब उन सभी लोगो के लिए बेहद महत्वपूर्ण है जो किसी न किसी रुप में महिला सवालों और महिला मुक्ति से जुड़े हुए हैं।
इस किताब के महत्व व इसकी सार्थकता को देखते हुए मै इस किताब को आपसे भी साझा करना चाहती हूं। किताब के नाम पर क्लिक करके आप इसे डाउनलोड कर सकते हैं।

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साइबर स्पेस का सैन्यीकरण…..

BIG BROTHER WATCHING YOU

BIG BROTHER WATCHING YOU

साइबर स्पेस का तेजी से सैन्यीकरण हो रहा है। एक तरह से कहे तो साइबर स्पेस पर सैन्य आधिपत्य स्थापित हो रहा है। जब आप इन्टरनेट के माध्यम से अपनी सूचनाओं का आदान प्रदान करते है या नेट से जुड़े फोन का उपयोग करते है तो आप की यह सभी गतिविधियां सैन्य खुफिया तंत्रों द्वारा इन्टरसेप्ट की जाती है। यह ऐसा ही है जैसे आपके बेडरुम में एक टैंक रखा हो। यह ऐसा ही है जैसे आपके और आपकी पत्नी के बीच हो रहे एसएमएस [sms] के बीच में एक सैनिक खड़ा हो। जहां तक सूचनाओं के आदान प्रदान की बात है तो हम आज ‘मार्शल ला’ के अधीन रह रहे हैं। भले ही हम टैंक को ना देख पाये, लेकिन वह अस्तित्वमान है।
‘विकीलीक्स’ के संस्थापक जूलियन असांज ने यह विचारोत्तेजक बात अपनी नयी किताब cypherpunks में की है। यह किताब वास्तव में बातचीत की शैली में लिखी गयी है। इसमें इन्टरनेट डेमोक्रेसी और ओपन साफ्टवेयर के पक्ष में पुरजोर अभियान चलाने वाले लोगो के साथ जूलियन असांज की विचारोत्तेजक बातचीत दर्ज है। बातचीत इस अंदाज में की गयी है कि इन्टरनेट की तकनीकी शब्दावली से परिचित ना होने वाला व्यक्ति भी इसे आसानी से समझ सकता है। इस बातचीत में जूलियन असांज के अलावा जैकब अपेलबाम, एण्डी मूलर और जेरेमी जिमरमान ने भाग लिया। यह किताब पिछले साल के अन्त में प्रकाशित हुई थी।
जब मैने इस किताब को पढ़ना शुरु किया तो इसी बीच संयोग से अमरीकन खूफिया तंत्र का सबसे बड़ा खुलासा सामने आया। अमरीकी खुफिया तंत्र के ही एक भूतपूर्व कर्मचारी स्नोडेन ने अमरीकी खूफिया एजेन्सी एन एस ए [जिसके अस्तित्व का बहुत समय तक लोगो को पता ही नही था। इसी कारण बाद में इसका निक नेम पड़ गया-no such agency] की प्रिज्म नामक प्रोजेक्ट का खुलासा किया। प्रिज्म प्रोजेक्ट के तहत अमरीका गूगल, याहू, फेसबुक, माइक्रोसाफ्ट सहित दुनिया की नौ बड़ी इन्टरनेट कम्पनियों के सर्वर से सभी जानकारियां अपने पास इकट्ठा कर रहा है [जाहिर है इन कम्पनियों की सहमति से]। यानी दुनिया भर के उन सभी लोगों की जानकारियां अमरीका के पास इकट्ठा हो रही हैं जो जी मेल, याहू मेल, हाट मेल, गूगल, या फिर फेसबुक का इस्तेमाल करते है। दुनिया भर के ज्यादातर देशों के आधिकारिक काम भी इन्ही कम्पनियों के मेल पर होते है। जिसमें जाहिर है कि संवेदनशील सूचनायें भी होती है। यही कारण है कि ‘यूरोपियन यूनियन’ सहित कई देशों ने अमरीका से कड़ा जवाब मांगा है। और प्रिज्म नामक प्रोजेक्ट को तत्काल बन्द करने की मांग की है। भारत सरकार ने भी औपचारिक विरोध दर्ज कराया है। प्रिज्म नामक प्रोजक्ट में शामिल गूगल, याहू, फेसबुक जैसी कम्पनियां बैकफुट पर आ गयी है। और उन्हे कोई जवाब नही सूझ रहा है।
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इसी से जुड़े एक अन्य खुलासे में पता चला कि अमरीका अपने देश के सभी नागरिको की सभी फोन कालो का सम्पूर्ण रिकार्ड अनिश्चित काल के लिए रखता है। इसके अलावा अमरीका से बाहर जाने वाली और अन्दर आने वाली सभी फोन कालों का रिकार्ड रखा जाता है। दिलचस्प बात यह है कि 1978 में एक कानून द्वारा यह सुनिश्चित कर दिया गया था कि किसी के फोन काल को रिकार्ड करने या उसका ‘लाग’ रखने के लिए कोर्ट की मंजूरी आवश्यक होगी। अमरीका का उपरोक्त व्यवहार अपने ही बनाये कानून का खुला उल्लंघन है।
सवाल यह है कि इन्टरनेट कम्पनियां और देशों की सरकारें यह ‘डाटा माइनिंग’ क्यो कर रही है, जो कि आज पागलपन की हद तक जा पहुचा है। जूलियन असांज की इस किताब में एण्डी मूलर ने बताया कि ‘यूरोपियन डाटा प्रोटेक्शन एक्ट’ के तहत जब कुछ लोगो ने फेसबुक पर यह दबाव बनाया कि फेसबुक पर उनसे संबन्धित जो भी जानकारी है उसे उन्हे दिखाया जाय। और जब फेसबुक ने उन्हें जानकारी सौपी तो यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहा किसी एक व्यक्ति के बारे में न्यूनतम जानकारी भी 350 एमबी से अधिक है। जूलियन असांज ने सही कहा है कि फेसबुक और गूगल आपके बारे में आपसे अधिक जानते है । इसे एक दिलचस्प उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है। मान लीजिए आप अपनी ‘प्रेगनेन्सी’ टेस्ट कराने किसी क्लिीनिक पर गयी हैं, वहां डाॅ. ने आपसे कहा कि वो आपकी रिपोर्ट शाम तक आपको आपके इमेल पर भेज देगा। यदि आपका मेल ‘जीमेल’ पर है तो यकीन जानिये आपसे पहले जीमेल को यह पता चल जायेगा कि आप प्रेगनेन्ट हैं। जीमेल तुरन्त यह जानकारी किसी दवा कम्पनी को बेच देगा। और हो सकता है कि आपके मेल खोलने से पहले ही उस दवा कम्पनी का एजेन्ट आपके दरवाजे पर खड़ा हो और आपको प्रेगनेन्सी के दौरान पौष्टिक गोलियां खरीदने की सिफारिश कर रहा हो। यह नही भी हुआ तो आपके मेल पर आपके सोशल साइट्स पर इससे सम्बन्धित प्रचार तो आने शुरु ही हो जायेंगे। भारत के लिए भले ही यह कहानी कल्पनातीत हो लेकिन अमरीकी समाज की यह सच्चाई है।
यानी नेट पर छोड़ी गयी या छूट गयी आपकी जानकारियो से आपका प्रोफाइल तैयार किया जाता है और फिर इसे बिना आपसे पूछे विभिन्न कम्पनियों को बेचा जाता है। यानी आपकी निजता का कोई मतलब नहीं है. कुछ समय पहले भी इससे जुडी एक दिलचस्प घटना घटी थी. अमेरिका में एक आदमी अपने आँगन में नंगा लेटा था. किसी अन्य आदमी ने गूगल अर्थ पर कुछ सर्च करते हुए उसे नंगा लेटा देख लिया . और उसकी तस्वीर नेट पे डाल दी. यानी आप अपने आँगन में भी अपनी निजता सुरक्षित नहीं रख सकते. बाद में विवाद बढने पर गूगल को उस आदमी को हर्जाना देना पड़ा.
ये जानकारियां जब उस देश की सरकारें जुटाती है तो उनका मकसद दूसरा होता है। दरअसल किसी भी देश के शासक वर्ग के लिए यह जरुरी है कि उसका उस समय की अत्याधुनिक टेक्नोलाजी पर नियंत्रण हो। टेक्नोलाजी एक हथियार की तरह है। वह जिसके पास होगी उसे ताकतवर बनायेगी। यही कारण है कि दुनिया के तमाम परमाणु सम्पन्न देश यह नही चाहते कि उनके अलावा किसी और देश के पास यह तकनीक जाये। और जाये भी तो उसका नियंत्रण उनके हाथ में रहे। ‘इन्टरनेट’ के बारे में भी यही सच है। आज इन्टरनेट की लगभग सभी बड़ी कम्पनियों के सर्वर अमरीका में है। दुनिया में 80 प्रतिशत पैसों का लेन देन तीन बड़ी कम्पनियों ‘मास्टर कार्ड’, ‘पेपाल’, और ‘वीसा’ के जरिये होता है। और तीनो के ही सर्वर अमरीका में है। इसलिए अमरीका के लिए पूरी दुनिया की जासूसी करना बहुत आसान है। हमे यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यह सूचनाएं अमरीका अपने सहयोगी देशों से भी साझा करता है। इसलिए उन्हे भी इसका लाभ मिलता है।
दूसरा बड़ा कारण है तेजी से बढ़ता सर्विलांस उपकरण बनाने का उद्योग। इनका व्यापार आज बिलियन बिलियन डालर में है। ये उपकरण पिछले दशक में तेजी से सस्ते हुए हैं। आलम यह है कि आज 10 से 12 मिलियन डालर खर्च करके आप 20 से 25 करोड़ की जनसंख्या वाले देशो के सभी फोन काल्स पर नजर रख सकते है। इसलिए तीसरी दुनिया के ज्यादातर देशों की सरकारें इन उपकरणों का अन्धाधुन्ध इस्तेमाल कर रही हैं। मिस्र, ट्यूनीशिया, टर्की, बांग्लादेश तथा अरब के अन्य देशो की तानाशाही सरकारों ने इन उपकरणों का प्रयोग करके आन्दोलनो को दबाने का भरपूर प्रयास किया था।
दूसरे देशों की सरकारे भी यह बात अच्छी तरह जानती है कि देर सबेर उन्हे भी जन असंतोष का सामना करना ही पड़ेगा। इसलिए अमरीकी मदद से अभी से ही इसकी तैयारी कर रही हैं। और इसी तैयारी का यह भाग है कि ज्यादा से ज्यादा जानकारी अपने देश के लोगों के बारे में जुटाया जाय ताकि भविष्य में किसी भी आन्दोलन को नेतृत्व विहीन किया जा सके।
लेकिन मिस्र और ट्यूनीशिया जैसे देशों में शासकों का यह प्रयोग सफल नही हुआ। क्योकि जर्मन कवि बर्तोल्त बेख्त ने बहुत पहले ही इसकी असफलता की घोषणा अपनी निम्न कविता में कर दी थी। वह कविता आज भी प्रासंगिक है। और यह कविता ‘स्नोडेन’ जैसे लोगो को सलाम भी है।

सेनाधीश, तुम्हारा टैंक एक शक्तिशाली वाहन है
यह जंगलों को कुचल देता है और सैकड़ों लोगों को भी।
पर उसमें एक खोट है:
उसे एक चालक की ज़रूरत होती है।
सेनाधीश, तुम्हारा बमवर्षी बहुत ताकतवर है,
यह तूफ़ान से भी तेज़ उड़ता है और एक हाथी से ज़्यादा वज़न ले जा सकता है।
पर उसमें एक खोट है:
उसे एक मेकैनिक की ज़रूरत होती है।
सेनाधीश, आदमी बड़े काम की चीज़ है।
वो उड़ सकता है और मार सकता है।
पर उसमें एक खोट है:
वो सोच सकता है।

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बर्फ के भीतर छिपी आग

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बस अभी ओरहान पामुक का उपन्यास ‘स्नो’ पढ़ कर खत्म किया। अजीब संयोग है कि जब यह उपन्यास अपने पढ़ कर खत्म करने को थी तभी तुर्की में प्रतिरोध आन्दोलन छिड़ा हुआ है। मुद्दा वही चिरपरिचित है-जनता का सरकार के प्रति गुस्सा और तात्कालिक मुद्दा है कि सरकार वहां के एक ग्रीनजोन को उखाड़ कर मॉल बनाना चाहती है।
592 पृष्ठ के इस उपन्यास का हिन्दी में अनुवाद प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’ ने किया है। यह उपन्यास इस मायने में उल्लेखनीय है कि यह दुनिया के एक और देश तुर्की के अन्दरुनी समाज और राजनीति से परिचय कराता है। पूरे उपन्यास में पृष्ठ दर पृष्ठ बर्फ के नाजुक फाहे बरसते रहे और जहन पर भी छाते रहे। पूरे उपन्यास में बर्फ एक प्रतीक बन गयी है। उस समाज के दर्शन की, उस समाज के मनोविज्ञान की तथा उस समाज के भीतर पर्त दर पर्त छिपी आग की……
तुर्की भौगोलिक रूप से यूरोप से सटा हुआ देश है। यह ऐसा देश है जो एशिया को यूरोप से जोड़ता है। ऐसे में वहां की भौगोलिक अवस्थिति का प्रभाव वहां के समाज और राजनीति पर भी पड़ता है। भारत जितनी असंख्य विविधता वहां भले ही न हो पर वहां भी कई तरह का समाज बसता है। यूरोप के पड़ोस में होने के कारण तुर्की भी यूरोपीय साम्राज्यवाद का शिकार रहा है। समूचे ओटोमन साम्राज्य के दौरान तुर्की यूरोप के गले की हड्डी बना रहा। उसके जलडमरूमध्य क्षेत्रों पर कब्जा करने के लिए साम्राज्यवादियों में लगातार होड़ लगी रही। 1918 में ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद मुस्तफा कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में चले राष्ट्रीय आन्दोलन ने वहां पर राष्ट्रीय राज्य की एवं 1923 में गणतन्त्र की स्थापना की।
एशिया एवं यूरोप से लगा होने के कारण वहां पर एक साथ एशियाई पिछड़ापन और यूरोपीय आधुनिकता मिलती है। हलांकि वहां का पिछड़ापन भारत जैसा नहीं है फिर भी यूरोप के समक्ष काफी पिछड़ा है। ओरहान पामुक का उपन्यास हमें साफ पता चलता है कि वहां भी अन्तरविरोधों की अनेकों परतें हैं। जो आपस में काफी उलझी हुयी हैं। वहां पर एक तरफ पश्चिमोन्मुखी अभिजात्यवर्ग है जो हर बात में पश्चिम की मिसाल देता है और एक बड़ा तबका वहां पर तुर्की को यूरोप के साथ संलग्न करने की मांग करता रहा है। यह अभिजात्य वर्ग अपने यहां के गरीबों को हिकारत से देखता है या फिर ऐसा मानता है कि उनकी मुक्ति पश्चिम की नकल में ही है। यहां के समाज में एक अन्य तबका है जो पूरी दुनिया के मुसलमानों की तरह साम्राज्यवाद की मुखालफ़त कर रहा है और इसका एक तबका अपनी पहचान को हर हाल में कायम रखने के लिए कट्टरपन्थ का सहारा ले रहा है। वहीं भारत जैसे देशों की तरह तथाकथित लोकतन्त्रवादी, गणतन्त्रवादी व तथाकथित धर्मनिरपेक्ष शासक वर्ग है जो अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज को हर सम्भव फासीवादी तरीके से अपने खुफ़िया तन्त्र, पुलिस और फौज के सहारे कुचल देना चाहता है। समाज का एक बड़ा तबका गरीबी और बदहाली में जीवन जी रहा है। यहां की तरह ही कुछ राष्ट्रवादी यह चाहते हैं कि वहां की गरीबी और बदहाली का जीवन बाहरी दुनिया के सामने उजागर न हो। इसके अलावा यहां के गरीबों में एक बड़ी संख्या कुर्द राष्ट्रीयता के लोगों की है। दुनिया के तमाम राष्ट्रीयता के संघर्ष की तरह ही यहां भी बरसों से कुर्द लोग सशस्त्र गुरिल्ला युद्ध चला रहे हैं। हरेक जगह के शासक वर्ग की तरह ही इन्हें बूटों तले रौंदने का पूरा प्रयास हो रहा है। यहां की महिलाएं एशियाई समाज की महिलाओं से थोड़ी स्वतन्त्र हैं लेकिन देश में तेजी से बढ़ती धार्मिकता का शिकार हैं। जैसे कट्टरपन्थियों द्वारा उन पर स्कार्फ को थोपा जाना।
राजनीतिक रूप से तुर्की शासकवर्ग अमरीका का बड़ा पिट्ठू है। ईराक युद्ध में वह अमरीका का सहयोगी रहा। नाटो का सक्रिय सदस्य है।
ऐसे अन्तरविरोधों से भरे समाज में ओरहान पामुक के उपन्यास ‘स्नो’ का नायक ‘का’ तुर्की के एक छोटे शहर कार्स में एक बर्फीली सांझ में प्रविष्ट होता है। वह यहां पर एक अखबार के पत्रकार के रूप में आया है जो यह जानना चाहता है कि कार्स में युवतियों में खुदकुशी की लत महामारी की तरह क्यों फैल गयी है। कार्स में प्रवेश करने के साथ ही पन्ने दर पन्ने वह बर्फ के फाहों के बीच उपरोक्त तमाम अन्तरविरोधों में घिर जाता है। जर्मनी में निर्वासित जीवन जीने वाला यह कवि, साहित्यकार अपने एक पुराने प्रेम की तलाश में यहां आया है। प्रेम का प्याला उसके लब तक आकर छलक जाता है और वह तमाम अभिजात्य साहित्यकारों और कवियों की तरह चिर अकेला और अवसाद से घिरा रह जाता है। यहां रहने के दौरान उसे कई बार भ्रम (यकीन की हद तक) होता है कि वह भी ख़ुदा में यकीन करने लगा है। उपन्यास की पृष्ठभूमि में प्रेम एक अन्तर्धारा के रूप में चलता है पर मुख्यतः यह उपन्यास राजनीतिक है। समाज के विभिन्न अन्तरविरोध आपस में उलझते हुए अपना अस्तित्व सिद्ध करने की कोशश करते हैं। हालांकि लेखक इन तमाम अन्तरविरोधों में अपना पक्ष खुल कर नहीं रखता है पर कई बार वह आध्यात्मवाद की तरफ झुकता सा नज़र आता है। सड़क पर चलते हुए, कभी कॉफ़ी पीते हुए, कभी आध्यात्मिक गुरू से मिलते हुए और कभी कहीं, कभी कहीं कवि का को कविता का इलहाम होता है और वह बेहतरीन कविताएं रचता है।
उपन्यास के चरम में कार्स में एक फौजी कार्यवाई में धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र विरोधी इस्लामवादियों को बुरी तरह कुचल दिया जाता है। कवि का को जबरन कार्स से बाहर जाने वाली गाड़ी में बिठा दिया जाता है। उसके साथ जर्मनी जाकर जीवन बिताने का वादा करने वाली उसकी प्रेमिका अपना निर्णय बदल देती है। तमाम अभिजात्य कवियों की तरह जनता से बुरी तरह कटा हुआ कवि का अपना अन्तिम समय अकेलेपन और अवसाद में बिताता है। का के कार्स से बाहर निकाले जाने के साथ ही बर्फ पिघलने लगती है। और कार्स शहर के दुनिया से जुड़ने वाले रास्ते खुल जाते हैं। सबकुछ सामान्य सा दिखायी लगने लगता है। उपन्यास में बर्फ को एक दार्शनिक प्रतीक के दौर पर लिया गया है। जिसकी अनगिनत परतों के भीतर आग सुलग रही है। पर पता नहीं क्यों लेखक उस आग को सतह पर आने से बचता है या जानबूझ कर आने नहीं देता। बर्फ जितने ठंडेपन से ही शासक वर्ग उस आग को दबा देता है। उपन्यास का अन्त बर्फ पिघलने और सबकुछ सहज होने से करके लेखक इतने उलझे हुए अन्तरविरोधों का सरलीकरण कर देता है। शायद स्वयं लेखक के पास इन अन्तरविरोधों का कोई जवाब नहीं है।
लगभग 600 पन्ने के भारी भरकम उपन्यास ओरहान पामुक की कलम पर पकड़ को दर्शाता है। कथ्य एवं शिल्प में यह उपन्यास लाजवाब है। इतना बड़ा उपन्यास कहीं से भी बोझिल नहीं होता है। का के जीवन का एक-एक चित्रण लेखक चलचित्र की तरह करता है। ऐसा लगता ही नहीं हम उसके जीवन को पढ़ रहे हैं, लगता है जैसे हम का के जीवन एवं तुर्की समाज को चलचित्र में देख रहे हैं। का के माध्यम से वहां के समाज की बारीकियों को इतनी खूबसूरती से गूंथा है कि पढ़ने वाला दंग रह जाए।
प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’ का अनुवाद भी बेहद सहज बन पड़ा है। इतने मोटे इस उपन्यास को पढ़कर ऐसा कहीं से नहीं लगा कि पढ़कर वक्त बरबाद कर दिया। हो सकता है कि तुर्की समाज के प्रति अपनी अज्ञानता के कारण ऐसी सार्थकता का अहसास हो रहा हो। अन्त में एक बेमतलब सा प्रश्न ज+हन में यूं ही कौंध रहा है कि अगर नायक कवि का न होकर हमारा प्रिय कवि नाज़िम हिकमत होता तो उपन्यास कैसा होता???

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एंजेलिना जोली की ‘बहादुरी’ का सच……….

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विगत दिनों पूरी दुनिया की मीडिया में एक जबरदस्त हल्ला सुनने को मिला कि हालीवुड अभिनेत्री एंजेलिना जोली ने सम्भावित स्तन कैंसर से बचने के लिए अपने दोनो स्तन कटवा दिये.[double mastectomy]। ‘न्यूयार्क टाइम्स’ में एंजेलिना जोली का एक लेख छपा कि महिलाओं को स्तन कैंसर के प्रति सचेत होना चाहिए और उसके लिए जिम्मेदार जीन्स का परीक्षण करवाना चाहिए।
गौरतलब है कि महिलाओं में स्तन कैंसर एवं गर्भाशय के कैंसर के लिए दो जीन्स जिम्मेदार होते हैं- BRCA1 & BRCA2A । अगर इस बात का पता चल जाए कि अमुक महिला में मौजूद इन दोनो जीन्स में कुछ गड़बड़ी है तो उसका इलाज समय पर सम्भव है। आमतौर पर ऐसे परीक्षण की कोई जरूरत नहीं होती लेकिन अगर किसी महिला के परिवार में एक दो पीढ़ी में ‘स्तन कैंसर’ का इतिहास होता है तो उसे इस परीक्षण की सलाह दी जाती है।
जिस समय तमाम समाचार पत्रों में एंजेलिना जोली की ‘बहादुरी’ के किस्से छप रहे थे उसी समय न जाने क्यों मन में एक आशंका हो रही थी। आखिर इसके पीछे का सच क्या है? क्या सचमुच एंजेलिना जोली को दुनिया की औरतों की चिन्ता इस कदर सता रही थी कि उन्होंने अपने ‘सेक्स अपील’ के प्रतीक को ही कटवा दिया? न जाने क्यों बार-बार लग रहा था कि जरूर कहीं न कहीं कोई घपला है। और जब सच का पता चला तो आंखें खुली की खुली रह गयीं और यह लगा कि सचमुच इस घिनौने पूंजीवाद में किसी बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

MYRIAD GENETICS

MYRIAD GENETICS


चलिए हकीकत आपको बता देते हैं। दरअसल सच्चाई यह है कि अमेरिका में एक कम्पनी है-मिरियाड जेनेटिक्स [Myriad Genetics]। उसका इंसानों के शरीर में मौजूद BRCA1 & BRCA2 जीन्स पर पेटेण्ट (प्रोडक्ट पेटेण्ट) है। जी हां, हमारे शरीर के जीन्स पर उसका कब्जा है। अमेरिका में इस जीन्स के परीक्षण का खर्च है 3000 डालर। अमेरिका में इस परीक्षण पर भी इसी कम्पनी का कब्जा है। पूरे अमेरिका में आप टेस्ट कहीं भी कराएं वह इसी कम्पनी के खाते में जाता है। एंजेलिना जोली की इस ‘बहादुरी’ के बाद इसे बढ़ा कर 4000 डालर कर दिया गया है। इसके अलावा रातों-रात कम्पनी का शेयर 4 प्रतिशत उछल गया।
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हैरत होती है कि हमारे शरीर में मौजूद तमाम जीन्स पर भी निजी कम्पनियो का कब्जा है। हमें इस बात का गुमान भी नहीं है कि हम किस हद तक गुलाम हैं। मजे की बात है कि इस कम्पनी ने इन जीन्स की खोज भी नहीं की थी। इसे ‘उटा विश्वविद्यालय’ में जनता के पैसों से खोजा गया था और फिर उसने यह खोज ‘मिरियाड जेनेटिक्स’ को बेच दी। इन जीन्सों पर इस कम्पनी का एकाधिकार इस कदर है कि कोई अन्य व्यक्ति इस पर शोध भी नहीं कर सकता है।
जाहिर है, पहले से ही मानसिक रूप से असुरक्षित अमेरिका में, एंजेलिना जोली के इस उद्घाटन के बाद तमाम अमीर महिलाएं इस परीक्षण के लिए आगे आ रही होंगी। और हम जान चुके हैं कि इस कम्पनी के शेयर में पहले ही उछाल आ चुका है। एंजेलिना जोली ने इस प्रचार के लिए कितने में सौदा किया होगा अभी इसका उद्घाटन नहीं हुआ है। या फिर हमें नहीं पता। वह जिन उंचाईयों पर हैं, उसमें यह सौदा लाखों डालर का भी हो सकता है। आखिर उनके छः बच्चों (इनमें से तीन गोद लिए हुए हैं) के लालन पालन का सवाल है।
अन्त में, मुझे याद आ रही हैं ‘मैडम क्यूरी’। उन्होंने अपने पति के साथ मिल कर रेडियम की खोज की थी। इसने चिकित्सा जगत में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन किया था। क्यूरी दम्पत्ति को जब चिकित्सा के लिए ‘नोबल पुरस्कार’ मिला तो उनके पास पुरस्कार समारोह में पहन कर जाने के लिए ढंग के कपड़े भी नहीं थे। उनके मित्रों ने उनके लिए नए कपड़ों का प्रबन्ध किया। समारोह में पहुंच कर जब मैडम क्यूरी ने वहां की महिलाओं को हीरे के आभूषणों में जगमगाता देखा तो उन्हें लगा कि इतने मंहगे गहनों से तो विज्ञान के महत्वपूर्ण शोध किये जा सकते हैं। अन्त में उनसे एक पत्रकार ने पूछा कि क्या वह अपनी इस खोज को पेटेण्ट कराएंगी? तो उनका जवाब था कि वैज्ञानिक अविष्कार अस्तित्व में आने के बाद से ही जनता की धरोहर होते हैं, उन्हें उनकी भलाई में लगाया जाना चाहिए न कि उसका पेटेण्ट करके उससे मुनाफा कमाया जाना चाहिए।
अब आप ही तय करिये हमें किसकी ज्यादा जरूरत है-‘मैडम क्यूरी’ की या ‘एंजेलिना जोली की’…………..

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यहां भी कई ‘राना प्लाजा’ हैं…..

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पिछले माह ढाका में ‘राना प्लाजा’ नामक बिल्डिंग के ढहने से करीब 1300 मजदूर मारे गये। हजारों घायल हुए। कई मजदूरों के हाथ-पैर मलबे में इस तरह से फंसे थे कि उन्हे निकालने के लिए वहीं पर उनके हाथ-पैर काटने पड़े। बहुत ही ह्दय विदारक दृश्य था।
ये मजदूर इसी बिल्डिंग में कई गारमेन्ट फैक्टरियों के लिए काम करते थे। इसमें से ज्यादातर महिलाएं थी। इस घटना के ठीक पांच माह पहले ढाका में ही एक दूसरी गारमेन्ट फैक्टरी में आग लग गयी थी। इसमें झुलस कर करीब 150 मजदूर मारे गये थे। इसमें भी ज्यादा संख्या महिलाओं की ही थी।
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इन घटनाओं के बाद ही गारमेन्ट फैक्टरी में मजदूरों की दयनीय हालत के बारे में कुछ रिपोर्टं प्रकाशित हुई। भारतीय अखबारों ने भी ढाका की इस दर्दनाक घटना की रिर्पोटिंग तो की, लेकिन यह बताने की जहमत किसी ने नही उठायी कि भारत में भी गारमेन्ट मजदूरों की वही स्थिति है जो बांग्लादेश में है। यह बात आपको विस्मय में डाल सकती है, लेकिन यह सच है कि भारत में गारमेन्ट उद्योग के प्रमुख केन्द्र ‘तिरपुर’ में हर साल एक ‘राना प्लाजा’ घटता है लेकिन कोई न्यूज नही बनती।
तमाम सरकारी-गैर सरकारी आंकड़े यह बताते है कि तिरपुर के गारमेन्ट मजदूर प्रतिदिन 20-25 की संख्या में आत्महत्या का प्रयास करते है। इस आत्महत्या का सीधा कारण गारमेन्ट फैक्टरियों में काम की बेहद अमानवीय स्थिति और बेहद कम वेतन है। 2007 से 2012 तक प्रतिवर्ष अमूमन 700-800 आत्महत्या के मामले दर्ज किये गये है। कितने मामले तो दर्ज भी नही हो पाते। यानी लगभग हर वर्ष एक ‘राना प्लाजा’। 2007 में आर्थिक मंदी के बाद यहा महज एक वर्ष में 80000 गारमेन्ट मजदूरों की छुट्टी कर दी गयी थी । इनमें से कई वापस अपने गांव लौट गये। और वहां पहुंच कर कुछ समय बाद खेती के संकट के कारण उन्होने आत्महत्या कर ली। उनका रिकार्ड उन लाखों किसानों की आत्महत्याओें के साथ जुड़ गया, जो भारतीय राज्य की गलत ‘कृषि नीति’ का शिकार हो गये।
तीसरी दुनिया के ज्यादातर देशों के लिए गारमेन्ट उद्योग डालर कमाने का प्रमुख जरिया है। यह बात समझना कठिन नही है कि क्यो तीसरी दुनिया का शासक वर्ग डालर के पीछे भाग रहा है। डालर पाने के लिए ही उसने अर्थव्यवस्था के सभी दरवाजें -खिड़कियां खोल रखे हैं । ‘देश का कर्ज’ चुकाने के अलावा अपने उद्योगों के लिए लगातार टेक्नोलाजी आयात करने और अपने बच्चों को विदेशों में पढ़ाने और विदेशों में शापिंग के लिए उन्हे लगातार डालर की जरुरत है। अकेले ‘तिरपुर’ के गारमेन्ट उद्योग से ही भारत ने 2009 में 2.6 बिलियन डालर का राजस्व प्राप्त किया था। यानी भारतीय शासक वर्गो की डालर की हवस को यहां का मजदूर अपनी जान देकर पूरा कर रहा है।
आइये अब एक नजर गारमेन्ट उद्योग के पूरे ताने बाने पर डालते है। ग्लोबलाइजेशन के दौर में सभी साम्राज्यवादी देशों ने अपनी प्रोडक्शन यूनिटों को सस्ते श्रम की खोज में तीसरी दुनिया के देशों में हस्तान्तरित करना शुरु किया। गारमेन्ट उद्योग तो लगभग पूरे के पूरे बांग्लादेश, वियतनाम, चीन, भारत, अर्जेन्टीना, मैक्सिको, मेडागास्कर, कम्बोडिया, दक्षिण कोरिया, फिलीपीन्स, ताईवान, थाईलैण्ड, हांगकांग जैसे देशों को स्थानान्तरित कर दिये गये। लेकिन यह स्थानान्तरण एक नये किस्म का था। यानी इन देशों के उद्योगो पर साम्राज्यवादी देशों की कम्पनियो का स्वामित्व नही था, वरन उसी देशों के पूंजीपतियों का स्वामित्व है, लेकिन ये अपना ज्यादातर माल साम्राज्यवादी देशों की कम्पनियों के लिए ही बनाते हैं।
एक उदाहरण लेते हैं । एक ब्राण्ड है- ‘पीटर इग्लैण्ड’ [याद आया एक ‘ईमानदार शर्ट’?]। यह अपना प्रोडक्ट यानी शर्ट खुद नही बनाती। यह अपना शर्ट डिजाइन करके किसी ‘ट्रेडिंग कम्पनी’ को देगी। और उससे कहेगी कि उसे फला तारीख तक 1 करोड़ शर्ट चाहिए। यह ‘ट्रेडिंग कम्पनी’ तीसरी दुनिया के देशों में मौजूद तमाम ‘सप्लाई कम्पनियों’ से बात करके जो सबसे कम कीमत में और समय पर आर्डर पूरा करने का वादा करेगा, उसे यह आर्डर पास कर देगी। ज्यादातर मामलों में कच्चा माल भी ट्रेडिंग कम्पनी ही उपलब्ध कराती है। आगे सप्लाई कम्पनी पूरी शर्ट या तो खुद ही बनाती है या शर्ट के अलग अलग हिस्सों को या अलग अलग प्रक्रियाओं को पुनः ठेके पर बांट देती है। और काम पूरा होने पर सप्लाई कम्पनी में सिर्फ उन अलग अलग प्रक्रियायों को या अलग अलग हिस्सों को एक कर दिया जाता है। और वापस इसी चैनल से माल यानी शर्ट ब्राण्ड कम्पनी ‘पीटर इग्लैण्ड’ को चला जाता है, जो दुनिया भर में फैले अपने ‘रिटेल सेन्टरो’ और ‘शो रुमों’ के माध्यम से इसे बेचती है।
इस तरह आपने देखा कि यह पूरी व्यवस्था उपर से नीचे तक ‘ठेका प्रथा’ पर आधारित है। यानी जो सबसे कम बोली लगायेगा आर्डर उसी को मिलेगा। इसी प्रथा के कारण ब्राण्ड कम्पनियां भरपूर मुनाफा निचोड़ती है। जाहिर है कम से कम बोली लगाने के चक्कर में ज्यादा से ज्यादा शोषण मजदूरों का ही होगा। यानी एक तरह से मजदूर भी अपने श्रम की बोली ही लगाते है। जो मजदूर अपने श्रम की सबसे कम बोली लगायेगा उसे ही मजदूरी पर रखा जायेगा। इसी कारण उनकी काम की परिस्थितियां भी निरन्तर खराब होती जाती है। क्योकि कम्पनियां आर्डर पाने के लिए बोली तो कम से कम लगाती है, लेकिन अपने मुनाफे के मार्जिन को गिरने नही देती।
यानी यह सारा खेल मजदूरों के खून और उसकी लाश पर खेला जाता है।
2007 के बाद जब तिरपुर गारमेन्ट उद्योग में मंदी आयी तो इसका एक कारण यह भी था कि बांग्लादेश के गारमेन्ट उद्योग भारत के गारमेन्ट उद्योग से कम में बोली लगा रहे थे और इसी कारण ब्राण्ड कम्पनियों ने अपने अपने आर्डर बांग्लादेश की तरफ स्थानान्तरित करना शुरु कर दिया। इसको लेकर संसद में भी उस वक्त काफी हो हल्ला हुआ था और बांग्लादेश से इस सम्बन्ध में बात करने की मांग की जाने लगी थी।
दुनियां के प्रायः हर देश के गारमेन्ट उद्योग में काम के घण्टे प्रायः औसतन 12 से ज्यादा ही है। और विशेष परिस्थिति में तो उन्हे बिना अतिरिक्त वेतन के 14 से 16 घण्टे तक काम करना पड़ता है। ये विशेष परिस्थिति क्या है? एक उदाहरण से इसे समझते है। मान लीजिए इस शुक्रवार को रणवीर कपूर की कोई फिल्म रिलीज होती है। और यह फिल्म जबर्दस्त हिट साबित होती है। इसमें रणवीर कपूर ने ‘आधे कालर’ की शर्ट पहनी हुई है। फिल्म के साथ साथ यह ‘आधे कालर की शर्ट’ भी जबर्दस्त हिट हो जाती है। तो अब जो ब्राण्ड कम्पनी इस शर्ट को सबसे पहले बाजार में उतारेगी, वह अकूत मुनाफा कमायेगी। फलतः सभी ब्राण्ड कम्पनियां अपने अपने सप्लायर पर दबाव बनायेगी कि वो जल्दी से जल्दी आर्डर पूरा करके दे, नही तो उनसे आर्डर वापस ले लिया जायेगा। अब सप्लायर कम्पनियां अपने मजदूरों पर दबाव डालेंगी कि वो ज्यादा से ज्यादा काम करके समय पर माल तैयार करे। जो ऐसा नही कर सकेगा उसे काम से निकाल दिया जायेगा। और इस तरह से तैयार होती है 14 से 16 घण्टे काम की परिस्थितियां। यानी मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग का फैशन के प्रति जो सनकीपन है, उसकी कीमत भी हमारा मजदूर ही चुकाता है।
राना प्लाजा में जो घटना घटी, उसका एक कारण यह भी था कि उन्हे ‘जो फ्रेश’ नामक ब्राण्ड के लिए जल्दी से जल्दी अपना आर्डर पूरा करना था। घटना के एक सप्ताह पहले ही मजदूरों ने बिल्डिंग में एक बड़ी दरार देख ली थी। और घटना की आशंका से बिल्डिंग से बाहर आ गये थे। लेकिन ठेकेदारों ने उन्हे नौकरी से निकालने की धमकी देकर वापस काम पर बुला लिया और इतनी बड़ी घटना घट गयी।
आइये एक बार फिर ‘तिरपुर’ की ओर लौटते है।
तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से 500 किमी दूर ‘तिरपुर’ आज भारत में गारमेन्ट उद्योग का प्रमुख केन्द्र है। गारमेन्ट के निर्यात से होनी वाली कुल आय का लगभग एक चैथाई तिरपुर से ही आता है। यहां छोटी बड़ी कुल मिलाकर लगभग 7000 यूनिटें है। यहां मुख्यतः Walmart, Primark, Diesel, ARMY, and Tommy Hilfiger नामक ब्राण्ड के लिए उत्पादन होता है।
इसमें करीब 4 लाख मजदूर लगे हुए है। और लगभग इतनी ही संख्या सिजनल मजदूरों की है। दोनो ही तरह के मजदूरों में प्रवासी और महिला मजदूरों की संख्या बहुतायत में है। प्रवासी मजदूरों में मुख्यतः बिहार, झारखण्ड, राजस्थान, उड़ीसा से काफी मजदूर हैं । यहां के मजदूरों में अच्छी खासी तादाद श्रीलंका से आये तमिल शरणार्थीयों की भी है। चूंकि इनमें से ज्यादातर के पास कोई विधिक कागजात नही होते, इसलिए प्रशासन की नजर में इनका अस्तित्व ही गैरकानूनी हो जाता है। इसका फायदा कम्पनी के ठेकेदार उठाते है और इन्हे डराकर बहुत ही मामूली मजदूरी पर काम में रख लेते है।
यहां मजदूरों को काम पर रखने के मामले में मुख्यतः दो अनौपचारिक तरीके अपनाये जाते है। महिलाओें को काम पर रखने के मामले में इसे ‘सुमंगली प्रथा’ कहा जाता है। इस प्रथा के अनुसार 12 साल से 18 साल के बीच की अविवाहित लड़कियों को 3-4 साल के अनुबंध पर रखा जाता है। उनके खाने रहने की व्यवस्था सम्बन्धित कम्पनी ही करती है। इस दौरान उन्हे कोई वेतन नही दिया जाता। अनुबंध की समाप्ति पर उन लड़कियो के मां बाप को 30-40 हजार दे दिये जाते है। आमतौर पर इन्ही पैसों से इन लड़कियों की शादी में दहेज दिया जाता है। इसलिए इसे ‘सुमंगली प्रथा’ कहते है। पूंजीवाद कैसे पितृसत्ता का इस्तेमाल करता है, उसका इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है। इसे समझना कठिन नही है कि यह एक तरह की बंधुआ मजदूरी है। तमिलनाडु हाई कोर्ट ने भी ‘सुमंगली प्रथा’ को बंधुआ प्रथा बताते हुए इस पर रोक लगायी हुई है। लेकिन फिर भी यह प्रथा दूसरे दूसरे नामों से लगातार जारी है। यहां महिलाओं को एक दड़बेनुमा हास्टल में कैद करके रखा जाता है। मां बाप के अलावा वे किसी से नही मिल सकती। मां बाप से भी मिलने का हफ्ते में एक समय तय होता है। ज्यादातर उन्हे आधे घण्टे के लिए ही मिलने दिया जाता है। और यदि कोई लड़की इस कैद से समय से पहले आजाद होना चाहती है तो उसे कुछ भी पैसा नही दिया जाता। ‘सुमंगली प्रथा’ में जाने वाली बहुत सी लड़किया इस अमानवीय माहौल में ज्यादा नही रह पाती और समय से पहले ही काम छोड़ देती है। फलतः उन्हे कुछ भी नही मिलता। यह भी शोषण का एक तरीका ही है। इसके अलावा इन महिलाओं का यौन शोषण ना होता हो, यह बात तो सोची ही नही जा सकती।
इसके अलावा प्रवासी मजदूरों को मुख्यतः ‘कैम्प कुली प्रथा’ के तहत काम पर रखा जाता है। इसके अनुसार मजदूरों को कम्पनी या ठेकेदार द्वारा उपलब्ध कराये गये आवास में ही रहना अनिवार्य होता है। इसमें काम के घण्टे तय नही होते। आवास आमतौर पर फैक्टरी के नजदीक ही होता है। और कम्पनी मालिक या ठेकेदार जब चाहे मजदूर को काम पर बुला सकता है और जितनी देर चाहे उससे काम ले सकता है। यानी यहां पूंजीपति ‘श्रम शक्ति’ नही ‘श्रम’ ही खरीद लेता है। ‘कैम्प कुली प्रथा’ पर भी हाई कोर्ट ने रोक लगायी हुई है, लेकिन जमीन पर यह धड़ल्ले से चालू है। इन हाड़तोड कामों और काम की अमानवीय परिस्थितियों से निकलने का कोई रास्ता ना सूझने पर कुछ मजदूर प्रायः शराब की शरण लेते है। और मुश्किल से कमाये गये अपनी थोड़ी कमाई का एक बड़ा हिस्सा शराब में उड़ा देते है। इसका फायदा उठाकर तिरपुर में बड़े बड़े शराब माफिया खड़े हो गये है। इनमें से कुछ सूदखोरी का काम शुरु कर देते है। और मजदूरों से कमाये गये पैसों को ही मजदूरों को सूद पर देने लगते है। और स्थिति यह आ जाती है कि उन्हे एक सूदखोर का उधार चुकाने के लिए दूसरे सूदखोर से उधार लेना पड़ता है। इस दुष्चक्र से निकलने का उन्हें एक ही रास्ता नजर आता है- आत्महत्या।
सच तो यह है कि मजदूरों को यहां इतना कम वेतन मिलता है कि सिर्फ अपने दैनन्दिन खर्च के लिए भी उन्हे उधार लेना पड़ सकता है। या उस समय भी उधार लेना पड़ता है जब उनकी किसी कारण नौकरी से छुट्टी कर दी जाती है। और ज्यादातर मजदूरों के भरोसे गांव में उनका पूरा परिवार पल रहा होता है।
हम यहां पर गारमेन्ट उद्योग के मजदूरों की बात कर रहे है। लेकिन सच तो यह है कि लगभग सभी उद्योगों में मजदूरों की ऐसी ही दयनीय स्थिति है। आज चीन का ‘उच्च ग्रोथ रेट’ भारत सहित सभी तीसरी दुनिया के देशों के लिए आदर्श सा बन गया है। लेकिन चीन यह ‘उच्च ग्रोथ रेट’ किस कीमत पर हासिल कर रहा है। चीन के खुद के आंकड़े यह बताते हैं कि चीन में हर साल औघोगिक दुर्घटनाओं में औसतन 1लाख मजदूर मारे जाते है। जिस साल चीन ओलम्पिक खेल आयोजित करके दुनिया को अपनी ताकत दिखा रहा था, उसी साल सिर्फ खदान दुर्घटनाओं में 10 हजार लोग मारे गये थे।
मोबाइल कम्पनियां अपने मोबाइल के लिए ‘कांगो’ के जिन खदानों से खनिज निकलवाती है, वहां ज्यादातर बच्चे काम करते है। जो वहां के स्थानीय हथियार बन्द गिरोहो की निगरानी में काम करते है। ये बच्चे अक्सर खदान में दब कर मर जाते है। और तुरन्त ही उनकी जगह दूसरे बच्चे ले लेते है। इसी विषय पर एक बहुत अच्छी फिल्म भी बनी है- ‘ब्लड इन मोबाइल।’
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अपने देश में छत्तीसगढ़ का ही उदाहरण ले। यहां आये दिन कभी बायलर फटने से तो कभी चिमनी ढहने से मजदूरों की मौत होती ही रहती है। लेकिन सरकारों को इनसे फर्क नहीं पड़ता। वो तो डालर की महक में ही मदहोश हैं।
पूंजीवाद के इतिहास में जिस दौर को हम ‘आदिम पूँजी संचय’ के नाम से जानते है, वह दौर आज तीसरी दुनिया के देशों में बदस्तूर जारी है। पूंजी आज भी मजदूरों के खून और पसीने में लथपथ है।
तो अगली बार जब भी आप किसी चमकदार ब्राण्ड को हाथ लगाये तो उसमें छिपी पसीने और खून की चिपचिपाहट को जरुर महसूस करे।

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‘ग्वैन्तनामों बे’ के कैदियों की भूख हड़ताल का आज 100 वां दिन

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‘ग्वैन्तनामों बे’ के कैदियों की भूख हड़ताल का आज 100 वां दिन है। कुल 166 में से 102 कैदी भूख हड़ताल पर हैं। इससे सम्बन्धित जो रिपोर्टें छन छन कर आ रही हैं वो काफी डिस्टर्ब करने वाली है। आपको याद ही होगा कि पिछले दिनों विशेषकर बुश के कार्यकाल में ग्वैन्तनामों बे के कैदियों को किस तरह से यातनायें दी गयी थी। इसका विवरण ही रुह कंपाने के लिए काफी था।
यहां कैदियों को ट्यूब के माध्यम से जबर्दस्ती खाना खिलाया जा रहा है। यह प्रक्रिया बहुत ही कष्टदायी होती है। इसमें ट्यूब को नाक से अन्दर डालकर गले से नीचे पेट में उतारा जाता है। और इसी से लिक्विड डाला जाता है।
इसके अलावा उनके इस आन्दोलन को तोड़ने के लिए उनके सेल को असहनीय रुप से ठण्डा और गरम किया जा रहा है। उनकी आपसी एकता तोड़ने के लिए उन्हे अलग अलग सेलों में रखा जा रहा है। उन्हे पीने का पानी भी नही दिया जा रहा है।
गौरतलब है कि ओबामा ने सत्ता संभालने के तुरन्त बाद यह ऐलान किया था कि ग्वैन्तनामों बे को 100 दिन के अंदर बंद कर दिया जायेगा। लेकिन यह आज तक चालू है। सच तो यह है कि ग्वैन्तनामों बे के 90 प्रतिशत कैदियों को अमेरिकी कोर्ट द्वारा रिहा किया जा चुका है। इनमें अधिकांश बिना किसी आरोप के दशकों से ग्वैन्तनामों बे में कैद थे। लेकिन इसके बावजूद किसी ना किसी बहाने उनकी रिहाई में ओबामा प्रशासन अड़चने डाल रहा है।
‘यूरोपियन पार्लियामेन्ट’ और ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने भी उनकी रिहाई की मांग उठायी है। लेकिन ओबामा प्रशासन इनकी अनदेखी कर रहा है।
दरअसल अमरीकी प्रशासन अब बेहयाई के उस शिखर पर पहुंच गया है जहां ‘पब्लिक ओपिनियन’ का उस पर कोई फर्क नही पड़ता।
इन विषम परिस्थितियों में भी जो लोग अपने आन्दोलन को आगे बढ़ा रहे है उन्हे हमारा सलाम

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The Anti-Globalization Movement and the World Social Forum. Is “Another World” Possible?

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इस वर्ष का World Social Forum ट्यूनीशिया में आयोजित किया गया। भारत में 2004 में [मुम्बई में] World Social Forum आयोजित किया गया था। तभी से इसके एक नारे ‘एक दूसरी दुनिया संभव है’ पर बहुत से बुद्धिजीवी उत्तेजित होते रहे है। लेकिन इसके साम्राज्यवादी रिश्तों की पड़ताल बहुत कम लोगो ने की है।
मशहूर पुस्तक Globalization of Poverty के लेखक Michel Chossudovsky ने बहुत ही बेहतरीन तरीके से इस रिश्ते को इस लेख में उजागर किया है। यह लेख 15 मई को GlobalResearch में छपा था। हम वही से इसे लेकर यहां साभार छाप रहे है।

The World Social Forum operating under the banner of “Another World is Possible” was founded in 2001 at its inaugural venue of Porto Alegre. Brazil.

From the outset in 2001, the WSF has been upheld as an international umbrella representing grassroots people’s organizations, committed to reversing the tide of globalization. Its stated intent is to challenge corporate capitalism and its dominant neoliberal economic agenda.

The World Social Forum at its inaugural meeting defined itself as a counter-offensive to the World Economic Forum (WEF) of business leaders and politicians which meets annually in Davos, Switzerland. The 2001 Porto Alegre WSF was held simultaneously with that of the WEF in Davos.

Yet upon careful review, the WSF –rather than effectively confronting the economic and financial elites– actually serves their interests.

From the outset in 2001, the World Social Forum was funded by governments and corporate foundations, including the Ford Foundation which has ties to US intelligence.

The anti-globalization movement is opposed to Wall Street and the Texas oil giants controlled by Rockefeller, et al. Yet the foundations and charities of Ford, Rockefeller et al will generously fund progressive anti-capitalist networks as well as environmentalists (opposed to Wall Street and Big Oil) with a view to ultimately overseeing and shaping their various activities.
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The mechanisms of “manufacturing dissent” require a manipulative environment, a process of arm-twisting and subtle co-optation of a small number of key individuals within “progressive organizations”, including anti-war coalitions, environmentalists and the anti-globalization movement. Many leaders of these organizations have in a sense betrayed their grassroots.

Tunis: This Year’s World Social Forum

The World Social Forum gathered this year in Tunis. The March 26-30, 2013 venue included more than 50,000 participants from NGOs and people’s organizations from around the World. More than 4000 organizations from 127 countries were represented.
Many important issues were debated and discussed in separate workshops. The structure of the program –which included more than 1000 separate sessions– was that of a mosaic of different and separate initiatives. http://www.fsm2013.org/programme/27/1

impacts of austerity measures in the EU, environment, social justice, women’s rights, global warming, sustainable development, Palestine, the Arab Spring, among other themes

While the thrust invariably consisted in a critique of global capitalism and imperialism, the issue of US-led militarization was not addressed in a meaningful way. An aura of divisiveness prevailed, which was in part the result of the way the program was organized in a multitude of “do it yourself” workshops.

There was no united WSF position against US-NATO led wars, let alone Western intervention with a view to destabilizing sovereign countries. In fact quite the opposite: a session was held on how to overthrow the Syrian government, involving the participation of so-called Leftists:

…[W]hile four Syrian communist and two Kurd organizations discussed future action against the regime, supporters of al-Assad held a rally in the central square. The two groups did not cross paths, so no confrontation took place, but the tension was palpable.

Participants in the debate held by the Syrian communists and Kurds told IPS that they had agreed on a document recognizing the importance of the individual and collective rights of all ethnic groups in Syria, which is especially significant for the Kurds, the largest minority.

They also agreed to hold a day of solidarity with the Syrian uprising, in the first week of May. (See Common Dreams, March 30, 2013)

How US-NATO with the support of Israel, Qatar and Saudi Arabia was waging an undeclared war on Syria was not the object of a cohesive debate. Nor was the issue of Al Qaeda mercenaries funded covertly by Washington and Brussels.
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While the “Arab Spring” was put forth as a revolutionary landmark, the US-NATO sponsored armed insurrections in Libya (2011) and Syria (2011-2013) were considered to be part of the “Arab Spring”:

“Now, we are at a crossroads where retrograde and conservative forces want to stop the processes initiated two years ago with the [Arab Spring] uprisings in the Maghreb-Mashreq region that helped to bring down dictatorships and to challenge the neoliberal system imposed on the peoples. These uprisings have spread to all continents of the world inspiring indignation and occupation of public places. (Declaration of the Social Movements Assembly, see full text below)

The uprisings in the “Mashreq” and “Maghreb” referred to in the Final Declaration essentially pertain to Syria, Egypt, Libya and Tunisia. The text of declaration is vague. It does not take a position with regard to US-NATO intervention in Libya and Syria.

What the WSF document intimates (by default) is that the US sponsored “Syrian opposition” is “also” a genuine grassroots pro-democracy movement, comparable to that of Egypt. Similarly the Al Qaeda affiliated Libya Islamic Fighting Group (LIFG) which led the “Arab Spring” against the government of Muammar Gaddafi is also considered to be a revolutionary force. It should be noted that Libya under Gadaffi was the only country in Africa which rejected the neoliberal economic agenda implemented under the helm of the IMF.

Several workshops on Libya tacitly applauded Western military intervention. A session entitled “Libya’s transition to democracy” focused on “whether Libya was better off without Muammar Gaddafi.” Several “progressive” NGOs and “alternative media” which had supported NATO’s humanitarian bombings against Libya were present in Tunis. No statement as to the criminal nature of NATO’s humanitarian bombing campaign against Libya was made by the WSF.

The Libyan NGOs in attendance were funded by their government and by Western foundations, with the approval of the Libyan Ministry of Culture and Civil Society established in 2011 in the wake of the NATO led military intervention.

Sessions were also held on “political Islam” as part of an anti-imperialist front without addressing the broader issue as to how “Political Islam” was used in the course of The Arab Spring to further the goals of the Imperialist powers. The result was the installation of Islamic governments in Egypt and Tunisia and the reinforcement rather than the repeal of the neoliberal economic policy agenda.

The legitimacy of the US “Global War on Terrorism” is not an object of debate under the auspices of the WSF. Nor is the fact that Washington covertly supported key leaders of the Arab Spring movement, as well as several civil society organizations. The April 6 Movement in Egypt had the support of the US embassy, Kefaya (Enough) was funded by US foundations. Both of these organizations were present at the WSF sessions in Tunis.

US Secretary of State Hillary Clinton speaks with Egyptian activists promoting freedom and democracy, visiting through the Freedom House organization, prior to meetings at the State Department in Washington, DC, May 28, 2009.

US Secretary of State Hillary Clinton speaks with “Egyptian activists promoting freedom and
democracy”, prior to meetings at the State Department in Washington, DC, May 28, 2009.

Aminata Traoré, the former minister of Culture of the deposed government of Mali, speaking at the World Social Forum in Tunis underscored how military intervention was used to enforce neoliberal economic policy.

Traore stated that: “The war that was imposed today in Mali is not a war of liberation of the Malian people, but a war of plunder of resources.” While addressing the WSF, she deplored that many WSF activists were supportive of France’s intervention.

Generally speaking, an understanding of imperialist wars in support of a neoliberal agenda has over the years not been a central component of the WSF debate. Moreover, many of the participant NGOs are in fact supportive of NATO’s “Responsibility to Protect” Mandate.

The Funding of the World Social Forum

The WSF is funded by governments and foundations. The Ford Foundation under its “Strengthening Global Civil Society” program provided funding during the first three years of the WSF.

When the WSF was held in Mumbai in 2004, the Indian WSF host committee declined support from the Ford Foundation. This in itself did not modify the WSF’s relationship to the donors. While the Ford foundation formally withdrew, other foundations positioned themselves.

In addition to government support, the WSF has been funded by a consortium of corporate foundations under the advisory umbrella of Engaged Donors for Global Equity (EDGE). This organization, which previously went under the name of The Funders Network on Trade and Globalization (FTNG), has played a central role in the funding of successive WSF venues. From the outset in 2001 it has an observer status on the WSF International Council.

While channeling financial support to the WSF, it acts as a clearing house for major foundations. EDGE describes itself as “a unique and diverse community of donors, foundation officers and advisors across the international philanthropic landscape … with shared commitment to global social change.”

Shortly before the WSF venue in Tunis, EDGE Funders –together with the Fondation Charles Léopold Mayer pour le Progrès de l’Homme (FPH)– convened in Paris a consortium of some two dozen WSF grantmakers. EDGE is also facilitating the presence of these grantmakers at the Tunis venue. (See http://www.edgefunders.org/events/)

In one of its key documents, entitled A Funders Network Alliance In Support of Grassroots Organizing and Movement-Building EDGE acknowledges its support of social movements which challenge “neoliberal market fundamentalism.” including the World Social Forum, established in 2001:

“From the Zapatista uprising in Chiapas (1994) to the Battle in Seattle (1999) to the creation of the World Social Forum in Porto Alegre (2001), the TINA years of Reagan and Thatcher (There Is No Alternative) have been replaced with the growing conviction that “another world is possible.” Counter-summits, global campaigns and social forums have been crucial spaces to articulate local struggles, share experiences and analyses, develop expertise, and build concrete forms of international solidarity among progressive movements for social, economic and ecological justice.”

But at the same time, there is an obvious contradiction: the campaign against neoliberalism is financed by an alliance of donors which includes corporate foundations, firmly committed to the free-market and neoliberal economic policy under the helm of the IMF.

A member of the Rockefeller Brothers Fund is on EDGE’s board of directors. A representative of the Ford Foundation sits on its Conference Program Committee, which defines funding orientations. The Wallace Global Fund which has a working relationship to EDGE, is specialized in providing support to “mainstream” NGOs and “alternative media”, including Amnesty International, Democracy Now.

The Rockefeller Brothers representative –who co-chairs EDGE’s program committee– is Tom Kruse. At the Rockefeller Brothers Fund, Kruse is responsible for “Global Governance” under the “Democratic Practice” program. Prior to joining the Rockefeller Brothers Fund, Kruse served as an adviser to the Bolivian government of Evo Morales on trade and investment policy, debt relief and macroeconomic reform. Rockefeller Brothers grants to NGOs are approved under the “Strengthening Democracy in Global Governance” program, which is broadly similar to that put forth by the US State Department.

From the standpoint of corporate donors including the Rockefeller Brothers Fund, “investing in the WSF” constitutes a profitable undertaking. It ensures that activism remains within the confines of constructive dialogue and critique rather than confrontation. Any deviation immediately results in the curtailment of donor funding:

“Everything the [Ford] Foundation did could be regarded as “making the World safe for capitalism”, reducing social tensions by helping to comfort the afflicted, provide safety valves for the angry, and improve the functioning of government (McGeorge Bundy, National Security Advisor to Presidents John F. Kennedy and Lyndon Johnson (1961-1966), President of the Ford Foundation, (1966-1979))

The limits of social dissent are thereby determined by the “governance structure” of the WSF, which was tacitly agreed upon with the funding agencies at the outset in 2001.

“No Leaders”

The WSF has no leaders. All the events are “self-organized”. The structure of debate and activism is part of an an “open space” (See y Francine Mestrum, The World Social Forum and its governance: a multi-headed monster, CADTM, 27 April 2013, http://cadtm.org/The-World-Social-Forum-and-its ).

This compartmentalized structure is an obstacle to the development of a meaningful and articulate mass movement. It indelibly serves the interests of those who fund the WSF including the tax free foundations and the governments.

How best to control grassroots dissent against global capitalism?

Make sure that their leaders can be easily co-opted and that the rank and file will not develop “forms of international solidarity among progressive movements” (to use EDGE’s own words), which in any meaningful way might undermine the interests of corporate capital.

The mosaic of separate workshops, the relative absence of plenary sessions, the creation of divisions within and between social movements, not to mention the absence of a cohesive platform against US-NATO humanitarian interventions, in Syria, Libya and Mali: all of these are part of a strategy to “manufacture dissent”

“The limits of dissent” are established by the foundations and governments which ultimately finance this multimillion dollar venue. The financing is twofold:

1. Core financing of the WSF Secretariat and the Costs of the WSF venue.

2. Many of the constituent NGOs which participate in the venue are recipients of donor and/or government support.

What ultimately prevails is a ritual of dissent which does not threaten the New World Order. Those who attend the WSF from the grassroots are often misled by their leaders. Activists who do not share the WSF consensus will ultimately be excluded:

“By providing the funding and the policy framework to many concerned and dedicated people working within the non-profit sector, the ruling class is able to co-opt leadership from grassroots communities, … and is able to make the funding, accounting, and evaluation components of the work so time consuming and onerous that social justice work is virtually impossible under these conditions” (Paul Kivel, You Call this Democracy, Who Benefits, Who Pays and Who Really Decides, 2004, p. 122 )

“Another World is Possible” is nonetheless an important concept, which characterizes the struggle of the peoples movements against global capitalism as well as the commitment of thousands of activists who participated in the WSF.

It cannot, however, be achieved under the auspices of the WSF which from the outset was funded by global capitalism and organized in close liaison with its corporate and government donors.

The important question for activists:

Is it possible to build “an Alternative” to global capitalism, which challenges the hegemony of the Rockefellers et al and then ask the Rockefellers et al to foot the bill?

Appendix

Declaration of the Social Movements Assembly – World Social Forum 2013, 29 March 2013, Tunisia

As the Social Movements Assembly of the World Social Forum of Tunisia, 2013, we are
gathered here to affirm the fundamental contribution of peoples of Maghreb-Mashrek (from
North Africa to the Middle East), in the construction of human civilization. We affirm that
decolonization for oppressed peoples remains for us, the social movements of the world, a
challenge of the greatest importance.

Through the WSF process, the Social Movements Assembly is the place where we come
together through our diversity, in order to forge common struggles and a collective agenda to
fight against capitalism, patriarchy, racism and all forms of discrimination and oppression. We
have built a common history of work which led to some progress, particularly in Latin America,
where we have been able to intervene in neoliberal alliances and to create several alternatives
for just development that truly honors nature.

Together, the peoples of all the continents are fighting to oppose the domination of capital,
hidden behind illusory promises of economic progress and the illusion of political stability.
Now, we are at a crossroads where retrograde and conservative forces want to stop the
processes initiated two years ago with the uprisings in the Maghreb-Mashreq region that
helped to bring down dictatorships and to challenge the neoliberal system imposed on the
peoples. These uprisings have spread to all continents of the world inspiring indignation and
occupation of public places.

People all over the world are suffering the effects of the aggravation of a profound crisis of
capitalism, in which its agents (banks, transnational corporations, media conglomerates,
international institutions, and governments complicit with neoliberalism) aim at increasing
their profits by applying interventionist and neocolonial policies.

War, military occupations, free-trade neoliberal treaties and “austerity measures” are
expressed in economic packages that privatize the common good, and public services, cut
wages and rights, increase unemployment, overload women´s care work and destroys nature.
Such policies strike the richer countries of the North harder and are increasing migration,
forced displacement, evictions, debt, and social inequalities such as in Greece, Cyprus,
Portugal, Italy, Ireland and the Spanish State.

They re-enforce conservatism and the control over women´s bodies and lives. In addition,
they seek to impose “green economy” as a solution to the environmental and food crisis, which
not only exacerbates the problem, but leads to commodification, privatization and
financialization of life and nature.

We denounce the intensification of repression to people´s rebellions, the assassination of the
leadership of social movements, the criminalization of our struggles and our proposals.

We assert that people must not continue to pay for this systemic crisis and that there is no
solution inside the capitalist system! Here, in Tunes, we reaffirm our committment to come
together to forge a common strategy to guide our struggles against capitalism. This is why we,
social movements, struggle:

*Against transnational corporations and the financial system (IMF, WB and WTO),
who are the main agents of the capitalist system, privatizing life, public services and common
goods such as water, air, land, seeds and mineral resources, promoting wars and violations of
human rights. Transnational corporations reproduce extractionist practices endangering life
and nature, grabbing our lands and developing genetically modified seeds and food, taking
away the peoples’ right to food and destroying biodiversity.

We fight for the cancellation of illegitimate and odious debt which today is a global instrument
of domination, repression and economic and financial strangulation of people. We reject free
trade agreements that are imposed by States and transnational corporations and we affirm
that it is possible to build another kind of globalization, made from and by the people, based
on solidarity and on freedom of movement for all the human beings.

[We struggle] for climate justice and food sovereignty, because we know that global climate change is a
product of the capitalist system of production, distribution and consumption. Transnational
corporations, international financial institutions and governments serving them do not want to
reduce greenhouse gases. We denounce “green economy” and refuse false solutions to the
climate crisis such as biofuels, genetically modified organisms and mechanisms of the carbon
market like REDD (Reducing Emissions from Deforestation and Forest Degradation), which
ensnare impoverished peoples with false promises of progress while privatizing and
commodifying the forests and territories where these peoples have been living for thousands of
years.

We defend the food sovereignty and support sustainable peasant agriculture which is the true
solution to the food and climate crises and includes access to land for all who work on it.
Because of this, we call for a mass mobilisation to stop the landgrab and support local
peasants struggles.

[We struggle] Against violence against women, often conducted in militarily occupied territories, but
also violence affecting women who are criminalized for taking part in social struggles. We fight
against domestic and sexual violence perpetrated on women because they are considered
objects or goods, because the sovereignty of their bodies and minds is not acknowledged. We
fight against the traffic of women, girls and boys.

We defend sexual diversity, the right to gender self-determination and we oppose all
homophobia and sexist violence.

[We fight] For peace and against war, colonialism, occupations and the militarization of our
lands.

We denounce the false discourse of human rights defense and fight against fundamentalism,
that often justify these military occupations such as in Haiti, Libya, Mali and Syria. We defend
the right to people’s sovereignty and self-determination such as in Palestine, Western Sahara
and Kurdistan.

We denounce the installation of foreign military bases to instigate conflicts, to control and
ransack natural resources, and to foster dictatorships in several countries.

We struggle for the freedom of organization in trade unions, social movements, associations
and other forms of peaceful resistance. Let’s strengthen our tools of solidarity among peoples
such as boycott, disinvestment and sanctions against Israel and the struggle against NATO and
to ban all nuclear weapons.

*[We struggle] For democratization of mass media and building alternative media, that are
fundamental to overthrow the capitalist logics.

Inspired by the history of our struggles and by the strength of people on the streets, the Social
Movements Assembly call upon all people to mobilize and develop actions – coordinated at
world level – in a global Day of mobilization on the XXXX (day to decide)

Social movements of the world, let us advance towards a global unity to shatter the capitalist
system!

No more exploitation, no more patriarchy, racism and colonialism! Viva la revolution! Long live
the people’s struggle.

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‘सीआईए’ और हिन्दी साहित्य…….

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1992-93 में मैंने एक किताब पढ़ी थी। किताब का नाम था- ‘क्लासलेस कैपिटलिज्म’। यह किताब उस वक्त महज एक रुपये की थी। इसमें बताया गया था कि वर्गविहीन समाज बनाने के लिए किसी समाजवाद की जरुरत नही है। कठिन मेहनत से पूंजीवाद में ही अपना वर्ग बदला जा सकता है। इसके समर्थन में कुछ उदाहरण दिये गये थे कि कैसे अपनी कठिन मेहनत से फला फला व्यक्ति गरीब वर्ग से अमीर वर्ग में चला गया और कैसे फला फला व्यक्ति अपनी काहिली से अमीर वर्ग से गरीब वर्ग में आ गया। इसका सन्देश साफ था कि पूंजीवाद कोई रिजिड व्यवस्था नही है। यह बहुत ही लचीली व्यवस्था है, जिसमें सभी के आगे बढ़ने की पर्याप्त गुंजाइश है।
इस किताब के बारे में खोज करने पर पता चला कि यह किताब 1960 के दशक में छपी थी। और इस किताब को छापने के लिए मुख्य रुप से ‘काग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ जिम्मेदार था। ‘काग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ की स्थापना 1950 में बर्लिन में हुई थी। 1951 में इसका एक सम्मेलन मुम्बई में भी हुआ था, जिसकी अध्यक्षता ‘अज्ञेय’ ने की थी। ‘काग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ के इतिहास पर आज बहुत सी किताबें मौजूद है। और अब बकायदा दस्तावेजों से यह साबित हो चुका है कि ‘काग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ के पीछे मुख्य ताकत अमरीकी खुफिया एंजेसी ‘सीआईए’ थी। सोवियत संघ और चीन की ‘समाजवादी क्रान्ति’ तथा ‘राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों’ के उस दौर में अधिकांश बुद्धिजीवी ‘वाम’ की ओर झुक रहे थे। ऐसे बुद्धिजीवीयो को ‘वाम’ की तरफ जाने से रोकने के लिए सचेत तरीके से ‘काग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ का गठन किया गया था। इसे ‘फोर्ड फाउन्डेशन’ के माध्यम से पैसा दिया जाता था।
हिन्दी के लेखकों पर विशेषकर ‘परिमल’ के लेखकों पर ‘काग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ का क्या असर था, यह शोध का विषय है। लेकिन हिन्दी के कुछ लेखको पर इसका असर गहरा है। इसकी एक बानगी तब देखने को मिली जब हिन्दी के वरिष्ठ कवि ‘कमलेश’ ने ‘समास’ पत्रिका में दिये अपने साक्षात्कार में कहा कि मानवता को सीआईए का ऋणी होना चाहिए। ‘कमलेश’ का बचाव करते हुए ‘ओम थानवी’ ने इसे भी साफ कर दिया कि मानवता को सीआईए का ऋणी क्यो होना चाहिए। उनका तर्क है कि सीआईए ने बहुत सस्ते में मानवता को किताबे मुहैया करायी है। वे सस्ती किताबें कौन सी है, इसके बारे में थानवी जी मौन है। निश्चय ही वे सस्ती किताबें ‘क्लासलेस कैपिटलिज्म’ की ही तरह की है। ‘ओम थानवी’ और ‘कमलेश’ जैसे लोगो को निश्चय ही इन किताबों के लिए सीआईए का ऋणी होने का पूरा हक है। लेकिन वे अपना यह व्यक्तिगत कर्ज पूरी मानवता पर क्यो थोप रहे है। सीआईए का हाथ दुनिया के तमाम इन्साफ पसन्द लोगो के रक्त से रंगा हुआ है। आज यह एक जगजाहिर सच्चाई है। इसके लिए तमाम दस्तावेजी साक्ष्य आज मौजूद है. लेकिन यह सच्चाई उन्हे नही नजर आयेगी जो सीआईए के प्रति ऋणी है।
‘कमलेश’ का बचाव करते हुए ‘ओम थानवी’ ने यह पुराना तर्क भी दिया कि विचार के प्रतिक्रियावादी होने के बावजूद रचना उच्चकोटि की हो सकती है। इसके लिए उन्होने ‘एजरा पाउन्ड’ का उदाहरण भी दिया। दरअसल साहित्य जिनके लिए खाली समय का शगल है, वे रचना से विचार को छीलने का मजा ले सकते है। लेकिन साहित्य जिनके लिए मानवता की मुक्ति के लिए एक हथियार की तरह है, वे रचना से विचार को छीलने का मजा नही ले सकते। किसी हत्या का लाइव कवरेज देख रहा कोई व्यक्ति ‘हत्या किस कलात्मक तरीके से की गई’ इसका मजा ले सकता है, लेकिन जिस व्यक्ति की हत्या हुई है उसका दोस्त या सम्बन्धी इस ‘कला’ का आनंद चाहकर भी नही ले सकता। ‘रामायण’ का आनन्द ओम थानवी तो ले सकते है, लेकिन ‘शम्बूक’ के सगे-सम्बन्धी इसका आनन्द कैसे ले सकते है।

यह रोचक बहस फेसबुक पर अप्रैल के महीने में चली। इसका पूरा ब्योरा आप जनपक्ष पर देख सकते है।
‘सीआईए’ ने दुनिया के साहित्य को अपने हिसाब से प्रभावित करने के लिए क्या क्या किया, इस पर एक बहुत अच्छी किताब है- The cultural cold war the CIA and the world of arts and letters Frances Stonor Saunders इसे आप किताब के नाम पर क्लिक करके डाउनलोड कर सकते है।

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