‘The Song of The Shirt’ [by Jeremy Seabrook ] किताब में ढाका की फैक्ट्रियों का सच

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बड़े ब्रैंड की एक शर्ट का मेहनताना मात्र 80 पैसे!
चार हजार से ज्यादा रेडिमेड गारमेन्ट फैक्ट्रियां। मजदूरों के ठिकाने दूर तक फैली संकरी झुग्गियों में। सुबह सायरन बजते ही सड़कों पर जैसे जनसैलाब उमड़ पड़ता है। यह 40 लाख से ज्यादा मजदूरों का शहर हैं। हर रोज आते है हजारों और मजदूर। आप रेडिमेड गारमेन्ट के जो भी बड़ा से बड़ा ब्रैंड पहनते हैं, वो सब यही बनते हैं।
प्यूमा जैसे तमाम सुपर ब्रैंड के कपड़े बनते यहां हैं, और बिकते हैं यूरोप व अमेरिका के लकदक शो-रूम में। जो हाथ इन्हें बनाते हैं, उनकी मजदूरी क्या होगी? हर घण्टे के 10 रूपये भी नहीं। एक ब्रैडेड शर्ट का मेहनताना बमुश्किल 80 पैसे के आसपास। यह दुनिया में सबसे कम मजदूरी देने वाला शहर है। जबकि निर्यात से होने वाली आमदनी का 80 फीसदी इसी इंडस्ट्री की देन है। जेर्मी सीब्रूक की पुस्तक ‘द साॅन्ग आफ शर्ट’ में ये बातें सामने आयी हैं।

Devastated A mother looks for her son in the debris of Rana Plaza, Dhaka

Devastated A mother looks for her son in the debris of Rana Plaza, Dhaka

पिछले साल एक फैक्ट्री की दस मंजिला इमारत में आग लगी। वह भरभरा कर गिर गयी। 1100 से ज्यादा मजदूर दफन हो गये। परिजनों को मुआवजे में मिले महज 130 डाॅलर। बेहद असुरक्षित इमारतों में अपनी जान हथेली पर रखकर ऐसे ही काम करते हैं लाखों मजदूर। ज्यादातर फैक्ट्रियां बेहद तंग, गरमी और घुटन भरी होती हैं। हवा में कपड़ों के उड़ते हुए रेशे। गरमी के दिनों में भट्टियों में तब्दील। करीब 12 घण्टे काम। आॅर्डर बढ़ने पर काम के घंटे ज्यादा। ज्यादातर मजदूर भूमिहीन किसान परिवार के है। हर साल आने वाली बाढ़ और तूफान से बर्बाद परिवार। कुछ के खेत गिरवी हैं, कुछ बीमार परिजनों के इलाज में कर्जदार। पैसा कमाने की उम्मीद इन्हे ढाका ले आती है। मगर हादसों से छुटकारा यहां भी नही है। हर साल ऐसी घटनाओं में 100 से ज्यादा मजदूर मर जाते हैं। इनके मालिक कौन हैं? कई कारखानों के मालिक तो देश के करीब 40 सांसद ही हैं। ऐसे कई दूसरे नुमांइदों के भी आर्थिक हित इनसे जुड़े हैं। 2013 के हादसे के बाद जब हड़ताल और दंगे हुए तो न्यूनतम मजदूरी 5000 टका यानी 68 डाॅलर की गयी। 40 फीसदी से ज्यादा फैक्ट्रियों ने इसका पालन नहीं किया। नवंबर 2010 में मजदूरी 1662 टका से बढ़ाकर 3000 टका (20 डाॅलर से 38 डाॅलर) की गयी थी। मजदूरों की रियायती चावल की सरकारी योजना भी जल्दी बंद हो गयी। मजदूरों में 80-90 फीसदी तादात युवा महिलाओं की है। यहां यौन शोषण की घटनाएं भी आम हैं।
[हिन्दी दैनिक ‘दैनिक भास्कर’ के 19 अक्टूबर अंक से साभार]

Thomas Hood ने इसी नाम से एक अत्यन्त मार्मिक कविता 1843 में लिखी थी जो इंग्लैण्ड के टेक्सटाइल महिला मजदूरों की व्यथा बयान करता है।

The Song of the Shirt
WITH fingers weary and worn,
With eyelids heavy and red,
A woman sat, in unwomanly rags,
Plying her needle and thread–
Stitch! stitch! stitch!
In poverty, hunger, and dirt,
And still with a voice of dolorous pitch
She sang the “Song of the Shirt.”

“Work! work! work!
While the cock is crowing aloof!
And work–work–work,
Till the stars shine through the roof!
It’s Oh! to be a slave
Along with the barbarous Turk,
Where woman has never a soul to save,
If this is Christian work!

“Work–work–work
Till the brain begins to swim;
Work–work–work
Till the eyes are heavy and dim!
Seam, and gusset, and band,
Band, and gusset, and seam,
Till over the buttons I fall asleep,
And sew them on in a dream!

“Oh, Men, with Sisters dear!
Oh, men, with Mothers and Wives!
It is not linen you’re wearing out,
But human creatures’ lives!
Stitch–stitch–stitch,
In poverty, hunger and dirt,
Sewing at once, with a double thread,
A Shroud as well as a Shirt.

“But why do I talk of Death?
That Phantom of grisly bone,
I hardly fear its terrible shape,
It seems so like my own–
It seems so like my own,
Because of the fasts I keep;
Oh, God! that bread should be so dear,
And flesh and blood so cheap!

“Work–work–work!

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