शाबास स्वरा भास्कर

हम प्रायः अपनी धारणाओं के बन्दी होते हैं। यही हुआ मेरे साथ फिल्म अनारकली आफ आरा के सम्बन्ध में। फिल्म के प्रोमोज और कास्ट्यूम वगैरह देखकर लगा कि एक और लटके-झटके वाली फिल्म। जिसमें द्विअर्थी गाने होंगे और उसके माध्यम से औरत के माध्यम से चीप मनोरंजन का एक और प्रयास। फिल्म रिलीज हो गयी। उत्सुकता के बावजूद फिल्म देखने का कोई प्रोग्राम नहीं बनाया। आदतन रिव्यू पढ़ते हुए धारणाएं बदलने लगी और जब फिल्म देखी तो मुंह से अनायास निकला ‘शाबास स्वरा भास्कर’ं। पत्रकार अविनाश दास की पहली फिल्म है ये। स्वरा भास्कर के अलावा पंकज त्रिपाठी और संजय मिश्रा ने इसमें बेहतरीन अभिनय किया है।
लेकिन यह फिल्म स्वरा की फिल्म है। उसने अपने चरित्र को पूरी तरह से जिया है। बेहतरीन अभिनय। फिल्म में चीप गानों के बावजूद फिल्म कहीं से अश्लील नहीं लगी। सामन्ती समाज में अपने घर की औरत को घूंघट में रख कर दूसरी औरतों से छेड़खानी और अश्लीलता आम थी/है। शादियों में नाचने वालियों को बुलाने का प्रचलन हाल-हाल तक था। रूप बदल कर यह अभी भी जारी है। देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाली नुमाइशों, मेलों, महोत्सवों, अमीरों की शादियों में नाच गाने का कार्यक्रम अभी भी आम है। कुछ दिनों पहले एक शादी में एक डांसर की एक मनचले की गोली से मौत हो गयी थी।
फिल्म की कहानी इसी तर्ज पर शुरू होती है। बन्दूक की नली में पैसा अटका कर नृत्यांगना को मुंह से पकड़ने को कहा जाता है। वह लम्पट गोली चला देता है। बच्ची अनारकली की आंखों के सामने उसकी मां की मौत हो जाती है। कुछ सेकेण्डों तक स्क्रीन पर अंधेरा छा जाता है। यही अंधेरा तारी हो जाता है अनारकली के पूरे जीवन में। बड़ी होकर अनारकली (स्वरा भास्कर) एक म्यूजिक कम्पनी में नाचने गाने को अभिशप्त है। उसका गाना बहुत ही साधारण है लेकिन दर्शकों को मज़ा देते हैं। ऐसे गाने बन्द हो गए हैं ऐसा नहीं। आप भोजपुरी इलाकों के छोटे कस्बों के टेम्पो में बैठिए तेज वाल्यूम में बजते ऐसे गाने आपके कान और ज़हन झनझना देंगे। लेकिन इस फिल्म के गाने बहुत सतही और ‘मजा देने वाले’ गाने अश्लील नहीं लगते। जैसे-जैसे दृश्य आगे बढ़ता है, ये गाने पृष्ठभूमि में चले जाते हैं और स्वरा भास्कर का किरदार उभरने लगता है।
फिल्म की कहानी कोई नयी नहीं है। पुरानी बात है। फिल्म एक नाचने गाने वाली की सामन्ती नज़र से लड़ाई है। ये कहानी हज़ारों बार कही जा चुकी है तरह-तरह की चाशनी में लपेट कर। फर्क केवल कहानी के प्रति फिल्मकार के ट्रीटमेंट का है। एक बेहतरीन स्क्रिप्ट कहानी की जान है। हरेक संवाद का अपना अलग महत्व है। सीन दर सीन स्वरा अपने अभिनय से इस स्क्रिप्ट को अपने सशक्त अभिनय से अर्थ प्रदान करती चलती हैं। ताकतवर लोगों से लड़ते हुए अन्तिम सीन में अनारकली का भाव अपनी जीत के प्रति भी आश्वस्त करता है। सरे रात, सरे राह एक औरत के चेहरे पर भय नहीं विजय का भाव और फिर घाघरा झटक कर चल देना। मानो लड़ाई का यह रास्ता बहुत लम्बा है। इस रास्ते में तुम्हारी जैसी न जाने कितनी हैं जिनके जीवन में आज़ादी की एक गली भी नहीं खुलती।
यह फिल्म प्रतीकों की फिल्म है। जिसकी व्याख्या आप अपने मन से कर सकते हैं। पुलिस तो हमेशा से ही शैतानियत और सामन्ती सोच का प्रतीक रही है। लेकिन एक वीसी को लम्पटई का प्रतीक बना देना अनायास नहीं है। मुझे नहीं पता कि अविनाश के मन में यह चरित्र कहां से आया। आमतौर पर यह चरित्र किसी जमींदार या नेता के रूप में ही दिखाया जाता है। लेकिन देश के बदलते राजनीतिक परिदृश्य में वीसी की लम्पटई बहुत कुछ कहती है जहां वीसी की भूमिका बौद्धिक हस्तक्षेप से कहीं ज़्यादा हो गयी है। आज तमाम शिक्षा के कैम्पस में वीसी दरोगा की भूमिका के लिए कुख्यात हो रहे हैं। अनारकली का आरा से भाग कर दिल्ली आना और हीरामन के माध्यम से ‘विकास’ की नई व्याख्या करना बहुत कुछ कह जाती है। हीरामन के चरित्र को फिर से एक नया आयाम देना भी इस फिल्म का एक नया प्रतीक है। स्वयं अनारकली प्रतीक है एक मजबूत होती औरत की। तमाम जुल्मोसितम अभी भी हैं लेकिन वह अपनी मर्जी के खिलाफ अपने ऊपर हाथ भी नहीं रखने देती। उसकी अपनी यौनिकता है और उसका असर्शन भी। उसके खिलाफ संघर्ष भी उसका अपना है। यहीं यह फिल्म ‘पिंक’ के कहीं आगे चली जाती है। अनारकली को अपनी लड़ाई लड़ने के लिए किसी अमिताभ बच्चन की जरूरत नहीं। वह खुद लड़ती है और जीतती है। काश ये जीत हर औरत की जीत में तब्दील हो जाती!

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