‘जय भीम कामरेड’ – एक वीडियो दस्तावेज

आनन्द पटवर्धन की अन्य फिल्मों की तरह ही, यह भी एक वीडियो दस्तावेज है। ‘जय भीम कामरेड’ में आनन्द पटवर्धन ने दलित लोकगायक विलास घोघरे के बहाने पूरे महाराष्ट्र के दलित आन्दोलन और ‘मुख्यधारा’ की राजनीति के साथ उसके अन्तरसम्बन्धों के कई पहलुआंे को समेटा है। 1997 में रमाबाई नगर में डाॅ. अम्बेडकर की मूर्ति पर कुछ अज्ञात लोगों (जो कि जाहिर है कि मनु परंपरा के ही होंगे) ने रात के अंधेरे मे चप्पल की माला पहना दी। सुबह उस दलित बस्ती के लोग जब यह देखते हंै तो वे आक्रोशित हो उठते हंै। इसी प्रकिया में वे स्वाभाविक रुप से वहां जमा होने लगते हंै। इसी बीच वहां पुलिस भी आ जाती है। और बिना किसी उकसावे के भीड़ पर अन्धाधुन्ध फायरिंग करने लगती है। इस गोलीबारी में 10 लोगों की मौत हो जाती है। फिल्म इन दसों लोगों और उनके परिवार से हमें बहुत संवेदनशील तरीके से परिचित कराती है।
विलास घोघरे को जब इसकी जानकारी होती है, तो वे तुरन्त घटनास्थल की ओर भागते हंै। वहां का दारुण दृश्य उन पर इतना भारी पड़ता है कि वह वापस लौट कर चुपचाप आत्महत्या कर लेते हैं।
फिल्म इस घटना की पड़ताल करते हुए विलास घोघरे से हमारा आत्मीय परिचय कराती है। विलास घोघरे के गाये कई गीतों की रिकार्डिंग का इसमे बेहद खूबसूरत इस्तेमाल हुआ है।
दलित आंदोलन के दबाव में पुलिस फायरिंग का आदेश देने वाले मनोहर कदम को सेशन कोर्ट से उम्र कैद की सजा हो जाती है। लेकिन अगले माह ही हाईकोर्ट से उसे जमानत मिल जाती है। न्याय व्यवस्था भी मनुवादी ढ़ांचे से बाहर नही है।
फिल्म का अंत ‘कबीर कला मंच’ की प्रस्तुति से होता है। ‘कबीर कला मंच’ के नवयुवक-नवयुवतियां विलास घोघरे की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए दलित आंदोलन को एक नयी सतह पर ले जाने का प्रयास कर रहे हंै। उन्हीं के शब्दों में -‘भीम’ को अब भजन, कीर्तन और किताबों से निकल कर हमारे बीच आना होगा और इस लड़ाई को आगेे बढा+ना होगा। फिल्म आगे हमे सूचित करती है कि पुलिस की ज्यादतियों से परेशान होकर ‘कबीर कला मंच’ अब भूमिगत हो गया है। पुलिस की फाइल मे ‘कबीर कला मंच’ नक्सलवादी संगठन के रुप में दर्ज है और पुलिस को उनकी तलाश है।
पूरी फिल्म महाराष्ट्र में दलितों की उस संघर्ष परंपरा को हमारे सामने बखूबी रखती है जो आज भी बदस्तूर जारी है। ‘कबीर कला मंच’ जिसका ताजा प्रमाण है।
यदि फिल्म दलित आंदोलन के अन्तरविरोधों को भी थोड़ा स्पष्ट तरीके से सामने रखती और दलित आन्दोलन की आज की जरुरत के आइने में डाॅ. अम्बेडकर की विचारधारा की सीमाओं की भी पड़ताल करती, तो यह और भी सशक्त फिल्म साबित होती।
बहरहाल, सभी सामाजिक एक्टिविस्टों के लिए यह फिल्म आनन्द पटवर्धन की अन्य फिल्मों की तरह ही एक जरुरी फिल्म है।

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‘’द ग्रेप्स आफ राथ’: समाज को प्रतिबिम्बित करती एक अद्भुत फिल्म!

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अभी-अभी एक शानदार फिल्म देख कर उठी हूं-‘द ग्रेप्स आफ राथ’। जान फोर्ड द्वारा 1940 में बनायी गयी यह फिल्म इसी नाम के जान स्टीनबेग के प्रसिद्ध उपन्यास पर आधारित है। 1929-30 की मन्दी की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म मानव जाति के अन्तहीन दुखों और उसके शाश्वत संघर्ष और बेहतर जीवन के प्रति उसकी दुर्धष जिजीविषा की अद्भुत कहानी है।
मन्दी के चक्रव्यूह में फंस कर या कहें कि फंसा कर जब बड़े पैमाने पर किसानों की जमीनें बड़े-बड़े फार्मरों और पूंजीपतियों के पास चली गयी तो उनके पास पेट की भूख मिटाने के लिए बड़े शहर की ओर कूच करना उनकी मजबूरी बन गयी। अमेरिका में विकसित पूंजीवाद की जो भव्य तस्वीर खींची जाती है, उसकी नींव इन्हीं गरीब किसानों के दुखों, उनकी बेबसी, उनके दर्द और उनके खून पसीने से बनी है। यह फिल्म ऐसे ही किसान परिवार की कहानी कहती है जो एक कम्पनी के हाथों अपनी जमीन छिन जाने के बाद मजदूरी करने के लिए कैलीफोर्निया की ओर चल देता है। इस यात्रा के दौरान बहुत से हृदय विदारक दृश्य उत्पन्न होते हैं। उन्हें देख कर कई अन्य क्लासिक फिल्में याद आती हैं। परिवार का सबसे बूढ़ा बुजुर्ग किसी भी स्थिति में अपनी धरती नहीं छोड़ना चाहता। वह इस तर्क को कतई नहीं समझ पाता कि पीढि़यों से जिस जमीन पर अपना मेहनत व पसीना बहाया वह आज अपनी क्यों नहीं है। इसी गम में रास्ते में ही उसकी मौत हो जाती है।
70 के दौरान बनी फिल्म ‘गर्महवा’ का वह दृश्य याद कीजिये जिसमें परिवार की बूढ़ी अम्मा अपना पुश्तैनी घर किसी कीमत पर छोड़ कर नहीं जाना चाहती। हालांकि विस्थापन का वह एक अलग पहलू था। ये दोनो दृश्य दर्शक को भीतर तक हिला देते हैं।
आगे चलकर बूढ़े दादा के गम में बूढ़ी दादी भी चल बसती हैं। परिवार के दो सबसे अहम और प्रिय लोगों को खोकर वे अन्ततः कैलीफोर्निया पहुंचते हैं। कैलीफोर्निया में इसी परिवार की तरह लाखों और परिवार अपना भविष्य तलाशने के लिए पहले से ही उपस्थित हैं। उन्हें मजबूरन शहर के बाहर बनी झुग्गियों में आश्रय लेना पड़ता है। जिसकी कल्पना आप अपने शहर की झुग्गी-झोपडि़यों से आसानी से कर सकते हैं। कैलीफोर्निया शहर में बेरोजगारों की भीड़ है। वेतन नाममात्र का है। लेकिन वहां मजदूरों के संघर्ष भी हैं। इन संघर्षों के सम्पर्क में आकर परिवार का बड़ा बेटा टाम उससे प्रभावित हो जाता है और विस्थापन बेरोजगारी, झुग्गी-झोपडि़यों व पूंजीवाद को एक नए कोण से देखना शुरू करता है। उसके इस रूपान्तरण से परिवार कई बार संकट में भी पड़ जाता है और उन्हें तत्काल वह जगह छोड़नी पड़ती है। लेकिन उसकी मां अपने बेटे की इस भावना को समझती है और दिल से उसके साथ होती है। मां-बेटे का यह रिश्ता फिल्म का सबसे प्रभावशाली हिस्सा है। फिल्म के अन्त में जब बेटा परिवार छोड़कर जा रहा होता है तो वह मां से कहता है मेरी जरूरत इस परिवार से ज्यादा उन जगहों पर है जहां अन्याय, शोषण और अत्याचार है। अन्ततः उसकी बातों से सहमति जताते हुए मां उसे भारी मन से विदा कर देती है। बेटे से मां के बिछड़ने का यह दृश्य भीतर तक हिला देता है और फिल्म को एक नया आयाम देता है।
फिल्म में मां का किरदार बेहद सशक्त है। वह कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हमेशा आशावान बनी रहती है। ज्यादातर मांओं की तरह वह हर समय संघर्षरत रहते हुए जीने की राह निकाल ही लेती है।
फिल्म को देखकर हमें अपने आस-पास भी वही तस्वीर नजर आती है जो उस वक्त के अमेरिका की थी। तथाकथित विकास के नाम पर हर तरफ लोगों को जल-जंगल-जमीन से बेदखल किया जा रहा है। यानी आदिम संचय की जो प्रक्रिया अमेरिका में अपनायी गयी वही प्रक्रिया और भी क्रूर रूप में भारत में अपनायी जा रही है।
दृश्य दर दृश्य फिल्म रोंगटे खड़े कर देती है। अपने देश में भी हालात आज यही कहानी कह रहे हैं। अपने जल-जंगल और जमीन के एक-एक इंच के लिए संघर्षरत जनता के हालात एक-एक करके उसमें जुड़ते जाते हैं। फिल्म देखकर लगता है कि दमन और प्रतिरोध का वह मुसलसल सिलसिला अब तक जारी है। कुछ ही फिल्में ऐसी होती हैं जो दुनिया भर की संघर्षरत जनता का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह फिल्म भी उनमें से एक है। फिल्म के पात्र और उनका सांस्कृतिक परिवेश यदि बदल दिया जाए वह अनिवार्य रूप से किसी भी समाज का प्रतिनिधित्व कर सकती हैं।
स्पाइडरमैन एवं मैट्रिक्स जैसी वायवीय और तड़क भड़क वाली हालीवुड फिल्मों के देश में ‘द ग्रेप्स आफ राथ’ जैसी फिल्में भी बनी होंगी, सहसा यकीन नहीं होता!!

 

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India: The corrupt crusade against corruption! – by lal khan

Societies seething with discontent and deprivation erupt in most peculiar ways. In India’s egregiously unequal society, the recent upheaval, if at all it can be called that, around the right-wing conservative social activist Anna Hazare shows the malaise that has set in in this largest democracy in the world with one of the fastest growing economies.

Anna Hazare during one of his hunger strikes. Photo: Ramesh LalwaniAnna Hazare during one of his hunger strikes. Photo: Ramesh Lalwani A majority of the urban ‘masses’ are from the middle class, which sprouted after the collapse of the Keynesian model of capitalism and the introduction of trickle down or “neo-liberal” economics at the end of the 1980s. The person credited with and glorified by the imperialists as the pioneer of this economic change is no other than Manmohan Singh, the incumbent prime minister of India. This resulted in an unprecedented rise in inequality and socio-economic polarisation. While this middle class has reached a substantial figure of more than 160 million, the destitute in India are more than a billion. This petit bourgeoisie is in turmoil and extremely perturbed by a life of cut-throat competition, price hikes and unemployment. It goes after superficial and pragmatic issues in its impatience as a class to find some respite. Its political representation these days is called “civil society”, with a pragmatic policy to reform a system that is historically obsolete and economically redundant.

The present movement against corruption is supported by this civil society and the NGOs that are sponsored by Coca-Cola, DFID, the British Council, World Bank, USAID, Lehman Brothers, the Ford Foundation and other national and international corporations and billionaires. The dominant corporate media has converted tens of thousands of these petit bourgeois urbanites into hundreds of thousands to suit its bosses. Anna Hazare himself supports Raj Thackeray’s ‘Marathi Manoos’ xenophobia.

He banned alcohol in his native Ralegan Siddhi in Maharashtra and those who dared to drink were flogged. He has heaped admiration upon the BJP’s Nitish Kumar in Bihar and the neo-fascist Narendra Modi in Gujarat. His connections with the Hindu fundamentalist Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS) have been recently exposed.

However, the most insidious element in this and other civil society movements is the blatant class collaborationism and ideological capitulation. There is a striking analogy between the present movement in India and the lawyers’ movement in Pakistan. In both of these civil society movements, we see the tapering off of the ideological conflict between the left and right and a despairing acceptance of the present rotting system and the state. In Pakistan we saw conciliation between the Jamaat-e-Islami and other right-wing parties with the so-called left parties for the restoration of a similar individual as Hazare and an institution that was and is a pillar of the despotic state apparatus. It was a movement to cut across the looming movement of the ‘uncivil’ society, i.e. the working classes and the youth. But it still erupted with a vengeance in the autumn of 2007. Two years after the restoration of the deposed judiciary, justice is much dearer and elusive for the vast majority of the people, the poor and the oppressed. The Supreme Court takes suo motu notice of two bottles of Atiqa Odho’s liquor while millions are dying from hunger, poverty and disease. Lawyers from the very same movement showered rose petals on Salmaan Taseer’s bestial assassin. Any movement not based on class struggle is doomed to compromise and failure.

It is an obtrusive fact that there is rampant and plaguing corruption in India. But what is being purported is that it is the cause of the crisis of the system and society. In reality it is the effect and product of a system in terminal decay. The deafening din of corruption under nationalisations was a travesty. It is true that under state capitalism, corruption and inefficiency are inevitable diseases, but the corporate media charade that by privatisation and deregulation corruption would be eliminated has been rejected by reality. The restoration of capitalism in China and the introduction of “neo-liberal” economics in India have proved that corruption has multiplied instead of diminishing. Manmohan Singh was a hero of corporate India and imperialism for decades.

Now when Indian capitalism is drenched in ever deeper crisis and the rates of profit of these vultures are not rising fast enough, they want the state to further withdraw from infrastructural sectors like health, education, electricity, transport, mining, etc. These captains of corporate capitalism, who themselves are drenched in corruption and crime, are shouting raucously against corruption to sideline and defuse their own outrageous scandals that are coming out at the present time. They have stashed away $ 1.4 trillion of this black money in Swiss banks. It is no surprise that the stalwarts of the so-called ‘progressive’ bourgeoisie of India, the Ambanis and the Tatas, are portraying Narendra Modi as the future political leader of India. The stench hanging over India is not really about trillions of rupees siphoned away in corruption. It is about perpetuating an exploitative class-based system through so-called parliamentary democracy.

If Anna Hazare is a dubious character, it is nothing new for India. If democracy, cricket and nationalism are the opium of its people, hypocrisy is the hallmark of its leaders. The whole history of politics of the ruling class and its most renowned leaders has not been dissimilar. Sarojini Naidu, a distinguished poet and one of the main leaders of the Congress, was a contemporary of Gandhi. He was neither Buddha nor Jesus for her. She called him half-mockingly Mickey Mouse. Gandhi mostly responded generously. But when at a meeting Naidu told the Congress high command in his presence, “Do you know, Bapu, how much it costs us to keep you in poverty?” he went pale in concealing his anger.

If anything the social, economic and political situation has deteriorated much further. Arundhati Roy wrote in The Hindu last week, “Will the 830 million people living on Rs 20 a day really benefit from the strengthening of a set of policies that is impoverishing them and driving this country to civil war? The awful crisis has been forged out of the utter failure of India’s representative democracy, in which the legislatures are made up of criminals and millionaire politicians.”

What we are witnessing is not a revolution but mendacity. But more than a billion Indians are yearning for emancipation. The mighty Indian proletariat has led gigantic movements in the past, with militant traditions. The betrayals of the left parties and trade union leaders have been manifest time and again. In spite of the setbacks, the youth and the toilers shall rise again and carry out a socialist transformation. It is the writing on the wall. Dare to read it?

[this article is taken from www.marxist.com]

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राम चन्द्र गुहा की इतिहासदृष्टिः कुछ नोट्स

India After Gandhi:The History of the World's Largest Democracy  by Ramachandra Guha

अभी-अभी रामचन्द्र गुहा की किताब ‘इन्डिया आफ्टर गांधी’ का हिन्दी अनुवाद ‘भारत गांधी के बाद, दुनिया के विशालतम लोकतन्त्र  का इतिहास’….पढ़ कर खत्म की। पूरी किताब को पढ़ते वक्त दिमाग में अनेकों सवाल उमड़ते घुमड़ते रहे। हालांकि यह भी सही है कि पाठक की भी अपनी दृष्टि होती है और उसके सवाल भी उसी जमीन से उठते हैं।
मेरा मानना है कि कोई भी इतिहासकार इतिहास लिखते वक्त निरपेक्ष नहीं हो सकता। उसके पूरे लेखन में उसकी विश्वदृष्टि अन्तर्निहित रहती है। उसी के हिसाब से वह तथ्यों के अम्बार से तथ्य चुनता है और अपने लेखन में उन तथ्यों को सजाता है। रामचन्द्र गुहा ने भी अपनी इस किताब में अपने चुने हुए तथ्यों को बहुत खूबसूरती से सजाया है। लेकिन उनकी इतिहास दृष्टि के विषय में कुछ चीजें बहुत साफ हैं और यह पूरी किताब में बिटवीन द लाइन्स चलती रहती हैं।
चूंकि यह किताब टुकड़ों-टुकड़ों में पढ़ी। इस लिए सिलसिलेवार इस पर कुछ लिखना सम्भव नहीं है। लेकिन कुछ बिखरे हुए नोट्स शेयर करना चाहती हूं।
इस किताब से यह स्पष्ट होता है कि गुहा की कांग्रेस और भारतीय लोकतन्त्र पर अतिरिक्त आस्था है। आज+ादी की लड़ाई के कुछ चुभते हुए सवाल उन्हें नहीं नज+र आते। आजादी की लड़ाई में कांगे्रस ने किस तरह एक सम्भावनाशील परिवर्तन को समझौते में तब्दील कर दिया और गांधी नेहरू समेत सभी कद्दावर नेता अन्त तक अंग्रेजों के साथ वार्ता की मेज पर बैठते रहे और समझौता करते रहे। अन्ततः भारतीय ‘आजादी’ ब्रिटेन की संसद में पारित एक अधिनियम के माध्यम से उपहार स्वरूप दी गयी। विभाजन की  कीमत पर मिली ‘आजादी’ को उन्होंने स्वीकार किया। दूसरी तरफ इस देश की जनता तहे दिल से ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ रही थी। कुर्बानी दे रही थी। सन 1942 मंे शुरू हुए भारत छोड़ो आन्दोलन ने न सिर्फ अंग्रेजों बल्कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भी भयभीत कर दिया था। हालांकि सरकारी इतिहास में यह आन्दोलन कांग्रेस के नाम पर दर्ज है। जबकि सत्य यह है यह आन्दोलन कांग्रेस की गिरफ्त से निकल चुका था। कई जिलों ने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया था। इन सबमंे कांग्रेस को सत्ता की जमीन सरकती नज+र आयी। इसके बाद लगातार हुयी घटनाओं ने अंग्रेजों को आक्रान्त कर दिया। उतने ही भयभीत थे कांग्रेस के नेता। जिन्हें जनता के क्रान्तिकारी हो जाने का ‘खतरा’ सता रहा था। 1946 में हुए नौसेना विद्रोह ने इसे और पक्का कर दिया। अंग्रेजों ने अपने असली वरिसों को सत्ता हस्तांतरित करके जाने में ही भलाई समझी। सम्राज्यीय भूख कभी शांत नहीं होती। इतने साल भारत की जनता को निचोड़ने के बाद अपना लाभ कांग्रसी नेतृत्व के हाथ मंे सुरक्षित करके वे यहां से चलते बने। बदले में छोड़ गये विभाजन का दंश जिसे आज भी भारत पाकिस्तान की जनता झेल रही है।
रामचन्द्र गुहा विभाजन के लिए स्पष्ट तौर पर जिन्ना, मुस्लिम लीग और मुसलमानों को दोषी मानते हैं।
जबकि हकीकत यह है कि मुल्क का विभाजन, यहां पर साम्राज्यवाद की जीत और कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन की सबसे बड़ी विफलता है। रामचन्द्र गुहा बेहद बारीकी से गांधी और नेहरू की वन्दना करते हैं और विभाजन के लिए कांग्रेस, गांधी, नेहरू और यहां तक कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद को कहीं से भी दोषी ठहराने की जहमत नहीं उठाते हैं। सच तो यह है कि विभाजन पर हुआ भारतीय इतिहास लेखन इतना अपर्याप्त है कि इतने सालों बाद भी हम उसकी पूरी हकीकत को कभी नहीं जान सकते। यहां तक कि भारत सरकार ने विभाजन से सम्बन्धित ढेर सारी सामग्री अभी भी बन्द रखी है। उसे इतिहासकारों तक के लिए भी सार्वजनिक नहीं किया गया है। आइए देखते हैं विभाजन के मद्देनज+र रामचन्द्र गुहा की इतिहास की हिन्दू दृष्टि-
‘‘सन 1946-47 में हुए खून खराबे ने यही जाहिर किया कि मुसलमान ही वह समुदाय था जो हिन्दुओं के वर्चस्व वाली कांग्रेसी सरकार के अधीन आराम से और शान्तिपूर्ण तरीके से रहने को तैयार नहीं था।’’
इस देशभक्त, हिन्दू इतिहासकार की कलम कभी भी बंटवारे के लिए बहुसंख्यक हिन्दू, कांग्रेस और उसके पैरोकार गांधी-नेहरू के प्रति कटु नहीं होती है। पंक्तियों के अन्तराल में यह पुस्तक अपनी अन्तर्वस्तु में बहुत बारीकी से साम्प्रदायिक है।
राष्ट्रभक्त गुहा की इतिहासदृष्टि राष्ट्रीयता का सम्मान करना नहीं जानती। इतिहास के सचेत पाठक इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि भारत एक राष्ट्र नहीं अनेकों राष्ट्र-राष्ट्रीयताओं का समुच्चय है। साम्राज्यवादियों ने बहुत चालाकी से इन राष्ट्रों के सामने विकल्प रखा कि वे या तो भारत या पाकिस्तान में विलय कर सकते हैं या आज+ाद मुल्क के बतौर रह सकते हैं। सत्ता हस्तांतरण के वक्त भारत में 500 से अधिक देशी रियासतें थींं। गुहा ने इन रियासतों की तुलना उन सेबों से की है जिसे ‘महान’ वल्लभभाई पटेल एक-एक करके भारत की टोकरी में सजाते जा रहे थे। वल्लभभाई पटेल का महिमामण्डन करने में कहीं-कहीं तो गुहा पटेल से भी ज्यादा राष्ट्रभक्त लगने लगते हैं। गुहा ने पटेल का जो तस्वीरांकन किया है, कहीं कहीं पर वह उनके नायक गांधी-नेहरू से भी विशाल हो जाती है। गुहा इतिहास की ऐसी तस्वीर पेश करते हैं जिसमें यह लगता है कि जो देशी रियासत भारत के साथ नहीं आना चाहती थी, वह गुनहगार थी।
कश्मीर एवं उत्तरपूर्व के प्रति भी गुहा की इतिहासदृष्टि एक हिन्दू राष्ट्रभक्त की कहानी ही कहती है। जैसा कि गुहा कहते हैं-‘यह किताब मानवता के छठे हिस्से की कहानी कहने का एक प्रयास भर है।’ गुहा जिस किस्सागोई के अन्दाज में इतिहास कहते हैं वह सचमुच अन्त तक बांधे रहता है।
आज जब सबाल्टर्न इतिहास या यों कहें कि इतिहास को नीचे से देखने की दृष्टि इतिहास की एक प्रमुख धारा बन चुकी है। ऐसे मंे इतिहास को ऊपर से देखने की या कहें तो शासक वर्ग की निगाह से देखने की रामचन्द्र गुहा की दृष्टि क्षुब्ध करती है।
कुल मिला कर रामचन्द्रगुहा के इतिहासलेखन की दृष्टि भारतीय मिथकों में प्रयुक्त विषकन्या सी प्रतीत होती है।

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पेरिस कम्यून पर एक महत्वपूर्ण फिल्म-‘ला कम्यून’

मशहूर फिल्मकार पीटर वाटकिन ने 1999 में पेरिस कम्यून पर एक फिल्म बनायी-‘ला कम्यून’। साढ़े पांच घण्टे की यह फिल्म इतिहास के किसी कालखण्ड पर बनी अब तक की सबसे विश्वसनीय फिल्मों में से एक है।
पेरिस व आसपास के कस्बों से कुल 220 लोगों को लेकर एक उजाड़ फैक्ट्री प्रांगण को सेट के रूप में बदल कर यह फिल्म बनायी गयी। इन 220 लोगों में करीब 60 प्रतिशत लोगों के लिए अभिनय का यह पहला मौका था।
यह फिल्म इस रूप में भी अद्भुत है कि इसे आज (यानी तब 1999 में) के सवालों से टकराते हुए बनाया गया है। ‘पेरिस कम्यून’ पर फिल्म बनाने का कारण बताते हुए पीटर वाटकिन कहते हैं कि -‘‘आज हम मानव इतिहास के सबसे बुरे दौर में प्रवेश कर रहे हैं। जहां उत्तरआधुनिक निराशावाद ने मानवतावाद और आलोचनात्मक चिन्तन को ढक लिया है। बाजारवाद और उपभोक्तावाद ने लोगों को लालच की गिरफ्त में ले रखा है………………………………………….जहां नैतिकता , सामूहिकता, प्रतिबद्धता को ‘पुराना फैशन’ मान लिया गया है। ऐसे में यह देखना कि 1871 में पेरिस में क्या हुआ…………………..? पेरिस कम्यून एक बेहतर दुनिया के लिए संघर्ष का प्रतीक है। एक सामूहिक सामाजिक बदलाव की जरूरत का प्रतीक है। हमें पेरिस कम्यून के आदर्शों की जरूरत आज वैसे ही है जैसे मरते आदमी को आॅक्सीजन की जरूरत होती है।’’
अपनी इसी प्रतिबद्धता के कारण फिल्म के पात्र फिल्म के बीच से ही अचानक आज के दौर में यानी 1999 में आ जाते हैं और दर्शकों को 1999 के दौर की समस्याओं से रूबरू कराते हैं तथा अगले फ्रेम में वे पुनः पेरिस कम्यून में पहुंच जाते हैं।
आमतौर इतिहास पर केन्द्रित फिल्में दर्शकों को वर्तमान से काट कर अतीत में ले जाती हैं। लेकिन यह फिल्म अपनी अद्भुत तकनीक से अतीत-वर्तमान का सम्वाद बनाए रखती है।
यह फिल्म अन्य फिल्मों से इस रूप में अलग हो जाती है कि इस फिल्म के डायरेक्टर से लेकर सभी कास्ट व क्रू एक प्रतिबद्धता के साथ इस फिल्म से जुड़े हुए हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि साढ़े पांच घण्टे की यह पूरी फिल्म मुख्यतः इम्प्रोवाइजेशन है। यानी इसकी कोई निश्चित पटकथा नहीं है। फिल्म बनाने से पहले रिसर्च के दौरान और फिर सभी कास्ट व क्रू के साथ विभिन्न स्तर पर चर्चा समूह गठित करके पेरिस कम्यून के इतिहास को उन लोगों ने आत्मसात कर लिया। पेरिस कम्यून के दौरान विभिन्न तबकों समूहों व वर्गाें की क्या भूमिका थी इसे समझने के बाद सभी पात्रों ने कैमरे के सामने उस पूरी ऐतिहासिक घटना को बिना किसी निश्चित पटकथा के जिया। यह अनुभव वास्तव में बेजोड़ रहा होगा।
फिल्म के पहले ही फ्रेम में कलाकारों का पेरिस कम्यून के आदर्शों से जुड़ाव स्पष्ट हो जाता है। पहले ही फ्रेम में एक टीवी रिपोर्टर आपसे मुखातिब होती है और कहती है कि पेरिस कम्यून का जिस क्रूरता के साथ दमन किया गया, वह सब जानने के बाद मेरे लिए अभिनय के दौरान पेरिस कम्यून की जीत के जश्न की रिपोर्टिंग करते हुए मुस्कुराना बहुत कठिन था।
निश्चित रूप से पेरिस कम्यून के दौरान यानी 1871 के दौरान टीवी का अविष्कार नहीं हुआ था। लेकिन पीटर वाटकिन ने उस समय इलेक्ट्रानिक मीडिया की कल्पना द्वारा राज्य प्रायोजित मीडिया और वैकल्पिक मीडिया की भूमिका को हमारे आज के सन्दर्भ में बहुत तीखे और जीवन्त तरीके से पेश किया है। पीटर वाटकिन से ज्यादा वैकल्पिक मीडिया के महत्व को और कौन समझ सकता है जिनकी बहुतचर्चित फिल्म ‘वार गेम’ ब्रिटेन में 20 साल तक प्रतिबन्धित रही।
इस फिल्म के पात्र अपने असली अर्थों में जनता ही है। मैंने इससे पहले ऐसी कोई फिल्म नहीं देखी जिसमें इतने जीवन्त व सामान्य तरीके से जनता को मुख्य पात्र के रूप में पेश किया गया हो। इसमें भी आम महिलाओं को और उनकी राजनीतिक भागीदारी को इस फिल्म में जिस तरीके से पेश किया गया है, वह सचमुच में एक रोमांचकारी अनुभव है।
इस फिल्म में कम्यून के नेताओं और नेशनल गार्ड (सर्वहारा की सेना) के नेताओं को भी उनकी अपनी पूरी भूमिका में दिखाया गया है। लेकिन फिल्म खत्म होने के बाद जहन में आम जनता के चित्र ही तैरते रहते हैं। ‘जनता ही इतिहास बनाती है’, इस कथन की चरितार्थता इस फिल्म में बहुत ही खूबसूरत तरीके से हुयी है।
1999 में ऐसी फिल्म बनाने में जाहिर है कि पीटर वाटकिन को अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा। इसका अपना एक इतिहास है। इन कठिनाइयों पर एक स्वतन्त्र डाक्यूमेंट्री फिल्म भी बन चुकी है। जिसका नाम है-‘रेजिस्टेण्ट क्लाक’ ।
अन्त में-यह फिल्म उन सभी लोगों के लिए एक जरूरी फिल्म है जो क्रान्ति का न सिर्फ सपना देखते हैं वरन् उसे जीते भी हैं। यह फिल्म उन लोगों के लिए भी एक जरूरी फिल्म है जो फिल्म को समाज परिवर्तन के लिए एक हथियार के रूप में प्रयोग में लाना चाहते हैं।

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Remembering Domitila: Making Bolivian History

March 15, 2012

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Bolivians paid tribute this week to Domitila Barrios de Chungara, long-time social activist, union leader, feminist, revolutionary, and national heroine who died March 13 in Cochabamba at age 74. She is best known as the miner’s wife who led a hunger strike in 1978 that brought down the dictatorship of General Hugo Bánzer, paving the way for the return of Bolivian democracy.

826 Credit: Ben Achtenberg, refugemediaproject.org“The democracy that we have been living since 1982 is thanks to Domitila,” said Filemón Escobar, an original founder and ex-Senator of the Movement towards Socialism (MAS) party. President Evo Morales declared three days of national mourning and awarded Domitila the posthumous Condor of the Andes honor, the highest distinction the state can confer on a Bolivian citizen.

Domitila’s life is a testimony to Bolivia’s tragic history of exploitation, repression, colonialism, and patriarchalism, but also to the power of ordinary people to demand and effect change. Born in 1937 in Potosí, then the largest tin-producing region of Bolivia, she was the daughter and wife of a miner. Losing her mother at age 10, she raised five younger sisters and then seven surviving children of her own under conditions of extreme deprivation and poverty.

818 Union of Miners Wives. Familia Chungara/ Los TiemposIn the 1960s, Domitila became an outspoken leader of the Union of Miners Wives, organizing mining families for improved conditions and services and struggling against the repressive CIA-backed Barrientos regime. She survived the brutal 1967 San Juan massacre, where soldiers opened fire on striking miners and their wives and children, in part to head off a rumored alliance with Che’s guerrillas fighting in the Santa Cruz mountains. In the ensuing repression, she was jailed and tortured, suffering a stillbirth and internal injuries which caused chronic health problems throughout her life.819 Hunger strike, 1978. Credit: Opinión.

In 1978, the hunger strike launched by Domitila and four other miners’ wives against the Bánzer government (another US-backed dictatorship) captured the spirit of an entire nation. The strikers demanded freedom for imprisoned mineworkers, amnesty for exiled union leaders, demilitarization of the mines, and general elections. Thousands of Bolivians joined the strike and, on the 23rd day, the government conceded to the protesters’ demands. (Uruguayan writer Eduardo Galeano recounts the episode dramatically in Memories of Fire, his chronicle of Latin American popular history.)

Domitila gained international recognition at the International Women’s Forum in Mexico in 1975, giving voice to the Bolivian mineworkers’ struggle and the critical role of women activists. Let Me Speak, her autobiographical account of everyday struggles as a mother, worker, union leader, and political activist, was published in 1978 and has been translated into dozens of languages. In 2005, she was nominated for the Nobel Peace Prize on a slate of 1000 women for peace.”

820 Credit: Los Tiempos.Domitila was in exile for several years, returning to Bolivia in 1982—just ahead of the massive neoliberal structural readjustment that closed the state-owned mines where she spent her formative years, and threw 30,000 miners out of work. In her last years, she focused her energies on developing a Mobile School for Political Training, bringing political consciousness and popular history to new generations in Cochabamba’s most impoverished barrios—populated largely by the families of ex-miners—and to communities throughout Bolivia.

I was privileged to meet Domitila on two visits to Bolivia, in 2006 and 2008. She was a great story-teller, captivating us with anecdotes of modern Bolivian history from her unique perspective as a participant in the events, and conveying immense dignity, compassion, and determination along with her insights. Three hours later and only up to 1985, we almost missed our flight to La Paz.

As the Cochabamba daily Los Tiempos editorializes, Domitila was controversial in death as in life. Her independence and critical spirit caused discomfort for some, as much as it offered inspiration to others. She died in poverty with a reduced pension and no medical insurance, aided by the solidarity of friends and comrades including some ex-MAS government officials.

I was reminded of how, on our official visit to the legislative palace in 2006 to hold a press conference demanding Bolivia’s withdrawal from the School of the Americas, Domitila was initially refused entry because she had forgotten her identification.824 SOA press conference, 2006. Credit: Ben Achtenberg. Unrecognized by the palace guards, she appeared to them as just another stocky peasant woman without a valid reason to be in the halls of political power.

Domitila’s life encapsulates all the possibilities and challenges of Bolivia, demonstrating both the efficacy of collective struggle and the continuing need to confront exploitation, inequality, and entrenched power relationships in government, the workplace, the home, and even within organized popular movements. Her experience reminds us how ordinary people can change the course of history, a legacy for activists throughout the world.

[taken from http://nacla.org]

 

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स्त्री विरोधी दृष्टि बनाम पोर्नोग्राफी

इन दिनों शालिनी माथुर के लेख ‘व्याधि पर कविता या कविता की व्याधि’ ने धमाल मचाया हुआ है। हिन्दी साहित्य में ऐेसे धमाल पहले भी होते रहे हैं। कभी आलोचना के क्षेत्र में तो कभी कविता और कहानियों के क्षेत्र में। समय समाज के प्रति उदासीन, मूच्र्छित से पड़े हुए हिन्दी साहित्य में ऐसे धमाल कुछ समय के लिए उसमें हरकत पैदा कर देते हैं। बल्कि यूं कहें कि पिछले कुछ दशकों से ऐसे धमाल हिन्दी साहित्य की बैसाखी हो चले हैं।
आइये, अब मुद्दे पर आते हैं। पवन करण की एक कविता ‘स्तन’ और अनामिका की कविता ‘ब्रेस्ट कैंसर’ पर कथादेश में शालिनी माथुर ने एक लम्बा लेख लिखा। जिसमें उन्हांेने बहुत ही सधे तरीके से दोनो कविताओं को पोर्नोग्राफी कह कर और बीमारी के प्रति संवेदनहीन बता कर उसकी भत्र्सना की। दोनो कविताएं लेख के अन्त में दी जा रही हैं। आप स्वयं पढें और तय करें।
यहां मैं महज कुछ बिन्दुओं पर अपने विचार रख रही हूं। हिन्दी साहित्य में निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’ से लेकर पवन करण की ‘स्तन’ तक, ज्यादातर कविताएं विक्टोरियन एरा के सौन्दर्य मापदण्डों से आगे नहीं जातीं। निराला ने तोड़ती पत्थर की महिला में जो ‘… भर बंधा यौवन’ देखा, उसी की तार्किक परिणति पवन करण की इस कविता में होती है। यानी सामन्ती मूल्यबोध से साम्राज्यवादी मूल्यबोध तक की एक पूरी यात्रा यहां आकर खतम होती है। ‘कैथरकलां की औरतें’ या ‘ब्रूनो की बेटियां’ ऐसी कविताएं हैं जो इसके समानान्तर चलती हैं। इन कविताओं के बरक्स रखकर यदि आप उन कविताओं को देखेंगे तब शायद आपको मेरी बात समझ में आ जाएगी। कैथरकलां की औरतें और ब्रूनों की बेटियों की भी अपनी यौनिकता है और उनके यौवन के अपने गीत हैं लेकिन गोरख पाण्डेय और आलोक धन्वा ने कहीं भी उनकी पहचान को उनके यौवन और उनकी यौनिकता में तिरोहित नहीं किया है।
शालिनी माथुर ने दोनो कविताओं की आलोचना में अपना पूरा जोर उन्हें पोर्नोग्राफी सिद्ध करने मे लगाया है। यह करते हुए शालिनी माथुर ने जाने अनजाने पवन करण को साहित्य की उस स्त्रीविरोधी आम धारा से अलग खड़ा कर दिया है। यानी पाठकों की नजर में चूंकि पवनकरण की कविताएं पोर्नोग्राफिक हैं इसलिए ऐसी कविताओं को साहित्य से निकाल देना चाहिए। जबकि मामला यह है कि पवनकरण अपनी कविताओं में जिस प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं, वह हिन्दी साहित्य में अपनी शुरुआत से ही जड़ जमाए बैठी है। शालिनी माथुर ने पूरा जोर लगा कर पोर्नोग्राफी को खींच कर उनकी कविताओं पर लाद दिया और इस प्रयास में पवन करण साहित्य की स्त्री विरोधी धारा से अलग हटकर एक पोर्नोग्राफिक कवि के रूप में चित्रित हो गए। और जाने अनजाने पूरी बहस पवन करण की इस एक कविता के पोर्नोग्राफिक होने न होने पर टिक गयी। जबकि असल मुद्दा यह है कि पवन करण की यह कविता स्त्री विरोधी है और उस धारा का प्रतिनिधित्व करती है जो हिन्दी साहित्य की शुरुआत से ही साहित्य में अपनी जड़ जमाए बैठी है।
अब कुछ बातें अनामिका की कविता पर। शालिनी माथुर ने जिस जोश के साथ पवन करण की कविता को पोर्नोग्राफिक करार दिया उसी जोश में उन्होंने अनामिका की कविता को भी इसी कैटेगरी में हांक दिया। जबकि अनामिका की कविता एकदम भिन्न कविता है। एक शब्द में कहें तो पवन करण यदि स्त्री के पूरे वजूद को सिर्फ एक सेक्स आॅब्जेक्ट में रिड्यूस करते हैं तो अनामिका अपनी इस कविता में और अन्य कविताआंे में भी स्त्री के पूरे व्यक्तित्व को ऐसे नारीवादी फ्रेम में बांधती हैं जो अक्सर जमीनी हकीकत से बहुत दूर होता है और अन्ततः उसे उसके शरीर में ही रिड्यूस कर देता है जहां उनका कैथरकलां की औरतों में ‘पुनर्जन्म’ अवरुद्ध हो जाता है।
कुल मिला कर बात यह है कि साहित्य में कोई भी कवि या कोई भी कविता उस साहित्य में चलने वाली आम प्रवृत्तियों से बहुत अलग-थलग नहीं रह सकतीं। इस लिए किसी भी कविता कहानी या उपन्यास की आलोचना करते समय हमें उस साहित्य की आम प्रवृत्तियों को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। दरअसल साहित्य में किसी एक कविता या कहानी या उपन्यास की आलोचना उस एक कविता कहानी या उपन्यास की आलोचना नहीं होती बल्कि उस प्रवृत्ति की आलोचना होती है जिसके प्रभाव मंे वह रचना लिखी गयी है। यानी विशिष्ट और सामान्य के अन्तरविरोध को यदि हम नहीं पकड़ते और किसी भी रचना को उस समय की आम प्रवृत्तियों से अलग थलग करके समझने का प्रयास करेंगे तो वह सही नहीं होगा।
पोर्नोग्राफी निश्चित रूप से स्त्री विरोधी है और बहुत ही खतरनाक है। लेकिन हर स्त्री विरोधी चीज को पोर्नोग्राफी नहीं कहा जा सकता। यानी स्त्री-विरोधी प्रवृत्ति एवं पोर्नोग्राफी को आपस में गड्डमड्ड कर देना सही नहीं है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पोर्नोग्राफी के साथ बहुत ही मजबूती के साथ नैतिकता-अनैतिकता का मुद्दा जुड़ा हुआ है। यानी पोर्नोग्राफी पर बहस नहीं हो सकती। इसे पूरी तरह खारिज किया जाना चाहिए। इस लिए जब हम किसी स्त्री विरोधी कविता पर बेवजह पोर्नोेग्राफी को थोप देते हैं तो उस कविता पर और उस बहाने स्त्री विरोधी अन्य कविताओं पर बहस अवरुद्ध हो जाती है। शालिनी माथुर ने आलोचना के जिन औजारों का प्रयोग किया है उसने तात्कालिक तौर पर एक बड़े बवाल को भले जन्म दे दिया हो, लेकिन एक सार्थक बहस को इसने अवरुद्ध भी कर दिया है।
कैंसर जैसी बीमारी के प्रति उपरोक्त कवियों की दृष्टि को जिस तरीके से शालिनी ने पकड़ा है वह काबिलेतारीफ है। मैं भी सोच कर हैरान रह जाती हूं कि कोई कैंसर पीडि़त महिला या उसका अनन्य मित्र अपनी इस बीमारी के प्रति इस तरीके से संवेदनहीन कैसे हो सकता है?
प्रकारान्तर से शालिनी माथुर ने हिन्दी साहित्य में जिस तरीके से कार्टेल को देखा है वह उनकी सजग दृष्टि का परिचायक है। ये कार्टेल तभी टूटेंगे जब साहित्य में आम स्त्री-पुरुषों के गम और गुस्से का प्रवेश होगा और उन्हें शालिनी माथुर जैसा समझौताविहीन आलोचक मिलेगा।

स्तन
-पवन करण

इच्छा होती तब वह धंसा लेता उनके
बीच अपना सिर
और जब भरा हुआ होता तो तो उनमें
छुपा लेता अपना मुंह
कर देता उसे अपने आंसुओं से तर

वह उससे कहता तुम यूं ही बैठी रहो
सामने
मैं इन्हें जी भर के देखना चाहता हूं
और तब तक उन पर आंखें गड़ाए रहता
जब तक उठकर भाग नहीं जाती
सामने से.
या लजा कर अपने हाथों से छुपा नहीं
लेती उन्हें.

अन्तरंग क्षणों में उन दोनों को
हाथों में थाम कर उससे कहता
ये दोनो तुम्हारे पास अमानत है मेरी
मेरी खुशियां इन्हें सम्भाल कर रखना.

वह इन दोनो को कभी शहद के छत्ते
तो कभी दशहरी आमों की जोड़ी कहता.
उनके बारे में उनकी बातें सुन सुन
कर बौराई…….
वह भी जब कभी खड़ी होकर आगे
आइने के इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती.
वह कई दफे सोचती इन दोनों को
एक साथ
उसके मुंह में भर दे और मूंद ले अपनी
आंखें.

वह जब भी घर से निकलती इन दोनों पर
डाल ही लेती अपनी निगाह ऐसा करते
हुए हमेशा
उसे कालेज में पढ़े बिहारी आते याद.
उस वक्त उस पर इनके बारे में
सुने गए का नशा हो जाता दोगुना.
वह उसे कई दफे सबके बीच भी उन
की तरफ
कनखियों से देखता पकड़ लेती.
वह शरारती पूछ भी लेता सब ठीक तो है.
वह कहती हां जी हां.
घर पहुंच कर जांच लेना.

मगर रोग ऐसा घुसा उसके भीतर
कि उनमें से एक को लेकर ही हटा
देह से.
कोई उपाय भी न था सिवा इसके.
उपचार ने उदास होते हुए समझाया.

अब वह इस बचे हुए के बारे में
कुछ नहीं कहता उससे, वह उसकी
तरफ देखता है
और रह जाता है कसमसा कर. मगर
उसे हर समय महसूस होता है
उसकी देह पर घूमते उसके हाथ क्या
ढूंढ रहें कि उस वक्त वे
उसके मन से भी अधिक मायूस हैं

उस खो चुके एक के बारे में भले ही
एक दूसरे से न कहते हों वह कुछ
मगर वह विवश जानती है
उसकी देह से उस, एक के हट जाने से
कितना कुछ हट गया उनके बीच से…………

ब्रेस्ट कैंसर (बबिता टोपो की उद्दाम जिजीविषा को निवेदित)

-अनामिका

दुनिया की सारी स्मृतियों को
दूध पिलाया मैंने
हां, बहा दी दूध की नदियां
तब जाकर
मेरे इन उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुफाओं में
जाले लगे.

कहते हैं महावैद्य
खा रहे हैं मुझको ये जाले
और मौत की चुहिया
मेरे पहाड़ों में
इस तरह छिप कर बैठी है
कि यह निकलेगी तभी
जब पहाड़ खोदेगा कोई.

निकलेगी चुहिया तो देखूंगी मैं भी
सर्जरी की प्लेट में रखे
खुदे फुदे नन्हें पहाड़ों से
हंस कर कहूूंगी -हलो.

कहो, कैसे हो? कैसी रही?
अन्ततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी.

दस बरस की उम्र से
तुम मेरे पीछे पड़े थे
अंग संग मेरे लगे ऐसे
दूभर हुआ सड़क पर चलना.
बुलबुले, अच्छा हुआ, फूटे!
कर दिया मंैने तुम्हें अपने सिस्टम के
बाहर.
मेरे ब्लाउज में छिपे, मेरी तकलीफों के
हीरे, हलो.
कहो, कैसे हो?
जैसे कि स्मगलर के जाल में ही बुढ़ा
गयी लड़की.
करती है कार्यभार पूरा अन्तिम वाला-
झट अपने ब्लाउज से बाहर किये
और मेज पर रख दिये अपनी
तकलीफ के हीरे.

अब मेरी कोई नहीं लगती ये तकलीफें,
तोड़ लिया है उनसे अपना रिश्ता
जैसे कि निर्मूल आशंका के सताए.
एक कोख के जाए
तोड़ लेते हैं सम्बन्ध.
और दूध का रिश्ता पानी हो जाता है!

जाने दो, जो होता है सो होता है,
मेरे किये जो हो सकता था-मैंने किया,
दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध
पिलाया मैंने!
हां, बहा दी दूध की नदियां!
तब जाकर जाले लगे मेरे
उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुफाओं में!
लगे तो लगे, उससे क्या!
दूधों नहाए
और पूतों फलें
मेरी स्मृतियां!

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शिगाफः चाशनी में पगा ज़हर

मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास ‘शिगाफ’ पढ़ने का काफी दिनों से मन था। एक तो यह उपन्यास कश्मीर की पृष्ठभूमि पर है जो भारतीय इतिहास के बहुत से विषयों की तरह मन में फांस की तरह चुभती रहती है। दूसरी तरफ इस पर आ रही आलोचनाओं ने इसे पढ़ने की इच्छा जगा दी थी। खैर, एक बुक स्टोर पर इसका पेपरबैक संस्करण (मूल्य 150 रु.) मिल गया। तुरन्त ही इसे पढ़ना शुरू कर दिया। शुरुआती पन्नों को पढ़ते वक्त लगा कि कोई साम्प्रदायिक किताब पढ़ रही हूं। उपन्यास की नायिका अमिता कश्मीर की विस्थापित हिन्दू पण्डित है। उसकी किशोरावस्था में ही उसके परिवार को घाटी छोड़ कर जाना पड़ा था। उपन्यास के कुछ पन्नों में नायिका पढ़ने के लिए स्पेन में हैं और एक ब्लाग के माध्यम से अपनी कहानी लिखती है। इस कहानी में कश्मीर उसकी दुखती रग है जिस पर वह बात नहीं करना चाहती। फिर भी वह कहानी रिस-रिस कर आती रहती है। इस कहानी के अनुसार कश्मीर से हिन्दू पण्डितों को भगाने के पीछे आतंकवादी मुसलमानों का हाथ है। कुछ पन्ने और पढ़कर मन करने लगा कि अब इस किताब को और आगे न पढ़ें। यह कश्मीर पर हिन्दूवादी नजरिया पेश करती है। लगा मानो किताब पर पैसे ज़ाया हो गये। फिर भी धैर्य से पढ़ना जारी रखा क्या पता आने वाले पन्नों में कुछ हाथ लग जाए…।
अन्ततः उपन्यास की नायिका अपना टूटा हुआ दिल लेकर वापस भारत आती है और पुनः कश्मीर लौट कर अपनी जड़ों को तलाशना चाहती है। कश्मीर पहुँचने के बाद एक-एक करके परतें उसके सामने खुलने लगती हैं। इनके तहत वह कश्मीर समस्या की बहुपरतीय जटिलता को छूने का प्रयास करती है। हालांकि वह इसे बस छूती ही हैं।
जो बात सबसे ज्यादा यह बात खलती है कि उन्होंने कश्मीर समस्या को महज आतंकवाद की समस्या मान लिया। उनके अनुसार सभी आतंकवादी दुनिया के सबसे कमीने और गिरे हुए लोग हैं जिनका कोई ईमान नहीं हैं। वे औरतों को गलीज़ निगाह से देखते हैं। वे मुहब्बत से वेवफाई करते हैं आदि..आदि..। वे ही समूची कश्मीर समस्या की जड़ हैं।
अपनी जड़ों को तलाशने के क्रम में वह बहुत सी ऐसी सच्चाइयों से भी रूबरू होती हैं जिसने कश्मीर के अवाम का कलेजा छलनी कर दिया है। वह संवेदनशीलता के साथ इन सच्चाईयों को ग्रहण करती चलती हैं। भारतीय सेना की ज्यादतियां जो शीशे की तरह साफ हैं, उनको तो लेखिका नकार नहीं सकतीं इसलिए बहुत हल्के स्वर में इस उपन्यास में इसका जिक्र तो है। लेकिन लेखिका भारतीय सेना की उतनी मुखर आलोचना भी नहीं करतीं। बल्कि कई जगह वह उसे जस्टिफाई करती हैं। बार-बार वह कश्मीर में मानवाधिकार की आवाज़ उठाने वालों की निन्दा करती हैं। बल्कि एक पात्र के मुंह से तो वह यह कहलवा देती हैं कि गुजरात में केवल कुछ हज़ार मुसलमानों के मारे जाने पर जितना हो हल्ला मचा था उसका कुछ हिस्सा भी लोग कश्मीरी पण्डित के बारे में बोलते तो…..।
लेकिन कश्मीर में घूमते हुए नायिका कश्मीर की बहुत सी ऐसी सच्चाईयों से रूबरू होती है जिनसे उसके पण्डित हिन्दूवादी मन की तल्खी थोड़ी कम होती है। ढेर सारे दर्द से गुजरते हुए यह उपन्यास एक उम्मीद पर खत्म होता है।
समस्या यह है कि कश्मीर या नार्थईस्ट की समस्याओं पर हिन्दी लेखक अपनी कलम चलाने से बचता रहा है।  अगर वह गल्ती से कुछ लिखता भी है तो उसके विषय में उसका नजरिया बिल्कुल तंग होता है। मसलन कश्मीर पर कुछ भी लिखा जाए और उसकी आज़ादी की बात न की जाए तो उस पर लिखा अच्छा से अच्छा लेखन किसी काम का नहीं है। इस किताब को लिखते हुए मनीषा कुलश्रेष्ठ भी इसी की शिकार हुयी है। मनीषा की कलम तो सुन्दर है लेकिन कश्मीर की राजनीति पर उनकी पकड़ कमज़ार है। कश्मीर समस्या को चन्द प्रेम अख्यानों में समेट देना समूची कश्मीर की जनता के साथ अन्याय है। बार-बार मानवाधिकार की आवाज़ उठाने वालों पर तंज़ करते हुए लेखिका को कश्मीर में हाल ही में मिली हज़ारों अनाम कब्रें नहीं नज़र आयीं। उन्हें यह भी नज़र नहीं आया कि पूरी दो पीढि़यों ने वहां अनायास ही कुर्बानी नहीं दी है।
कश्मीर समस्या की जड़ें ऐतिहासिक है। 1947 में साम्राज्यवादियों ने यह समस्या अपने भारतीय वारिसों को सौंपी थी। इतिहास की थोड़ी सी भी जानकारी रखने वाले यह जानते हैं कि पटेल, 1947 के बाद स्वतन्त्रता की चाहत रखने वाली रियासतों को येनकेनप्रकारेण भारतीय संघ में मिलाने के लिए बदहवास थे। आज तक कोई नहीं जान सका है कि कश्मीर पर कबीलाई हमला किसने कराया था। जिससे खौफ खा कर वहां के हिन्दू राजा ने बहुसंख्यक मुस्लिम जनता से धोखा करते हुए भारत में विलय के कागज पर दस्तखत कर दिये। नेहरू ने कश्मीरी अवाम का रुख जानने के लिए जिस जनमतसंग्रह का वादा यूएन में किया था उसे इस देश के शासकों ने कभी पूरा नहीं किया। कश्मीर की जनता को जब लगने लगा कि भारतीय सरकार अपना वादा कभी पूरा नहीं करेगी तो वहां की जनता की आज़ादी की कामना जाग उठी। उसकी इस आकांक्षा को भारतीय सेना ने पिछले बीस सालों में अपने बूटों तले निर्ममता से कुचल डाला। अपनी आकांक्षाओं में यह समस्या हिन्दु-मुसलमान की नहीं थी। जानकार लोग कहते हैं कि भारतीय शासक वर्ग ने इसे साजिशन इसे साम्प्रदायिक रंग दिया और उन्होंने ही कश्मीरी पण्डितों को विस्थापित किया। जिससे जिस शिगाफ (दरार) की बात मनीषा करती हैं वह और चौड़ी  हो जाए।
कुल मिला कर यह उपन्यास राजनीतिक रूप से एक गलत किन्तु भावनात्मक रूप से छूने वाला उपन्यास है। लेकिन राजनीति को नज़रअन्दाज करके कश्मीर पर कोई भी अच्छी बात उसी तरह है जैसे चाशनी में पगा हुआ ज़हर।

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सिर्फ एक मां ही इस दर्द को समझ सकती है……….

WAITING TO EXHALE  Arputham Ammal  has had to put up with  security checks at  the prison where her son  is lodged for 20 years now (Photo: NATHAN G)

राजीव गांधी की हत्या के 20 दिन बाद 11 जून 1991 की आधी रात को पुलिस ने जोलारपेट्टई में हमारे घर पर धावा बोला। लिट्टे के नेता प्रभाकरन की एक फोटो टीवी के ऊपर रखी हुयी थी। पुलिस ने उसे जांचा परखा। नलिनी के भाई भाग्यनाथन द्वारा भेजे गए पत्रों के बण्डल से उन्होंने कुछ पत्र रख लिए। (नलिनी इस राजीव हत्याकांड केस में मुख्य अभियुक्त है और आजीवन कारावास की सज़ा भुगत रही है) मेरे पति कविताएं लिखते थे। जो भाग्यनाथन के प्रेस मे छपतीं थीं। और उपरोक्त पत्र उन कविताओं के प्रकाशन से सम्बन्धित थे। पुलिस ने कहा कि वे पत्रों को अपने साथ ले जा रहे हैं। वापस जाने से पहले पुलिस ने पूछा कि अरियू (पेरारिवलन को इसी नाम से जाना जाता है) कहां है? उस वक्त अरियू चेन्नई में था जहां वह इलेक्ट्रानिक्स में डिप्लोमा कर रहा था। हमने उनसे वादा किया कि हम उसे आपके सामने पेश करेंगे। उन्होंने हमें अदयार में मल्लीगाई भवन का पता दिया जो उस वक्त स्पेशल टीम का हेडक्वार्टर था। दूसरे दिन मैं अरियू को लेने चेन्नई गयी।

वह उस वक्त द्रविड़ कड़गम (डीके) के आफिस में रह रहा था। घर पर हुए पुलिस के रेड के बारे में जानकर वह आश्चर्य में डूब गया। हम पेरियार के अनुयायी हैं। (ईवी रामास्वामी जिन्हें थन्थाई पेरियार भी कहा जाता है, जिसका मतलब है अच्छे पिता) पेरियार तमिलनाडु में द्रविड़ आन्दोलन के संस्थापक हैं। द्रविड़ कड़गम उन्ही के द्वारा स्थापित की गयी थी और यह डीमके और एआईएडीमके की मातृ पार्टी है। डीके आफिस मंे लोगों ने सुझाव दिया कि अरियू को दूसरे दिन सुबह सीबीआई आफिस में पेश होना चाहिए और निश्चित रूप से शाम तक उसे रिहा कर दिया जाएगा। हम कुछ खरीदने के लिए बाहर निकले। और जब हम आफिस पहुंचे तो पुलिस वहां मेरे पति के साथ हमारा इन्तजार कर रही थी। मेरे पति को उन्होंने घर से उठाया था। उन्होंने अरियू को हिरासत में ले लिया। और दूसरे दिन उसे छोड़ देने का वादा किया। यह अन्तिम दिन था जब मैंने अपने बेटे को आजाद देखा था। तबसे आज तक बीस साल गुजर गए हैं।

दूसरे दिन मल्लीगाई भवन में हम बेटे से मिलने गए। लेकिन उन्होंने मुझे मेरे बेटे से मिलने देने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि पूछताछ अभी खत्म नहीं हुयी है। अन्ततः 18 जून को उसकी गिरफ्तारी दर्ज कर ली गयी। हालांकि वह 11 जून से ही पुलिस की हिरासत में था। यानी वह पूरे एक हफ्ते गैरकानूनी हिरासत में रहा। जब मैं बाहर उसे मुलाकात का इन्तजार कर रही थी, तो मुझे रत्ती भर अहसास नहीं था कि मेरे बेटे को ठीक उसी वक्त अन्दर यातना दी जा रही थी। हम वहां दूसरे दिन पुनः पहुंचे। मुझे देख कर पुलिस वाले काफी गुस्से में आ गए। और मुझे वकील के साथ आने को कहा। मुझे समझ नहीं आया कि मेरे बच्चे ने क्या गलत किया है और मुझे वकील की आवश्यकता क्यों है? एक हफ्ते बाद अखबारों से पता चला कि मेरे बेटे अरियू को पूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया है।

हमें नहीं समझ में  आया कि सबसे पहले हमें क्या करना चाहिए? पुलिस, कानून, कचहरी ये सब हमारे लिए एकदम नए थे। एक वकील ने जो द्रविड़कड़गम का कार्यकर्ता भी था, हमें बताया कि अरियू को टाडा के तहत गिरफ्तार किया गया है। और टाडा के तहत हमारे सारे अधिकार निलम्बित हो जाते हैं। यातना के द्वारा मेरे बेटे से अपराध स्वीकरण (कन्फेशन स्टेटमेंट) लिया गया। उसे चेंगलपेट्टू में टाडा स्पेशल कोर्ट में प्रस्तुत किया गया। जब हम उसे देखने पहुचे तो उसका चेहरा एक अपराधी की तरह नकाब से ढका हुआ था। मैं इस दृश्य को देख नहीं सकी और मैं चिल्लाने लगी। वहां खड़े पुलिस वालों पर मैं चीखने लगी। उन्होंने मुझसे कहा कि अपने बेटे से मिलने के लिए दूसरे दिन हम एसआईटी हेडक्वार्टर जाएं। दूसरे दिन हम वहां गए। और अन्ततः हमें अन्दर जाने दिया गया। मैंने अपने बेटे को देखा। मैंने उसके हाथों को छुआ। मैं कुछ नहीं बोल सकी। एक भी शब्द मेरे मुंह से नहीं निकला।

जिस दिन हमने अरियू को पुलिस के हवाले किया था, उसके पहले मैं अन्य महिलाओं की तरह एक साधारण महिला थी जो अपने परिवार से बंधी हुयी थी। ज्यादातर समय मैं अपने घर ही रहती थी। मैं अपने बच्चों और पति के लिए खाना बनाती थी। मैं कभी अकेले बाहर नहीं जाती थी। बाहर जाते वक्त हमेशा मेरे पति मेरे साथ होते थे। मेरे बेटे की गिरफ्तारी के साथ ही सबकुछ बदल गया। मैं लोगों से सहायता मांगने के लिए दूर-दूर यात्राएं करने लगी। घर पर मैं बहुत कम रह पाती थी। ज्यादातर समय चेन्नई में अपने वकील से मिलने जाने मे बीत जाता था। अकेले ही न्यायमूर्ति वीआर कृष्ण अय्यर (सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व प्रसिद्ध जज जो इस वक्त मृत्युदण्ड के खिलाफ एक महत्वपूर्ण अभियान चला रहे हैं) से मिलने केरल गयी। धीरे-धीरे मैं सभी चीजों से परिचित होती गयी-पुलिस, कोर्ट, पुलिस स्टेशन, जेल आदि। मेरे पति डाइबिटीज और हाईब्लडप्रेशर के मरीज हैं। चूँकि  ज्यादातर समय मेरा बाहर गुजरता है इस लिए मैं उनके लिए खाना नहीं बना पाती और उनका ध्यान नहीं रख पाती। इस कारण वह मेरी बड़ी बेटी के घर चले गए। मुकदमे की कार्यवाई के दौरान मैं प्रतिदिन टाडा कोर्ट जाया करती थी। परन्तु मुझे अन्दर नहीं जाने दिया जाता था। मुझे बताया गया कि मेरे वकील से भी अन्दर जाने का अधिकार छीना जा सकता है। टाडा का यही मतलब था।

एसआईटी हेड क्वार्टर ने उस मुलाकात के बाद मैंने अपने बेटे को अगली बार चेंगलपेट्टू जेल में देखा। इस दरमियान एक लम्बा वक्त गुजर चुका था। मुकदमे की कार्यवाई के दौरान ही उसे सजायाफ्ता कैदी की वर्दी पहना दी गयी थी। मैंने जब उसे उस वर्दी में यानी सफेद शर्ट और सफेद पैंट में देखा तो मैं अपने आंसुओं को नहीं रोक सकी। इसे तभी बदला गया जब मेरे वकील ने कोर्ट में एक पेटीशन लगायी। हर छोटी से छोटी चीज के लिए हमें कोर्ट जाना पड़ता था। शुरुआत में जेल के मुलाकाती कक्ष में फाइबर ग्लास का एक पार्टीशन रहता था जो कैदी और उसको मिलने वाले को अलग करता था। बातचीत करने के लिए हमें हेड फोन दिया जाता था जिसकी आवाज बहुत खराब थी। मैं अपने बेटे का हाथ छूने के लिए बेचैन थी। लेकिन मैं उस कांच की दीवार को ही छू पाती थी जो मेरे और मेरे बेटे के बीच में थी। सिर्फ एक मां ही इस दर्द को समझ सकती है। इस ग्लास पार्टीशन को हटाने के लिए हमे पुनः कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा। जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने इस कांच की दीवार में एक छोटा छेद कर दिया। यह छेद इतना छोटा था कि उसमें  मैं अपने बेटे की उंगली के पोर को ही छू सकती थी। हमने दुबारा कोर्ट में पेटीशन डाली। तब जाकर कांच के पार्टीशन को हटाया गया।

मुकदमे की कार्यवाई के दौरान मैं जिस पीड़ा से गुजरी उसे बयान नहीं कर सकती। 8 सालों तक मैं अपने बेटे का चेहरा नहीं देख सकी थी। उसे एकान्त सेल में रखा गया था। उसकी सेल के ऊपर की छोटी खिड़की के माध्यम से ही उसे हमसे बात करने की इजाजत थी। उसका चेहरा देखने के लिए मुझे काफी उचकना पड़ता था। लेकिन फिर भी उसका चेहरा देखना बहुत मुश्किल होता था। अक्सर तो मुझे उससे मिलने ही नहीं दिया जाता था। मुझे घण्टो गेट के बाहर इन्तजार करना पड़ता था। कई बार मैं जोर-जोर से चिल्लाने लगती थी और कई बार मैं जेल के अधिकारियों पर चीखने लगती थी। पिछले 20 सालों में उससे मिलने वक्त मैंने अपने बेटे से यह कभी नहीं पूछा कि उसने कुछ खाया है या नहीं। मैं कभी यह पूछने का साहस न कर सकी। हर वक्त जब मैं खाना खाती हूं तो मेरा पेट यह सोच कर जलने लगता है कि मेरे बेटे ने कुछ खाया भी है या नहीं

अरियू की बड़ी बहन ग्रामीण विकास विभाग में काम करती है और उसकी छोटी बहन अन्नामलाई विश्वविद्यालय मे लेक्चरर है। मुकदमें के दौरान हो रहे खर्च के लिए इनकी आय ही हमारा मुख्य स्रोत है। हर बार जब निर्णय आया, पहले टाडा कोर्ट की तरफ से फिर सुप्रीम कोर्ट की तरफ से और फिर राष्ट्रपति की तरफ से (दया याचिका खारिज करने के रूप में ), तो हर बार मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी अपनी हत्या हो गयी हो। राष्ट्रपति ने जब दया याचिका खारिज की तो उसके बाद न मैं सो सकी और न ही कुछ खा सकी। मैं अपने बेटे की जिन्दगी बचाने के लिए बेचैन थी। लेकिन मैं नहीं जानती थी कि कैसे? लेकिन पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगने लगा कि मेरे बेटे को फांसी पर नहीं चढ़ाया जाएगा।

जिस दिन मेरे बेटे की मौत की तारीख घोषित हुयी उस दिन मैं दिल्ली में अपने बेटे की किताब के हिन्दी अनुवाद (फांसी के तख्ते से एक अपील) के अनावरण समारोह में शामिल थी। दोपहर में मैंने महसूस किया कहीं कुछ गलत है। लोग हाल के बाहर जा रहे थे और फोन पर धीमे-धीमे बात कर रहे थे। उनके चेहरों पर निराशा छाने लगी थी। वे कुछ छिपा रहे थे। जब मैंने उनसे पूछा कि मामला क्या है तो उन्होंने मुझे दोपहर का भोजन करने और होटल के कमरे में आराम करने के लिए बाध्य किया। अन्ततः मृत्युदण्ड के खिलाफ जनान्दोलन के एक कार्यकर्ता ने मुझे मेरे बेटे को दी जाने वाली मौत की तारीख की सूचना दी। कुछ देर के लिए मैं स्तब्ध रह गयी और उसके बाद मैं उसके ऊपर चिल्लाने लगी-मौत की तारीख घोषित होने से पहले तुम सब क्या कर रहे थे? मैं वापस चेन्नई लौट आयी।

हालांकि हमने मौत की तारीख पर स्टे प्राप्त कर लिया है लेकिन मुझे अभी यह लड़ाई लम्बी लड़नी है, तब तक जब तक मेरा बेटा वेल्लोर जेल के बाहर नहीं आ जाता । महज एक बैट्री देने के अपराध के लिए 11 साल तक मृत्युदण्ड की सजा के साथ जीना क्या पर्याप्त सजा नहीं है?

( अरियू की मां द्वारा शाहीना के के को दिये विवरण के अनुसार )

ओपेन पत्रिका के 26 सितम्बर 2011 अंक से साभार

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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गुवाहाटी दुःस्वप्न : सवाल दर सवाल…….

फिर एक घटना घटी…………..फिर एक लड़की को सरेआम अपमानित किया गया………..देश फिर  शर्मसार   हुआ……..फिर तथाकथित भारतीय संस्कृति कलंकित हुयी………….। टीवी चैनलों को बहस का मुद्दा मिल गया……….काफी गम और गुस्सा जाहिर किया गया………….
इस घटना पर गुस्सा आना बहुत ही स्वाभाविक है। एक 16 साल की लड़की को सरेआम एक भीड़ अपमानित कर रही है। पहले उसके सौ-दो सौ दर्शक बने फिर सारे देश ने इस तमाशे  को देखा। एनडीटीवी में प्राइम टाइम में यह घटना ‘सबसे पहले’ एयर की। सारे पैनलिस्ट काफी आक्रोश में दिखे। घटना इतनी महत्वपूर्ण थी कि कार्यक्रम के बीच में आने वाले विज्ञापन ब्रेक (जो इन चैनलों के मुनाफे की जीवनरेखा होते हैं) को प्रोग्राम डायरेक्टर ने मना कर दिया और कार्यक्रम बिना ब्रेक के यथावत जारी रहा। अगले दिन भी टीवी चैनल इसी घटना पर बने रहे।
गौरतलब है कि असम के प्रसिद्ध आरटीआई कार्यकर्ता अखिल गोगोई ने उस रिपोर्टर को इस पूरी घटना का जिम्मेदार बताया है जो इसे शूट कर रहा था। एक स्थानीय चैनल न्यूज लाइव का रिपोर्टर न केवल उस घटना का दर्शक था बल्कि उसने इस पूरी घटना को  शूट करके उस लड़की का नाम पता सब चैनल पर एयर कर दिया। हालांकि बाद में चैनल ने इस ‘भूल’ के लिए माफी मांग ली। गोगोई के अनुसार वह पत्रकार इस पूरी घटना के ‘मुख्य दोषी’ का मित्र था।
हालांकि यह बहस काफी पुरानी है कि एक रिपोर्टर को ऐसी किसी घटना के समय क्या करना चाहिए। घटना को रोकने की कोशिश करनी चाहिए या फिर उसे रिकार्ड करके अपनी ‘पत्रकारीय ड्यूटी’ निभानी चाहिए।
खैर, बहस के मुद्दे बहुत सारे हैं। ‘इस दौर में नैतिकता की उम्मीद न करें’ की तर्ज पर हो सकता है कि किसी नए स्कूप को पाने के लिए यह पूरी घटना सुनियोजित हो। जिसमें शिकार एक लड़की को बनाया गया, जो बहुत ही आसान है। एक 16 साल की लड़की एक पब में क्या कर रही थी? (जैसा कि वे लड़के उस लड़की को प्रताडि़त करते समय चिल्ला चिल्ला कर कह भी रहे थे) सवाल यह भी हो सकता है कि इस पब संस्कृति को इस ‘महान’ देश में लाया कौन? सवाल बहुत सारे हो सकते हैं। सवालों के इन उत्तरों को तलाशने के क्रम में हम सभी दोषियों की कतार में खड़े हैं।
शुरू करते हैं महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा के बयान से (जिनके सेक्सी होने के आत्मगौरव से हम सभी परिचित हैं)। उनका कहना है कि भारतीय संस्कृति जो महिलाओं का सम्मान करती है, उसमें ऐसी घटना नहीं होनी चाहिए।
जबकि सच यह है कि भारतीय संस्कृति तो महिलाओं को सार्वजनिक रूप से अपमानित करने में माहिर रही है। याद करें द्रौपदी को नंगा करने की घटना, जहां राजा से लेकर दरबारी तक सभी उसका लुत्फ ले रहे थे। भारतीय समाज में ही आए दिन औरतों को नंगा करके सरेआम घुमाने की घटनाएं बहुत आम हैं।
इसी असम में , इसी गुवाहाटी में कुछ साल पहले एक आदिवासी महिला को नंगा करके घुमाया गया था और फिर एक बिजनेसमैन ने सरे आम उसकी पिटाई की थी। हाथ में डंडा लिए, लात से उस महिला को मारते हुए इस बिजनेसमैन की पूरी तस्वीरें यू ट्यूब पर अभी भी मौजूद है। इस महिला का दोष यह था कि वह अपनी जनजाति के लिए आरक्षण की मांग के साथ होने वाली एक रैली में हिस्सा ले रही थी। उस वक्त भी मुख्यमंत्री ने इस घटना की न्यायिक जांच का आदेश दिया था। उसकी रिपोर्ट आयी कि नहीं कोई नहीं जानता। इतने वर्ष बाद वह आदिवासी महिला अभी भी डरी सहमी है और उस बिजनेसमैन का बिजनेस फलफूल रहा है।
इस घटना के बाद भी मुख्यमंत्री ने घटना की जांच की घोषणा कर दी है। कुछ दिनों में यह सारा शोर  नेपथ्य में चला जाएगा। रंगमंच का पर्दा फिर गिर जाएगा। हम फिर अचेतन रूप से एक नए ‘शो’ की प्रतीक्षा करने लगेंगे।
दरअसल भीड़ द्वारा सरेआम एक महिला का अपमान किया जाना गैंगरेप से भी ज्यादा भयंकर है। ये घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के एक आंकड़े के अनुसार सन 2011 में महिलाओं के साथ अपराध के कुल 2.25 लाख मामले दर्ज किये गए हैं। याद रहे ये वे घटनाएं हैं जिनकी रिपोर्ट की गयी है।
इन घटनाओं में बढ़ोत्तरी इस बात का द्योतक है कि हमारे समाज में सत्ता का जो ढांचा है (पितृसत्ता के रूप में) उसमें रत्ती भर बदलाव भी इसके पोषकों को सह्य नहीं है। उसकी अभिव्यक्ति इस रूप में हो रही है कि पुरुष महिलाओं के अपनी मर्जी से उठने-बैठने, कपड़े पहनने और अपने निर्णय खुद लेने यानी कुल मिला कर अपनी मौजूदगी की घोषणा करने को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। हाल ही में बागपत में पंचायत द्वारा महिलाओं के बाजार जाने और मोबाइल फोन रखने पर प्रतिबन्ध लगाने का फरमान इसी का परिचायक है।
ऐसे में देश के गृहमंत्री से लेकर पुलिस, टीवी चैनल, और सभी इसका हल तलाश रहे हैं कि क्या किया जाए कि ऐसी घटनाएं न घटे। पर जब सवाल सत्ता दरकने का हो तो जवाब आसान नहीं होता। मसला सिर्फ मानसिकता बदलने का ही नहीं है। मानसिकता को आप घरों और स्कूलों में नैतिक शिक्षा देकर ही नहीं बदल सकते। कुछ ऐसा करना होगा कि बुनियाद ही बदल जाए…….। कैसे……..? यही यक्ष प्रश्न है।

कृति

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