शिगाफः चाशनी में पगा ज़हर

मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास ‘शिगाफ’ पढ़ने का काफी दिनों से मन था। एक तो यह उपन्यास कश्मीर की पृष्ठभूमि पर है जो भारतीय इतिहास के बहुत से विषयों की तरह मन में फांस की तरह चुभती रहती है। दूसरी तरफ इस पर आ रही आलोचनाओं ने इसे पढ़ने की इच्छा जगा दी थी। खैर, एक बुक स्टोर पर इसका पेपरबैक संस्करण (मूल्य 150 रु.) मिल गया। तुरन्त ही इसे पढ़ना शुरू कर दिया। शुरुआती पन्नों को पढ़ते वक्त लगा कि कोई साम्प्रदायिक किताब पढ़ रही हूं। उपन्यास की नायिका अमिता कश्मीर की विस्थापित हिन्दू पण्डित है। उसकी किशोरावस्था में ही उसके परिवार को घाटी छोड़ कर जाना पड़ा था। उपन्यास के कुछ पन्नों में नायिका पढ़ने के लिए स्पेन में हैं और एक ब्लाग के माध्यम से अपनी कहानी लिखती है। इस कहानी में कश्मीर उसकी दुखती रग है जिस पर वह बात नहीं करना चाहती। फिर भी वह कहानी रिस-रिस कर आती रहती है। इस कहानी के अनुसार कश्मीर से हिन्दू पण्डितों को भगाने के पीछे आतंकवादी मुसलमानों का हाथ है। कुछ पन्ने और पढ़कर मन करने लगा कि अब इस किताब को और आगे न पढ़ें। यह कश्मीर पर हिन्दूवादी नजरिया पेश करती है। लगा मानो किताब पर पैसे ज़ाया हो गये। फिर भी धैर्य से पढ़ना जारी रखा क्या पता आने वाले पन्नों में कुछ हाथ लग जाए…।
अन्ततः उपन्यास की नायिका अपना टूटा हुआ दिल लेकर वापस भारत आती है और पुनः कश्मीर लौट कर अपनी जड़ों को तलाशना चाहती है। कश्मीर पहुँचने के बाद एक-एक करके परतें उसके सामने खुलने लगती हैं। इनके तहत वह कश्मीर समस्या की बहुपरतीय जटिलता को छूने का प्रयास करती है। हालांकि वह इसे बस छूती ही हैं।
जो बात सबसे ज्यादा यह बात खलती है कि उन्होंने कश्मीर समस्या को महज आतंकवाद की समस्या मान लिया। उनके अनुसार सभी आतंकवादी दुनिया के सबसे कमीने और गिरे हुए लोग हैं जिनका कोई ईमान नहीं हैं। वे औरतों को गलीज़ निगाह से देखते हैं। वे मुहब्बत से वेवफाई करते हैं आदि..आदि..। वे ही समूची कश्मीर समस्या की जड़ हैं।
अपनी जड़ों को तलाशने के क्रम में वह बहुत सी ऐसी सच्चाइयों से भी रूबरू होती हैं जिसने कश्मीर के अवाम का कलेजा छलनी कर दिया है। वह संवेदनशीलता के साथ इन सच्चाईयों को ग्रहण करती चलती हैं। भारतीय सेना की ज्यादतियां जो शीशे की तरह साफ हैं, उनको तो लेखिका नकार नहीं सकतीं इसलिए बहुत हल्के स्वर में इस उपन्यास में इसका जिक्र तो है। लेकिन लेखिका भारतीय सेना की उतनी मुखर आलोचना भी नहीं करतीं। बल्कि कई जगह वह उसे जस्टिफाई करती हैं। बार-बार वह कश्मीर में मानवाधिकार की आवाज़ उठाने वालों की निन्दा करती हैं। बल्कि एक पात्र के मुंह से तो वह यह कहलवा देती हैं कि गुजरात में केवल कुछ हज़ार मुसलमानों के मारे जाने पर जितना हो हल्ला मचा था उसका कुछ हिस्सा भी लोग कश्मीरी पण्डित के बारे में बोलते तो…..।
लेकिन कश्मीर में घूमते हुए नायिका कश्मीर की बहुत सी ऐसी सच्चाईयों से रूबरू होती है जिनसे उसके पण्डित हिन्दूवादी मन की तल्खी थोड़ी कम होती है। ढेर सारे दर्द से गुजरते हुए यह उपन्यास एक उम्मीद पर खत्म होता है।
समस्या यह है कि कश्मीर या नार्थईस्ट की समस्याओं पर हिन्दी लेखक अपनी कलम चलाने से बचता रहा है।  अगर वह गल्ती से कुछ लिखता भी है तो उसके विषय में उसका नजरिया बिल्कुल तंग होता है। मसलन कश्मीर पर कुछ भी लिखा जाए और उसकी आज़ादी की बात न की जाए तो उस पर लिखा अच्छा से अच्छा लेखन किसी काम का नहीं है। इस किताब को लिखते हुए मनीषा कुलश्रेष्ठ भी इसी की शिकार हुयी है। मनीषा की कलम तो सुन्दर है लेकिन कश्मीर की राजनीति पर उनकी पकड़ कमज़ार है। कश्मीर समस्या को चन्द प्रेम अख्यानों में समेट देना समूची कश्मीर की जनता के साथ अन्याय है। बार-बार मानवाधिकार की आवाज़ उठाने वालों पर तंज़ करते हुए लेखिका को कश्मीर में हाल ही में मिली हज़ारों अनाम कब्रें नहीं नज़र आयीं। उन्हें यह भी नज़र नहीं आया कि पूरी दो पीढि़यों ने वहां अनायास ही कुर्बानी नहीं दी है।
कश्मीर समस्या की जड़ें ऐतिहासिक है। 1947 में साम्राज्यवादियों ने यह समस्या अपने भारतीय वारिसों को सौंपी थी। इतिहास की थोड़ी सी भी जानकारी रखने वाले यह जानते हैं कि पटेल, 1947 के बाद स्वतन्त्रता की चाहत रखने वाली रियासतों को येनकेनप्रकारेण भारतीय संघ में मिलाने के लिए बदहवास थे। आज तक कोई नहीं जान सका है कि कश्मीर पर कबीलाई हमला किसने कराया था। जिससे खौफ खा कर वहां के हिन्दू राजा ने बहुसंख्यक मुस्लिम जनता से धोखा करते हुए भारत में विलय के कागज पर दस्तखत कर दिये। नेहरू ने कश्मीरी अवाम का रुख जानने के लिए जिस जनमतसंग्रह का वादा यूएन में किया था उसे इस देश के शासकों ने कभी पूरा नहीं किया। कश्मीर की जनता को जब लगने लगा कि भारतीय सरकार अपना वादा कभी पूरा नहीं करेगी तो वहां की जनता की आज़ादी की कामना जाग उठी। उसकी इस आकांक्षा को भारतीय सेना ने पिछले बीस सालों में अपने बूटों तले निर्ममता से कुचल डाला। अपनी आकांक्षाओं में यह समस्या हिन्दु-मुसलमान की नहीं थी। जानकार लोग कहते हैं कि भारतीय शासक वर्ग ने इसे साजिशन इसे साम्प्रदायिक रंग दिया और उन्होंने ही कश्मीरी पण्डितों को विस्थापित किया। जिससे जिस शिगाफ (दरार) की बात मनीषा करती हैं वह और चौड़ी  हो जाए।
कुल मिला कर यह उपन्यास राजनीतिक रूप से एक गलत किन्तु भावनात्मक रूप से छूने वाला उपन्यास है। लेकिन राजनीति को नज़रअन्दाज करके कश्मीर पर कोई भी अच्छी बात उसी तरह है जैसे चाशनी में पगा हुआ ज़हर।

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