स्त्री विरोधी दृष्टि बनाम पोर्नोग्राफी

इन दिनों शालिनी माथुर के लेख ‘व्याधि पर कविता या कविता की व्याधि’ ने धमाल मचाया हुआ है। हिन्दी साहित्य में ऐेसे धमाल पहले भी होते रहे हैं। कभी आलोचना के क्षेत्र में तो कभी कविता और कहानियों के क्षेत्र में। समय समाज के प्रति उदासीन, मूच्र्छित से पड़े हुए हिन्दी साहित्य में ऐसे धमाल कुछ समय के लिए उसमें हरकत पैदा कर देते हैं। बल्कि यूं कहें कि पिछले कुछ दशकों से ऐसे धमाल हिन्दी साहित्य की बैसाखी हो चले हैं।
आइये, अब मुद्दे पर आते हैं। पवन करण की एक कविता ‘स्तन’ और अनामिका की कविता ‘ब्रेस्ट कैंसर’ पर कथादेश में शालिनी माथुर ने एक लम्बा लेख लिखा। जिसमें उन्हांेने बहुत ही सधे तरीके से दोनो कविताओं को पोर्नोग्राफी कह कर और बीमारी के प्रति संवेदनहीन बता कर उसकी भत्र्सना की। दोनो कविताएं लेख के अन्त में दी जा रही हैं। आप स्वयं पढें और तय करें।
यहां मैं महज कुछ बिन्दुओं पर अपने विचार रख रही हूं। हिन्दी साहित्य में निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’ से लेकर पवन करण की ‘स्तन’ तक, ज्यादातर कविताएं विक्टोरियन एरा के सौन्दर्य मापदण्डों से आगे नहीं जातीं। निराला ने तोड़ती पत्थर की महिला में जो ‘… भर बंधा यौवन’ देखा, उसी की तार्किक परिणति पवन करण की इस कविता में होती है। यानी सामन्ती मूल्यबोध से साम्राज्यवादी मूल्यबोध तक की एक पूरी यात्रा यहां आकर खतम होती है। ‘कैथरकलां की औरतें’ या ‘ब्रूनो की बेटियां’ ऐसी कविताएं हैं जो इसके समानान्तर चलती हैं। इन कविताओं के बरक्स रखकर यदि आप उन कविताओं को देखेंगे तब शायद आपको मेरी बात समझ में आ जाएगी। कैथरकलां की औरतें और ब्रूनों की बेटियों की भी अपनी यौनिकता है और उनके यौवन के अपने गीत हैं लेकिन गोरख पाण्डेय और आलोक धन्वा ने कहीं भी उनकी पहचान को उनके यौवन और उनकी यौनिकता में तिरोहित नहीं किया है।
शालिनी माथुर ने दोनो कविताओं की आलोचना में अपना पूरा जोर उन्हें पोर्नोग्राफी सिद्ध करने मे लगाया है। यह करते हुए शालिनी माथुर ने जाने अनजाने पवन करण को साहित्य की उस स्त्रीविरोधी आम धारा से अलग खड़ा कर दिया है। यानी पाठकों की नजर में चूंकि पवनकरण की कविताएं पोर्नोग्राफिक हैं इसलिए ऐसी कविताओं को साहित्य से निकाल देना चाहिए। जबकि मामला यह है कि पवनकरण अपनी कविताओं में जिस प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं, वह हिन्दी साहित्य में अपनी शुरुआत से ही जड़ जमाए बैठी है। शालिनी माथुर ने पूरा जोर लगा कर पोर्नोग्राफी को खींच कर उनकी कविताओं पर लाद दिया और इस प्रयास में पवन करण साहित्य की स्त्री विरोधी धारा से अलग हटकर एक पोर्नोग्राफिक कवि के रूप में चित्रित हो गए। और जाने अनजाने पूरी बहस पवन करण की इस एक कविता के पोर्नोग्राफिक होने न होने पर टिक गयी। जबकि असल मुद्दा यह है कि पवन करण की यह कविता स्त्री विरोधी है और उस धारा का प्रतिनिधित्व करती है जो हिन्दी साहित्य की शुरुआत से ही साहित्य में अपनी जड़ जमाए बैठी है।
अब कुछ बातें अनामिका की कविता पर। शालिनी माथुर ने जिस जोश के साथ पवन करण की कविता को पोर्नोग्राफिक करार दिया उसी जोश में उन्होंने अनामिका की कविता को भी इसी कैटेगरी में हांक दिया। जबकि अनामिका की कविता एकदम भिन्न कविता है। एक शब्द में कहें तो पवन करण यदि स्त्री के पूरे वजूद को सिर्फ एक सेक्स आॅब्जेक्ट में रिड्यूस करते हैं तो अनामिका अपनी इस कविता में और अन्य कविताआंे में भी स्त्री के पूरे व्यक्तित्व को ऐसे नारीवादी फ्रेम में बांधती हैं जो अक्सर जमीनी हकीकत से बहुत दूर होता है और अन्ततः उसे उसके शरीर में ही रिड्यूस कर देता है जहां उनका कैथरकलां की औरतों में ‘पुनर्जन्म’ अवरुद्ध हो जाता है।
कुल मिला कर बात यह है कि साहित्य में कोई भी कवि या कोई भी कविता उस साहित्य में चलने वाली आम प्रवृत्तियों से बहुत अलग-थलग नहीं रह सकतीं। इस लिए किसी भी कविता कहानी या उपन्यास की आलोचना करते समय हमें उस साहित्य की आम प्रवृत्तियों को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। दरअसल साहित्य में किसी एक कविता या कहानी या उपन्यास की आलोचना उस एक कविता कहानी या उपन्यास की आलोचना नहीं होती बल्कि उस प्रवृत्ति की आलोचना होती है जिसके प्रभाव मंे वह रचना लिखी गयी है। यानी विशिष्ट और सामान्य के अन्तरविरोध को यदि हम नहीं पकड़ते और किसी भी रचना को उस समय की आम प्रवृत्तियों से अलग थलग करके समझने का प्रयास करेंगे तो वह सही नहीं होगा।
पोर्नोग्राफी निश्चित रूप से स्त्री विरोधी है और बहुत ही खतरनाक है। लेकिन हर स्त्री विरोधी चीज को पोर्नोग्राफी नहीं कहा जा सकता। यानी स्त्री-विरोधी प्रवृत्ति एवं पोर्नोग्राफी को आपस में गड्डमड्ड कर देना सही नहीं है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पोर्नोग्राफी के साथ बहुत ही मजबूती के साथ नैतिकता-अनैतिकता का मुद्दा जुड़ा हुआ है। यानी पोर्नोग्राफी पर बहस नहीं हो सकती। इसे पूरी तरह खारिज किया जाना चाहिए। इस लिए जब हम किसी स्त्री विरोधी कविता पर बेवजह पोर्नोेग्राफी को थोप देते हैं तो उस कविता पर और उस बहाने स्त्री विरोधी अन्य कविताओं पर बहस अवरुद्ध हो जाती है। शालिनी माथुर ने आलोचना के जिन औजारों का प्रयोग किया है उसने तात्कालिक तौर पर एक बड़े बवाल को भले जन्म दे दिया हो, लेकिन एक सार्थक बहस को इसने अवरुद्ध भी कर दिया है।
कैंसर जैसी बीमारी के प्रति उपरोक्त कवियों की दृष्टि को जिस तरीके से शालिनी ने पकड़ा है वह काबिलेतारीफ है। मैं भी सोच कर हैरान रह जाती हूं कि कोई कैंसर पीडि़त महिला या उसका अनन्य मित्र अपनी इस बीमारी के प्रति इस तरीके से संवेदनहीन कैसे हो सकता है?
प्रकारान्तर से शालिनी माथुर ने हिन्दी साहित्य में जिस तरीके से कार्टेल को देखा है वह उनकी सजग दृष्टि का परिचायक है। ये कार्टेल तभी टूटेंगे जब साहित्य में आम स्त्री-पुरुषों के गम और गुस्से का प्रवेश होगा और उन्हें शालिनी माथुर जैसा समझौताविहीन आलोचक मिलेगा।

स्तन
-पवन करण

इच्छा होती तब वह धंसा लेता उनके
बीच अपना सिर
और जब भरा हुआ होता तो तो उनमें
छुपा लेता अपना मुंह
कर देता उसे अपने आंसुओं से तर

वह उससे कहता तुम यूं ही बैठी रहो
सामने
मैं इन्हें जी भर के देखना चाहता हूं
और तब तक उन पर आंखें गड़ाए रहता
जब तक उठकर भाग नहीं जाती
सामने से.
या लजा कर अपने हाथों से छुपा नहीं
लेती उन्हें.

अन्तरंग क्षणों में उन दोनों को
हाथों में थाम कर उससे कहता
ये दोनो तुम्हारे पास अमानत है मेरी
मेरी खुशियां इन्हें सम्भाल कर रखना.

वह इन दोनो को कभी शहद के छत्ते
तो कभी दशहरी आमों की जोड़ी कहता.
उनके बारे में उनकी बातें सुन सुन
कर बौराई…….
वह भी जब कभी खड़ी होकर आगे
आइने के इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती.
वह कई दफे सोचती इन दोनों को
एक साथ
उसके मुंह में भर दे और मूंद ले अपनी
आंखें.

वह जब भी घर से निकलती इन दोनों पर
डाल ही लेती अपनी निगाह ऐसा करते
हुए हमेशा
उसे कालेज में पढ़े बिहारी आते याद.
उस वक्त उस पर इनके बारे में
सुने गए का नशा हो जाता दोगुना.
वह उसे कई दफे सबके बीच भी उन
की तरफ
कनखियों से देखता पकड़ लेती.
वह शरारती पूछ भी लेता सब ठीक तो है.
वह कहती हां जी हां.
घर पहुंच कर जांच लेना.

मगर रोग ऐसा घुसा उसके भीतर
कि उनमें से एक को लेकर ही हटा
देह से.
कोई उपाय भी न था सिवा इसके.
उपचार ने उदास होते हुए समझाया.

अब वह इस बचे हुए के बारे में
कुछ नहीं कहता उससे, वह उसकी
तरफ देखता है
और रह जाता है कसमसा कर. मगर
उसे हर समय महसूस होता है
उसकी देह पर घूमते उसके हाथ क्या
ढूंढ रहें कि उस वक्त वे
उसके मन से भी अधिक मायूस हैं

उस खो चुके एक के बारे में भले ही
एक दूसरे से न कहते हों वह कुछ
मगर वह विवश जानती है
उसकी देह से उस, एक के हट जाने से
कितना कुछ हट गया उनके बीच से…………

ब्रेस्ट कैंसर (बबिता टोपो की उद्दाम जिजीविषा को निवेदित)

-अनामिका

दुनिया की सारी स्मृतियों को
दूध पिलाया मैंने
हां, बहा दी दूध की नदियां
तब जाकर
मेरे इन उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुफाओं में
जाले लगे.

कहते हैं महावैद्य
खा रहे हैं मुझको ये जाले
और मौत की चुहिया
मेरे पहाड़ों में
इस तरह छिप कर बैठी है
कि यह निकलेगी तभी
जब पहाड़ खोदेगा कोई.

निकलेगी चुहिया तो देखूंगी मैं भी
सर्जरी की प्लेट में रखे
खुदे फुदे नन्हें पहाड़ों से
हंस कर कहूूंगी -हलो.

कहो, कैसे हो? कैसी रही?
अन्ततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी.

दस बरस की उम्र से
तुम मेरे पीछे पड़े थे
अंग संग मेरे लगे ऐसे
दूभर हुआ सड़क पर चलना.
बुलबुले, अच्छा हुआ, फूटे!
कर दिया मंैने तुम्हें अपने सिस्टम के
बाहर.
मेरे ब्लाउज में छिपे, मेरी तकलीफों के
हीरे, हलो.
कहो, कैसे हो?
जैसे कि स्मगलर के जाल में ही बुढ़ा
गयी लड़की.
करती है कार्यभार पूरा अन्तिम वाला-
झट अपने ब्लाउज से बाहर किये
और मेज पर रख दिये अपनी
तकलीफ के हीरे.

अब मेरी कोई नहीं लगती ये तकलीफें,
तोड़ लिया है उनसे अपना रिश्ता
जैसे कि निर्मूल आशंका के सताए.
एक कोख के जाए
तोड़ लेते हैं सम्बन्ध.
और दूध का रिश्ता पानी हो जाता है!

जाने दो, जो होता है सो होता है,
मेरे किये जो हो सकता था-मैंने किया,
दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध
पिलाया मैंने!
हां, बहा दी दूध की नदियां!
तब जाकर जाले लगे मेरे
उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुफाओं में!
लगे तो लगे, उससे क्या!
दूधों नहाए
और पूतों फलें
मेरी स्मृतियां!

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