कई चांद थे सरे आसमां

कई चांद थे सरे आसमां कि चमक चमक के पलट गए
मिसरा अहमद मुश्ताक़ का है और लगभग 750 पन्नों का भारी-भरकम उपन्यास ‘कई चांद थे सरे आसमां’ लिख दिया उर्दू के विख्यात आलोचक शम्सुर्ररहमान फ़ारूक़ी ने।
यूं तो उपन्यास की नायिका वज़ीर ख़ानम (मशहूर शायर नवाब मिर्ज़ा ‘दाग़’ की शुरुआती उस्ताद और मां ) के जीवन आकाश पर वाक़ई कई बार खुशियों के चांद चमके, पर हर बार अपनी पूरी ताकत से चमक कर बुझ गए। सारी ज़िन्दगी वह ज़िन्दगी को समझती ही रहीं।
समझा ही नहीं कोई कि दुनिया क्या है
कहता ही नहीं कोई कि दुनिया क्या है
अफ़लाक पहेलियां बुझाते ही रहे
बूझा ही नहीं कोई कि दुनिया क्या है
-‘दाग़’

कई चांद थे सरे आसमां
ब्रिटिश म्यूज़ियम से हासिल वज़ीर ख़ानम की एक दुर्लभ तस्वीर हासिल करके रेशा-रेशा उनके इतिहास के सूत्रों को उधेड़ते हुए फ़ारूक़ी साहब ने इतना लम्बा चौड़ा ऐतिहासिक उपन्यास लिख दिया। एक ऐसा उपन्यास जिसका अधिकांश हिस्सा मुग़ल शासन के अन्तिम दौर की दास्तान बयान करता है। आगे चलकर यह उपन्यास अंग्रेज़ों की चालबाज़ियों और ताकत के सामने विवश और पतनोन्मुख किन्तु अभी भी वैभवशाली मुग़ल सल्तनत के निहायत अन्दरूनी हिस्से का दीदार कराता है। पढ़ते वक्त लगता है मानो कोई सिनेमा देख रहे हों। हर्फ़ दर हर्फ़ एक चित्र खिंचता सा जाता है।
वज़ीर ख़ानम की जड़ें राजस्थान से कश्मीर तक जा पहुंची थीं। वहां उनके पुरखे कलाकार कारीगर थे। ज़िन्दगी की राह में भटकते-भटकते उनके वालिद दिल्ली आकर बस गए थे। उनकी तीन बेटियों में से सबसे छोटी वज़ीर ख़ानम थीं। वह बला की खू़बसूरत और आज़ाद तबियत की ख़ातून थीं। वह एक निहायत ज़हीन शाइरा थीं और उस वक्त के अदबो-इल्म की जानकार थीं। आगे चलकर वह फ़िरोज़पुर झिरका और लोहारू के नवाब शम्सुद्दीन और उनके बेटे नवाब मिर्ज़ा ‘दाग़’ की पहली उस्ताद भी बनीं। नवाब शम्सुद्दीन से उन्हें वाक़ई मुहब्बत थी। हालांकि उन्होंने उनके साथ बाक़ायदा निक़ाह नहीं किया था। लेकिन वह उन्हें बेइन्तहां मुहब्बत करते थे। नवाब मिर्ज़ा उनके प्यार की निशानी थे। नवाब शम्सुद्दीन एक ख़ुद्दार और विद्वान शख्सियत थे। अंग्रेज़ हाक़िम विलियम फ़्रेजर की हत्या के जुर्म में अंग्रेज़ों ने उन्हें उनके वफ़ादार क़रीम ख़ां (उसने विलियम फ़्रेजर को गोली मारी थी) को सरेआम दिल्ली में फांसी दे दी थी। वज़ीर खा़नम के आसमान का एक जगमगाता चांद बुझ गया।
इसके पहले वज़ीर ख़ानम पर दिल आया था विलियम ब्लेक का। बाद में वह जयपुर का रेजिडेण्ट नियुक्त हुआ और 16 साल की वज़ीर उसकी दुल्हन बनी। उससे वज़ीर को एक बेटा और एक बेटी हुए। एक स्थानीय बलवे में ब्लेक मारा गया। और ब्लेक की बहन और भाई ने उसे बेदख़ल कर दिया और उसके बच्चों को भी छीन लिया। वज़ीर दिल्ली आ गयी और उसके बाद ब्लेक से हुए अपने बच्चों का दीदार उसे कभी न हुआ।
नवाब शम्सुद्दीन को फांसी दिये जाने के बाद ग़मज़दा वज़ीर अपनी मझली बहन के इसरार पर रामपुर आ गयी और यहां उनका बाक़ायदा निक़ाह आग़ा मिर्ज़ा तुराब अली से हुआ और इनसे उन्हें एक बेटा हुआ जिसका नाम रखा गया शाह मुहम्मद आग़ा मिर्ज़ा। वज़ीर अपनी खुशहाल ज़िन्दगी में अभी रम ही रही थीं कि सोनपुर से मवेशियों की ख़रीद फ़रोख़्त करके लौटते वक्त रास्ते में ठगों ने उनकी निर्मम हत्या कर दी। वज़ीर की बगिया एक बार फ़िर उजड़ गयी। वजी़र वापस दिल्ली आ गयी और ग़मगीन रहते हुए अपने दोनो बेटों को पालने लगीं।
मुग़ल सल्तनत का सूर्य मग़रिब की ओर था। क़िले में बूढे़ सुल्तान के वलीअहद पद को हासिल करने पर तमाम कुचक्र रचे जा रहे थे। मलिकाए हिन्दुस्तान ज़ीनतमहल इसमें सबसे आगे थीं। लेकिन अंग्रेज़ों ने आगे चल कर मिर्ज़ा फ़तहुल मुल्क को वलीअहद घोषित कर दिया। फ़तहुल मुल्क ने वज़ीर के हुस्न के बहुत चर्चे सुन रखे थे। शहज़ादे का दिल वज़ीर पर आना लाज़िमी था। वक़्त ने फ़िर करवट बदली। वज़ीर फ़र्श से उठ कर मुग़ल सल्तनत डूबते ही सही पर शानो-शौकत से जगमगाते अर्श में आ गयी। मुग़ल क़िले में वह शहज़ादे की दिल की मलिका शौक़त महल कहलायी। धीरे-धीरे वह शहज़ादे फ़तहुल मुल्क से इश्क करने लगी। शहज़ादा भी उसे पूरी इज़्ज़त बख़्शता था। वज़ीर की तकदीर का चांद जगमगाने लगा। वह उसकी रोशनी में पूरी तरह सराबोर हो गयी कि तभी अचानक 10 जुलाई 1856 को फ़तहुल मुल्क की मौत हो गयी। वज़ीर के जीवन का चांद आखि़री बार बुझ गया। इसके बाद मलिका ज़ीनत महल ने उसे अपने बच्चों के साथ क़िले से बेदख़ल कर दिया।
फ़ारूक़ी साहब की कलम ने इस वज़ीर ख़ानम की दास्तान कहते हुए एक ऐसा चित्र खींचा है जिसमें पन्ने दर पन्ने पढ़ते हुए तमाम रंग आंखों के सामने बिखरने लगते हैं। शुरू में उपन्यास थोड़ा रहस्य जैसा लगता है और तमाम सारे रिश्तों की तफ़्सील उबाऊ लगने लगती है। पर उपन्यास के आखि़र तक पहुंचते-पहुंचते सारे सूत्र जुड़ने लगते हैं। और मन करता है कि एकबार फ़िर से शुरू का उपन्यास पढ़ा जाए ताकि शुरुआती मुअम्मे हल हो जाएं। कभी-कभी उपन्यास में विस्तार इतना अधिक हो जाता है कि मन थकने लगता है पर रोचकता इतनी कि बिना पढ़े नहीं रहा जाता।
वह दौर ग़ालिब, ज़ौक़ और मोमिन जैसे उस्तादों का था, जिसमें आगे चलकर दाग़ भी शामिल हो गए। उर्दू अदब का वह उरूज़ था शायद। यह बख़ूबी पन्ने दर पन्ने दर्ज हुआ है। महफ़िलें ऐसी कि जी करता है खु़द खड़े होकर एक-एक शेर पर दाद दें। ग़ालिब की अंग्रेज़ों से नज़दीक़ी और नवाब शमसुद्दीन से अदावत का चित्रण भी अच्छी तरह उकेरा गया है। नवाब की फांसी के वक्त ग़ालिब का कुछ न कहना अखरता है। लेकिन बाद में मिर्ज़ा नवाब दाग़ से उनकी नज़दीकी कुछ आश्वस्त करती है। हालांकि आखि़र में फ़ारूक़ी साहब ने ग़ालिब से अंग्रेज़ी हुकूमत की कुछ आलोचना भी करवाई है। जिससे अपने पसन्दीदा शायर के प्रति तल्ख़ी कुछ कम होती है।
हालांकि फ़ारूक़ी साहब ने अपने वक्तव्य में यह कहा है कि यह उपन्यास तारीख़ी उपन्यास नहीं है। पर बहुत से आख्यान तथ्यात्मक हैं। इसलिए जैसे-जैसे हम उपन्यास में डूबने लगते हैं, खु़द को मुग़ल सल्तनत के उस दौर में खड़ा पाते हैं।
अब कुछ लफ़्ज़ अनुवाद के बारे में कहना लाज़िमी है। जनाब नरेश ‘नदीम’ का यह अनुवाद इतना बेमिसाल है कि असल का मज़ा देता है। उर्दू से हिन्दी में किया गया है यह अनुवाद। लेकिन लुत्फ़ पूरा उर्दू का। हर्फ़ दर हर्फ़ उर्दू की सी खूबसूरती चकित करती है। कहीं-कहीं अल्फ़ाज़ के मानी समझ में भी नहीं आते पर उससे रवानियत पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
ख़ैर, बहुत दिनों बाद जी भर कर एक उपन्यास पढ़ा लेकिन जी नहीं भरा। खत्म होने के बाद भी उपन्यास ज़हन में चल रहा है। 1856 में यह ख़त्म होता है और 1857 का विप्लव छूट जाता है पूरा का पूरा……।

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‘सेलफोन’ – एर्नेस्तो कार्देनाल

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आप अपने सेलफोन पर बात करते हैं
करते रहते हैं करते जाते हैं
और हँसते हैं अपने सेलफोन पर
यह न जानते हुए कि वह कैसे बना था
और यह तो और भी कि वह कैसे काम करता है
लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है
परेशानी की बात यह कि आप नहीं जानते
जैसे मैं भी नहीं जानता था
कि कांगो में मौत के शिकार होते हैं बहुत से लोग
हजारों हज़ार
इस सेलफोन की वजह से
वे मौत के मुहं में जाते हैं कांगो में
उसके पहाड़ों में कोल्टन होता है
(सोने और हीरे के अलावा)
जो काम आता है सेलफोन के
कंडेंसरों में
खनिजों पर कब्जा करने के लिए
बहुराष्ट्रीय निगम
छेड़े रहते हैं एक अंतहीन जंग
15 साल में 50 लाख मृतक
और वे नहीं चाहते कि यह बात लोगों को पता चले
विशाल संपदा वाला देश
जिसकी आबादी त्रस्त है गरीबी से
दुनिया के 80% कोल्टन के भण्डार
हैं कांगो में
कोल्टन वहां छिपा हुआ है
तीस हज़ार लाख वर्षों से
नोकिया, मोटरोला, कम्पाक, सोनी
खरीदते हैं कोल्टन
और पेंटागन भी, न्यूयॉर्क टाइम्स
कारपोरेशन भी,
और वे इसका पता नहीं चलने देना चाहते
वे नहीं चाहते कि युद्ध ख़त्म हो
ताकि कोल्टन को हथियाया जाना जारी रह सके
7 से 10 साल तक के बच्चे निकलते हैं कोल्टन
क्योंकि छोटे छेदों में आसानी से समा जाते हैं
उनके छोटे शरीर
25 सेंट रोजाना की मजूरी पर
और झुण्ड के झुण्ड बच्चे मर जाते हैं
कोल्टन पाउडर के कारण
या चट्टानों पर चोट करने की वजह से
जो गिर पड़ती है उनके ऊपर
न्यूयॉर्क टाइम्स भी
नहीं चाहता कि यह बात पता चले
और इस तरह अज्ञात ही रहता है
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का
यह संगठित अपराध
बाइबिल में पहचाना गया है
सत्य और न्याय
और प्रेम और सत्य
तब उस सत्य की अहमियत में
जो हमें मुक्त करेगा
शामिल है कोल्टन का सत्य भी
कोल्टन जो आपके सेलफ़ोन के भीतर है
जिस पर आप बात करते हैं करते जाते हैं
और हँसते हैं सेलफ़ोन पर बात करते हुए

अनुवाद: मंगलेश डबराल

[मंगलेश डबराल के facebook वाल से साभार]

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While the trigger of the disaster is natural—an earthquake—“the consequences are very much man-made.” By Li Onesto

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Saturday, April 25, at 11:56am, a powerful earthquake hit the country of Nepal. Within minutes, in the capital of Kathmandu, a densely populated city of 1.2 million people, buildings were reduced to rubble, street after street. Hundreds of bodies buried and many people trapped beneath bricks and concrete still alive.

By Tuesday, April 28, the death toll had risen to over 5,000, according to the Nepal’s Emergency Operation Centre, which said more than 10,000 people had been injured.

For many hours after the quake hit and then into the next day a series of aftershocks sent people into new waves of panic. Through the night people dug through the rubble with pick axes and bare hands, pulling out bodies, looking for trapped survivors. Tens of thousands in Kathmandu slept outside Saturday night afraid to stay inside buildings because aftershocks threatened to cause buildings, weakened by the initial shock, to collapse. News sources from Kathmandu report that hundreds of thousands of people in Central Nepal also slept outside, many of them who had lost their homes made of mud and thatch.

The epicenter of the main earthquake that hit on Saturday morning was about 50 miles from Kathmandu, in the Gorkha district in west Nepal. Pokhara, one of Nepal’s major cities with a population of about 250,000 people, some 50 miles further west of the epicenter was also hard hit. The earthquake has affected 38 out of 75 of Nepal’s districts.

Over 80% of Nepal’s over 29 million people live in the countryside and there have been reports that 80% of the houses in the rural areas affected by the earthquake have been completely destroyed. Vim Tamang, a resident of Manglung near the epicenter was quoted as saying, “Our village has been almost wiped out. Most of our houses are either buried by landslide or damaged by shaking.” Tamang said that half the village’s population was missing or dead and that, “All the villagers have gathered in the open area. We don’t know what to do.” [Guardian, April 25, 2015]

Nepal Fault line

The magnitude of an earthquake measures the amount shaking. This earthquake with a magnitude of 7.8 is considered a very big earthquake. The catastrophic 2010 earthquake in Haiti was 7.0. Nepal has had only four earthquakes of 6.0 magnitude or higher in last 100 years. An earthquake of 8.3 magnitude in 1934 killed more than 10,000 people in Nepal.

Seismologists (scientists who study the mechanical properties of the earth and the science of earthquakes) have expected a major earthquake in western Nepal. This is an area where there is pent-up pressure from the grinding between tectonic plates—large, thin, plate-like sections that move relative to one another on the outer surface of the Earth. These plates are always moving slowly but when they get stuck at the edges due to friction and the stress overcomes the friction, this causes an earthquake that releases energy in waves that travels through the Earth’s crust.

The quake that hit Nepal on Saturday happened on what is known as a “thrust fault.” This is a situation when one piece of the Earth’s crust is moving beneath another piece. In this case, it’s the Indian plate that is moving north at 1.7 inches a year under the Eurasian plate to the north. This is where 40 to 50 million years ago, the collision of these two plates gave rise to the Himalayan mountain range.

The shallower the location of the earthquake, the more destructive power it carries and the earthquake that hit Nepal had a depth of only 7 miles, which is considered shallow in geological terms. It was felt as far away as Lahore in Pakistan, which is more than 700 miles away; in Lhasa in Tibet, 380 miles away and in Dhaka, Bangladesh which is 400 miles away.

The Disaster of Domination and Impoverishment

Nepal is ranked 11th in terms of countries at risk in terms of vulnerability to earthquakes. And out of 21 cities around the world that are in similar earthquake/hazardous zones, Kathmandu is rated the worst in terms of the impact an earthquake would have on the people who live there.

Speaking to the relationship between these two things, seismologist James Jackson, head of the Earth Sciences Department at the University of Cambridge in England made a very important point: While the trigger of the disaster is natural—an earthquake—“the consequences are very much man-made.”

Nepal is one of the poorest countries in the world, has long been oppressed—subordinate to, dependent on, and dominated by India and imperialist countries like the U.S. The vast majority of people in Nepal are peasants in the countryside, desperately poor, malnourished, and exploited by corrupt officials, landlords, and moneylenders. Nepal has a caste system—a rigidly structured social order in which different social groupings are ranked and lower castes and oppressed ethnic groups face systematic discrimination. In the world imperialist system Nepal also functions in part as a source of cheap migrant labor, especially in India and countries in the Middle East.

In the rural areas, where most people live there is little or no access to health care, education, safe drinking water, sanitation or other basic services. Women are intensely suppressed and treated as inferior in every facet of society. The difficulties of survival force many men to go work in construction in Qatar and Dubai in the Persian Gulf. Women often become victims of sexual slavery in India.

In the overcrowded cities there is a lack of modern infrastructure—water and sewage systems, electrical power, transportation and communication. Over the past decade, migration of people from the rural areas to the cities has exerted pressure on the cities’ already under-developed infrastructure and services. The urban poor face homelessness, lack of clean drinking water, poor sanitation. In Nepal, there are about four million squatters living in cities and towns—50,000 in Kathmandu living in settlements in unhygienic and unsanitary areas. [IRINnews.org]

Nepal with such under-development is poorly equipped to deal with such an emergency. Even in “normal” times there is unreliable electricity with routine blackouts. The over 6,000 buildings that go up every few years in Kathmandu are poorly built and many times don’t adhere to regulations. The government spends little on addressing the tremendous conditions of poverty, let alone providing funds to prepare for earthquakes and other natural disasters. Nepal is economically dominated by India and nearly all the country’s gas and diesel supplies are brought in from India. With roads blocked due to the earthquake this means that supplies will quickly run dry.

Only one week before the earthquake hit Nepal on April 25, experts met in Nepal to prepare for what they saw as a “nightmare waiting to happen.” They feared the worst, not just because of the fact that Nepal lies on a seismic fault but also because of the human conditions that make such an event so much worse.

Seismologist David Wald points out that the same size earthquake can have very different effects in different places because of building construction and population. For example, in California in the United Stats, the same level of severe shaking would cause 10 to 30 people to die per million. But in Nepal this would be 1,000 or maybe more and up to 10,000 in parts of Pakistan, India, Iran and China. [nbcnews.com]

There was little that could be done to stop the earthquake that hit Nepal on April 25, 2015. But the fact that there is such tremendous death, destruction and suffering as a result of this natural disaster IS something due to human/societal factors—namely the system of capitalism/imperialism which subjects countries like Nepal to such impoverishment.
[courtsey–http://www.countercurrents.org]

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Malcolm X

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भारत में 70 के दशक का ‘दलित पैंथर आन्दोलन’ अमेरिका के ‘ब्लैक पैंथर आन्दोलन’ से प्रभावित रहा है। 1966 में शुरु हुआ ब्लैक पैंथर आन्दोलन सीधे सीधे वहां के रैडिकल ब्लैक लीडर ‘मैल्कम एक्स’ के विचारों और उनके व्यक्तित्व से प्रभावित रहा है। ब्लैक पैंथर की स्थापना के ठीक एक साल पहले 21 फरवरी 1965 को मैल्कम एक्स को उस समय 15 गोलियां मारी गयी, जब वे ‘हरलेम’ में एक लेक्चर देने जा रहे थे। आज 2015 में पूरी दुनिया में उनके चाहने वाले लोग उनकी शहादत की 50 वीं बरसी मना रहे हैं।
मैल्कम एक्स के बारे में जानना इसलिए भी जरुरी है कि मैल्कम एक्स का पूरा जीवन व उनके विचार काले लोगो के दूसरे महान नेता ‘मार्टिन लूथर किंग’ का एक तरह से ‘एण्टी थीसिस’ रचता है। दोनों के विचारों व व्यक्तित्व की छाया थोड़ा बदले रुप में हमारे यहां के दलित आन्दोलन में भी दिखाई पड़ती है। इसलिए मैल्कम एक्स को समझने का प्रयास कहीं ना कहीं अपने देश के दलित आन्दोलन को भी समझने का प्रयास है।
मैल्कम एक्स का जन्म 19 मई 1925 को अमेरिका के ‘ओमाहा’ में एक गरीब परिवार में हुआ था। इनके पिता एक राजनीतिक व्यक्ति थे और काले लोगों के आन्दोलन में सक्रिय हिस्सेदार थे। इसके अलावा प्रसिद्ध ब्लैक लीडर और ‘ब्लैक इज ब्यूटीफुल’ अभियान के जनक ‘मारकस गारवे'[ Marcus Garvey] के समर्थक थे। इसी कारण से वे गोरों के प्रतिक्रियावादी गुप्त संगठन ‘कू क्लक्स क्लान’ [Ku Klux Klan] के निशाने पर थे। अन्ततः जब मैल्कम एक्स महज 6 साल के थे तो 1931 में उनके पिता की हत्या इसी संगठन के कुछ लोगो ने कर दी। इस घटना ने मैल्कम को बुरी तरह झकझोर कर रख दिया और गोरों के प्रति नफरत के बीज बो दिये। इसके अलावा एक अन्य घटना ने मैल्कम को बुरी तरह हिला दिया था। एक बार उनके घर में आग लग गयी। फायर ब्रिगेड को बुलाया गया। फायर ब्रिगेड वालों ने जब देखा कि आग एक काले के घर में लगी है तो बिना आग बुझाये ही वापस लौट गये। बाद में अमरीकी लोकतंत्र के प्रति उनके जो विध्वंसक विचार बने, उनमें इन घटनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका थी। जब वह किशोरावस्था में थे तो उन्हे किसी छोटे अपराध के लिए 6 साल जेल की सजा काटनी पड़ी। अपनी आत्मकथा में उन्होने लिखा है कि मैंने अपने जीवन की अधिकांश पढ़ाई इसी दौरान की। जेल से निकलने के बाद उनकी राजनीतिक यात्रा शुरु होती है। सबसे पहले उन्होेंने ईसाई धर्म छोड़कर मुस्लिम धर्म ग्रहण कर लिया और काले मुस्लिम लोगो के संगठन ‘नेशन आॅफ इस्लाम’ के सदस्य हो गये। उस दौरान ईसाई धर्म को गोरों के साथ जोड़ कर देखा जाता था। इसी कारण इस दौरान बहुत से काले लोगों ने सामूहिक तौर पर प्रतिक्रियास्वरुप ईसाई धर्म छोड़कर इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया। यहीं से मैल्कम एक्स के समाजवाद के प्रति झुकाव की भी शुरुआत होती है। गोरों की राष्ट्रीयता के विरुद्ध ‘नेशन आॅफ इस्लाम’, ‘ब्लैक नेशनलिज्म’ की बात करता था। इसलिए नौजवानों के बीच यह बेहद लोकप्रिय था।
नेशन आॅफ इस्लाम के लीडर ‘इलीजाह मुहम्मद’ की कथनी और करनी में अन्तर देखने और खुद समाजवाद की तरफ झुकने के कारण दोनो में काफी तनाव आ गया और अन्ततः मैल्कम एक्स ने नेशन आॅफ इस्लाम छोड़कर ‘मुस्लिम मास्क’ की स्थापना की और अन्ततः सेक्यूलर विचारधारा तक पहुचते हुए अपनी मृत्यु के कुछ ही समय पहले ‘आर्गनाइजेशन आॅफ अफ्रो-अमरीकन यूनिटी’ की स्थापना की।
इसी समय मार्टिन लूथर किंग जूनियर भी सक्रिय थे। उनका ‘सिविल राइट्स मूवमेन्ट’ अपने उभार पर था। कालों के मताधिकार को व्यवहार में हासिल करने के लिए प्रसिद्ध ‘सेल्मा मार्च’ 1964 में ही हुआ था। पिछले साल इस मार्च के 50 साल होने पर ‘सेल्मा’ नाम से एक फिल्म भी रिलीज हुई थी जो काफी चर्चित हुई थी।
बहरहाल ‘मैल्कम एक्स’ और ‘मार्टिन लूथर’ दोनो ही समस्या और समाधान को दो विपरीत नजरिये से देख रहे थे।
मार्टिन लूथर किंग को अमेरिकी लोकतंत्र के मूल्यों में काफी विश्वास था और वे इन मूल्यों और अमरीकी राजनीति के बीच एक अन्तरविरोध व तनाव देख रहे थे। सरल शब्दों में कहें तो वे इसी व्यवस्था में अमरीकी लोकतंत्र के ‘मूल्यों’ को जमीन पर उतारते हुए काले लोगोें के अधिकारों की गारंटी चाहते थे। जबकि मैल्कम ऐसे किसी अमरीकी मूल्य के अस्तित्व से ही इंकार करते थे। बल्कि अमरीकी लोकतंत्र को ‘मैल्कम एक्स’ एक साम्राज्य के रुप में देखते थे। और इसके विध्वंस में ही काले लोगों की मुक्ति देखते थे। बाद में समाजवाद की ओर झुकने के बाद उन्होने काले लोगों की मुक्ति को गोरे उत्पीडि़त मजदूरों व अन्य शोषित समुदायों के साथ जोड़कर देखना शुरु किया।
मैल्कम एक्स का कहना था कि अमरीका विदेशो में ही नही बल्कि देश के अन्दर भी एक उपनिवेश बनाये हुए है जिसमें मुख्यतः काले लोग और यहां के मूल निवासी ‘रेड इंडियन्स’ हैं। मैल्कम एक्स का यह कथन सत्य के काफी करीब है। कोलम्बस के आने के समय आज के अमरीका में वहां के मूल निवासियों की संख्या करीब 1करोड़ 50 लाख थी। 1890 तक आते आते यह महज 2लाख 50 हजार तक रह गयी। यानी 98 प्रतिशत लोग यूरोपियन लोगो की क्रूरता के शिकार हो गये। इस पर एक बहुत ही प्रामाणिक डाकूमेन्ट्री ‘दी कैनरी इफेक्ट’ है। ‘हावर्ड जिन’ ने अपनी किताब A People’s History of the United States में साफ बताया है कि अमेरिकी लोकतंत्र वहां के मूल निवासियों के जनसंहार और काले लोगों की गुलामी पर खड़ा है। मैल्कम एक्स इसी अर्थ में ‘भीतरी उपनिवेश’ की बात कर रहे थे। ऐसा ही भीतरी उपनिवेश आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड में भी है। आस्ट्रेलिया के इस भीतरी उपनिवेश पर ‘जाॅन पिल्जर’ ने बहुत ही बेहतरीन फिल्म ‘यूटोपिया’ बनायी है।
इसी संदर्भ में मैल्कम एक्स ने अल्जीरिया के क्रान्तिकारी ‘फ्रेन्ज फेनन’ की बहुचर्चित किताब The Wretched of the Earth का कई बार जिक्र किया है।
इसी अर्थ में एक जगह मैल्कम एक्स ने लिखा है-‘‘ यदि गोरों की वर्तमान पीढ़ी को उनका सच्चा इतिहास पढ़ाया जाय तो वे खुद ‘गोरे-विरोधी’ हो जायेंगे।’’ इस कथन के बहुत ही गहन मायने है। हम भी भारत के संदर्भ में कह सकते हैं कि यदि ब्राहमणों और ऊंची जाति की वर्तमान पीढ़ी को उसका सच्चा इतिहास पढ़ाया जाय तो वे भी ‘ब्राहमणवाद विरोधी’ हो जायेंगी।
मार्टिन लूथर किंग जहां काले लोगों के गोरों के साथ एकीकरण के हिमायती थे वहीं मैल्कम इसके खिलाफ थे। और वर्तमान व्यवस्था में इसे असंभव मानते थे। इसलिए वे हर क्षेत्र में कालों की ‘अलग पहचान’ के हिमायती थे। काले लोगों में पैदा हुए मध्य वर्ग के वे मुखर आलोचक थे। उनके अनुसार यही वर्ग गोरे लोगों के साथ एकीकरण के लिए लालायित रहता है। भले ही इसके लिए उसे अपनी आत्मा ही क्यो ना बेचनी पड़े। पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की तरफ से देखे तो यह एकीकरण काले लोगों के एक हिस्से को राजनीतिक रुप से नपुंसक बनाने की साजिश है। इस सन्दर्भ में मैल्कम एक्स ने एक बहुत ही अच्छा रुपक दिया है। उन्होंने कहा कि जब आप मछली पकड़ने के लिए चारा डालते है तो मछलियों को लग सकता है कि आप उनके दोस्त है और उनके लिए चारा डाल रहे हैं, लेकिन उन्हे नहीं पता होता कि चारे की ऊपर एक हुक भी लगा है जो उन्हे अपने समुदाय से अलग करके उनकी जान ले लेगा। मैल्कम एक्स के इस कथन को हम अपने देश में भी लागू करके इसकी सच्चाई को परख सकते हैं।
हिंसा-अहिंसा के सवाल पर भी इन दोनों के रास्ते अलग थे। मार्टिन लूथर जहां अहिंसा के पुजारी थे। और साधन को साध्य से ज्यादा पवित्र मानते थे वहीं मैल्कम एक्स इस जड़ता से मुक्त थे। और इस संदर्भ में उनका रुख काफी लचीला था। उनका कहना था कि स्वतंत्रता के लिए ‘हिंसा सहित जो भी जरुरी साधन हो’ उसका प्रयोग किया जाना चाहिए। ‘स्व रक्षा’ के लिए हथियार बन्द होने का भी नारा मैल्कम एक्स ने दिया। ब्लैक पैंथर पार्टी पर इसका काफी असर हुआ। विशेषकर ब्लैक पैंथर पार्टी के संस्थापक ‘बाबी सील’ पर इसका काफी असर हुआ। ब्लैक पैंथर पार्टी का पहला ही प्रदर्शन सशस्त्र था जिस पर इन्हे गिरफ्तार कर लिया गया था।
मैल्कम एक्स अपने अन्तिम समय में काले लोगों की मुक्ति को दुनिया के तमाम शोषितों के साथ जोड़ कर देख सके। पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की उनकी समझ लगभग वही थी जो उस समय के तमाम कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की थी। इसीलिए वे कालों व अन्य शोषित लोगों की मुक्ति को इस व्यवस्था में असंभव मानते थे। इस पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के ध्वंस पर ही शोषितों की असली स्वतंत्रता कायम होनी है। इसी संदर्भ में अपनी मृत्यु के कुछ ही समय पहले ही मैल्कम एक्स ने कहा था कि स्वतंत्रता की कीमत मृत्यु है।
मैल्कम एक्स ने अपनी जीवनी ‘रूट्स’ नामक मशहूर किताब के लेखक ‘एलेक्स हेली’ को बोलकर लिखवायी जो काफी चर्चित हुई। आप यह किताब [Malcolm_X,_Alex_Haley,_Attallah_Shabazz]_The_Auto(BookZZ.org) डाउनलोड कर सकते है।

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आठ मार्च: औरतों के अस्तित्व के संघर्ष को सलाम!!

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आज, 8 मार्च 2015 अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस को ‘त्रिशूर’ केरल स्थित रिटेल शोरूम ‘कल्याण सारीज़’ की महिला कर्मचारियों की हड़ताल अपने 64 वें दिन प्रवेश कर रही है। कल्याण सिल्क के फेसबुक पेज पर 8 मार्च के दिन महिलाओं का अभिवादन किया गया है। निश्चित रूप से इस ब्रैण्ड की साड़ी पहन कर कुछ महिलाओं का व्यक्तित्व ‘जगमगा’ उठेगा। वहीं दूसरी ओर इस जगमगाते शोरूम में काम करने वाली महिला कर्मचारियों (सेल्सगर्ल्स) को बैठने की भी अनुमति नहीं है। वे 10 से 12 घण्टे और त्योहारों के अवसरों पर तो 14-14 घण्टे खड़े होकर काम करने को बाध्य हैं। प्रबन्धन कहता है कि अगर इन महिलाओं को बैठना है तो वे स्थायी रूप से अपने घर पर जाकर बैठें।
याद करिये, 19वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध जब अमेरिका और यूरोप की कपड़ा फैक्ट्रियों की महिला मज़दूर अपने कम वेतन, काम के अन्तहीन घण्टों, खराब कार्यदशा और कार्यस्थल की दुर्दशा के खिलाफ़ आन्दोलनरत थीं। इसकी परिणति हुई थी 8 मार्च 1908 को जब अमेरिका के रटगर्स स्क्वेयर पर लगभग 30000 औरतें इकट्ठी हुयीं थीं। काम के घण्टे कम करने, वेतन में बढ़ोत्तरी और मतदान का अधिकार उनकी प्रमुख मांगें थीं। इसी दिन को याद करते हुए 1910 में जर्मनी के कोपेनहेगन शहर में आयोजित समाजवादी महिला सम्मेलन में जर्मनी की नेत्री क्लारा जेटकिन ने 8 मार्च को महिला दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा। इसे स्वीकार कर लिया गया। आगे चलकर 1975 में यूएन में इस दिन को महिला दिवस के रूप में मनाने की मंजूरी मिली। तब से बाज़ार ने इस दिन को अपने पक्ष में हाईजैक कर लिया और औरतों के बहादुराना संघर्ष की इस विरासत को भुलाने का नाकाम प्रयास किया जा रहा है।
आज भी भारत में असंगठित क्षेत्र में कार्यरत लाखों-लाख औरतें ( और पुरुष भी) बहुत कम वेतन पर अमानवीय कार्यदशा में काम करने को बाध्य हैं। ज़ाहिर है 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध का अमेरिका आज भारत की ज़मीन पर जगह-जगह मौजूद है। पश्चिम बंगाल के चाय बागानों के मजदूर लम्बे समय से संघर्षरत हैं। हाल ही में वे 2 दिनों के लिए भूख हड़ताल पर थे। इन संघर्षरत मजदूरों में ज़्यादातर महिला मजदूर हैं। इन सभी संघर्षों का मूल मुद्दा यूनियन बनाने के अधिकार का है। यह हक़ीक़त आज 21वीं सदी के भारत की है। इस तथाकथित आज़ादी के 6 दशक बाद भी मजदूरों को संगठित होने का अधिकार भी नहीं प्राप्त है। जो लड़ाई यूरोप और अमेरिका में आज से 200 साल पहले शुरु हुई थी, भारत में आज भी जारी है। मारुति उद्योग में मजदूरों का पूरा संघर्ष इसी मांग पर हुआ था। पिछले दो साल से मारुति उद्योग के 147 मजदूर जेल में हैं। उनके घरों की औरतें और बच्चे अपनी तरह से इस संघर्ष में हिस्सेदार हैं। ग़ौरतलब है कि आज के कारपोरेट मीडिया को ‘आप’ के अन्तरकलह को दिखाने से फु़र्सत ही नहीं है। वह इन मुद्दों पर नज़र डालना भी ज़रूरी नहीं समझता। मजदूरों किसानों के चेहरे और उनके मुद्दे मीडिया से पूरी तरह गायब हो चुके हैं।
चलिये वापस लौटते हैं त्रिशूर की कल्याण सारीज़ की संघर्षरत दास्तान पर। कल्याण सिल्क केरल में टेक्सटाइल रीटेल क्षेत्र का एक विशाल क्षेत्र है। कल्याण सारीज़ में महिला मज़दूरों का संघर्ष तब शुरू हुआ जब प्रबंधन ने 6 महिला मज़दूरों को बिना नोटिस दिये सुदूर क्षेत्रों में स्थानान्तरित कर दिया। जब उन्होंने इसका विरोध किया तो उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। उनका दोष महज़ इतना था कि वे केरल के एक मजूदर संगठन ‘असंगठित मेघला थोजीलाली यूनियन (एएमटीयू)’ की सदस्य बन गयीं थीं। उल्लेखनीय है कि संगठित होना बाज़ार की दृष्टि में एक ‘अपराध’ है। इसके विरोध में उनकी यह हड़ताल 4 जनवरी 2015 को शुरू हुयी थी।
1990 के बाद से केरल के टेक्सटाइल रीटेल क्षेत्र में प्रमुख रूप से औरतों ने पुरुषों की जगह ले ली। क्योंकि इन जगहों पर बेहद कम वेतन पर औरतों से काम करवाना आसान था। फि़र ‘मुश्किल’ समय में उनसे निपटना भी आसान होता। वे बेवजह छुट्टी भी नहीं मांगती। कल्याण सारीज़ में तब से ही ये औरतें बेहद अमानवीय दशा में काम कर रही हैं। आज उन्हें 4000-7000 रु का मामूली वेतन मिलता है। उन्हें सुबह 9.30 से रात में 8 -9 बजे तक लगातार खड़े रह कर काम करना पड़ता है। उन्हें लगातार निगरानी में रखा जाता है। अगर गल्ती से कोई बैठ गयी तो फ्लोर मैनेजर या मालिक उन्हें गालियां देने लगते हैं। उनके आसपास बैठने के लिए स्टूल भी नहीं दिया जाता। अगर कोई कर्मचारी मालिकों की निगाहों से बच गयी तो सीसीटीवी कैमरे उनका काम कर देते हैं। उसकी फुटेज का आकलन किया जाता है। कोई कर्मचारी अगर 5 मिनट देरी से भी आती है तो उनका आधे दिन का वेतन कट जाता है। अगर कोई कर्मचारी पेशाब जाने की छुट्टी मांगती है तो उन्हें अभद्र टिप्पणियां सुनने को मिलती हैं। जैसे ‘अपनी साड़ी में होज़पाइप लगवा लो’ आदि। ये कर्मचारी डर के मारे सारे दिन पानी नहीं पीतीं या बहुत कम पानी पीती हैं। इन सबका उनके स्वास्थ्य पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ता है। ऐसे में इन महिला मजदूरों का पहला मुद्दा तो इन्हें मानवीय दर्जा देने का है। वेतन वृद्धि और काम के घण्टे कम करने की मांग तो बहुत दूर की बात है। 8 मार्च 2014 को कल्याण सारीज़ की इन्हीं मजदूरों ने अपने बैठने के अधिकार की मांग को लेकर हड़ताल की थी। यह है विश्व शक्ति बनने का ख्वाब देखने वाले भारत की असल दस्तान।
4 जनवरी 2015 को शुरू हुई ये हड़ताल सदियों से मजदूरों के अनवरत जारी संघर्ष का एक हिस्सा है। कश्मीर में कुछ महिला संगठन 23 फ़रवरी को महिला दिवस मनाते हैं। इसी दिन 1991 में कश्मीर के ‘कुनान पोशपारा’ गांव की 50 से ज्यादा महिलाओं के साथ भारतीय सेना की एक टुकड़ी ने कथित तौर पर सामूहिक बलात्कार किया था। तबसे ये महिलायें न्याय के लिये लगातार संघर्षरत हैं। मणिपुर में मनोरमा की माओं और शर्मिला के संघर्ष को भला कौन भूल सकता है?
बेशक आज भारत में 19वीं शताब्दी का मजदूर आन्दोलन जैसी स्थितियां दिखायी दे रही है पर आज भी अमेरिका की मेहनतकश औरतें तमाम अमानवीयताओं के खिलाफ संघर्षरत हैं। इस साल यह कार्यक्रम ‘संघर्षरत औरतें’ (women in the struggle) विषय पर केन्द्रित है। इसका मुख्य फोकस हैं 67 वर्षीय फि़लीस्तीनी अमरीकी नेत्री ‘रेस्मिया ओदेह’ पर। 1969 में इज़राइल में इन पर अमानवीय अत्याचार किया गया था। अमेरिका में भी यह अत्याचार जारी है। उन्हें अमेरिका में अवैध इमीग्रेशन का आरोप लगा कर 10 साल जेल की सज़ा सुनायी गयी है।
कुल मिला कर 8 मार्च नाम है औरतों के लिए अपने अस्तित्व के संघर्ष का। हमें इस संघर्ष को सलाम करते हुए ही इसे मनाना चाहिए।

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Silence, on Vaccine: Shots in the Dark

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आपने अपने टीवी स्क्रीन पर ‘दो बूंद जिंदगी की’ का प्रचार जरुर देखा होगा। यह प्रचार ‘पोलियो’ के टीके का है। ‘अमिताभ बच्चन’ इसके ब्राण्ड अम्बेसडर हैं। भारत में और पूरी दुनिया में टीकाकरण का बहुत ही आक्रामक प्रचार किया जाता है और निश्चित समय पर टीकाकरण अभियान भी लिया जाता है। ऐसा लगता है कि यही एक काम सरकार बेहद ईमानदारी से करती है। और इससे किसी को दिक्कत भी नही है। सभी लोग अपने नन्हे मुन्ने बच्चों को भावी बीमारियों से बचाने के लिए टीकाकरण के लिए सरकारी अस्पतालों में लाइन में लगे रहते हैं और जिनके पास पैसा है वे निजी अस्पतालों की ओर रुख करते हैं। यह सब सामान्य गति से चल रहा है। लेकिन यदि कोई आपसे पूछे कि क्या टीकाकरण का कोई गम्भीर साइड इफेक्ट्स भी है तो 99 प्रतिशत लोग यही कहेंगे कि ‘नहीं’। यदि आप भी इन 99 प्रतिशत लोगों में शामिल है तो आपको Silence, on Vaccine: Shots in the Dark नामक डाकूमेन्ट्री जरुर देखनी चाहिए। फिल्म देखकर आपको यह जरुर लगेगा कि 99 प्रतिशत लोगो की यह राय, ‘नोम चोम्स्की’ की भाषा में कहें तो ‘मैनुफैक्चर्ड कन्सेन्ट’ है।
दरअसल पिछले 15-20 सालों की ‘स्वतंत्र शोध’ यह साबित करती हैं कि टीकाकरण के गम्भीर साइड इफेक्ट्स हैं। विशेषकर दिमाग सम्बन्धी ज्यादातर रोगों का सम्बन्ध टीके में पाये जाने वाले तत्वों से है। इस फिल्म में विभिन्न वैज्ञानिकों, वरिष्ठ डाक्टरों और प्रभावित बच्चों के अभिभावकों के हवाले से बताया गया है कि टीकाकरण के ज्यादातर साइड इफेक्ट्स कुछ समय बाद (कभी कभी 15-20 सालों बाद भी) सामने आते हैं। इसलिए ज्यादातर सामान्य डाक्टरों और अभिभावकों के लिए इसे टीके के साइड इफेक्ट के रुप में देखना संभव नही होता। दरअसल ज्यादातर टीकों में ‘मर्करी’ और ‘एल्यूमिनियम’ जैसे हानिकारक तत्व होते हैं, जो शरीर के लिए बेहद हानिकारक होते है। वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों का दावा होता है कि ये हानिकारक तत्व इतनी कम मात्रा में होते है कि शरीर पर इनका कोई बुरा असर नही होता है। लेकिन इस फिल्म में बहुत साफ और सरल तरीके से यह बताया गया है कि भले ही शरीर पर इस अल्प मात्रा का असर उतना ना होता हो, लेकिन हमारे दिमाग के न्यूरान्स को प्रभावित करने के लिए यह ‘अल्प मात्रा’ काफी है। न्यूरान्स के प्रभावित होने से ‘सर दर्द’ से लेकर ‘autism’ ‘मिर्गी’ और ‘अल्जाइमर’ जैसे अनेक रोग हो सकते है। दरअसल मर्करी, एल्यूमिनियम जैसे हानिकारक तत्व दिमाग की प्रतिरोधक क्षमता को कम कर देते है या खत्म कर देते है।
फिल्म में इस पर भी सवाल उठाया गया है कि एक दो साल के बच्चे को जब उसकी प्रतिरोधक क्षमता पूरी तरह विकसित नही हुई होती है तो उसे लगातार टीके की इतनी खुराक देना क्या ठीक है। अमरीका में बच्चे के डेढ़ साल का होते होते 38 टीके लगा दिये जाते है। और कुल टीकों की संख्या वहां करीेब 70-80 के आसपास है। हमारा देश भी इससे ज्यादा पीछे नही है।
फिल्म में एक चार्ट के माध्यम से साफ दिखाया गया है कि जैसे जैसे टीकों की संख्या बढ़ रही है वैसे वैसे विभिन्न तरह की दिमागी बीमारियां बढ़ रही हैं। आज अमरीका में हर 6 बच्चों पर 1 बच्चा किसी ना किसी तरह की दिमागी बीमारी से पीडि़त है। फिल्म में बच्चों को दिये जाने वाले कुछ टीकों को एकदम अनावश्यक बताया गया है। जैसे ‘हेपेटाइटिस बी’ का टीका। जब यह बात सिद्ध है कि हेपेटाइटिस बी रक्त हस्तान्तरण से और सेक्स सम्बन्धों से ही हो सकता है तो फिर इस टीके को बच्चे को देने की क्या जरुरत है।
टीकाकरण का प्रचार सरकारें इस तरह से करती हैं कि सभी देशों में टीकाकरण का कार्यक्रम किसी धार्मिक आयोजनों की तरह होता है। कुछ देशों और उनके राज्यों में तो टीकाकरण कानूनन अनिवार्य है। अमेरिका के कुछ राज्यों में टीकाकरण न कराने वाले अभिभावकों को ‘child abuse’ की धारा में जेल जाने का भी प्रावधान है। योरोप में कुछ स्कूल ऐसे है जो उन बच्चों को अपने यहां एडमिशन ही नही देते जिनका उपयुक्त टीकाकरण नही हुआ है।
टीकाकरण के इस आक्रामक अभियान से टीके से मरने वालों की संख्या भी बढ़ने लगी है। इसके कारण से टीका बनाने वाली कंपनियों पर क्षतिपूर्ति के लिए मुकदमों की संख्या भी बढ़ने लगी थी। इसी कारण इन बड़ी कंपनियों के दबाव में अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति ‘रोनाल्ड रीगन’ ने 1986 में एक बिल लाकर टीका बनाने वाली कंपनियों को इससे बरी कर दिया। यानी अब टीके से होने वाली मौतों और उनके साइड इफेक्ट्स के लिए टीका बनाने वाली कंपनियों को जिम्मेदार नही माना जायेगा। (अभी हाल में ‘ओबामा’ की भारत यात्रा के दौरान ‘न्यूक्लियर डील’ में भी ऐसा ही एक समझौता हुआ है। यानी कि यहां यदि कोई परमाणु दुर्घटना होती है तो इसके लिए परमाणु रिऐक्टर बनाने वाली कंपनी जिम्मेदार नही होगी।) 1986 में आये इस बिल के बाद नये नये टीकों की बाढ़ सी आ गयी। अभी 200 और टीके इन कंपनियों के पाइप लाइन में हैं। मीडिया में ‘स्वाइन फ्लू’ का जिस तरह से हल्ला मचाया जा रहा है उसके पीछे भी दवा कंपनियों का हाथ हो सकता है। जो शायद स्वाइन फ्लू की टीके के ईजाद में लगी हों।
दवा कंपनियां और उनके फंड से चलने वाली ‘रिसर्च मैगजीनों’ का दावा होता है कि टीके से होने वाली मौतें और उनके साइड इफेक्ट्स इनसे होने वाले फायदों की तुलना में काफी कम है। सवाल है कि यह ‘काफी कम’ कितना है। कितनी मौतों और कितने साइड इफेक्ट्स के बाद यह ‘काफी कम’ की परिधि से बाहर निकलेगा। भारत में तो अभी तक ना ही इन चीजों पर कोई बहस है और ना ही टीकाकरण से होने वाली मौतों और उनके साइड इफेक्ट्स को नोटिस में लिया जाता है। इन खबरों को धार्मिक काम में व्यवधान की तरह देखा जाता है।
दरअसल इन सारी चीजों के पीछे जो चीज काम कर रही है, वह है दवा कंपनियों का अकूत मुनाफा। अनिवार्य टीकाकरण की नीति के कारण टीकों की सबसे बड़ी खरीददार सरकारें हैं। इसी कारण 2013 में विश्व भर में टीके का कुल कारोबार करीब 25 बिलियन डालर था। और इसके 90 प्रतिशत कारोबार पर सिर्फ 5 दवा कंपनियों (सानोफी, मर्क, फाइजर, ग्लैक्सो, नोवार्तिस) का कब्जा है। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के माध्यम से ये कंपनियां दुनिया भर की सरकारों की स्वास्थ्य नीतियों को अपने हित में प्रभावित करती हैं। अमरीका में छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अमरीकी सदन में लाबिंइग में दवा कंपनियां तेल कंपनियों से भी ज्यादा पैसा खर्च करती है। यही नही दुनिया भर के प्रतिष्ठित जर्नल और शोध संस्थानों को ये दवा कंपनियां ही फंड करती हैं। दुनिया भर के डाॅक्टर एक तरह से इन दवा कंपनियों के क्लर्क की भूमिका में काम करते हैं। भारत में आप इसे डाॅक्टर, दवा कंपनियों के मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव और दवा की दुकानों के गठजोड़ में देख सकते हैं। इसी मजबूत गठजोड़ के कारण भारत में जेनेरिक दवाओं का अभियान हर बार दम तोड़ देता है।
इसी सन्दर्भ में यूरोप का ही एक उदाहरण पर्याप्त है। ‘Andrew Wakefield’ का एक रिसर्च पेपर प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल ‘The Lancet’ में प्रकाशित हुआ। इसमें उन्होने टीके विशेषकर ‘चेेचक’ और ‘एमएमआर’ टीेके तथा एक दिमागी बिमारी ‘autism’ के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध दर्शाया था। यह शोध उन्होने उन बच्चों के सिम्टम का अध्ययन करके किया गया था, जिन्हे ये टीके लगे थे और तत्पश्चात उन्हे ‘autism’ की बीमारी का सामना करना पड़ा था। इस शोध पत्र के प्रकाशित होते ही दवा कंपनियां हरकत में आ गयी। पहले ‘The Lancet’ ने इस शोध पत्र से अपने आप को अलग कर लिया और कहा कि यह रिसर्च एक ‘फ्राड’ है। बाद में ब्रिटिश सरकार ने Andrew Wakefield पर तीन दर्जन मुकदमें ठोक दिये। और आश्चर्यजनक रुप से उन बच्चों के शोषण का आरोप उन पर मढ़ दिया जिन बच्चों पर डाक्टर ने अपना रिसर्च किया था। और अन्त मे ब्रिटेन के ‘मेडिकल काउन्सिल’ ने Andrew Wakefield का लाइसेन्स रद्द कर दिया। यानी अब वे ब्रिटेन में प्रैक्टिस नही कर सकते थे। फिल्म का यह हिस्सा काफी महत्वपूर्ण है।
मशहूर डायरेक्टर Lina B. Moreco की यह फिल्म शुरु में ही यह स्पष्ट कर देती है कि यह फिल्म सैद्धांतिक रुप से टीकाकरण के खिलाफ नही है। लेकिन मूल सवाल यह है कि टीका के साइड इफेक्ट्स के बारे में शोध ना के बराबर है। बल्कि ये कहना ज्यादा सही होगा कि अपनी मुनाफे की हवस के कारण ना सिर्फ ऐसे शोधों को हतोत्साहित किया जाता है बल्कि सरकारों और मीडिया के साथ गठजोड़ करके इन सवालों को ही ब्लैकआउट कर दिया जाता है। शायद उनकी मंशा एक ऐसे टीके का ईजाद करने की है जिसके लगने के बाद आदमी सवाल पूछना ही बन्द कर दे।
बहरहाल आप यह बेहतरीन फिल्म यहां देख सकते हैं।

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एक मजदूर कवि की मौत…..

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‘शू लिझी’ [Xu Lizhi] उस वक्त महज 24 वर्ष के थे, जब उन्होने पिछले वर्ष 30 सितम्बर को अपनी बहुमंजिला मजदूर डारमेट्री से छलांग लगाकर अपना जीवन समाप्त कर लिया था। वे ‘फाॅक्सकान’ नामक इलेक्ट्रानिक सामान बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनी में मजदूर थे। चीन में मजदूरों की मौत कोई खबर नही होती। दरअसल चीन की बहुप्रशंसित विकास दर चीन के मजदूरों की लाश पर ही खड़ी है। जितनी ज्यादा लाशें उतनी ज्यादा विकास दर। पिछले वर्ष ही वहां सिर्फ खनन उद्योग में ही 1049 मौतें हुई थी।
शू लिझी की मौत भी चीन की विकास दर की भेंट चढ़कर गुमनामी में खो जाती, लेकिन कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं के हाथ उनकी डायरी लग गयी। डायरी में पन्ने दर पन्ने वहां के मजदूरों के जीवन के रोजमर्रा के संघर्ष, उनके सपने, उनकी आकांछाऐं और दुनिया बदलने की उनकी जिद दर्ज थी और वह भी कविता के रुप में। उन दोस्तों ने इन बेहतरीन कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद करके इण्टरनेट पर डाल दिया। और तब से दुनिया की कई भाषाओं में इन कविताओं का अनुवाद शुरु हो गया। दुनिया को पता चला कि 30 सितम्बर 2014 को एक मजदूर की ही नही बल्कि एक कवि की भी मौत हुई है। ‘सर्वेश्वर दयाल सक्सेना’ के शब्दों में कहें तो-”तुम्हारी मृत्यु में/ प्रतिबिंबित है हम सबकी मृत्यु/ कवि कहीं अकेला मरता है!”

इसके बाद ही दुनिया को यह पता चला कि पिछले 2-3 वर्षो में फॅाक्सकान में काम करने वाले कुल 14 मजदूरों ने ठीक इसी तरह आत्महत्या की है। यह भी पता चला कि फाॅक्सकान में काम की स्थितियां व वेतन बेहद खराब हैं। जबकि पिछले वर्ष ही इस कंपनी का राजस्व 132 बिलियन डालर था। और सिर्फ चीन में ही इसके पास 12 लाख मजदूर और कर्मचारी हैं। कंपनी के मालिक ‘टेरी गाउ’ की अपने मजदूरों के प्रति सोच क्या है, यह उनके एक बयान से पता चलता है। जिसपर काफी विवाद भी हुआ था और उन्हे माफी भी मांगनी पड़ी थी। एक बोर्ड की मीटिंग में उन्होने कहा था कि 12 लाख मजदूर 12 लाख पशुओं के समान है और पशुओं को हैन्डिल करना हमेशा ही काफी सरदर्द वाला काम होता है। और यह सच है कि फाॅक्सकान के मजदूरों से कम्पनी का बर्ताव पशुओं जैसा ही होता है। ऐसी सोच का ही यह नतीजा है कि मजदूरोें की आत्महत्या रोकने के लिए कंपनी ने डारमेट्री के चारों तरफ नेट लगा दिया ताकि कोई ऊपर से कूदे तो जाल में उलझ जाये। मजदूरों के साथ यह क्रूर मजाक नही तो और क्या है। कुछ वर्ष पहले की बात है जब छत्तीसगढ़ के रायपुर में एक स्पंज आयरन फैक्टरी में एक के बाद एक कई हादसे हुए जिसमें 4 मजदूरों की मौत हो गयी। तब ऐसे हादसों और मौतों को रोकने के लिए फैक्टरी को एक दिन के लिए बन्द करके वहां गायत्री मंत्र का जाप व हवन कराया गया। हम भी चीन से पीछे क्यों रहे।

इस कम्पनी का भारत से भी रिश्ता रहा है। पिछले वर्ष दिसम्बर में जब पूरा देश मोदी लहर पर सवार था तो इसने चेन्नई स्थित अपना प्लांट अचानक बन्द कर दिया। एक झटके में 1700 कर्मचारी सड़क पर आ गये। अप्रत्यक्ष रुप से तो करीब 85 हजार मजदूर बेरोजगार हो गये। जब हम सब नये साल का जश्न मना रहे थे तो ये मजदूर अपने विरोध प्रदर्शन के कारण पुलिस की लाठियां खा रहे थे।

फाॅक्सकान कम्पनी ने शू लिझी की मौत के बाद उनके परिवार वालों को धमकी देकर ऐसे समझौते पर दस्तखत करा लिया कि वे शू लिझी के बारे में मीडिया से बात नही करेंगे। यह बात तब सामने आयी जब शू लिझी पर एक डाक्यूमेन्ट्री बनाने वाले फिल्मकार ने उनसे सम्पर्क करना चाहा।
बहरहाल उनकी कविताओं का दुनिया भर के कई हिस्सों में पाठ हो रहा है और उनकी कविता की पुस्तक जल्द ही आने वाली है।
शू लिझी की कविताओं में वह चुभने वाला यथार्थ है जो मीडिया, अखबारों से ओझल है। दुनिया की सारी चमक दमक जिनके बल पर है वो अदृश्य हैं, जैसे उनका कोई अस्तित्व ही ना हो। लेकिन शू लिझी की कविताओं में वे मौजूद है अपनी पूरी ठसक और अपनी संघर्ष चेतना के साथ। इन कविताओं से गुजरते हुए अन्दर कुछ टूटता जाता है और शू लिझी से यह शिकायत जोर पकड़ती जाती है कि तुमने गलत किया। तुम्हे अपनी जान नही देनी चाहिए थी। कविता को इस तरह से अधूरा नही छोड़ना चाहिए था, संघर्ष को इस तरह अधूरा नही छोड़ना चाहिए था।
लेकिन टूटी कड़िया फिर फिर जुड़ जाती हैं और कविता हमेशा आगे बढ़ती जाती है क्योकि प्रतिरोध की परंपरा कभी आत्महत्या नही करती। शू लिझी की मौत के बाद उसके एक दोस्त ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए एक कविता में लिखा-
”मेरी जगह तुमने मौत का दामन थामा है,
तो तुम्हारी जगह अब मैं लिखूंगा।”

अपनी मौत के दिन ही उन्होने जो कविता लिखी थी वह यह है-
“On My Deathbed”
I want to take another look at the ocean, behold the vastness of tears from half a lifetime

I want to climb another mountain, try to call back the soul that I’ve lost
I want to touch the sky, feel that blueness so light

But I can’t do any of this, so I’m leaving this world

Everyone who’s heard of me

Shouldn’t be surprised at my leaving

Even less should you sigh or grieve

I was fine when I came, and fine when I left.
— Xu Lizhi, 30 September 2014

उनकी चुनी हुई कविताएं आप यहां से Xu Lizhi ki kavitaye डाउनलोड कर सकते हैं।

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‘‘पैसा ख़ुदा तो नही लेकिन ख़ुदा की कसम ख़ुदा से कम भी नहीं।’’

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‘‘पैसा ख़ुदा तो नही लेकिन ख़ुदा की कसम ख़ुदा से कम भी नहीं।’’
यह ‘उत्तम सूक्ति’ कुछ वर्षो पहले छत्तीसगढ़ में एक मंत्री ने रुपयों की कई गड्डियां घूस में लेते हुए उचारे थे। इस ‘सूक्ति वाक्य’ को एक खुफिये कैमरे ने कैद कर लिया था।
उपरोक्त वाक्य इस समाज में मुद्रा के महत्व व उसके प्रभाव को बहुत खूबसूरती से बयां करता है। यह दिलचस्प है कि खुदा और मुद्रा दोनों का आविष्कार समाज विज्ञान की एक खास मंजिल में स्वयं इंसान ने किया और खुद उसका गुलाम बन गया।
हालांकि उपरोक्त ‘सूक्ति वाक्य’ में मुद्रा को खुदा के बराबर का दर्जा दिया गया है, लेकिन मेरे हिसाब से मुद्रा का स्थान खुदा से भी ऊपर है। इसका स्पष्ट उदाहरण यह है कि खुदा से अपनी बात मनवाने के लिए इंसान खुदा को भी रुपयों-पैसों का ही लालच देता है।
खैर हम खुदा को अभी छोड़ देते हैं और मुद्रा पर ही बात करते हैं। इसका अस्तित्व कहां से और कैसे प्रारम्भ हुआ। और आज इसने पूरी दुनिया पर जो बादशाहत हासिल की है, उसका इतिहास क्या है।
2013-2014 में ‘सेज प्रकाशन’ से छपकर आयी विवेक कौल की पुस्तक ‘इजी मनी’ काफी हद तक इसका उत्तर देती है। यह पुस्तक मुद्रा के अस्तित्व से पहले वस्तु विनिमय के काल से शुरु होकर आज के आर्थिक संकट तक आती है।
लेखक वस्तु विनिमय की जटिलताओं के माध्यम से यह समझाता है कि इसी जटिलता ने मनुष्य को एक ऐसी ‘सार्वभौम चीज’ की खोज के लिए प्रेरित किया जिससे सभी वस्तुओं का विनिमय किया जा सके। वस्तु विनिमय की जटिलता का एक उदाहरण देखिये- मान लीजिए कि मेरे पास अतिरिक्त कपड़े है और मैं इस अतिरिक्त कपड़े को जूते के साथ विनिमय करना चाहता हूं जिसकी मुझे जरुरत है। वहीं आपके पास अतिरिक्त जूते तो हैं लेकिन आप इसका विनिमय मिट्टी के बर्तन से करना चाहते हैं जिसकी इस वक्त आपको जरुरत है। लेकिन मिट्टी के बर्तन बनाने वाले को जूते की नही बल्कि कपड़े की जरुरत है जो मेरे पास है लेकिन मुझे मिट्टी के बर्तन की जरुरत नही है। इसी जटिलता के कारण हाट की शुरुआत हुई होगी जहां सभी लोग इकट्ठा होकर अपने साथ उपयुक्त विनिमयकर्ता को खोज सकते थे। इस तरह के हाट में सभी खरीददार होते थे और सभी विक्रेता होते थे। यहां मुनाफे की कोई अवधारणा नहीं थी। हांलाकि जटिलता इस हाट में भी बरकरार रहती थी, लेकिन उसकी मात्रा थोड़ी कम हो जाती थी।
कुछ समय बाद इसी जटिलता के कारण विश्व के हर कोने में अलग अलग ऐसी चीजों को सार्वभौम ईकाई के रुप में स्वीकार किया गया जिसकी सभी को जरुरत होती थी और जो आसानी से साथ ले जायी जा सकती थी और उसे जरुरत के हिसाब से कई भागों में बांटा जा सकता था। लेखक के अनुसार प्राचीन भारत में ‘बादाम’ को यह स्थान हासिल था। इसी प्रकार मंगोलिया में ‘चाय की पत्ती’, जापान में ‘चावल’, ग्वाटेमाला में ‘मक्का’, और ठंडे नार्वे में ‘मक्खन’ से सभी चीजों का विनिमय होता था।
इसी संदर्भ में लेखक ने एक दिलचस्प तथ्य बताया है। प्राचीन रोमन में एक समय ‘साल्ट’ यानी नमक यह भूमिका निभाती थी यानी इससे सभी चीजों का विनिमय किया जा सकता था। रोम अपने सैनिकों को वेतन भी साल्ट के रुप में देता था, जिसे ‘सालारियम’ कहते थे। इसी से ‘सैलरी’ शब्द की उत्पत्ति हुई।
संभवतः यही से संग्रह की प्रवृत्ति भी पैदा हुई क्योकि अपने जरुरत की अनेक चीजें खरीदने के लिए इस ‘सार्वभौम विनिमय ईकाई’ को संग्रह करने की जरुरत पड़ेगी। हालांकि इसकी अपनी दिक्कतें थी। ‘चावल’ को चुहे खा सकते थे, ‘बादाम’ खराब हो सकते हैं या ‘मक्खन’ गर्मी पाकर पिघल सकते हैं।
सोने और चांदी के आविष्कार ने इस समस्या को हल कर दिया। प्राचीन समय में इसकी सप्लाई बहुत कम होने के कारण इसका मूल्य भी काफी ज्यादा होता था यानी इसकी बहुत थोड़ी मात्रा से हम काफी चीजों का विनिमय कर सकते थे। इसके आविष्कार के साथ ही लगभग पूरी दुनिया में सोने और चांदी को ‘सार्वभौम विनिमय ईकाई’ के रुप में स्वीकार कर लिया गया। इसके बाद ही विश्व व्यापार तेजी से फलने फूलने लगा और विश्व की अनेक सभ्यताएं तेजी से नजदीक आने लगीं।
सोने और चांदी ने विनिमय की जटिलताओं को तो हल कर दिया लेकिन दूसरी दिक्कतें सामने आ गयी। सोने-चांदी जैसी बहुमूल्य धातुओं को लेकर सफर करना या ज्यादा मात्रा में अपने घर पर रखना निरंतर खतरनाक होने लगा। दूसरी ओर इसका बड़ी मात्रा में संग्रह किया जाने लगा जिससे इसकी कीमत कृतिम रुप से भी बढ़ने लगी। यानी इतिहास में अब पहली बार ऐसा हुआ कि आपके सोने की कीमत रखे रखे ही बढ़ने लगी।
इसी के साथ ही कुछ ऐसे ‘आदिम बैंकर’ पैदा हुए जो आपका सोना अपने पास सुरक्षित रखने लगे। और इसके लिए आपसे कुछ कमीशन लेने लगे। यह व्यवस्था आज की बैंकिग व्यवस्था के ठीक उलट है जहां आपके डिपाजिट पर आपसे कमीशन लिया नही बल्कि दिया जाता हैै। ब्याज के रुप में।
ये बैंक आपका सोना रखने के बदले आपको एक ‘रिसीट’ देते थे। बाद में इसे दिखाने पर आपकों आपका सोना वापस मिल जाता था। धीरे धीरे इस ‘बैंक रिसीट’ का ही आदान प्रदान होने लगा। उदाहरण के लिए मेरे पास एक बैंक रिसीट है जिसकी कीमत एक तोला सोना है यानी मेरा एक तोला सोना बैंक में जमा है। मान लीजिए मैंने आपसे 10 कुन्तल अनाज खरीदा जिसकी बाजार में कीमत एक तोला सोना के बराबर है। तो मैं आपको बैंक से सोना निकाल कर देने की बजाय यह बैंक रिसीट दे दूंगा। आप जब चाहेंगे यह रिसीट दिखाने पर आपकों वह सोना वापस मिल जायेगा। इसी तरह आप भी इसका विनिमय किसी और चीज के साथ किसी और से कर सकते हैं। इसी तरह समय के साथ यह बैंक रिसीट अनेक लोगों के हाथो में घूमने लगी। और यहीं से ‘पेपर मनी’ की शुरुआत हुई।
लेकिन लेखक के अनुसार आम अवधारणा के खिलाफ इस पेपर मनी की शुरुआत यूरोप में नहीं बल्कि 700-800 ईसवी में चीन में हुई थी। ‘मार्कोपोलो’ 1271 ईसवी में जब चीन की यात्रा पर था तो उसने बड़ी मात्रा में ‘पेपर मनी’ के होने की पुष्टि की है।
बहरहाल सोने-चांदी और अन्य बहुमूल्य वस्तुओं के बदले रिसीट जारी करने वाले बैंकों ने यह देखा कि सभी लोग कभी भी एक साथ एक ही दिन अपना सामान लेने नही आते है। इसने उनके अन्दर इस विचार को पैदा किया कि इस रखे सोने को वह उधार पर उठा सकते हैं और इसके एवज में ब्याज कमा सकते हैं। बैंक रिसीट की व्यापकता ने यह भी संभव कर दिया कि वे कर्ज के रुप में सोना-चांदी न देकर उसी मूल्य का रिसीट दे दे। हालांकि इसमें यह निहित है कि रिसीट के बदले जब भी जरुरत हो सोना लिया जा सकता है। और यही से ‘फ्राड’ की शुरुआत होती है। अब बैंक अपने मन से ऐसे रिसीट जारी करने लगे जिसके बदले में उनके पास कोई सोना-चांदी नही होता था। यानी कुल रिसीट का मूल्य कुल रखे हुए सोने से ज्यादा होता चला गया। यानी पेपर मनी की शुरुआत ही अपने आप में एक फ्राड है। लेखक के अनुसार इस तरह के पहले बड़े बैंक की स्थापना वेनिस में 1171 ईसवी में हुई थी।
हांलाकि पेपर मनी के पहले भी जब धातु की मुद्रायें अस्तित्व में थी तो भी यह फ्राड होता था और इसे और कोई नही बल्कि राज्य ही अंजाम देता था। यह फ्राड, युद्ध के समय चरम पर पहुंच जाता था। युद्ध के समय ज्यादा से ज्यादा मुद्रा की जरुरत होती थी। लेकिन जिन धातुओं से मुद्रा बनती थी, (मसलन चांदी से) उनकी उपलब्धता सीमित होती थी। ऐसे में राज्य समान मूल्य की मुद्रा की संख्या को बढ़ाने के लिए कुछ मात्रा में दूसरे तत्व मिला देते थे। जैसे जैसे यह जरुरत बढ़ती जाती थी मुद्रा की मूल धातु (इस उदाहरण में चांदी) की मात्रा का औसत गिरता जाता था। इसे अंग्रेजी में ‘डीबेसमेन्ट’ बोलते हैं। यह हूबहू आज के अवमूल्यन की तरह है। आप जितना पेपर मनी ज्यादा छापेंगे उतना ही इसका अवमूल्यन होता जाएगा। रोमन साम्राज्य की मुद्रा ‘डेनारियस’ अपनी शुरुआत में शुद्ध चांदी की हुआ करती थी। धीरे धीरे युद्ध और राजाओं की अय्याशियों के कारण डेनारियस में चांदी की मात्रा कम होती चली गयी। नीरो के समय में इसकी मात्रा 10 प्रतिशत तक आ गयी। 476 ईसवी में अन्तिम रोमन शासक के समय तो इसकी मात्रा महज 2 प्रतिशत रह गयी। नतीजा यह हुआ कि अन्तराष्ट्रीय व्यापार में इसकी मांग लगभग खत्म हो गयी। भारत ने तो 215 ईसवी में इसे लेने से इंकार कर दिया। लेखक ने बिल्कुल ठीक लिखा है-‘‘रोमन साम्राज्य का पतन और डेनारियस का पतन साथ साथ हुआ।
चलिए अब सीधे आधुनिक काल पर आते हैं। पेपर मनी की शुरुआत के बाद से ही कम से कम सिद्धान्त में सभी देशोें की सरकारें इसे सोने से जोड़कर देखती रही हैं। यानी पेपर मनी का जो भी मूल्य है उसके बदले में कभी भी बैंक से सोना लिया जा सकता है। हालांकि इसका अनेकों बार लगभग सभी सरकारों ने उल्लंघन किया है। पेपर मनी को सोने से जोड़कर रखने से सरकारों के ऊपर यह बंधन रहता था कि वे एक मात्रा से ज्यादा पेपर मनी को नही छाप सकती है। इससे मूल्य वृद्धि पर भी एक हद तक लगाम रहता था। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध और दितीय विश्व युद्ध के दौरान और बाद में सभी सरकारों ने इससे पल्ला झाड़ लिया (क्योकि इनका सारा सोना दोनों विश्व युद्ध लड़ने में अमरीका पहुंच चुका था। क्योकि उस दौरान हथियारों और अन्य जरूरी चीजों की सप्लाई यहीं से हो रही थी।)। एकमात्र अपवाद अमेरिका था। डालर को विश्व व्यापार की केन्द्रीय मुद्रा बनवाने के लिए अमेरिका ने ‘ब्रेटनवुड सम्मेलन’ में ऐलान किया कि उसकी मुद्रा डालर, सोने से बंधी रहेगी। 35 डालर के बदले एक औंस सोना दिया जायेगा। 1971-72 में डालर के कमजोर होने पर जब कुछ देशों ने (विशेषकर फ्रांस ने) डालर से सोने की अदला-बदली शुरु की तो अचानक अमेरिका ने भी 1973 में इससे पल्ला झाड़ लिया। इसका दूसरा अर्थ यह भी हुआ कि अब अमरीका भी जितना मर्जी डालर छाप सकता है। और इसके बाद से ही पूरी विश्व अर्थव्यवस्था में मनी सप्लाई अचानक से बढ़ गयी। पैसे से पैसे कमाने का पुराना व्यवसाय अपनी बुलंदियों पर पहुंच गया। डालर के अन्र्तराष्ट्रीय मुद्रा होने का अमरीका ने जबर्दस्त लाभ उठाया। पूरी दुनिया में अपने सैन्य अड्डे स्थापित करने और निरंतर युद्ध छेड़ते रहने के कारण उसे निरंतर पैसों की जरुरत होती थी और डालर के अन्र्तराष्ट्रीय मुद्रा होने के कारण उसे अमेरिका को सिर्फ छापने की जरुरत होती थी। लेखक ने बिल्कुल सही लिखा है-‘‘जहां दुनिया के सभी देशों को डालर कमाने की जरुरत पड़ती है वहीं अमेरिका को इसे सिर्फ छापने की जरुरत होती है।’’
अमरीका के अलावा अन्य देशों को डालर कमाने के लिए जाहिर है अमरीका को निर्यात करना पड़ेगा। इससे अमरीका को निर्यात करने वाले देशों के बीच की प्रतिस्पर्धा के कारण अक्सर निर्यात माल का मूल्य कम होता है। जिसका फायदा अमरीकी उपभोक्ताओं को मिलता है। ज्यादातर देश (विशेषकर तेल निर्यातक देश और चीन) अपनी डालर की कमाई को वापस अमरीकी बैंको में रखते हैं या अमरीकी बाण्डों में निवेश करते हैं। क्योकि यहां उन्हे अच्छा ब्याज मिलता है। इसी डालर का इस्तेमाल अमरीका अपने खर्चे के लिए और विश्व पर अपनी चैधराहट बनाये रखने के लिए करता है। लेखक ने मशहूर आर्थिक इतिहासकार ‘नील फर्गुसन’ को उद्धृत करते हुए कहा है-‘‘चीन से होने वाला सस्ता आयात अमरीका में मूल्य वृद्धि को बढ़ने नही देता, चीन अमरीका में जो डालर निवेश करता है, उसके कारण अमरीका में ब्याज दर बढ़ने नही पाती और चीन का सस्ता श्रम अमरीका में मजदूरों की वेतन बढ़ोत्तरी पर लगाम लगाये रखती हैै।’’
अमरीकी अर्थव्यवस्था में आज जो भूमिका चीन की है वही 2-3 दशक पहले जापान की थी। अंतर सिर्फ यह है कि जहां चीन अपने द्वारा कमाये गये डालर की बड़ी मात्रा को अमरीका में रख रहा है वही जापान अपने निर्यात से कमाये गये डालर को बड़ी मात्रा में एशियाई देशों जैसे मलेशिया, इण्डोनेशिया, थाइलैण्ड, फिलीपीन्स, दक्षिण कोरिया के बैंकों में निवेश कर रहा था। और बैंक पैसा से पैसा बनाने के लिए ये डालर शेयर मार्केट में निवेश कर रहे थे। और दुनिया ‘एशियाई टाइगरों के चमत्कार’ से हैरान थी। हालांकि जल्दी ही पैसा से पैसा बनाने का यह खेल खत्म हो गया और 1997-98 में ये शेयर मार्केट औधे मुंह गिर गये। इसकी पूरी कहानी इस पुस्तक में विस्तार से है।
इंटरनेट की शुरुआत के बाद पैसों का लेन देन अप्रत्याशित गति से तेज हो गया। हालांकि यहां लेखक ने एक महत्वपूर्ण तथ्य को नजरअंदाज किया है। वह यह कि इंटरनेट से बैंकिंग के जुड़ने के बाद ई-मनी, पेपर मनी पर हावी हो गयी और अब निजी बैंक अपने मन से ई मनी को जितना चाहे, जारी कर सकते थे। इसके बाद अर्थव्यवस्था में मनी सप्लाई गुणात्मक रुप से बढ़ गयी। आज भारत में ही टोटल मनी सप्लाई का महज 17 प्रतिशत ही पेपर मनी है। बाकी का ई मनी ही है। यानी अब मनी छापने की भी जरुरत नही है। बटन दबाने से ही मनी जनरेट हो जायेगी। एक अनुमान के मुताबिक आज प्रतिदिन 3 ट्रिलियन डालर से ज्यादा का आदान-प्रदान दुनिया में होता है। शेयर मार्केट का बुलबुला बनाने में इस परिघटना ने भी अपनी महती भूमिका अदा की है।
दूसरी तरफ ‘चीनी चमत्कार’ ने अमरीका के अन्दर डालर सप्लाई को और तेज कर दिया। अमरीकी फेडरल गवर्नर ‘एलन ग्रीनस्पान’ के नेतृत्व में अमरीका में ब्याज दर लगभग शून्य के आसपास पहुंच गयी। और बैंकों में लोगो को कर्ज देने के लिए होड़ सी मच गयी। इसी कर्ज का अधिकांश हिस्सा शेयर मार्केट में पहुंच गया और शेयर मार्केट दिन दूनी रात चौगुनी उछाल भरने लगे। लेकिन कहावत है कि कोई भी पेड़ आसमान तक नहीं बढ़ सकता। बैंको से पैसा जा तो रहा था लेकिन वापस नही आ रहा था। और कोई भी इस ‘खूबसूरत पार्टी’ में विघ्न नही डालना चाहता था। लेकिन पार्टी को तो खत्म होना ही था। और वह हुई। पहले 2000-2001 में ‘डाटकाम’ क्रैश के रुप में और फिर 2008 की महामंदी के रुप में। इस ‘खूबसूरत पार्टी’ की समाप्ति ने कितने मजदूरों की नौकरी छीनी, कितने छोटे निवेशकों की गाढ़ी कमाई छीनी और टैक्स देने वाले कितने लोगों के पैसों से अमीरोे की झोलियां भरी गयी (क्योकि सभी दिवालिया बैंको का जनता के पैसो से राष्ट्रीयकरण किया गया)। ये आंकड़े शायद कभी सामने नहीं आ पायेंगे।
इन सबका बहुत विस्तार से वर्णन इस किताब में है। विशेषकर शेयर मार्केट के अनेकों ट्रिक (हेज फण्ड, डेरिवेटिव, स्वैप, शार्ट सेलिंग, फ्यूचर, आप्शन, बाण्ड आदि आदि) का इसमें बहुत रोचक वर्णन किया गया गया है। आश्चर्य है कि उस दौरान कई एकदम नई डाटकाम कंपनियों का मार्केट कैपिटलाइजेशन अमरीकी जीडीपी से भी ज्यादा हो गया था। लेकिन फिर भी किसी के माथे पर कोई शिकन नही था। पार्टी कैसी भी हो पार्टी होनी चाहिए।
कोलंबस ने जब अमरीका की ‘खोज’ की तो स्पेन के पास सोने-चांदी की भरमार हो गयी। लेकिन इसका नकारात्मक पहलू यह हुआ कि सोने चांदी की व्यापक सप्लाई के कारण वहां चीजों के दाम बेतहाशा बढ़ने लगे। 16वीं शताब्दी में स्पेन में चीजों के दाम 400 प्रतिशत तक बढ़ गये। इस कारण वहां उत्पादन धीमा पड़ गया। लगभग सभी चीजें आयात होने लगी। उस समय ब्रिटेन दुनिया की वर्कशाप के रुप में विकसित होने लगा था। फलतः अधिकांश आयात ब्रिटेन से ही होने लगा। और स्पेन का सोना ब्रिटेन पहुंचने लगा। और शनैः शनैः ब्रिटेन ने स्पेन को काफी पीछे छोड़ दिया।
यही स्थिति आज अमरीका की हो गयी है। फर्क सिर्फ यह है कोई दूसरा देश उसकी जगह लेने की स्थिति में नही है। क्योकि आज पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था पहले के मुकाबले काफी गुथी हुई है। और पूंजीवादी-साम्राज्यवादी संकट चौतरफा है। पहले की तरह किसी एक या दो देश से सम्बन्धित नही है।
लेकिन सवाल यह है कि क्या ‘मनी सप्लाई’ और ‘मनी सर्कुलेशन’ ही अर्थव्यवस्था है। क्या आज सभी समस्या की जड़ यही है। और समाधान भी क्या इसी में है। किताब की मूल दिक्कत यही है कि वह मूलभूत सवाल को छूती भी नही है। या यूं कहें कि लेखक ‘मनी सप्लाई’ और ‘मनी सर्कुलेशन’ को ही अर्थव्यवस्था का कोर मानता है। लेकिन यह सच नही है। किसी भी अर्थव्यवस्था का कोर उसका उत्पादन होता है। मनी और मनी सर्कुलेशन उसके बाद आता है। और अर्थव्यवस्था का कोई भी संकट अनिवार्यतः उत्पादन क्षेत्र को ही प्रभावित करता है। ठोस रुप में कहें तो मजदूरों-किसानों के जीवन को प्रभावित करता है। सच तो यह है कि उत्पादन क्षेत्र में होने वाला शोषण ही सारे संकटों की जड़ है। लेकिन इस पुस्तक में इस विषय पर कुछ भी नही है। वास्तव में मुख्यधारा का अर्थशास्त्र हमेशा जीडीपी, निवेश, मुद्रास्फीति जैसे अमूर्त शब्दावली में ही बात करता है। लेकिन अर्थव्यवस्था के कोर यानी उत्पादन और उत्पादन के कोर यानी मजदूरों-किसानों पर बात नही करता। लगता है कि मजदूरों-किसानों का अस्तित्व ही नही है। सारा काम तो पैसा ही करता है। खेतों में धान पैसा ही उगाता है। फैक्ट्रियों में सामानों का निर्माण पैसा ही करता है। यह चीजों को सर के बल देखने की तरह है। और कहना ना होगा कि लेखक भी इसी दृष्टि का शिकार है।
फिर भी किताब काफी रोचक व पठनीय है। जो लोग इसे पढ़ने की जहमत नही उठा सकते, वे मशहूर आर्थिक इतिहासकार ’नील फर्गुसन‘ की यह डाकुमेन्ट्री देख सकते है। जिसका नाम है The Ascent of Money । इस डाकुमेन्ट्री में भी बहुत रोचक तरीके से मुद्रा के इतिहास को बताया गया है। पुस्तक के लेखक विवेक कौल ने भी कई जगह नील फर्गुसन को विस्तार से उद्धृत किया है।

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यह दुनिया किसकी हैं…

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आज जब पूरी दुनिया एक बार फिर मंदी में गोते लगा रही है तो 1929 की ‘महामंदी’ पर बनी यह क्लासिक फिल्म (Kuhle Wampe, or Who Owns the World?) बार बार याद आ रही है। इस फिल्म से ‘ब्रेख्त’ और ‘हान्स आइसलर’ (ब्रेख्त के सभी नाटकों में हान्स आइसलर का ही संगीत है। ‘ए रिबेल इन म्युजिक’ उनकी बहुत मशहूर किताब है।) के जुड़े होने से यह फिल्म और भी खास हो जाती है। ब्रेख्त ने इस फिल्म की पटकथा लिखी है और फिल्म के अन्तिम हिस्से को खुद निर्देशित भी किया है। यह फिल्म बर्लिन में 1932 में बनी थी और इसेे तुरन्त ही बैन कर दिया गया। हालांकि हिटलर अभी सत्ता में नहीं आया था। फिल्म में ‘एबार्शन’ जैसे मुद्दे उठाने और फिल्म के ‘वाम नजरिये’ के कारण इसे बैन किया गया था। बाद में हिटलर के पूरे काल में यह बैन रही। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इसका प्रिन्ट इतना खराब हो चुका था कि इसे दोबारा रिलीज नही किया जा सका। अन्ततः 1999 में ‘ब्रिट्रिश फिल्म इन्स्टीट्यूट’ ने इसका ‘डिजिटल वर्जन’ तैयार किया और तब जाकर यह दुनिया के सामने आ पायी।
बहरहाल फिल्म महामंदी और उसके प्रभावों पर है। फिल्म की शुरुआत अखबारों की कतरनों के साथ होती है कि दुनिया में बेरोजगारी कितनी तेजी से बढ़ रही है। उसके तुरन्त बाद बर्लिन में काम खोजते मजदूरों की भागती साइकिलों का चित्र है। यह दृश्य बहुत प्रभावकारी है और साइकिलों की बढ़ती रफ्तार काम खोजतें मजदूरों की बेचैनी को बहुत प्रभावी तरीके से व्यक्त कर देते है। यह दृश्य हमें बाद की एक अन्य क्लासिक ‘दि बाइसिकिल थीफ’ की याद दिला देते हैं।
फिल्म की मुख्य मात्र ‘एनी’ के भाई को जब कहीं भी नौकरी नही मिलती है तो वह चौथे मंजिल की खिड़की से कूद कर आत्महत्या कर लेता है। कूदने से पहले वह अपनी कलाई घड़ी को खोलकर मेज पर सुरक्षित रख देता है। मतलब साफ है- घड़ी की कीमत एक मजदूर के जीवन से कही ज्यादा है।
एनी के प्यार और उसकी सगाई पर मंदी के असर को बहुत ही सशक्त तरीके से दिखाया गया है। बाद में ‘एनी’ मजदूर आन्दोलन में, विशेषकर उनकी सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल हो जाती है। इसी सन्दर्भ में फिल्म में एक नुक्कड़ नाटक का भी दृश्य है। यहां ब्रेख्त के ‘इपिक थियेटर’ की भी एक झलक हम पा जाते हैं।
फिल्म का अन्तिम दृश्य एक ट्रेन का है। इसमें समाचार पत्र की एक सुर्खी (ब्राजील में लाखों टन काफी को सुनियोजित तरीके से नष्ट कर दिया गया है) पर यात्रियों में बहस छिड़ जाती है। यह बहस बहुत रोचक है। और इस पर ब्रेख्त की छाप एकदम स्पष्ट है। बहस के अन्त में एक मध्य वर्गीय व्यक्ति कहता है कि ब्राजील में क्या हो रहा है इसका हमसे क्या लेना देना। इस परिस्थिति को हम तो नही बदल सकते। तब एक मजदूर वर्ग का व्यक्ति नाटक के अंदाज में अनेक मध्य वर्ग के लोगों की ओर उंगली से इशारा करते हुए कहता है कि हां इस दुनिया को आप, आप, आप नही बदल सकते क्योंकि आप लोग इस दुनिया से संतुष्ट हैं। इसे वही लोग बदलेंगे जो इस दुनिया से असंतुष्ट हैं।
फिल्म यही समाप्त हो जाती है। और अंत में ब्रेख्त का लिखा और हान्स आइसलर का संगीतबद्ध एक खूबसूरत गीत बजता है।
फिल्म का निर्देशन Slatan Dudow ने किया है जो खुद बहुत गहराई से वाम विचारधारा से जुड़े हुए थे और जर्मन कम्युनिस्ट के सदस्य थे।
पूरी फिल्म आप यहां देख सकते हैं।

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The Great Class War, 1914-1918

प्रथम-विश्वयुद्ध की 100 वीं बरसी पर Dr. Jacques Pauwels की नई किताब “The Great Class War of 1914-1918” का सारांश

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विश्व युद्ध 1914 की गर्मियों में अचानक शुरु नही हुआ। और ना ही यह कोई सामूहिक ‘मूर्खता’ का परिणाम था। इस युद्ध की पृष्ठभूमि पिछले कई वर्षो से बन रही थी और इस युद्ध की कामना की जा रही थी। यूरोप का अभिजात्य वर्ग इस युद्ध की कामना कर रहा था और वही इसे अनावश्यक रुप से छेड़ रहा था। इस अभिजात्य वर्ग में बड़े जमीन्दार, औद्योगिक और वित्तीय पूंजीपति सहित पूंजीपति का ऊपरी हिस्सा शामिल था। इस युद्ध की कामना ना सिर्फ जर्मनी का अभिजात्य वर्ग कर रहा था वरन् इस खूनी संघर्ष में शामिल सभी देशों के अमीर लोग कर रहे थे। ये ‘सज्जन’ लोग युद्ध में ‘नींद में चलते हुए’ नहीं आये थे, बल्कि खुली आंखों से और स्पष्ट उदद्ेश्य के साथ शामिल हुए थे। यूरोप के अभिजात्य वर्ग ने सोचा था कि यह युद्ध उनके लिए काफी लाभदायक सिद्ध होगा।
उनका सोचना था कि यह युद्ध, राजनीतिक-सामाजिक जनवादीकरण की उस प्रक्रिया को रोक देगा जो 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति से शुरु हुई थी। दूसरे शब्दों में कहें तो इस युद्ध के माध्यम से अभिजात्य वर्ग उस निम्न वर्ग पर लगाम लगाना चाहता था जो उनकी सत्ता, संपत्ति और विशेषाधिकार के लिए निरन्तर खतरा बनते जा रहे थे।
अभिजात्य वर्ग के दिमाग में यह भी था कि इस युद्ध के माध्यम से वे सामाजिक क्रान्ति के भूत को हमेशा-हमेशा के लिए दफ्न कर देंगे। पूंजीपति वर्ग के दिमाग में यह भी था कि इस युद्ध से उन्हे काफी आर्थिक फायदा मिलेगा, विशेषकर मेसोपोटामिया (आधुनिक इराक) का वह क्षेत्र जो तेल जैसे महत्वपूर्ण कच्चे माल का भंडार था।
यह इतिहास की एक महत्वपूर्ण विडंबना है कि चार साल के अप्रत्याशित खून खराबे के बाद विश्व युद्ध का जो परिणाम सामने आया वह अभिजात्य वर्ग की अपेक्षाओं व उनके सपनों के एकदम विपरीत था। विश्व युद्ध के बाद लगभग सभी युद्धरत देश क्रान्तिकारी सुनामी की चपेट में थे। रूस में क्रान्ति सफल हो चुकी थी। और दूसरी जगह इसे तभी रोका जा सका जब जल्दीबाजी में सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर वे जनवादी सुधार क्रियान्वित करने पड़े जिसके बारे में वे मानते थे कि युद्ध इनकी संभावना को खत्म कर देगा। जैसे- सार्विक मताधिकार और आठ घण्टे काम। बाद में इस जनवादी ज्वार को पलटने की कोशिश में ही फासीवाद का उदय हुआ जिसने एक नये विश्व युद्ध को जन्म दिया। इसे कुछ इतिहासकार 20वीं सदी के ‘तीस वर्षीय युद्ध’ का दूसरा भाग कहते हैं।
पहला विश्वयुद्ध 19वीं शताब्दी की संतान था और इस रुप में यह 20वीं शताब्दी के पिता के रुप में अपने आपको प्रकट किया।
[http://www.globalresearch.ca से साभार]

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