अब्बू की नज़र में जेल- 6 और 7

अब्बू की नज़र में जेल-6

एक दिन खुली गिनती के समय अब्बू ने मुझसे अचानक पूछा- मौसा जब जेलर अन्दर आता है तो बड़ा वाला गेट (करीब 18-20 फुट ऊंचा) खुलता है, और जब हम लोग अन्दर आते हैं या बाहर जाते हैं तो छोटा गेट (करीब 5 फुट ऊंचा) खुलता है। ऐसा क्यों? मैं इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था, इसलिए कुछ देर रूक कर मैं बोला-‘शायद उसकी गर्दन में दर्द हो और वह सर झुका ना पाता हो।’ अब्बू ने तुरन्त मेरी बात काटी-‘नहीं मौसा मैंने देखा है, वह अपनी कुर्सी पर बैठते हुए गर्दन झुकाता है। इसका मतलब उसे दर्द नहीं है।’ मुझे समझ नहीं आया कि अब मैं इसका क्या जवाब दूं। मैंने यूहीं कहा-‘अरे यार वो भी छोटे गेट से आयेगा तो पता कैसे चलेगा कि वो जेलर है। सब सोचेंगे कि वह भी कैदी है।’ अब्बू ने तुरन्त दूसरा सवाल दागा-‘तो क्या कैदी और जेलर में यही फर्क है?’ मैंने यूहीं कहा-हां। अब्बू ने अपनी आंखे नचाते हुए जैसे कोई सीक्रेट खोलते हुए कहा-‘मौसा मुझे पता है कि बड़ा वाला गेट एक बार और खुलता है।’ मैंने आश्चर्य से पूछा-‘अच्छा। कब?’ उसने विजयी भाव से कहा-‘जब कूड़ा-गाड़ी निकलती है तब।’ मैंने डर से चारो तरफ देखा कि किसी ने सुना तो नहीं!
बच्चे के इस मासूम आब्जर्वेशन पर पूरी कायनात मुस्कुरा रही थी।

अब्बू की नज़र में जेल-7

पूछताछ के दौरान ही मुझसे राजनीतिक चर्चा भी होती रहती थी, जिसे मैं जानबूझकर लम्बा खींचने का प्रयास करता था, ताकि पूछताछ का उनका समय कम पड़ जाय। ज्यादातर पूछताछ के ही किसी बिन्दु से राजनीतिक चर्चा शुरू हो जाती थी। हालांकि राजनीतिक चर्चा के पीछे भी उनका एक ‘हिडेन एजेण्डा’ होता था- मेरे ‘स्तर’ का अंदाजा लगाना।
उन्होंने मेरे कमरे से जो साहित्य जब्त किया था उसमें ‘वैकल्पिक शिक्षा’ से सम्बन्धित कुछ साहित्य था, जिस पर अमिता काम कर रही थी। इसके अलावा कुछ साहित्य ‘पारधी’ जैसी ‘विमुक्त जन जातियों’ [Denotified Tribes] की सामाजिक आर्थिक स्थितियों पर था। इन्हीं साहित्य पर पूछताछ ने राजनीतिक चर्चा का रूप ले लिया। उसने पूछा, यह ‘वैकल्पिक शिक्षा’ क्या है। वैकल्पिक शिक्षा के बारे में बताते हुए मैंने ‘मुख्यधारा’ की शिक्षा की आलोचना की और उदाहरण के रूप में मैंने बताया कि आज भी बच्चो को ‘क्ष’ से क्षत्रिय और ‘ठ’ से ठठेरा ही पढ़ाया जाता है। उसने तुरन्त पूछा कि ‘क्ष’ से क्षत्रिय ना पढ़ाया जाय तो क्या पढ़ाया जाये। मैंने तुरन्त कहा- बहुत से शब्द है। उसने भी तुरन्त कहा-‘कोई एक बताइये।’ मैं चकरा गया, क्योकि मुझे सच में उस समय ‘क्ष’ से कोई अन्य शब्द ध्यान में नहीं आया। अपनी इस ‘जीत’ से पूछताछ करने वाला मदमस्त हो गया और मुस्कराते हुए बोला -‘आप लोग बस आलोचना करना जानते हैं, कोई विकल्प तो होता नहीं आप लोगो के पास।’ मैं उसके जाल में फंस गया था। उसके जाल से निकलने का प्रयास करते हुए मैने कहा-‘पढ़ाने का यह तरीका ही गलत है।’ कविता कहानी और इससे जुड़ी अन्य गतिविधियों के माध्यम से बच्चे अक्षर खुद ब खुद पहचान लेते है।’ लेकिन वह इस विजयी पल को हाथ से जाने नहीं देना चाहता था और बार बार मुझसे यही पूछे जा रहा था कि बताइये बताइये ‘क्ष’ से और क्या शब्द है। मेरी इस ‘हार’ ने अब्बू का ध्यान भी आकर्षित कर दिया जो वहीं पर एक कोने में बैठकर ड्राइंग पेपर पर कुछ बना रहा था। वह मेरे बिल्कुल पास आकर कान में धीमें से बोला-‘मौसा सचमुच तुम्हें नहीं पता।’ मैंने प्यार से पूछा-‘क्या।’ वही जो ये पूछ रहे हैं। मैंने कहा, नही याद आ रहा, अब्बू। अब्बू हल्के गुस्से में बोला-‘फिर इतनी मोटी मोटी किताबें पढ़ने का क्या फायदा।’ यह कहते हुए वह वापस अपनी ड्राइंग बुक की तरफ चला गया। उसे यह बर्दाश्त नहीं था कि उसके मौसा किसी से हार जाय।
अब बात विमुक्त जातियों पर आकर टिक गयी। वह अपने अनेक आपरेशनों का हवाला देते हुए कहने लगा कि ये सभी जातियां अपराधी जातियां हैं। अपराध इनके खून में होता है, इन्हें कभी सुधारा नहीं जा सकता। जवाब में मैं उतने ही पुरजोर तरीके से इन जातियों के इतिहास, सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों और सबसे बढ़कर पुलिस व समाज का उनके प्रति रूख को स्थापित करते हुए यह बताने का प्रयास करता रहा कि ये जातियां किस कदर दबायी और बदनाम की गयी हैं। अचानक से मेरे बगल में बैठा गठीले बदन का, टीका लगाये हुए एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति जो अभी तक कम बोल रहा था और बहुत विनम्र व्यवहार कर रहा था, भड़क उठा और विमुक्त जातियों से शुरू करके पूरी जनता को ही गालियां देने लगा-‘किस जनता की बात आप लोग करते हैं, वही जो दारू पीकर सूअरों की तरह पड़ी रहती है, एक नम्बर की कामचोर होती है, दो पैसे के लिए अपना ईमान बेच देती है।’ इसी प्रक्रिया में वह कूद कर बेवजह मुसलमानों पर भी आ गया और अपना दिमागी कचरा उड़ेलने लगा। उसके अचानक इस हमले से मैं सकते में आ गया। अगले पांच दस मिनट तक वह ऊंची आवाज में लगातार बोलता रहा और जनता को गालियां देता रहा।
रात में 2 बजे उसकी आवाज और भी तेज व तीखी सुनाई दे रही थी। बाहर खड़े दोनों पहरेदार भी एके 47 पर अपनी पकड़ मजबूत बनाते हुए कमरे के दरवाजे पर आ गये। मानो उसके कुतर्को को कभी भी हथियारों की जरूरत पड़ सकती है। यह देख कर मेरे दिमाग में अचानक कौधा-‘क्या मेरे तर्को के लिए भी हथियारों की जरूरत है।’ गिरफ्तारी के चंद रोज पहले ही मैंने ‘न्यूगी वा थांगो’ का उपन्यास ‘मातीगारी’ पढ़ा था। उसकी पंक्तियां कौध गयी-‘सिर्फ खूबसूरत तर्क ही काफी नहीं होते, उनका समर्थन करने के लिए हथियारों की ताकत भी जरूरी हाती है।’ बहरहाल किसी अनहोनी की आशंका में अब्बू अपना ड्राइंग छोड़ कर मेरे पास आकर कुर्सी से सट कर खड़ा हो गया। पता नहीं क्या हुआ कि अब्बू का स्पर्श मिलते ही मैं भावुक हो गया और मेरी आंख भरने लगी। चश्में के भीतर से ही मैंने दोनों किनारों को साफ किया। पूछताछ करने वाला भी मेरी स्थिति भांप गया और अपना जहरीला भाषण बीच में ही रोक कर बोला-क्या हुआ। मैंने बहुत मुश्किल से आवाज निकाली-‘जनता को इतनी गाली मैंने जीवन में पहले कभी नहीं सुनी है।’ मेरी मनःस्थिति देख कर वह आगे कुछ नहीं बोला। मैं अब्बू की तरफ मुखातिब हुआ और अब्बू को रिलैक्स करने के लिए पूछा-‘अब्बू तू ड्राइंग बुक पर क्या बना रहा है?’ अब्बू ने गम्भीरता से जवाब दिया-‘माल्यांग की कूची।’

नोट-‘माल्यांग की कूची’ एक चीनी लोककथा है, जिसमें माल्यांग नामक बच्चे को एक जादुई कूची यानी ब्रश मिल जाता है, जिससे वह जो भी बनाता है, वह वास्तविक हो जाता है। माल्यांग अपनी इस ताकत का इस्तेमाल करते हुए एक नदी बनाता है और उसमें बाढ़ ला देता है। इस बाढ़ में वहां का अत्याचारी राजा डूब जाता है और जनता को उसके अत्याचारों से मुक्ति मिल जाती है।

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