पाखी के अपै्रल अंक में प्रियम्वद की लम्बी कहानी ‘दास्तानगो’ पढ़ कर खत्म की तो इतिहास का खुमार सा छा गया। अद्भुत! कहानी का जादू इतना जबरदस्त था कि देर तक समय की तकिया पर सोचते सोचते सो गयी और ख+ाब में वे दसों तिलंगे अपने घोड़े पर सवार देर तक युद्ध करते रहे और कत्ले-आम करते रहे। तभी एक तिलंगे ने एक औरत के सीने मंे अचानक भाला उतारा और चैंक कर उठ बैठी और फिर देर तक सिर घूमता रहा। पहले तो इस खाब का अर्थ समझ नहीं आया। फिर धीरे-धीरे चेतना लौटने पर याद आया कि यह प्रियम्वद की कहानी का असर था।
फिर देर तक समय की हथेली पर हथेली रख कर बैठी रही और कहानी के बारे में सोचती रही। लगा कहानी में बहुत कुछ समझ आया बहुत कुछ नहीं समझ आया। चलिए पहले जो समझ में आया उस पर बात कर लेते हैं।
कहानी पढ़कर सबसे पहले समझ में यह आया कि प्रियम्वद की इतिहास पर पकड़ वाकई गहरी है और उन्हें इतिहास को किस्सागोई में ढालना भी आता है। कहानी कहने की कला भी उनके पास है। उनकी इस कहानी को पढ़ते हुए उपनिवेशवाद का वह फ्रांसीसी दौर सजीव हो उठा। समुन्दर के लहरें आकर मन को भिगोने लगीं और उसके किनारे बसे खण्डहरों की रहस्यमयता और उसमें बसा जीवन आकर कानों में फुसफुसाने लगा। कुल मिला कर इस कहानी में इतनी ताकत है कि पढ़ने वाला इतिहास की वीथिकाओं में खुद को भुला दे। समय में तैरते हुए तेजी से इतने पीछे चले जाए कि उस समय के पात्रों में अपनी छवि देखने लगें। फिर तेजी से समय के उसी रथ पर सवार होकर भविष्य के किसी उफक को छू आएं।
पर मुझे यह बात नहीं समझ में आयी कि इस कहानी और उसमें छिपे इतिहास के माध्यम से कहानीकार वर्तमान के लिए क्या सबक निकालना चाहते हैं। कहानी के अन्त में क्या नायक के माध्यम से वह कहानी की दो ‘अबलाओं’ को उनके आने वाले संघर्ष के लिए सशस्त्र करना चाहते है। या इसका निहितार्थ कुछ और है। फिर वही एक पुरुष पुराने जं+ग लगे हथियार उन्हें देने की ‘कृपा’ करता सा लगता है। लेकिन अगर कहीं इन्हीं ज+ंग लगे हथियारों से औरत लड़ने लगे तो???? पता नहीं प्रियम्वद क्या कहना चाहते हैं।
अक्सर मुझे लगता है कि समाज को केन्द्रित करके लिखने वाले इतिहासकार-कहानीकार इतिहास के प्रति बहुत मोहग्रस्त होते हैं। हालांकि वे इतिहास से सबक निकाल कर भविष्य से भी रूबरू होते हैं और यह एक अच्छी बात है। पर दिक्कत है कि वे अतीत से भविष्य की इस यात्रा में वर्तमान को भूल जाते हैं या जानबूझ कर नज+रअन्दाज कर देते हैं। यही दिक्कत प्रियम्वद की कहानी की भी है। कहानी बहुत सफलतापूर्वक अतीत से भविष्य में तैरते हुए बहुत सारी दार्शनिक उंचाइयों को छू लेती है। लेकिन वर्तमान उसमें से नदारद है। वर्तमान के विषय में साफ बात ये लोग क्यों नहीं करते ये बात समझ में नही आती।,ंंंंंंंंंएक अन्य बात जो मुझे समझ में नहीं आती वह है कि ये लेखक लोग औरतों को क्या समझते हैं। मुझे लगता है ये कलावादी और स्वयं को दार्शनिक समझने वाले ये लेखक औरत को न्यूड पेंटिंग के लिए एक आॅब्जेक्ट से अधिक कुछ नहीं समझते। ये बहुत सूफियाना अन्दाज में औरत के स्तन के विषय में चर्चा करते हैं कि पत्नी और प्रेयसी के स्तन को क्या नाम दें।(कहानी से पहले की गयी बातचीत जो पत्रिका में ही छपी है। इसमें प्रियम्वद समेत तीन चार लोग आपस में बात कर रहे हैं) मुझे इस बात पर बेहद गुस्सा आता है। सम्भवतः इस विषय में प्रियम्वद की सोच भी औरत के स्तन के कुचाग्र तक ही सीमित है। सवाल इस बात का नहीं है कि औरत का आप सम्मान करते हैं या अपमान। सवाल यह है कि यह मान और अपमान करने करने वाले दोनो आप ही हैंं। आप कौन होते हैं मान या अपमान करने वाले? आपकी पूरी वार्ता में यह नहीं आता है कि औरत क्या चाहती है? वह न ही आपकी वार्ता का हिस्सा होती है। न ही आपके बगल में रखी किसी कुर्सी पर उसका हक होता है। उसके ही बारे में आप उससे पूछे बगैर न जाने कितनी बात करते रहते हैं। मैं आपसे कोई स्त्री विमर्श का किस्सा लेकर नहीं बैठी हूं। न ही आपसे ऐसा करने की मुझे कोई इच्छा होती है।
आप और राजेन्द्र यादव जैसे लोग कितनी ही ताल ठोक ठोक कर बात करें कि स्त्री की मुक्ति देह की मुक्ति है। पर सच तो यह है कि औरत का मुख्य मामला है कि वह गुलाम है। अभी भी उस पर कब्जा है परिवार का, समाज का, पितृसत्ता का, काफी हद तक पुरुष का, धर्म का और राज्य सत्ता का। जब तक इस कब्जे से उसे मुक्ति नहीं मिलेगी तब तक वह किसी कीमत पर मुक्त नहीं हो सकती। सुनने में ये बातें घिसी पिटी लग सकती हैं। पर हकीकत यही है। जिस शहर की गली-कूचों के चप्पे-चप्पे के बारे में प्रियम्वद इतना अधिक परिचित हैं। उसी शहर में औरतें किस हाल में जीवन जीती हैं। क्या इसका इल्म उन्हें है? मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के घरों में घुटती हुयी वह अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं के लिए तरस जाती हैं। ऐेसे में उन्हें सिर्फ और सिर्फ रचनाकार के सौन्दर्यशास्त्र की पिपासा का माध्यम बना देना बहुत गुस्सा दिलाता है।
अब थोड़ी बातंे सम्पादक द्वारा उठाए सवाल पर कि क्या समाज और नैतिकता की कोई प्रासंगिकता है या नहीं। शायद उनके सवाल का कुछ जवाब मेरी उपरोक्त बातोें में निहित है। वैसे समाज और नैतिकता दोनो ही बहुत सापेक्ष चीज होती है। हो सकता है आपके लिए नैतिकता एक चीज हो और मेरे लिए एक दूसरी चीज। इसी तरह आपका समाज मेरे समाज से बिल्कुल भिन्न हो सकता है। अगर केन्द्रित करके कहें तो प्रियम्वद जैसे लेखक की नैतिकता और समाज पर बात की जा सकती है। प्रियम्वद एक स्वतन्त्र चिन्तक के तौर पर समाज, विवाह समेत इसकी संस्थाओं, संविधान और राज्यसत्ता सभी को नकारते हैं। शायद एक अकेले व्यक्ति के तौर पर परिवार, विवाह और समाज को नकारना बहुत आसान होता है। व्यक्तिगत तौर पर इसे नकारने में कोई हर्ज भी नहीं है। न ही इससे किसी को कोई फर्क पड़ता है। लेकिन प्रियम्वद अगर केवल इन्ही मुद्दों को लेकर किसी आन्दोलन का हिस्सा होते तो उनको फौरन आटे दाल का भाव पता चल जाता। संविधान और राज्यसत्ता को न मानने की बात प्रियम्वद अकेले हाथ लहरा लहरा के कितना भी चिल्ला लें। राज्यसत्ता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन एक बार यदि प्रियम्वद इसके खिलाफ खड़ें लोगों का साथ देने का साहस भी कर लें तो समझ में आएगा कि राजसत्ता को नकारने का दरअसल क्या अर्थ होता है। इस लिए ऐसे फ्री चिन्तक किसी भी चीज पर अपनी राय फ्री होकर दे सकते हैं। उनके लिए नैतिकता और समाज का कोई मायने नहीं होता। वैसे भी नैतिकता के सारे मानदण्ड औरतों के लिए ही बने हैं। खैर, यह हमारी और हमारे जैसे लोगों की लड़ाई है और हम इसे खुद लड़ लेंगे। लेकिन अगर प्रियम्वद जैसे लोग औरतों पर अपनी बहुमूल्य राय देना बन्द कर दें तो बडी कृपा होगी।
-कृति
ye aalekh kahan se shuru hokar kahan khatm hua…….! Gussa puri tarah se zahir ho raha hai. khud ko aage padhne so rok nahi payi. Kahani to maine padhi nahi, par is baat se mai puri tarah se ittefaq rakhti hun ki kalaakar ho ya lekhak jahan baat naari ki ho vahan uski deh ke utaar chadhaav ko vo highlight zarur karte hain mano iske bina unki rachna apna arth kho degi…….! khair, sahi kaha, ye hamari ladayi hai hum khud hi lad lenge!!
nice writing, congrates.
behatrin