कई चांद थे सरे आसमां

कई चांद थे सरे आसमां कि चमक चमक के पलट गए
मिसरा अहमद मुश्ताक़ का है और लगभग 750 पन्नों का भारी-भरकम उपन्यास ‘कई चांद थे सरे आसमां’ लिख दिया उर्दू के विख्यात आलोचक शम्सुर्ररहमान फ़ारूक़ी ने।
यूं तो उपन्यास की नायिका वज़ीर ख़ानम (मशहूर शायर नवाब मिर्ज़ा ‘दाग़’ की शुरुआती उस्ताद और मां ) के जीवन आकाश पर वाक़ई कई बार खुशियों के चांद चमके, पर हर बार अपनी पूरी ताकत से चमक कर बुझ गए। सारी ज़िन्दगी वह ज़िन्दगी को समझती ही रहीं।
समझा ही नहीं कोई कि दुनिया क्या है
कहता ही नहीं कोई कि दुनिया क्या है
अफ़लाक पहेलियां बुझाते ही रहे
बूझा ही नहीं कोई कि दुनिया क्या है
-‘दाग़’

कई चांद थे सरे आसमां
ब्रिटिश म्यूज़ियम से हासिल वज़ीर ख़ानम की एक दुर्लभ तस्वीर हासिल करके रेशा-रेशा उनके इतिहास के सूत्रों को उधेड़ते हुए फ़ारूक़ी साहब ने इतना लम्बा चौड़ा ऐतिहासिक उपन्यास लिख दिया। एक ऐसा उपन्यास जिसका अधिकांश हिस्सा मुग़ल शासन के अन्तिम दौर की दास्तान बयान करता है। आगे चलकर यह उपन्यास अंग्रेज़ों की चालबाज़ियों और ताकत के सामने विवश और पतनोन्मुख किन्तु अभी भी वैभवशाली मुग़ल सल्तनत के निहायत अन्दरूनी हिस्से का दीदार कराता है। पढ़ते वक्त लगता है मानो कोई सिनेमा देख रहे हों। हर्फ़ दर हर्फ़ एक चित्र खिंचता सा जाता है।
वज़ीर ख़ानम की जड़ें राजस्थान से कश्मीर तक जा पहुंची थीं। वहां उनके पुरखे कलाकार कारीगर थे। ज़िन्दगी की राह में भटकते-भटकते उनके वालिद दिल्ली आकर बस गए थे। उनकी तीन बेटियों में से सबसे छोटी वज़ीर ख़ानम थीं। वह बला की खू़बसूरत और आज़ाद तबियत की ख़ातून थीं। वह एक निहायत ज़हीन शाइरा थीं और उस वक्त के अदबो-इल्म की जानकार थीं। आगे चलकर वह फ़िरोज़पुर झिरका और लोहारू के नवाब शम्सुद्दीन और उनके बेटे नवाब मिर्ज़ा ‘दाग़’ की पहली उस्ताद भी बनीं। नवाब शम्सुद्दीन से उन्हें वाक़ई मुहब्बत थी। हालांकि उन्होंने उनके साथ बाक़ायदा निक़ाह नहीं किया था। लेकिन वह उन्हें बेइन्तहां मुहब्बत करते थे। नवाब मिर्ज़ा उनके प्यार की निशानी थे। नवाब शम्सुद्दीन एक ख़ुद्दार और विद्वान शख्सियत थे। अंग्रेज़ हाक़िम विलियम फ़्रेजर की हत्या के जुर्म में अंग्रेज़ों ने उन्हें उनके वफ़ादार क़रीम ख़ां (उसने विलियम फ़्रेजर को गोली मारी थी) को सरेआम दिल्ली में फांसी दे दी थी। वज़ीर खा़नम के आसमान का एक जगमगाता चांद बुझ गया।
इसके पहले वज़ीर ख़ानम पर दिल आया था विलियम ब्लेक का। बाद में वह जयपुर का रेजिडेण्ट नियुक्त हुआ और 16 साल की वज़ीर उसकी दुल्हन बनी। उससे वज़ीर को एक बेटा और एक बेटी हुए। एक स्थानीय बलवे में ब्लेक मारा गया। और ब्लेक की बहन और भाई ने उसे बेदख़ल कर दिया और उसके बच्चों को भी छीन लिया। वज़ीर दिल्ली आ गयी और उसके बाद ब्लेक से हुए अपने बच्चों का दीदार उसे कभी न हुआ।
नवाब शम्सुद्दीन को फांसी दिये जाने के बाद ग़मज़दा वज़ीर अपनी मझली बहन के इसरार पर रामपुर आ गयी और यहां उनका बाक़ायदा निक़ाह आग़ा मिर्ज़ा तुराब अली से हुआ और इनसे उन्हें एक बेटा हुआ जिसका नाम रखा गया शाह मुहम्मद आग़ा मिर्ज़ा। वज़ीर अपनी खुशहाल ज़िन्दगी में अभी रम ही रही थीं कि सोनपुर से मवेशियों की ख़रीद फ़रोख़्त करके लौटते वक्त रास्ते में ठगों ने उनकी निर्मम हत्या कर दी। वज़ीर की बगिया एक बार फ़िर उजड़ गयी। वजी़र वापस दिल्ली आ गयी और ग़मगीन रहते हुए अपने दोनो बेटों को पालने लगीं।
मुग़ल सल्तनत का सूर्य मग़रिब की ओर था। क़िले में बूढे़ सुल्तान के वलीअहद पद को हासिल करने पर तमाम कुचक्र रचे जा रहे थे। मलिकाए हिन्दुस्तान ज़ीनतमहल इसमें सबसे आगे थीं। लेकिन अंग्रेज़ों ने आगे चल कर मिर्ज़ा फ़तहुल मुल्क को वलीअहद घोषित कर दिया। फ़तहुल मुल्क ने वज़ीर के हुस्न के बहुत चर्चे सुन रखे थे। शहज़ादे का दिल वज़ीर पर आना लाज़िमी था। वक़्त ने फ़िर करवट बदली। वज़ीर फ़र्श से उठ कर मुग़ल सल्तनत डूबते ही सही पर शानो-शौकत से जगमगाते अर्श में आ गयी। मुग़ल क़िले में वह शहज़ादे की दिल की मलिका शौक़त महल कहलायी। धीरे-धीरे वह शहज़ादे फ़तहुल मुल्क से इश्क करने लगी। शहज़ादा भी उसे पूरी इज़्ज़त बख़्शता था। वज़ीर की तकदीर का चांद जगमगाने लगा। वह उसकी रोशनी में पूरी तरह सराबोर हो गयी कि तभी अचानक 10 जुलाई 1856 को फ़तहुल मुल्क की मौत हो गयी। वज़ीर के जीवन का चांद आखि़री बार बुझ गया। इसके बाद मलिका ज़ीनत महल ने उसे अपने बच्चों के साथ क़िले से बेदख़ल कर दिया।
फ़ारूक़ी साहब की कलम ने इस वज़ीर ख़ानम की दास्तान कहते हुए एक ऐसा चित्र खींचा है जिसमें पन्ने दर पन्ने पढ़ते हुए तमाम रंग आंखों के सामने बिखरने लगते हैं। शुरू में उपन्यास थोड़ा रहस्य जैसा लगता है और तमाम सारे रिश्तों की तफ़्सील उबाऊ लगने लगती है। पर उपन्यास के आखि़र तक पहुंचते-पहुंचते सारे सूत्र जुड़ने लगते हैं। और मन करता है कि एकबार फ़िर से शुरू का उपन्यास पढ़ा जाए ताकि शुरुआती मुअम्मे हल हो जाएं। कभी-कभी उपन्यास में विस्तार इतना अधिक हो जाता है कि मन थकने लगता है पर रोचकता इतनी कि बिना पढ़े नहीं रहा जाता।
वह दौर ग़ालिब, ज़ौक़ और मोमिन जैसे उस्तादों का था, जिसमें आगे चलकर दाग़ भी शामिल हो गए। उर्दू अदब का वह उरूज़ था शायद। यह बख़ूबी पन्ने दर पन्ने दर्ज हुआ है। महफ़िलें ऐसी कि जी करता है खु़द खड़े होकर एक-एक शेर पर दाद दें। ग़ालिब की अंग्रेज़ों से नज़दीक़ी और नवाब शमसुद्दीन से अदावत का चित्रण भी अच्छी तरह उकेरा गया है। नवाब की फांसी के वक्त ग़ालिब का कुछ न कहना अखरता है। लेकिन बाद में मिर्ज़ा नवाब दाग़ से उनकी नज़दीकी कुछ आश्वस्त करती है। हालांकि आखि़र में फ़ारूक़ी साहब ने ग़ालिब से अंग्रेज़ी हुकूमत की कुछ आलोचना भी करवाई है। जिससे अपने पसन्दीदा शायर के प्रति तल्ख़ी कुछ कम होती है।
हालांकि फ़ारूक़ी साहब ने अपने वक्तव्य में यह कहा है कि यह उपन्यास तारीख़ी उपन्यास नहीं है। पर बहुत से आख्यान तथ्यात्मक हैं। इसलिए जैसे-जैसे हम उपन्यास में डूबने लगते हैं, खु़द को मुग़ल सल्तनत के उस दौर में खड़ा पाते हैं।
अब कुछ लफ़्ज़ अनुवाद के बारे में कहना लाज़िमी है। जनाब नरेश ‘नदीम’ का यह अनुवाद इतना बेमिसाल है कि असल का मज़ा देता है। उर्दू से हिन्दी में किया गया है यह अनुवाद। लेकिन लुत्फ़ पूरा उर्दू का। हर्फ़ दर हर्फ़ उर्दू की सी खूबसूरती चकित करती है। कहीं-कहीं अल्फ़ाज़ के मानी समझ में भी नहीं आते पर उससे रवानियत पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
ख़ैर, बहुत दिनों बाद जी भर कर एक उपन्यास पढ़ा लेकिन जी नहीं भरा। खत्म होने के बाद भी उपन्यास ज़हन में चल रहा है। 1856 में यह ख़त्म होता है और 1857 का विप्लव छूट जाता है पूरा का पूरा……।

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