कल बहुत सालों बाद जाने भी दो यारों दुबारा देखी। आश्चर्यजनक रुप से यह आज के हालात में कही ज्यादा प्रासंगिक लगी। आज भ्रष्टाचार का जो रुप है और उसमे रियल स्टेट – ब्यूरोक्रेसी – मीडिया का जो नेक्सस है, उस पर तीखी टिप्पणी करने वाली यह अपने तरह की अकेली फिल्म है।
फिल्म में दो नौजवान नसीर और रवी वासवानी परिसिथतियोंवश भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने की मुहिम में शामिल हो जाते है। फिल्म कर्इ नाटकीय उतार-चढ़ावों से गुजरते हुए एक दिलचस्प क्लार्इमेक्स पर पहुंचती है जहां रियल स्टेट, ब्यूरोक्रेसी और मीडिया के मगरमच्छ अपने आपसी अन्तरविरोधों को भुलाकर उस मामले में उन दोनों नौजवानों को ही फंसा देते है जिस मामले के लिए वे खुद जिम्मेदार थे।
मजेदार बात यह है कि उपरोक्त कहानी का पूरा ताना-बाना कामेडी के फार्म में बुना गया है लेकिन बावजूद इसके कहानी का फोकस कही भी धुंधला नही पड़ता और ना ही कहानी की विषयवस्तु पर कामेडी का फार्म ही भारी पड़ता है। गोलमाल और मालामाल वीकली जैसी घटिया और उदेश्य-विहीन फिल्मों के इस दौर में जाने भी दो यारों जैसी स्वस्थ और उदेश्यपूर्ण फिल्म एक ताजा हवा के झोंके की तरह है जो न सिर्फ आपको ताज़गी देती है वरन आपको एक तरह की सक्रियता और उर्जा से भी भर
देती है।
अभिनय की तो बात ही क्या की जाय, जहां नसीरुदीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर, सतीश शाह, रवि वासवानी, अनीता कंवर, जैसे धुरंधर मौजूद हो वहां अभिनय पर बात करने की गुंजाइश ही नहीं रह जाती।
हम होंगे कामयाब गाने का इस तरह से इस्तेमाल किया गया है कि आम आदमी का दर्द बहुत शिददत से महसूस होता है।
निशिचत रुप से अस्सी के दशक की यह एक कल्ट फिल्म है।