The Shock Doctrine: The Rise of Disaster Capitalism

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2007 में ‘Naomi Klein‘ की बहुचर्चित और बहुपठित किताब The Shock Doctrine: The Rise of Disaster Capitalism आयी थी। 2 साल बाद 2009 में इसी किताब पर इसी नाम से एक डाक्यूमेन्ट्री भी बनी। नोमी क्लेन ने ही इसकी स्क्रिप्ट लिखी। इसे निर्देशित की “Road to Guantanamo” नामक मशहूर डाक्यूमेन्ट्री बनाने वाले Michael Winterbottom ने।
565 पेज की किताब का विकल्प तो नही है यह फिल्म लेकिन फिर भी इसने काफी प्रयास किया है कि किताब के सभी आयामों को छू लिया जाये।
60 के दशक में अमरीका में सीआईए ने एक मानसिक रोग विशेषज्ञ ‘Ewen Cameron’ के साथ मिलकर एक प्रयोग किया कि ‘शाक थेरेपी’ के माध्यम से कैसे व्यक्ति की पूरी पर्सनैलिटि को बदला जा सकता है। यानी उसके प्रतिरोध को पूरी तरह से खत्म कर देना। आगे चलकर ये प्रयोग अमरीका की ‘टार्चर इण्डस्ट्री’ में बड़े पैमाने पर प्रयोग होने लगे। ‘अबू गारिब’ और ‘ग्वन्तनामों बे’ में जो कुछ हुआ वह सीआइए के ‘मैनुअल’ का हिस्सा था। जिसकी नींव इन्हीं प्रयोगों के आधार पर पड़ी थी। इन प्रयोगों को गुप्त रुप से उन मरीजों पर आजमाया जाता था जो मानसिक रुप से काफी बीमार होते थे और इलाज के लिए Ewen Cameron के पास आते थे। कहने की जरुरत नही कि ये प्रयोग उन्ही मरीजों पर किये जाते थे जो आर्थिक व सामाजिक रुप से निम्न वर्ग से आते थे। बाद में इस प्रयोग की खबर लीक होने के बाद इसे बन्द कर दिया गया। परिणामस्वरुप कई लंबे मुकदमे भी चले और कई पीडि़तों को मुआवजा भी देना पड़ा। इनमें से कई पीडि़तों के फिल्म में इन्टरव्यू भी है। प्रयोग के नाम पर उनके साथ जो कुछ हुआ उसने उन्हे हमेशा हमेशा के लिए शारीरिक या मानसिक रुप से अपाहिज बना दिया। प्रयोग भले ही बन्द हो गया लेकिन सीआइए ने अपने निष्कर्ष निकाल लिये। और उसका ‘टार्चर मैनुअल’ तैयार हो गया।
नोमी क्लेम ने यह बहुत सही बात उठायी है कि दुनिया भर में मानवाधिकार संगठन टार्चर के मुद्दे को प्रायः उसके सन्दर्भो से काट कर सिर्फ व्यक्तिगत क्रूरता के रुप में उठाते है। नोमी क्लेम बताती हैं कि ऐसा है नहीं। टार्चर वर्तमान सरकारों की एक नीति है जिसके स्पष्ट आर्थिक सामाजिक राजनीतिक व सांस्कृतिक उद्देश्य हैं। फिल्म में इस पहलू पर ज्यादा जोर नही है। लेकिन किताब में इसे बहुत ही ग्राफिक तरीके से समझाया गया है।
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नोमी क्लेम ने इसे एक रुपक के रुप में लेते हुए 1970 के बाद के पूंजीवाद जिसे हम ‘नवउदारवादी पूंजीवाद’ के रुप में जानते है, के जन्म और विकास का विस्तार से वर्णन किया है। नोमी क्लेम इस दौर के पूंजीवाद को ‘डिजास्टर कैपिटलिज्म'[ Disaster Capitalism] का नाम देती है। उपरोक्त रुपक के माध्यम से नोमी क्लेम बताती हैं कि इस डिजास्टर कैपिटलिज्म की विशेषता है कि यह जनता को शाक थेरेपी देकर ही अस्तित्व में आ सकता है। और दूसरा यह कि इस डिजास्टर कैपिटलिज्म का लोकतंत्र से छत्तीस का आकड़ा है। तीसरी विशेषता इसकी यह है कि यह प्राकृतिक विपदा का अपने हक में बखूबी इस्तेमाल करता है। और जहां प्राकृतिक विपदा नही है वहां यह इसे जानबूझकर पैदा करता है। अमरीका में ‘कैटरीना’ तूफान में जब सभी सरकारी स्कूल तबाह हो गये तो वहां निजी स्कूल खोलने के पूंजीपतियों को अवसर मिल गये। कैटरीना से तबाह हुए जगहों पर सरकारी स्कूल गायब हो गये। यही हाल इण्डोनेशिया में आये तूफान के साथ भी हुआ। तूफान से तट के किनारे गरीबों की वे झोपडि़यां बह गयी जिन्हे बड़े होटलों के मालिक काफी समय से खाली कराने का प्रयास कर रहे थे। तूफान के बाद सरकार के सहयोग से इन जगहों पर बड़े होटलों का कब्जा हो गया।
जहां तक मानव जनित विपदा का उदाहरण है तो इसका सबसे बड़ा उदाहरण ईराक है। ईराक की सुनियोजित तबाही के बाद जब पुनर्निमाण का समय आया तो इसका सबसे बड़ा ठेका अमरीकी कम्पनी ‘हैलीबर्टन’ को मिला।
डिजास्टर कैपिटलिज्म के जनक है नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन। ‘थैचर’ और ‘रीगन’ के ये काफी करीबी थे। थैचर और रीगन ने अपने अपने देशों में जो ‘उदारीकरण’, ‘निजीकरण’ और ‘वैश्वीकरण’ की नीतियां लागू की उनकी प्रेरणा ‘शिकागो स्कूल’ के जनक मिल्टन फ्रीडमैन ही थे। नोमी क्लेम अपनी किताब और इस फिल्म में बहुत प्रखर तरीके से यह बताती हैं कि भले ही अमरीका और ब्रिटेन ने अपना लोकतंत्र को लबादा नही उतारा है लेकिन इस लबादे के नीचे वही तानाशाही काम कर रही है जिसके बिना इस डिजास्टर कैपिटलिज्म की नीतियों को लागू करना संभव नही है।
यह अकारण नही है कि डिजास्टर कैपिटलिज्म का पहला प्रयोग चिली में ‘अलेन्दे’ की चुनी हुई प्रगतिशील सरकार को बलपूर्वक हटा कर वहां की सैन्य तानाशाही के अधीन लागू किया गया। मिल्टन फ्रीडमैन ने इसमें व्यक्तिगत रुचि ली और इसमें सीआइए की भूमिका तो अब जगजाहिर है। पुराने फुटेज के आधार पर चिली के इस प्रयोग को बहुत ही सशक्त तरीके से फिल्म में पेश किया गया है। इसी परम्परा में जब मार्गरेट थैचर ने अपने यहां खनन का निजीकरण करना चाहा तो उन्हें मजदूरों के सशक्त विरोध का सामना करना पड़ा। थैचर ने इस न्यायपूर्ण प्रतिरोध को किस तरह कुचला यह अब तस्वीरों में कैद है। ‘केन लोच’ ने इसपर अपनी बहुत ही मशहूर डाक्यूमेन्ट्री which side are you on बनायी है जो इस ब्लाग के आर्काइव में सुरक्षित हैं।
फिल्म के बीच बीच में नोमी क्लेम के कई लेक्चर की फुटेज का इस्तेमाल किया गया है जिससे डिजास्टर कैपिटलिज्म की समझ और साफ होती है।
जो लोग भी पुंजीवाद के विकल्प के बारे में गंभीरता से सोचते हैं उनके लिए यह एक जरुरी किताब है। यह किताब आप NaomiKlein-TheShockDoctrine डाउनलोड कर सकते हैं। जिन्हे इतनी मोटी किताब पढ़ने में दिक्कत हो वे इस पर आधारित फिल्म यहां देख सकते हैं।

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बुरे वक़्त की गवाही – असद ज़ैदी

हिन्दुस्तानी अवाम के लिए बुरा वक़्त आने वाला है, और उसके बहुत से हिस्सों के लिए तो आ भी चुका है. इसकी अलामतें चारों तरफ़ दिखाई देने लगी हैं. एक अचूक लक्षण हैं वह भयानक ख़ामोशी जो संस्कृति और साहित्य की दुनिया में उतर आई है. जब कोई भी आसन्न ख़तरे का या विपत्ति का ज़िक्र न करे तो समझिये वह ख़तरा या विपत्ति बिल्कुल सर पर है. भारतीय फ़ासिज़्म की गहरी होती शाम में हमारा कलाकार, लेखक और चिंतक — जो मध्यवर्गीय नागरिक भी है — अब निजी सुरक्षा और समझौते के रास्तों की तलाश में है. वह बर्बरों से संवाद और समझौते की जगह बना रहा है, अपने लिए ऐसी तजवीज़ निकालना चाहता है जिसमें उसका सम्मान बना रहे और सुविधा भी. लिहाज़ा वह चाहे-अनचाहे भाषा को, बहस की शब्दावली को, विमर्श की शर्तों को भी बदलने में लगा है.

उसके भीतर एक कशमकश है जिसमें वह अकेला, खुद अपने से छिपकर, अपने ज़मीर से, अब तक की नैतिक उपलब्धि से लड़ रहा है. उसे यह बोध हो गया है कि अन्यायकारी तंत्र अब एक नये युग में प्रवेश कर रहा है, और उसे इस युग से डील करना है — तालमेल बिठाना है. वह आईना देखना बंद कर देता है. जब वह इस तहख़ाने से निकलकर आता है तो वह उसे खुद पता नहीं होता वह कितना नया है और कितना पुराना. अपने नागरिक पतन को वह कभी अतिशय श्रृंगार के तो कभी अराजक हाहाकार के पर्दे में छुपाने लगता है. दरअस्ल अपने से रूठा, अपने से नफ़रत करता यह कलाकार आज के इस संक्रमणकाल की ख़ास पहचान है. जिस फ़ासिज़्म ने उसे अकेला किया है उसी की बाहों में वह शरण ढूँढ़ता है.

मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में को लिखे आधी सदी बीत गई है. यह कुछ इस तरह बीती है कि बहुत से जाने पहचाने चेहरे, जो हमराही से लगते थे, आज अंधेरे में के उस भयानक जुलूस में शामिल हैं. उन्हें पता है कि उसके कंधों पर एक विशेष तरह का ऐतिहासिक, अत्यंत घृणित कार्यभार है. माहिर जल्लाद की तरह उन्हें इस कार्यभार को अंजाम देना है.

क़ायदे से यही समय कलाकारों, खासकर लिखने वाले लोगों के लिए, असली इम्तिहान और सचमुच की उपलब्धियों का समय होना चाहिए. साहित्य की सार्थकता बुरे वक़्तों ही में सामने आती है. बुरे दिन कविता के लिए अच्छे दिन होते हैं. पूरी बीसवीं सदी के अनुभव ने हमें यही सिखाया था. पर लगता है हम किसी ऐतिहासिक दरार में गिर गए हैं, पूरी एक पीढ़ी खोए जा रही है. शायद उससे अगली भी. हो सकता है आगे जाकर इसे साहित्य और कला में ख़ाली समय की तरह ही देखा जाए.

ज़रा गुजरात पर एक नज़र डालें. समकालीन गुजराती साहित्य और उसके ज़्यादातर कर्णधार क्या अपने सूबे को और अपने देशवासियों को फ़ासिज़्म के नरक में धकेले जाने की परियोजना का हिस्सा नहीं बन गए हैं ? उनमें से कितने ख़ुद को शर्मसार महसूस करते हैं? कहीं यह शर्म दर्ज हुई है? फ़ासिज़्म तो है, उससे आँखें मिलाता साहित्य कहाँ है? वह किस चीज़ का गवाह है? उसका अंतःकरण कहाँ है? साहित्य ही कहाँ है? क्या पिछले दस-ग्यारह साल में जो रचा गया उसे वे साहित्य कहते हैं?

समकालीन हिन्दी साहित्य और संस्कृति का हाल इतना बुरा न हो पर अच्छा भी नहीं है. चर्चा और पुरस्कारों को लेकर जितनी तत्परता और तेज़ी से साहित्य और संस्कृति के लोग, जिनमें युवा लोगों की तादाद भी कम नहीं है, बहस में कूद पड़ते हैं और भद्दे ढंग से झगड़ने लगते हैं कि हैरानी होती है. जैसे कि यही उनकी दुनिया हो! इसका दसवाँ हिस्सा दिलचस्पी भी वे देश की सामाजिक – राजनीतिक दुर्गति, बढ़ती असमानता, साम्प्रदायिक नरसंहार, कारपोरेट लूट, भूख, बेरोज़गारी, आसन्न फ़ासिज़्म के ख़तरे, हिन्दुत्ववादी ताक़तों के घृणा अभियान, राजकीय आतंकवाद, सार्वजनिक नियंत्रण के अवसान, कृषि व्यवस्था के विनाश या राजनीति के अपराधीकरण और नागरिक अधिकारों के हरण पर नहीं दिखाते. उन्हें न अपने हमवतनों की आम तकलीफ़ों से कोई मतलब है, न उनकी आँखों के आगे होते लोकतंत्र के क्षरण की चिंता. ऐसा क्यों है, इसका जवाब वही दे सकते हैं.

कुछ लेखकों का आधा जीवन ही पुरस्कार, सम्मान, स्वीकृति, मंच पर बुलावे की तलाश में गुज़र जाता है और कुछ तो हर तरह की सीमाएँ लाँघ जाते हैं. अपना अंतःकरण, अपना आत्मसम्मान और अपना अतीत गिरवी रखने के बाद उनके पास बेहयाई के सिवा कोई मूल्य नहीं बचता और न चरित्र-हनन के सिवा कोई हथियार. वे ईर्ष्या-द्वेष, हिर्सो-हवस से इतना भरे रहते हैं कि उनसे किसी तरह की संजीदा बातचीत या न्यूनतम मानवीय स्पर्श तक की उम्मीद नहीं की जा सकती. जो जितना लालची है उतना ही अपने को वंचित बताता है.

ऐसे लोगों की तादाद में पिछले सालों में ख़तरनाक ढंग से इज़ाफ़ा हुआ है. उनकी फुसफुसाहटें, सिसकियाँ, दहाड़-चिंघाड़ और चीत्कार-फूत्कार सुन-सुनकर जी बेज़ार हो जाता है. नव-उदारवादी पूँजीवाद की छत्रछाया में सम्पन्न होते इस ‘नये हिंदी नवजागरण’ के हाहाकार और इस हंगामी दौर के बेचैन बौपारियों से कहीं भी निजात नहीं. अब कहाँ मुँह ढँककर जा पड़ें! मोमिन ख़ाँ वाली हालत है — “कल जो मस्जिद में जा फँसे ‘मोमिन’ / रात काटी ख़ुदा ख़ुदा करके .”

हर व्यवस्था अपने लेखकों, कलाकारों और अख़बारनवीसों को जानती है. इस तरह की फ़ज़ीहत और अंतर्कलह इस बात का संकेत हैं कि ये बिरादरियाँ ख़ुद को सिस्टम का अंग मानती हैं और उसमें अपनी जगह के लिए लड़ रही हैं — यानी वे व्यवस्था से छिटककर दूर नहीं जा रहीं, उसी में अच्छी तरह समा जाने को व्याकुल हैं. किसी भी निज़ाम के लिए इससे आश्वस्तिकारी चीज़ और क्या हो सकती है! राजनीतिज्ञ, अफ़सर और सांस्कृतिक अहलकार हमेशा लालच की चीख़ और सच्चे प्रतिरोध का फ़र्क जानते हैं. ये लोग विशेषज्ञ हैं. उन्हें मालूम होता है चुनौती कहाँ से है और कहाँ से नहीं. उन्हें निगाहें ही सब कुछ बता देती हैं.

मुझे मालूम है कि लेखन के अपने समय से संबंध को कुछ सरल सूत्रों में नहीं समेटा जा सकता. पर कुछ चीज़ें अपरिवर्तनीय होती हैं. मसलन एक बात यह कि ज़्यादातर लेखन मिटाई जा रही या भुलाई जा सकने वाली चीज़ों के बारे में होता है और तमाम बातें इसी फ़िक्र में दर्ज की जाती हैं कि किसी शक्ल में कुछ बचा रहे, कि शायद इसमें कुछ काम का हो. और कुछ नहीं तो प्रतिरोध या लड़ाई की याद ही बची रहे. दूसरी यह कि स्मृति के सारे कारोबार वर्तमान ही से निकलते हैं और उसी में अटके रहते हैं. निवर्तमान यथार्थ और रचना के रिश्ते की बुनियादी तासीर ये है कि जिस वाक़ये का बयान किया जाता है वह लिखते ही घट चुका होता है. यह वर्तमान को अतीत की तरह देखने और बनाने की कोशिश है. बक़ौल कलीम आजिज़, वो जो शाइरी का सबब हुआ, वो मुआमला भी अजब हुआ / मैं ग़ज़ल सुनाऊँ हूँ इसलिए, कि ज़माना उसको भुला न दे. और तीसरी बात यह कि यहीं पर, इसी जगह साहित्य और हाशिये के रिश्ते का राज़ छिपा है.

दरअसल यह एक ही बात है जिसके ये तीन पहलू थे. वो बात यह है कि साहित्य अपना एक हाशिया बनाता है. इसे हाशिया न कहें तो प्रति-संसार कह लें. बिना इस प्रति-संसार की रचना किए साहित्य दुनिया-जहान के मामलात में प्रभावी ढंग से दख़ल नहीं दे सकता. सामाजिक हस्तक्षेप की यह शर्त है. वह इसी अर्थ में पत्रकारिता से भिन्न है. हालाँकि इस भिन्नता पर बहुत ज़ोर देना भी ठीक नहीं है. मुझे वो लोग बहुत बोर मालूम होते हैं जो अपने कारोबार की विशिष्टता पर, अपने पेशे के ख़ास हुनर पर, ख़ुद अपनी महारत पर बल देते रहते हैं. यह दुर्गुण उनमें आलोचकों और प्राध्यापकों की संगत से और उनके व्यावसायिक शोरोग़ुल को सुनते रहने से आया है.

बहरहाल, जब बड़ी-बड़ी घटनाएँ घट रही होती हैं — जिन्हें देखने और दिखाने में ज्ञान, संचार और अख़बार के राजकीय और ग़ैर-राजकीय तंत्र लगे रहते हैं — तो एक कवि अक्सर और बातों पर भी ध्यान लगाए होता है, उसके कान कुछ और भी सुनते हैं. उसकी ओ बी वैन एक उजाड़ में किसी कीड़े की तरह रेंगती या एक बदरंग चिंदी की तरह पड़ी दिखाई देती है. कलाकार को, लेखक को अपने हाशिए या प्रतिसंसार से बोलना और लड़ना आना चाहिए. क्योंकि अंत में मुक्तिबोध और सआदत हसन मन्टो की बात और गवाही बच रहती है, टाइम्ज़ ऑफ़ इंडिया का सम्पादकीय या लाल क़िले की फ़सील से बोले गये झूठ बचें या न बचें.
http://kabaadkhaana.blogspot.in/ से साभार

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शंबूक का कटा सिर — ओमप्रकाश वाल्मीकि

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अभी अभी यह दुखद खबर मिली कि प्रख्यात दलित साहित्यकार ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि’ का देहरादून में निधन हो गया। ओमप्रकाश वाल्मीकी न सिर्फ अच्छे कहानीकार व उपन्यासकार थे बल्कि अच्छे कवि भी थे। कम ही लोगों को पता होगा कि उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत कविता से की थी। उनका पहला कविता संग्रह ‘सदियों का संताप’ नाम से 1989 में ही आ गया था। हालांकि वह ‘जूठन’ नामक महत्वपूर्ण कृति से पूरे देश में पहचाने गये। ‘कांचा इलैया’ ने ‘जूठन’ का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया।
उन्हें याद करते हुए प्रस्तुत है उनकी एक महत्वपूर्ण कविता-

जब भी मैंने
किसी घने वृक्ष की छाँव में बैठकर
घड़ी भर सुस्ता लेना चाहा
मेरे कानों में
भयानक चीत्काेरें गूँजने लगी
जैसे हर एक टहनी पर
लटकी हो लाखों लाशें
ज़मीन पर पड़ा हो शंबूक का कटा सिर ।

मैं उठकर भागना चाहता हूँ
शंबूक का सिर मेरा रास्ताा रोक लेता है
चीख़-चीख़कर कहता है–
युगों-युगों से पेड़ पर लटका हूँ
बार-बार राम ने मेरी हत्या की है ।

मेरे शब्दस पंख कटे पक्षी की तरह
तड़प उठते हैं–
तुम अकेले नहीं मारे गए तपस्वीष
यहाँ तो हर रोज़ मारे जाते हैं असंख्यव लोग;
जिनकी सिसकियाँ घुटकर रह जाती है
अँधेरे की काली पर्तों में

यहाँ गली-गली में
राम है
शंबूक है
द्रोण है
एकलव्यह है
फिर भी सब ख़ामोश हैं
कहीं कुछ है
जो बंद कमरों से उठते क्रंदन को
बाहर नहीं आने देता
कर देता है
रक्ते से सनी उँगलियों को महिमा-मंडित ।

शंबूक ! तुम्हायरा रक्तम ज़मीन के अंदर
समा गया है जो किसी भी दिन
फूटकर बाहर आएगा
ज्वारलामुखी बनकर !
[‘सदियों का संताप’से ]

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Humble Reasoning Versus Authority by Mitch Emery

Galileo

The causality principle says that every event has a cause, and the same cause must have the same effect, or that the cause must have at least as much reality as the effect. The principle is somewhat akin to the principle of sufficient reason in that whatever causes something to be of a certain sort must itself be of that sort to at least the same degree. For example, whatever makes something hot must itself be hot. If this basic principle holds true, then laws of nature from the time of creation were passed down throughout the entire universe. In other words, all things big and small should be governed by the same set of physical laws. The causality principle goes along with rational thinking and common sense, and yet it’s frequently ignored in theoretical physics.

Popular belief at the time of Galileo put the earth stationary at the center of the universe, while the sun and the planets revolved around it. The earth was considered unique, and physical laws were presumed different on Earth than with celestial bodies. Nevertheless, Galileo refused to believe the earth was special. Galileo defended the Copernican model of the universe in which the sun is central, while the earth and other planets revolve around it. This way of thinking went against the authorities at that time, and Galileo was persecuted for his beliefs. Yet as we now know, Galileo was right!

“In questions of science, the authority of a thousand is not worth the humble reasoning of a single individual.”

Galileo Galilei 1564 – 1642
The idea of a sun-centered universe was a radical change in thinking and not easily accepted. The opposition claimed that if the earth was moving we would feel the motion, and that a falling object would not fall straight downward. In order to overcome these objections, Galileo developed the concept of inertia. Inertia is the resistance of any physical object to a change in its state of motion or rest. But unlike today’s principle of inertia, Galileo believed circular motion was the natural thing. Accordingly, planets were said to move naturally with uniform circular motion. However, this idea was contrary to Kepler’s discovery that planetary orbits are elliptical rather than circular. As a result, Galileo’s concept of inertia was modified by others to include uniform motion only in a straight line. This updated concept of inertia was then codified by Newton as the first law of motion. The first law states that a body at rest tends to remain at rest, and a body in motion tends to move in a straight line at a constant speed unless acted upon by an unbalanced force. Ironically, Galileo’s original concept of inertial motion would reappear 300 years later but in a more sophisticated way.
Special relativity put the speed of light (in free space) at the same value for all observers, while the passage of time slows down as we approach the speed of light. This goes against intuitive thinking, but the authorities claim that it’s been proven with highly accurate atomic clocks. But can we not assume that only the function of a clock slows down due to the clock’s motion, while the passage of time remains unchanged? The reality of ‘time’ has no physical properties. How can a physical phenomenon, such as motion, have any effect on something physically non-existent? Einstein’s theory also allows two different clocks to each tick more slowly than the other. These things are only the beginning of more strange things to come.
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According to Einstein’s theory of general relativity, planets move about through curved space-time while their orbits are described as inertial motions. Gravity is not considered a force; it is only a fictitious force. If Einstein’s theory is true, then Galileo’s concept of circular inertia was at least partially correct and thus a precursor to general relativity theory. This is an example of how old ideas are sometimes reinvented and brought back in a more sophisticated way. Nevertheless, Einstein’s version of gravity is not without problems.

In general relativity, we assume that space-time is curved by the presence of matter. Large bodies, like the sun or the planets, cause space-time to curve and result in the effects of gravity. However, a mechanism by which this happens has yet to be found. Furthermore, it was discovered that galaxies spin so fast that they should fly apart, and yet they don’t. They appear to need more gravity in order to hold themselves together, but more gravity requires more matter. Hence, the idea of dark matter was conceived. Dark matter cannot be seen or physically detected, but it fills the void and satisfies the need for more gravity. On the other hand imagine what Galileo would think. It’s quite possible that we simply don’t understand gravity.
Modern physics only gets stranger in the microscopic world of quantum mechanics. Quantum theory is indeed highly successful from a mathematical point of view, but philosophically speaking it’s a disaster. Causality and rational thinking are totally dismissed, while particles seemingly perform acts of magic. Experiments are conducted where single photons are fired at a barrier with two small slits through it. Authorities claim that individual photons pass simultaneously through both slits and then interfere with themselves. And there’s more! The arrow of time is said to flow backwards with the propagation of light so as to allow certain effects to happen prior to their cause. Of course these ideas are not absolute truths. They are only the best interpretations based on prevailing assumptions and existing theories. Experiments also show that certain particles have the ability to communicate instantaneously across the universe. Yet any speed faster than light violates special relativity theory. Thus we can be certain of at least one thing–something is wrong in theoretical physics.
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http://www.worldnpa.org/site/ से साभार

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राजेन्द्र यादव: एक हंस अकेला

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‘राजेन्द्र यादव’ हिन्दी साहित्य की अकेली ऐसी शख्सियत हैं, जिनसे आप प्यार और नफरत एक साथ कर सकते हैं। उनका एक संपादकीय आपके विचारों और आपकी चिन्ताओं के साथ मजबूती से खड़ा नजर आयेगा तो अगले माह की संपादकीय आपको या तो निराश कर देगी या आपको उनके प्रति गुस्से से भर देगी। इस रुप में देखे तो राजेन्द्र यादव हिन्दी साहित्य के सबसे अविश्वस्त लेखक हैं। यही उनकी कमजोरी है और यही उनकी ताकत है।
यह बात एकदम सही है कि राजेन्द्र यादव ने कभी अपने विचारों से समझौता नही किया। जो उन्हे ठीक लगा वही लिखा।
हिन्दी साहित्य में हमेशा से ही अमूर्त चिन्ताएं हावी रही है। कभी शब्द को बचाने की लड़ाई लड़ी जाती है तो कभी संवेदना के खत्म होने का रुदन होता है तो कभी व्यक्ति अपने अस्तित्व को लेकर ही उलझन में होता है। ज्यादा ठोस चिन्ताएं हुई तो मामला बाजार तक आ जाता है। बाजार सभी चीजों को लील रहा है इससे कैसे निपटा जाये। इस घटाटोप में अपने संपादकीय और अपने संपादकीय चयन के माध्यम से राजेन्द्र यादव ने साहित्य में ठोस चिन्ताएं और ठोस सामाजिक समस्याएं सामने लायी। ‘दलित विमर्श’ और ‘नारी विमर्श’ इसी का नतीजा था। इसके अलावा राजेन्द्र यादव उन गिने चुने साहित्कारों में से हैं जिन्हे भारतीय समाज के संरचनात्मक संकट का गहरा अहसास था। और इस पर उन्होने कई बार बहुत शिद्दत से लिखा। आश्चर्य है कि 84 की उम्र में भी उन्हे देश दुनिया की हलचलों की अच्छी जानकारी थी। नक्सलवाद को वह जिस तरह से देख रहे थे वह दृष्टि हिन्दी साहित्य में विरल है।
उनका दूसरा परिचय ‘नयी कहानी’ आन्दोलन के प्रमुख कहानीकार के रुप में है। उनकी अधिकांश श्रेष्ठ कहानियां या उपन्यास इसी दौर के हैं। उनकी अधिकांश रचनायें जहां एक ओर तत्कालीन नव मध्य वर्ग की चेतना के अन्तरविरोधों को बहुत प्रामाणिक तरीके से सामने लाती हैं, वही इन अन्तरविरोधों में दम भी तोड़ देती है। ‘जहां लक्ष्मी कैद है’ इसका श्रेष्ठ उदाहरण है।
इसलिए मुझे लगता है कि कहानीकार राजेन्द्र यादव पर संपादक राजेन्द्र यादव भारी है। भविष्य में भी मुझे लगता है कि उन्हे कहानीकार से ज्यादा एक संपादक के रुप में याद रखा जायेगा।
राजेन्द्र यादव ने अपनी संपादकीय में कुछ मूर्खतापूर्ण गलतियां भी की हैं। उत्तराखंड आन्दोलन के दौरान उन्होने मुलायम सरकार का पक्ष लिया और 2 अक्टूबर के दिन दिल्ली में प्रदर्शन के लिए जा रहे हजारों प्रदर्शनकारियों को आतंकवादी तक कह डाला। इस प्रस्तावित प्रदर्शन को रोकने के लिए तत्कालीन मुलायम सरकार ने मुजफ्फरनगर के नजदीक उन प्रदर्शनकारियों पर अन्धाधुन्ध गोलियां चलायी और कई लोगो को अपनी जान गवानी पड़ी। इसके अलावा कई महिलाओं के साथ बलात्कार भी किया गया। इस घटना ने आग में घी का काम किया। आन्दोलन और तेज हो गया।
उत्तराखंड बनने के बाद भी राजेन्द्र यादव ने अपने इस गलत स्टैण्ड के लिए और प्रदर्शनकारियों को आतंकवादी कहने के लिए कभी माफी नही मांगी। इसलिए उत्तराखंड के ज्यादातर साहित्यकार हंस और राजेन्द्र यादव का आज भी बहिस्कार करते हैं।
‘नारी विमर्श’ पर उनकी चिन्ताएं और उनके संपादकीय चयन कभी भी मध्यवर्ग की सीमाओं को लांघ नही पाये। और यहां भी उनका जोर इसके सिर्फ एक आयाम यानी इसके ‘दैहिक आयाम’ पर ही रहा। ‘होना सोना एक खूबसूरत औरत के साथ’ जैसे लेख उनकी भीतर की कुंठा और इस विषय पर उनकी विकृत सोच को ही सामने लाते हैं।
‘दलित आन्दोलन’ और ‘दलित साहित्य’ को भी उन्होने कभी भी वर्गीय नजरिये से नही देखा। इस तरह से कहे तो हंस और राजेन्द्र यादव दलितों के बीच के मध्य वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करते हैं।
लेकिन जहां हिन्दी साहित्य का बड़ा हिस्सा ‘पितृसत्ता’ और ‘ब्राहमणवाद’ में जकड़ा हो, वहां ये प्रयास भी काफी मायने रखते हैं।
अंत में एक शब्द में कहें तो राजेन्द्र यादव का व्यक्तित्व और उनके विचार ‘अन्तरविरोधों का एक गुच्छा’ [Bundle of Contradictions] हैं। लेकिन ये अन्तरविरोध गतिमान हैं मृत नहीं। यही कारण है कि अपने अन्तिम समय तक हम पाठकों के लिए राजेन्द्र यादव प्रांसगिक और ‘जीवित’ बने रहे।

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‘Stealing a Nation’

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‘कभी कभी एक त्रासदी या एक अपराध यह बताने के लिए पर्याप्त होते हैं कि लोकतंत्र के नकाब के पीछे पूरा सिस्टम काम कैसे करता है और यह समझने में मदद मिलती है कि शक्तिशाली लोग पूरी दुनिया को कैसे अपने हित में हांक रहे हैं, तथा यह भी समझ में आता है कि सरकारें झूठ कैसे बोलती हैं। ईराक तथा इसी तरह के दूसरे अन्य देशों की विपदा को समझने और साम्राज्यवाद के खून और आंसुओं से लिखे इतिहास को समझने के लिए ज्यादा दूर जाने की जरुरत नही है, इसे दियागो गार्सिया के इतिहास से समझा जा सकता है।’

[‘Stealing a Nation’ नामक डाक्यूमेन्टरी से ]

‘जान पिलजर'[John Pilger] की यह मशहूर डाक्यूमेन्टरी ‘Stealing a Nation’ बताती है कि कैसे ब्रिटेन और अमरीका ने मिलकर दियागो गार्सिया नामक द्वीप से उसकी पूरी की पूरी जनसंख्या को निकाल बाहर किया और इस द्वीप पर अमरीका ने अपना दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य अड्डा बना लिया। इसी सैन्य अड्डे से ईराक और अफगानिस्तान पर बम बरसाये जाते रहे हैं।
‘दियागो गार्सिया’ हिन्द महासागर में एशिया और अफ्रीका के ठीक बीचों बीच स्थित है। 1814 में ब्रिटेन ने इसे फ्रांस से जीता था। तब से ही यह ब्रिटेन की कालोनी बना रहा। 1960 में अमरीका के साथ एक गुप्त समझौते के तहत इसे लीज पर अमरीका को दे दिया गया। 1960 से 1973 तक यहां के करीब 2000 बाशिन्दों को तरह तरह से धमकाया जाता रहा कि वे खुद ही यहां से चले जाये। यहां के लोग जिन्हे ‘चागोस’ कहा जाता है, वे पिछले 6-7 पीढि़यों से यही रहते आये है। यहां उनकी पूरी बस्तियां, मार्केट, अस्पताल आदि थे। यही उनका देश था। वे कहां जाते। उन्हे धमकाने के लिए पहले उनके पालतू कुत्तों को मार डाला गया। यहां की अर्थव्यवस्था में कुत्तों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। वे समुद्र में डुबकी लगाकर अपने मालिकों के लिए मछलियां पकड़ते थे।
अंततः जब उन्होने द्वीप छोड़ने से इंकार कर दिया तो दियागो गार्सिया के समस्त बाशिन्दों को 1973 में जबर्दस्ती एक जहाज पर लाद कर वहां से 1000 मील दूर मारीशस में धकेल दिया गया। उन्हें अपने साथ कोई सामान भी नही ले जाने दिया गया।
इस तरह अमरीेका ने एक पूरी कौम को ही उसके देश से बेदखल कर दिया। आज इस द्वीप पर 4000 अमरीकी सैनिक और परमाणु बमोें से लैस कई बमवर्षक जहाज हैं। उधर मारीशस में दियागो गार्सिया के बाशिन्दे अभी भी नरक की जिन्दगी जी रहे हैं। कई लोग अपने गम से परेशान होकर आत्महत्या कर रहे है। लेकिन उन्होंने अपनी लड़ाई नही छोड़ी है। आज भी उन्हेे उम्मीद है कि एक दिन वे अपने देश जरुर लौटेंगे। कई कानूनी लड़ाइयों के बाद अन्ततः ब्रिटेन के हाईकोर्ट ने 2000 में अपना एतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि दियागो गार्सिया के लोगो की बेदखली गैरकानूनी है और उन्हे अपने देश लौटने का हक है और उन्हे अपने देश वापस भेजा जाय। इस पर ब्रिटेन ने अजीब तर्क देते हुए कहा कि हम दियागो गासिर्या के लोगो का ख्याल रखते हुए उन्हे वापस वहां नही भेज सकते क्योकि ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के चलते कभी भी दियागो गासिर्या द्वीप डूब सकता है और उनकी जान जा सकती है। जबकि पूरी दुनिया को पता है कि वहा 4000 अमरीकी सैनिक अपनी पूरी दुनिया बना कर रह रहे है।
चागोस वासी अपने देश दियागो गार्सिया लौट पायेंगे या नही यह इस पर निर्भर करता है कि साम्राज्यवाद खत्म होगा या नहीं।
बहरहाल यह महत्वपूर्ण व साहसी डाक्यूमेन्टरी आप यहां देख सकते हैं।

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‘Le Capital’ – Greed is God

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2008-09 की मंदी के बाद हेज फण्ड, डेरिवेटिव, स्टाक मार्केट, सी ई ओ, रेटिंग ऐजेन्सी, टाक्सिक एसेट, अधिग्रहण, इनवेस्टमेन्ट जैसे शब्द अर्थशास्त्र न जानने वाले लोगों के शब्दकोश का भी हिस्सा बनने लगे। इन चीजों के इर्द गिर्द कई अच्छी डाक्यूमेन्टरी भी बनी। लेकिन इन चीजों के इर्द गिर्द किसी फिल्म की कल्पना करना मुश्किल था। अपनी ‘जेड’ और ‘मिसिंग’ जैसी राजनीतिक फिल्मों के लिए विख्यात डायरेक्टर ‘कोस्टा गावरास’ ने पिछले वर्ष इसी विषय पर Le Capital नाम से बहुत ही सफल फिल्म बनायी है। आश्चर्य है कि ऐसे विषय पर बनी फिल्म की गति जेम्स बान्ड सरीखी फिल्मों जितनी ही तेज है।
फिल्म की कहानी फ्रांस स्थित बैंक ‘फिनिक्स’ के सी ई ओ ‘मार्क’ के इर्द गिर्द घूमती है। मार्क बेहद महत्वाकांक्षी है। और उसका एकमात्र उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना है। अपनी पत्नी को वह ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने का तर्क देते हुए कहता है कि ज्यादा पैसा मतलब ज्यादा सम्मान। सच है पंूजीवाद में हर चीज उलट जाती है। यहां सम्मान व्यक्ति का नही पैसे का है। अपनी महत्वाकांक्षा के चलते ही वह अमरीका स्थित एक ‘हेज फण्ड’ से गुप्त सौदा करता है और बैंक को कृत्रिम मुनाफे में दिखाने और तत्पश्चात बैंक के शेयर को चढ़ाने के लिए वह बैंक से एक ही झटके में 7000 लोगों को निकाल देता है। 2007-08 की मंदी के लिए इस तरह की चीजें भी जिम्मेदार रही है।
फिल्म में एक पत्रकार मार्क को अमीरों का राबिन हुड कहती है जो गरीबों को चूसकर अमीरों यानी अपने बैंक के शेयर होल्डरों की जेब भरता है।
फिल्म इस बहाने से इस वर्ग की नैतिकता और उसके दोहरे चरित्र को भी परत दर परत उधाड़ने में कामयाब होती है। एक जगह मार्क कहता है कि बिजनेस की भी वही नैतिकता है जो युद्ध की होती है। यानी यहां तुम यदि दूसरे को धोखा नही दोगे तो दूसरा तुम्हे धोखा देने में कामयाब हो जायेगा। यदि तुम गोली नही चलाओगे तो सामने वाला तुम्हे गोली मार देगा। फिल्म के सभी पात्र एक दूसरे को धोखा देते हुए ही दिखायी देते है।
सच है पूंजीवाद के लिए लालच और मुनाफा ही उसका भगवान है। कोस्ता गावरास ने अपनी फिल्म
ला कैपिटल में इसे बहुत सधे तरीके से रखा है।

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चोरी भी सीनाजोरी भी

पूंजीपतियों,बैंकों के बड़े अधिकारियों,नौकरशाहों और नेताओं के बीच की मिलीभगत जगजाहिर है। लेकिन भारत में इस पर शायद ही कोई साहित्य हो। भारत में इस गठजोड़ पर सबसे उम्दा किताब ‘दी पालिस्टर प्रिन्स’ है। लेकिन यह किसी भारतीय ने नही लिखी है। बल्कि एक आस्ट्रेलिया पत्रकार ने लिखी है। शुरुआत में इसे बैन कर दिया गया था।
तहलका के पिछले अंक में ‘राहुल कोटियाल’ की एक स्टोरी छपी है। कायनेटिक समूह के मालिकों ने बैंक के अधिकारियों और नेताओं से मिलीभगत के माध्यम से कैसे देश को करोड़ों का चूना लगाया है, इसे राहुल ने परत दर परत उधाड़ा है। इसे हम तहलका से साभार ले रहे है।

उत्तराखंड के टिहरी जिले का एक गांव है सिंजल. बीते दिनों आई आपदा में यहां के कई घर जमींदोज हो गए. हरी सिंह इस गांव के उन लोगों में से हैं जिन्होंने आपदा में अपना सब कुछ खो दिया. लगभग एक महीने बाद सरकार ने आपदा राहत की रकम बांटी तो हरी सिंह को भी दो लाख रुपये का चेक मिला. उन्होंने यह चेक बैंक की स्थानीय शाखा में जमा करवाया. कुछ दिनों बाद जब वे पैसे निकालने बैंक पहुंचे तो पता चला कि बैंक ने इनमें से 33 हजार रुपये काट लिए हैं. पूछताछ करने पर हरी सिंह को बताया गया कि उन्होंने कुछ साल पहले बैंक से कर्ज लिया था इसलिए बैंक ने बकाया राशि राहत के लिए उन्हें मिली रकम में से काट ली है. इस तरह बैंक ने बेघर हो चुके हरी सिंह से उसके घर बनाने के पैसे वसूल कर अपना नुकसान बचा लिया.
हरी सिंह की यह कहानी सिर्फ उन्हीं तक सीमित नहीं है. देश में ऐसी कई कहानियां हैं जहा बैंक आसानी से उन लोगों से अपना बकाया वसूल लेते हैं जो इसके बाद आत्महत्या करने तक को मजबूर हो जाते हैं. लेकिन वहीं दूसरी तरफ विजय माल्या जैसे अरबपति भी हैं जो बैंक से कर्ज लेते हैं, कंपनी को डुबाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते और ऐसा हो जाने के बाद अपने हाथ खड़े कर देते हैं. ऐसे लोग इसके बाद भी अरबपति ही रहते हैं, लेकिन बैंक फिर भी उन्हें दिया हुआ कर्ज नहीं वसूल पाते. वे हजारों करोड़ रुपये का नुकसान खुद ही झेल जाते है. सरकारी बैंकों के इस पैसे के डूब जाने का बोझ अंततः आम जनता के ऊपर पड़ता है. बैंकों के करोड़ों रुपये गायब कर जाने की ऐसी ही एक कहानी देश की प्रतिष्ठित कंपनी काइनेटिक के मालिक अरुण फिरोदिया और उनकी बेटी सुलज्जा फिरोदिया मोटवानी की भी है.
इस कहानी की शुरुआत होती है 80 के दशक से. भारत सरकार उदारवाद के नाम पर विदेशी कंपनियों के लिए सारे दरवाजे खोलने की तैयारी में थी. ‘काइनेटिक इंजीनियरिंग लिमिटेड’ नाम की एक कंपनी उस दौर में गाड़ियों के पुर्जे बनाया करती थी. सन 84 में इस कंपनी ने जापान की ‘होंडा मोटर कंपनी’ के साथ मिलकर ‘काइनेटिक होंडा’ नाम से नई कंपनी स्थापित की. इस कंपनी ने दुपहिया वाहन बनाना शुरू किए. भारत दुपहिया वाहनों के क्षेत्र में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है. इसका एक कारण यह भी है कि यहां विकसित देशों की तरह दुपहिया सिर्फ शौक की नहीं बल्कि जरूरत और मजबूरी की भी सवारी है. काइनेटिक होंडा ने जल्द ही बाजार में अपनी मजबूत पकड़ बना ली. एक समय ऐसा भी आया जब दुपहिया वाहनों के इस विशाल बाजार के 12 फीसदी से भी ज्यादा पर सिर्फ इसी कंपनी का कब्जा हो गया. काइनेटिक के मालिकों के सपने अब और बड़े होने लगे. इन सपनों को पूरा करने लिए उन्होंने दुपहिया वाहनों के निर्माण के अलावा कई छोटी-छोटी फाइनैंस कंपनियां खोलना भी शुरू किया. 30 अगस्त, 1990 को उन्होंने मुंबई की एक कंपनी ‘ट्वेंटीथ सेंचुरी फाइनैंस कॉरपोरेशन लिमिटेड’ और ‘काइनेटिक इंजीनियरिंग लिमिटेड’ को मिलाकर ‘ट्वेंटीथ सेंचुरी काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड’ का गठन किया. इसके साथ ही ‘इंटीग्रेटेड काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड’ और ‘काइनेटिक कैपिटल फाइनैंस लिमिटेड’ जैसी कंपनियां भी स्थापित की गईं. इन सभी कंपनियों का काम काइनेटिक की गाड़ियों के लिए खरीददार तैयार करना और उनको लोन देना था.
अरुण फिरोदिया, उनकी बेटी सुलज्जा फिरोदिया और उनकी कंपनी को कई बैंकों द्वारा करोड़ों रुपयों का ‘विलफुल डिफॉल्टर घोषित किया गया था
90 के दशक के अंत तक काइनेटिक होंडा देश की एक प्रतिष्ठित कंपनी बन चुकी थी. देश भर में हजारों लोग इसमें काम कर रहे थे. इन्हीं में से एक थे संदीप कपूर. संदीप उत्तर भारत के रीजनल हेड (सेल्स) के तौर पर काइनेटिक में काम कर रहे थे. 2004 में कंपनी की मालिक सुलज्जा फिरोदिया ने संदीप को बिना कोई नोटिस दिए ही नौकरी से निकाल दिया. संदीप बताते हैं, ‘मेरी पूरी नौकरी के दौरान मुझ पर कोई आरोप नहीं थे. लेकिन 2004 में अचानक ही कंपनी की मालिक सुलज्जा फिरोदिया ने मुझे 15 दिन की छुट्टी पर जाने को कहा. इसके बाद मुझे हेड ऑफिस में किसी नए प्रोजेक्ट पर भेजने को कहा गया था. मैं जब वापस आया तो मुझे कहा गया कि आपको अब नौकरी पर नहीं रख सकते.’
तहलका ने जब इस बारे में कंपनी की मालिक सुलज्जा फिरोदिया से बात की तो उनका कहना था, ‘संदीप कपूर पर यह आरोप था कि वे लोगों की नियुक्तियों के बदले पैसे की मांग कर रहे थे.’ लेकिन संदीप को कभी भी उन पर लगे आरोपों के संबंध में कोई लिखित नोटिस नहीं दिया गया. वे बताते हैं, ‘मुझे बस यह कहा गया कि तुम अपना इस्तीफा दे दो.’ कई कोशिशों के बाद भी जब संदीप को नौकरी पर नहीं रखा गया तो उन्होंने कोर्ट जाने का फैसला किया. कोर्ट से उन्हें न्याय तो मिला लेकिन इसमें कई साल लग गए. 2012 में जाकर कोर्ट ने कंपनी को निर्देश दिया कि संदीप को बिना नोटिस के निकाले जाने के एवज में तीन महीने की पगार और अन्य भत्ते दिए जाएं. इसके बाद संदीप को एक लाख 35 हजार रुपये का भुगतान हुआ.
काइनेटिक के साथ इतने सालों की अपनी लड़ाई के दौरान संदीप को कंपनी की कई गड़बड़ियां पता चलीं. अपना बकाया वसूलने के लिए जब संदीप हरसंभव कोशिश कर रहे थे उस दौरान उन्हें पता लगा कि कंपनी को सिर्फ उनका ही नहीं बल्कि कई बैंकों का भी बकाया चुकाना है. संदीप ने ‘क्रेडिट इनफॉर्मेशन ब्यूरो (इंडिया) लिमिटेड’ (सिबिल) से फिरोदिया की कंपनियों की जानकारी निकाली. सिबिल में भारतीय वित्तीय प्रणाली से संबंधित लगभग सभी महत्वपूर्ण सूचनाएं दर्ज होती हैं. यहां से मिली जानकारी ने संदीप को भी हैरत में डाल दिया. अरुण फिरोदिया, उनकी बेटी सुलज्जा फिरोदिया और उनकी कंपनी को कई बैंकों द्वारा करोड़ों रुपयों का ‘विलफुल डिफॉल्टर’ घोषित किया गया था. कई सालों से इनका नाम लगातार उन लोगों की सूची में दर्ज था जिन्होंने जान-बूझकर बैंकों का पैसा वापस नहीं किया था. इस जानकारी के बाद संदीप ने भारत सरकार के कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय से भी फिरोदिया परिवार की कंपनियों से जुड़ी जानकारियां मांगीं. धीरे-धीरे संदीप को पता लगा कि फिरोदिया परिवार ने कुल 200 करोड़ रु से भी ज्यादा का घपला किया है. इससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह थी कि इतने बड़े घपले के बाद भी ये लोग न सिर्फ बेदाग घूम रहे थे बल्कि भारत के सर्वोच्च संस्थानों में सदस्यता और सम्मान भी पा रहे थे.
संदीप कपूर ने जब फिरोदिया परिवार और उनकी कंपनी के घोटालों से संबंधित पर्याप्त जानकारियां हासिल कर लीं तो उन्होंने कई विभागों और मंत्रालयों को इस बारे में सूचित किया. भारतीय रिजर्व बैंक, कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय, सीबीआई, केंद्रीय सतर्कता आयोग, प्रधानमंत्री कार्यालय और राष्ट्रपति तक को संदीप ने फिरोदिया परिवार के घोटालों से अवगत कराया. कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय के ‘गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय’ ने इस शिकायत पत्र का संज्ञान भी लिया. विभाग की संयुक्त निदेशक ऋचा कुकरेजा ने इस शिकायत पत्र को 19 सितंबर, 2012 को आगे बढ़ाते हुए इस पर कार्रवाई की संस्तुति की. मगर यह कार्रवाई ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाई. ऐसे ही अन्य विभागों को भेजी गई शिकायतों का भी कोई खास असर नहीं हुआ. लेकिन केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ने इस मामले को गंभीरता से लिया. जितने भी बैंकों का रिश्ता इस घोटाले से था, उन सभी को सीवीसी ने मामले की जांच के आदेश दिए. कई बैंकों के मुख्य सतर्कता अधिकारियों द्वारा इस मामले की जांच की गई. इन्हीं में से एक सतर्कता अधिकारी ने जांच रिपोर्ट अपने बैंक को सौंपने के साथ ही सीवीसी की एक सहायक संस्था को भी एक रिपोर्ट भेजी. इसकी प्रतिलिपि तहलका के पास मौजूद है. इस रिपोर्ट के साथ ही जब तहलका ने अन्य स्रोतों से जुटाए गए दस्तावेजों की पड़ताल की तो परत-दर-परत फिरोदिया परिवार के पूरे घोटाले का खुलासा होता गया. इस घोटाले के संबंध में इलाहाबाद बैंक ने इसी साल 24 मई को पुणे के विश्रामबाग पुलिस थाने में प्रथम सूचना रिपोर्ट भी दर्ज करवाई है. इस रिपोर्ट में काइनेटिक कंपनी के मालिक अरुण फिरोदिया और सुलज्जा फिरोदिया पर भारतीय दंड संहिता की धारा 403, 406, 417, 420, 421, 422 और 34 के तहत आपराधिक मुकदमा दर्ज करने की मांग की गई है. इसकी प्रतिलिपि भी तहलका के पास मौजूद है.
बैंकों के लिए यह मुमकिन नहीं था कि वे 150 करोड़ की विशाल धनराशि पूरे देश में फैले लगभग 50-60 हजार ग्राहकों से वसूलने के बारे में सोच भी सकतेअब बात करते हैं कि कैसे यह पूरा घोटाला किया गया.
दुपहिया वाहनों के बाजार में काइनेटिक का नाम स्थापित होने के बाद जैसा कि पहले बताया जा चुका है, फिरोदिया परिवार के लोग छोटी-छोटी फाइनेंस कंपनियां खोलने लगे थे. चूंकि इन कंपनियों के साथ काइनेटिक का नाम जुड़ा था, इसलिए ये सभी कंपनियां भी कम समय में ही अच्छा प्रदर्शन करने लगीं. 90 के दशक के अंत में अरुण और सुलज्जा फिरोदिया ने इन सभी छोटी-छोटी फाइनैंस कंपनियों को एक करना शुरू किया.
फिरोदिया परिवार का ऐसा करने के पीछे क्या कारण था इसका खुलासा सतर्कता अधिकारी की जांच रिपोर्ट में किया गया है. रिपोर्ट बताती है कि इन छोटी-छोटी कंपनियों के कई मालिक थे. भले ही इन सभी का नियंत्रण पूरी तरह से फिरोदिया परिवार के हाथ में था लेकिन अब वे कुछ बड़ा करने की फिराक में थे इसलिए उन्हें एक बड़ी कंपनी चाहिए थी.
14 मार्च, 2001 को इन छोटी कंपनियों के विलय के बाद ‘काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड’ नाम की एक बड़ी फाइनैंस कंपनी स्थापित हुई. अरुण फिरोदिया इस कंपनी के संस्थापक और चेयरमैन बने तो सुलज्जा फिरोदिया संस्थापक के साथ ही प्रबंध निदेशक बनीं. काइनेटिक के दुपहिया वाहनों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए अब इस अकेली फाइनैंस कंपनी को भी भारी पूंजी की जरूरत थी. इस जरूरत को पूरा करने के लिए कंपनी के मालिकों ने अलग-अलग बैंकों से संपर्क किया. काइनेटिक अब तक एक ऐसा नाम बन चुका था कि हर बैंक इससे जुड़ने को तैयार था. कई बैंक इसे लोन देने के लिए सामने आए. 20 दिसंबर, 2001 को कुल 21 बैंकों के एक समूह से काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड का अनुबंध हो गया. यह अनुबंध कुल 144.56 करोड़ रुपये की धनराशि के लिए हुआ था और इस समूह का नेतृत्व भारतीय स्टेट बैंक कर रहा था. इस लोन के अलावा काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड ने कुछ ही समय बाद अन्य बैंकों से भी लगभग 50 करोड़ रुपये लिए. ये रुपए नॉन कनवर्टिबल डिबेंचर्स जारी करके लिए गए थे.

सतर्कता अधिकारी की रिपोर्ट और इलाहाबाद बैंक द्वारा की गई एफआईआर यह भी बताती है कि फिरोदिया परिवार ने इतना बड़ा लोन मात्र 10 करोड़ रुपये की संपत्ति गिरवी रखकर और अपनी व्यक्तिगत गारंटी देकर ही हासिल कर लिया था. जाहिर है इतने बड़े उद्योगपतियों की व्यक्तिगत गारंटी पर कोई भी बैंक लोन देने को तैयार हो जाता. काइनेटिक का नाम भी इतना बड़ा था कि हर बैंक इस समूह का हिस्सा बनने को उत्सुक था. लेकिन रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि यह लोन देते वक्त बैंकों के समूह ने भारी गलती की. लोन की कुल धनराशि की तुलना में गिरवी रखी गई संपत्ति सिर्फ सात प्रतिशत थी. हालांकि लोन देते वक्त यह भी तय हुआ कि इससे जो भी संपत्ति काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड अर्जित करेगी उसे बेचकर भी बैंक अपना पैसा वसूल सकते हैं. लेकिन इस शर्त का धरातल पर उतर पाना लगभग असंभव था. काइनेटिक फाइनैंस बैंक के इस पैसे से अपने ग्राहकों को लोन देती थी. यह लोन ज्यादा से ज्यादा 35 से 40 हजार रुपये का ही था. इस तरह से देखा जाए तो बैंकों से लिए गए पैसों से काइनेटिक ने लगभग 50 हजार से भी ज्यादा ग्राहकों को लोन दिया होगा. ऐसे में बैंकों के लिए यह मुमकिन नहीं था कि वे 150 करोड़ रुपये की विशाल धनराशि पूरे देश में फैले लगभग 50-60 हजार ग्राहकों से वसूलने के बारे में सोच भी सकते.
बहरहाल, लोन देने के बाद भी सभी बैंक बेफिक्र थे. काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड और बैंकों के समूह की नियमित अंतराल पर बैठकें भी हो रही थीं. तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि ये सभी बैठकें बड़े-बड़े पांच सितारा होटलों में बड़ी धूम-धाम से हुआ करती थीं. अरुण और सुलज्जा फिरोदिया बैंकों के प्रतिनिधियों को खुश रखने का हर संभव प्रयत्न कर रहे थे. इन बैठकों के लिखित विवरणों को जांचने के बाद जांच अधिकारी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ‘काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड के उज्जवल भविष्य के कई सपने बैंकों को दिखाए जाते थे और कभी भी किसी बैंक ने इस पर सवाल नहीं किए. इस तरह से फिरोदिया परिवार ने सभी बैंकों को पूरी तरह अपने विश्वास में ले लिया था.’
बैंकों के विश्वास का इस परिवार ने पूरा फायदा उठाया. एफआईआर और जांच रिपोर्ट के अनुसार कंपनी मालिकों ने कुछ समय बाद बैंकों के समूह का नेतृत्व कर रहे भारतीय स्टेट बैंक के प्रतिनिधियों से मुलाकात की. इस मुलाकात में उन्होंने लोन के बदले दी गई अपनी व्यक्तिगत गारंटी को हटाए जाने का अनुरोध किया. भारतीय स्टेट बैंक इसके लिए तैयार भी हो गया. बाद में इसे आधार बनाकर फिरोदिया परिवार ने अन्य बैंकों से भी अपनी व्यक्तिगत गारंटी निरस्त करवा दी. हालांकि तहलका से बात करते हुए सुलज्जा फिरोदिया बताती हैं, ‘हमने कभी भी बैंकों को अपनी व्यक्तिगत गारंटी नहीं दी थी.’ लेकिन तहलका को मिली एफआईआर में स्पष्ट लिखा है कि ‘अरुण फिरोदिया और सुलज्जा फिरोदिया की व्यक्तिगत गारंटी पत्र संख्या WZ/ADV/MF-90/464 द्वारा निरस्त कर दी गई थी.’ उस वक्त सभी बैंकों को फिरोदिया परिवार पर पूरा भरोसा था और जब समूह का नेतृत्व कर रहे स्टेट बैंक ने ही उनकी व्यक्तिगत गारंटी हटा दी तो बाकी बैंक भी इसके लिए तैयार हो गए. कंपनी के मालिकों को बस इसी वक्त का इंतजार था.
जिनकी व्यक्तिगत गारंटी के चलते कभी इस कंपनी को लोन मिला और यह स्थापित हुई थी, उन्हीं अरुण और सुलज्जा फिरोदिया ने इस कंपनी से इस्तीफा दे दिया
अपनी व्यक्तिगत गारंटी हट जाने के बाद अरुण और सुलज्जा फिरोदिया ने बैंकों की बैठकों में शामिल होना बंद कर दिया. इसके बाद से जो काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड अब तक बहुत अच्छा प्रदर्शिन कर रही थी वह अचानक ही घाटे में जाने लगी. जांच रिपोर्ट के अनुसार अगले ही वित्तीय वर्ष में कंपनी ने अपना कुल मुनाफा सिर्फ 6.5 करोड़ रुपये दर्शाया जो पिछले वित्तीय वर्ष में 56 करोड़ रुपये था. फाइनैंस कंपनी के जरिये अपने वाहनों के लिए लोन उपलब्ध कराने का जो मॉडल भारत में अन्य सभी कंपनियों पर खरा उतर रहा था वही अचानक काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड के लिए बेकार हो गया. इस बारे में पूछे जाने पर सुलज्जा फिरोदिया कहती हैं, ‘जो हुआ वह एक बिजनेस मॉडल का फेल होना था. इसके लिए हम जिम्मेदार नहीं हैं. बैंकों को भी लोन देते वक्त यह एहसास होता है कि बिजनेस में रिस्क भी होता है.’ सभी बैंकों को अपने पैसे डूबने का एहसास होने लगा था. अगली ही बैठक में बैंकों ने फिरोदिया परिवार को सवालों से घेर लिया. इस बैठक में फिरोदिया परिवार ने सिटीग्रुप के साथ मिलकर व्यापार का एक नया मॉडल पेश किया. एफआईआर में साफ तौर पर यह भी लिखा है कि ऐसा सिर्फ बैंकों को कुछ समय तक शांत करने के मकसद से ही किया गया था.
बैंकों को व्यापार का नया मॉडल शुरू करने के फेर में उलझा कर फिरोदिया परिवार एक अलग ही खेल रच रहा था. 29 नवंबर, 2003 को हुई काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड की वार्षिक बैठक में उन्होंने कंपनी का नाम बदलने का प्रस्ताव पारित करवा दिया गया. ऐसा इसलिए किया गया कि यह कंपनी अब बदनामी की ओर बढ़ रही थी. फिरोदिया यह जानते थे कि यदि इस कंपनी से ‘काइनेटिक’ नाम अलग न किया गया तो इसका असर उनके समूह की अन्य कंपनियों पर भी पड़ेगा. इसी के चलते काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड का नाम बदल कर ‘एथेना फाइनैंशियल सर्विसेज लिमिटेड’ कर दिया गया. कंपनी का नाम बदलने के बाद अरुण और सुलज्जा फिरोदिया ने अपनी सबसे महत्वपूर्ण चाल चली. जिनकी व्यक्तिगत गारंटी के चलते कभी इस कंपनी को लोन मिला और यह स्थापित हुई थी, उन्हीं अरुण और सुलज्जा फिरोदिया ने इस कंपनी से इस्तीफा दे दिया. कंपनी में छह नए निदेशकों को नियुक्त कर दिया गया. तहलका की तहकीकात में यह भी सामने आया कि ये सभी नव-नियुक्त निदेशक काइनेटिक ग्रुप के ही पुराने लोग थे. इस तरह से बैंकों की 200 करोड़ रुपये से भी ज्यादा की रकम लौटाए बिना अरुण और सुलज्जा फिरोदिया अपनी ही कंपनी से अनजान बन गए.
सभी बैंक अब तक फिरोदिया परिवार की चाल समझ चुके थे. अगली ही बैठक में बैंकों ने काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड के खातों की जांच के लिए स्पेशल इन्वेस्टीगेशन ऑडिट (एसआईए) करवाने का फैसला किया. कुछ ही समय बाद 20 फरवरी, 2004 को एसआईए की रिपोर्ट तैयार हो गई. इस रिपोर्ट में सामने आया कि कैसे कंपनी के मालिक पिछले काफी समय से बैंकों को धोखा दे रहे थे. इस ऑडिट रिपोर्ट में कहा गया, ‘कंपनी पिछले काफी समय से ज्यादा से ज्यादा लोन हासिल करने के लिए अपने खातों में झूठे मुनाफे दर्ज कर रही थी. कंपनी के खातों में कई नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स यानी अनर्जक संपत्तियां पाई गई हैं जिनमें से कई तो दस-बारह साल से भी पुरानी हैं. ऐसी अनर्जक संपत्तियों को कंपनी ने बैंकों से छुपाए रखा.’ ऑडिट रिपोर्ट में ऐसे कई झूठ सामने आए जो फिरोदिया पिछले लंबे समय से बैंकों से बोलते आ रहे थे. जांचकर्ताओं ने पाया कि पिछले कुछ समय में इस कंपनी से काफी धनराशि और संपत्तियां काइनेटिक ग्रुप की अन्य कंपनियों के खाते में भी जमा कराई गई थीं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि कंपनी मालिकों द्वारा किए गए अपराध भारतीय दंड संहिता की धारा 403, 405, 415, 420, 421 और 424 के अंतर्गत दंडनीय हैं और इन पर कार्रवाई होनी चाहिए .

सतर्कता अधिकारी की जांच रिपोर्ट में यह भी लिखा गया है कि ‘अरुण और सुलज्जा फिरोदिया ने अपनी आखिरी चाल के रूप में कंपनी की बची हुई संपत्ति को भी अपनी अन्य कंपनियों के खातों में जमा कर दिया. दोनों फिरोदिया इस कंपनी को ऐसे कर्जे के साथ छोड़ गए जिसे चुकाने की जिम्मेदारी लेने वाला अब कोई नहीं था. जाने से पहले उन्होंने लगभग 10 करोड़ रुपये की उस संपत्ति को भी गलत तरीकों से बेच दिया जो बैंकों के पास गिरवी थी.’
ऑडिट रिपोर्ट में जो बातें सामने आईं उससे सभी बैंकों को एहसास हो गया था कि उनका पैसा अब डूब चुका है. अगली ही बैठक में कुछ बैंकों ने अरुण और सुलज्जा फिरोदिया के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की बात कही. यह बात बैठक के लिखित विवरण में आज भी दर्ज है. लेकिन स्टेट बैंक एवं अन्य बड़े बैंकों ने इसका विरोध किया और एफआईआर दर्ज करने के बजाय दीवानी मुकदमा दाखिल करने की बात कही. सभी बैंक इसके लिए तैयार हो गए और उन्होंने मिलकर एक संयुक्त मुकदमा दाखिल कर दिया. इस मुकदमे का खर्च सभी बैंकों ने लोन में अपने-अपने हिस्से के अनुपात में बांट लिया. साथ ही ऋण वसूली अधिकरण में भी यह मामला दर्ज करवाया गया. सभी बैंक अब अपना-अपना हिस्सा बचाने की फिक्र में थे. इन्हीं में से एक बैंक के प्रतिनिधि नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘फिरोदिया परिवार ने बैंकों के समूह में आपसी फूट डालने के लिए उनसे अलग-अलग संपर्क किया. उन्होंने कुछ बैंकों से वादा किया कि यदि वे उनके खिलाफ कोई आपराधिक मुकदमा दायर न करें तो वे उनका हिस्सा लौटाने को तैयार हैं. इस समूह के सभी बड़े सरकारी बैंकों को अरुण और सुलज्जा फिरोदिया ने शांत कर दिया था.’ बैंकों का संयुक्त मुकदमा कोर्ट में चल ही रहा था कि अचानक एक दिन स्टेट बैंक इससे भी पीछे हट गया. उसने अगली बैठक में यह घोषणा कर दी कि वह अब इस मुकदमे में बैंकों का नेतृत्व नहीं करेगा. इसके बाद कोई अन्य बैंक भी 22 बैंकों के इस विशाल समूह का नेतृत्व करने आगे नहीं आ पाया. लिहाजा बैंकों का यह समूह उस दिन भंग कर दिया गया. इससे फिरोदिया परिवार की मुश्किलें कम हो गई थीं. उन्हें अब एक बड़े समूह के मुकाबले बैंकों से अलग-अलग निपटना था.
भारतीय रिजर्व बैंक के निर्देशानुसार इस मामले में कुल धनराशि एक करोड़ रुपये से अधिक होने के कारण सभी बैंकों को इस घोटाले की सूचना सीबीआई एवं पुलिस को देनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. सिर्फ पांच निजी क्षेत्र के बैंकों ने फिरोदिया के खिलाफ आपराधिक मुकदमे दर्ज किए. इन बैंकों में भी सबसे पहले बैंक ऑफ राजस्थान ने फिरोदिया के खिलाफ मामला दर्ज किया. केस संख्या 1391/2005 के तौर पर यह मामला पुणे के न्यायिक मजिस्ट्रेट (प्रथम श्रेणी) की अदालत में दर्ज हुआ. कोर्ट ने इस मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 403, 406, 417, 420, 421 और 424 के अंतर्गत कार्रवाई करने के आदेश दे दिए. फिरोदिया परिवार ने इस आदेश को जिला जज की अदालत में चुनौती दी. लेकिन 11 अक्टूबर, 2005 को जिला जज ने इस चुनौती को खारिज कर दिया. इसके बाद फिरोदिया बॉम्बे उच्च न्यायालय पहुंचे. लेकिन उच्च न्यायालय में भी न्यायाधीश बीएच मरलापल्ले द्वारा नौ अक्टूबर, 2007 को उनकी याचिका खारिज कर दी गई.

बैंक ऑफ राजस्थान की ही तरह लॉर्ड कृष्णा बैंक, डीसीबी बैंक, आईएनजी वैश्य और जेएंडके बैंक ने भी फिरोदिया पर आपराधिक मुकदमे दर्ज किए. कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय से मिली जानकारी के अनुसार इन पांचों बैंकों का लोन में कुल हिस्सा 37.73 करोड़ रुपये था. इन बैंकों द्वारा दर्ज किए गए मुकदमों को निरस्त करवाने के लिए फिरोदिया कई बार उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक गए, लेकिन हर बार कोर्ट ने बैंकों को सही पाया और फिरोदिया को मुंह की खानी पड़ी. 26 फरवरी, 2010 को तो सर्वोच्च न्यायालय में जस्टिस आफताब आलम और जस्टिस बीएस चौहान की संयुक्त पीठ ने भी फिरोदिया की याचिका को खारिज कर दिया.
इसके बाद फिरोदिया समझ गए थे कि कोर्ट से उन्हें कोई राहत नहीं मिलने वाली. अब उन्होंने कोर्ट के बाहर ही इससे निपटने के इंतजाम किए. इन पांचों मामलों में बैंक का पक्ष बहुत मजबूत था और सर्वोच्च न्यायालय तक ने उनका समर्थन किया था. लेकिन इस सबके बावजूद ये सभी मुकदमे बीच में ही इसलिए बंद कर दिए गए कि बैंकों की तरफ से मामले की कोई पैरवी ही नहीं हो रही थी. इन पांच बैंकों में से चार के केस पुणे के ‘अभय नवेगी ऐंड एसोसिएट्स’ के पास थे. तहलका ने जब उनसे संपर्क करके इस बारे में जानना चाहा तो उन्होंने अपने क्लाइंट के साथ गोपनीयता की शर्त का उल्लेख करते हुए टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.
इस तरह से फिरोदिया सैकड़ों करोड़ रुपये की लूट के बाद भी साफ बच निकले. इस लूट में जितना हाथ फिरोदिया परिवार का है उतना ही बड़े सरकारी बैंकों का भी है. स्टेट बैंक इस समूह का नेतृत्व कर रहा था और सबसे बड़ी रकम इसी ने काइनेटिक को दी थी. इसके बावजूद बैंक ने इस घोटाले से संबंधित कोई मुकदमा दाखिल नहीं किया. अब इतने साल बीतने के बाद इलाहाबाद बैंक ने फिरोदिया के खिलाफ कार्रवाई करने का मन बनाया है. कुछ समय पहले बैंक की लक्ष्मी रोड (पुणे) स्थित शाखा के मैनेजर जी राजेश्वर रेड्डी ने फिरोदिया के खिलाफ संबंधित थाने में एफआईआर दर्ज करवाई. लेकिन बैंक का बकाया एक करोड़ रुपये से अधिक होने के चलते थाने से इस मामले को सीबीआई में दर्ज करवाने के निर्देश दिए गए. इसी बीच रेड्डी का तबादला हो गया. उनकी जगह आए नए मैनेजर सोमप्पा एमएन बताते हैं, ‘मेरे संज्ञान में यह मामला आया है. मैं जल्द ही सारी औपचारिकताएं पूरी करके सीबीआई में एफआईआर दर्ज करवाने जा रहा हूं.’
अरुण और सुलज्जा फिरोदिया आज लगभग 30 से ज्यादा कंपनियों के मालिक हैं. अकेले काइनेटिक ग्रुप की ही दर्जनों कंपनियां भारतीय बाजार में फल-फूल रही हैं और अरुण फिरोदिया देश के सम्मानित उद्योगपतियों में गिने जाते हैं. दूसरी तरफ बैंक ऑफ इंडिया, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद, यूटीआई (म्यूचुअल फंड) और बैंक ऑफ महाराष्ट्र समेत कई बैंक उन्हें सालों से ‘विलफुल डिफॉल्टर’ घोषित करते आ रहे हैं. पिछले कई सालों से सिबिल और केंद्र सरकार के कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय में उनका नाम बतौर डिफॉल्टर दर्ज है. इस सबके बाद भी उन्हें पिछले साल देश के सर्वोच्च सम्मानों में से एक ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया. इसकी भी एक कहानी है.
साल 2012 के पद्म पुरस्कारों के लिए बनाई गई चयन समिति में कई लोग ऐसे थे जिनसे अरुण फिरोदिया के काफी नजदीकी रिश्ते रहे हैं. इसमें कुछ तो ऐसे भी थे जिन्हें अरुण पहले ही ‘एचके फिरोदिया अवॉर्ड’ से सम्मानित कर चुके हैं. यह अवॉर्ड उन्होंने ने अपने पिता के नाम पर साल 1996 से शुरू किया था. भारत में किसी भी व्यक्ति को पद्म पुरस्कार से सम्मानित करने से पहले कई विभागों और संस्थाओं से उसकी जांच करवाई जाती है. इनमें इंटेलीजेंस ब्यूरो, सीबीआई, सेंट्रल बोर्ड ऑफ डाइरेक्ट टैक्सेस, डायरेक्टरेट ऑफ रिवेन्यू इंटेलीजेंस, सेंट्रल एक्साइज इंटेलीजेंस, रॉ और सेबी जैसे संस्थान शामिल हैं. क्या यह मुमकिन हो सकता है कि इतने विभागों द्वारा जांच के बाद भी यह बात सामने न आई हो कि अरुण फिरोदिया पिछले कई सालों से एक घोषित ‘विलफुल डिफॉल्टर’ हैं? लेकिन इसके बाद भी उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया. इतना ही नहीं, फिरोदिया को पद्मश्री मिलने के बाद बैंक ऑफ महाराष्ट्र ने उनके लिए अलग से एक सम्मान समारोह भी रखा. यह वही बैंक है जिसके 15 करोड़ से भी ज्यादा की रकम अरुण फिरोदिया ने नहीं चुकाई और जिसने उनकी कंपनी को विलफुल डिफॉल्टर घोषित कर रखा है. बैंकों और बड़े पूंजीपतियों की मिलीभगत को इस बात से भी समझा जा सकता है.
एक तरफ फिरोदिया को लगातार डिफॉल्टर घोषित किया जा रहा था तो दूसरी तरफ केंद्र सरकार उन्हें पद्मश्री पुरस्कार और महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति दे रही थी
केंद्र सरकार का फिरोदिया परिवार पर उपकारों का सिलसिला सिर्फ पद्मश्री तक सीमित नहीं है. सुलज्जा और अरुण फिरोदिया को कई महत्वपूर्ण संस्थानों में नियुक्तियां देकर भी सरकार ने कई बार उन्हें उपकृत किया है. जहां एक तरफ घोटालों के बाद फिरोदिया को लगातार डिफॉल्टर घोषित किया जा रहा था वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार उन्हें ‘वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद’ (सीएसआईआर) में नियुक्ति दे रही थी.
सीएसआईआर की गवर्निंग बॉडी में सदस्यों को तीन साल के लिए नियुक्त किया जाता है. वर्ष 2007 से 2010 तक सुलज्जा फिरोदिया को इसमें नियुक्ति दी गई थी. इसके बाद वर्ष 2010 से 2013 तक के लिए अरुण फिरोदिया को यहां नियुक्त कर दिया गया. अरुण फिरोदिया की नियुक्ति तब की गई जब अमित मित्रा के जाने के बाद एक सदस्य की जगह खाली हुई. इस जगह को भरने के लिए सीएसआईआर के डायरेक्टर- जनरल ने अन्य सदस्यों की सलाह से प्रोफेसर देवांग खाखर का नाम सुझाया था. देवांग उस वक्त आईआईटी बॉम्बे के निदेशक थे. इस पर अंतिम मोहर सीएसआईआर का अध्यक्ष होने के नाते प्रधानमंत्री को लगानी थी. लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस सुझाव को वापस भेज दिया. दूसरी बार जब सीएसआईआर द्वारा सुझाव भेजे गए तो उसमें अरुण फिरोदिया का नाम सबसे ऊपर था. इसी नाम पर 28 जुलाई, 2011 को प्रधानमंत्री कार्यालय की मोहर लगी.
आज फिरोदिया ग्रुप की कंपनियां 3000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा की हैं. इसके बाद भी बैंक उनसे अपने पैसे नहीं वसूल पा रहे. या शायद इसीलिए बैंक उनसे पैसे नहीं वसूल पा रहे कि वे इतने बड़े साम्राज्य के मालिक हैं? राजनीतिक लोगों से भी उनके अच्छे संबंध हैं. उनके भाई अभय फिरोदिया को शरद पवार का काफी नजदीकी माना जाता है. उनके बेटे अजिंक्य फिरोदिया भी सुरेश कलमाड़ी के छोटे भाई श्रीधर कलमाड़ी के साथ जेडएफ स्टीयरिंग गियर इंडिया लिमिटेड नाम की कंपनी के निदेशक हैं. जिस तरह से केंद्र सरकार द्वारा उन्हें कई तरीकों से उपकृत किया गया, उससे भी उनके राजनीतिक दखल को समझा जा सकता है.
कॉरपोरेट लूट की ये कहानी सिर्फ इतनी ही नहीं कि एक बड़े उद्योगपति ने सैकड़ों करोड़ रुपयों का घोटाला किया. ये कहानी इसकी भी है कि कैसे इस लूट के बाद भी वह जेल जाने की बजाय लगातार सम्मानित होता रहा.

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Einstein’s Most Important Philosophical Error – Glenn Borchardt

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आइन्सटाइन का विज्ञान में योगदान अप्रतिम है। लेकिन विज्ञान विशेषकर भौतिक विज्ञान की शाखा खगोल विज्ञान आज जिस संकट से गुजर रही है, उसकी जिम्मेदारी आइन्सटाइन पर भी है। आइन्सटाइन की तीनों ही मुख्य थीसिस यानी ‘जनरल थ्योरी आफ रिलेटिविटी’, ‘स्पेशल थ्योरी आफ रिलेटिविटी’, और E = mc2 मुख्यतः गणित आधारित है। आइन्सटाइन से पहले भौतिक विज्ञान में ‘प्रेक्षण और परीक्षण’ मुख्य भूमिका निभाते थे। लेकिन आज विशेषकर खगोल विज्ञान में मुख्य भूमिका गणित की हो गयी है। एक तरह से गणित ने खगोल विज्ञान का तख्ता पलट कर दिया है। Big Bang, Black Hole, Entropy [ब्रहमांड के सन्दर्भ में] , ब्रहमांड का फैलना आदि मुख्यतः गणितीय निष्पत्तियां है। और आश्चर्य की बात यह है कि इन्हे ऐसे पेश किया जाता है मानो यह तथ्यतः सिद्ध हो चुका है। इनके विरोधी भी अनेक सिद्धान्त है जिनमें से कुछ कही अधिक तार्किक हैं। लेकिन बिग बैंग जैसे सिद्धान्तों के व्यापक प्रचार के आगे उन्हे जगह नही मिल पाती।
आइन्सटीन के सिद्धान्तों में एक बड़ी दिक्कत space और time को लेकर है। दार्शनिक दृष्टि से देखे तो space और time मैटर के mode of existence है। सिर्फ मैटर ही सच है। time और space matter in motion के महज रुप हैं। time और space को क्रमशः 4th dimension और 5th dimension बता कर का चीजों को और अधिक उलझाया जा रहा है।
इसके अतिरिक्त Infinity को न समझने के कारण भी विज्ञान में मैटर के आदि और अन्त की बातें हो रही हैं। जबकि मैटर अविनाशी और अनंत है [Micro और Macro दोनो ही तरफ]. और इसलिए यह ब्रहमांड भी अविनाशी और अनंत है।
बिग बैंग की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि वह यह बताने में अक्षम है कि कुछ नही से मैटर कैसे पैदा हो जाता है। singularity महल एक गणितीय अवधारणा है और कुछ नही।
इन सभी चीजों को निम्न लेख में बहुत बढि़या तरीके से समेटा गया है। यह लेख विज्ञान पर एक नये नजरिये से रोशनी डालता है। इसे हमने : www.scientificphilosophy.com से साभार लिया है।

A single philosophical error on Einstein’s part has retarded physics and cosmology for over a century. The error is simply this: the objectification of motion. Classical mechanics assumed that the universe presents us with two fundamental phenomena: matter and the motion of matter. Matter exists; motion occurs. Matter, that is, anything in existence, has xyz dimensions and location. Motion is not “part” of the universe; it is what those parts do. In objectifying motion, Einstein assumed instead that motion had material properties. Like Maxwell, he started out with the assumption that light was a particle instead of wave motion in a sea of particles. This was an objectification similar to the theory that heat actually was a “caloric fluid,” instead of the vibratory mo-tion of atoms. As shown in this paper, this one error invalidates the Special and General Theories of Relativity. The attractiveness of those theories is dependent more upon the popularity of indeterministic, unscientific phi-losophy than upon the validity of the data offered in support. Examined in detail, the oft-cited “proofs” of rela-tivity, such as the Eddington solar eclipse observations and the Hafele-Keating flight of clocks around Earth fail to prove anything. The data were so poor that their interpretation as supportive is an embarrassment to science.

1. Introduction
The easy acceptance of Albert Einstein’s theory of relativity was and is dependent on the chaotic nature of the philosophy of science. Below, what I call an “error” certainly is not considered so by modern physicists, who by definition do not know what time is. To discover such an error, one would have to examine the underlying assumptions that led up to it [1][2]. This is nor-mally not done during the period of “ordinary science” that fol-lows a major paradigm shift such as the regression inadvertently instigated by Einstein. This change in philosophy was not brought about by tightly reasoned treatises on the inadequacies of classical mechanics. Instead, it was brought in through the back door with little regard for realism. Philosophers of science did what they always do: explain what philosophy scientists were using. None were so bold as to explain what philosophy scientists should be using. After all, most seemed to enjoy the solipsistic novelty of Einstein’s proposals. It must have been a welcome relief from the science-religion battles of the latter half of the Nineteenth Century.

Indeterminists such as Ostwald and Eddington championed Einstein as the genius who discovered relativity [3]. The media and the general populace, being of the same mindset, accepted this chance to escape the confines of classical mechanics and its atheistic tendencies. There was little analysis of the underlying assumptions, which never could be proven right or wrong. This paper uses the fundamental assumptions of what I call “univi-ronmental determinism (UD)” [4] and its ramifications [5] to ex-plicate the nature of Einstein’s major philosophical error.

Classical mechanics, assumes that the universe presents us with two fundamental phenomena: matter and the motion of matter. Matter exists; motion occurs. Matter, that is, anything in existence, has xyz dimensions and location. Motion is not “part” of the universe; it is what those parts do. Time is the motion of all things with respect to all other things in the universe.

Although our view of the universe as matter in motion is simple, it is opposed at every turn by indeterminists who believe that there must be “something” else. However, if one is careful
with one’s definitions, each “something” must be matter, that is, it must have xyz dimensions and location with respect to other things. There is no “something” that does not have xyz dimen-sions and location with respect to other things. In the infinite universe matter always contains other matter and is surrounded by other matter.

It’s been a long time since the average person knew what time is. Einstein’s muddling of the concept of time has affected all of us, not just his fervent followers. According to the popular press, time is “the mystery we’d rather not face: If clock time isn’t real, what is time, anyway? We don’t understand time…” [6]. As long as relativity holds sway, neither the physicist nor the layperson will be able to understand time.

2. Definitions

Univironment – The composition and properties of a particu-lar microcosm and its macrocosm, at a particular moment.
Determinism – The belief that all effects have mechanical causes.

Microcosm — A portion of the universe. All things are micro-cosms. Microcosm replaces the need to use the concept of a system or object.
Macrocosm – The portion of the universe that resides outside of a particular microcosm. The entire universe equals a par-ticular microcosm plus its macrocosm.

3. Assumptions

An analysis of philosophically laden theories such as relativi-ty must be founded on clearly stated fundamental assumptions. According to Collingwood [1], fundamental assumptions have two primary characteristics: 1) they always have opposites and 2) they never can be completely proven. If one posits more than one fundamental assumption, there is an additional criterion: 3) both must be consupponible. That is, if you assume one, you must be able to assume the other without contradiction. My re-cent work uncovered what I called The Ten Assumptions of Science [4][7]. These became the philosophical foundation of what became The Scientific Worldview [5]. For the present work, I put special emphasis on four of the ten assumptions:

Assumption 4: Inseparability – Just as there can be no mo-tion without matter, so there can be no matter without mo-tion.

Assumption 5: Conservation – Matter and the motion of mat-ter neither can be created nor destroyed.
Assumption 8: Infinity – The universe is infinite, both in the microscopic and the macroscopic directions.
Assumption 10: Interconnection – All things are intercon-nected, that is, between any two objects exist other objects that transmit matter and motion.

Assumptions 4 and 5 may seem quite obvious, although they are powerful antidotes to the more outrageous claims involving “action at a distance” and “curved space-time” sometimes consi-dered to be universal causes of gravitation. For us, a cause is described by Newton’s Second Law of Motion, F ma , whereby one microcosm influences the motion of another upon contact. Assumptions 8 and 10 are critical to my philosophical analysis.

4. Einstein’s Philosophical Confusion

Most people don’t seem to care whether a particular pheno-menon is matter or whether it is the motion of matter (hereafter referred to as motion). Einstein was no exception. In Special Re-lativity Theory (SRT), he almost surreptitiously substitutes length for time [8]. With this unremarked step, he performs what was to be one of most infamous philosophical errors in all of physics: the objectification of motion. But time is not “real” in the sense that the New York Times reporter hoped it would be. Time is not an object, but what objects do. Time is motion. Of course, Einstein’s objectification of motion indeed was a dramatic break away from classical mechanism, which saw all things as matter in motion. This was not just a novel “stepping out of the box” of mechanics; it was a breaking of the rules of science. Einstein seems to have been unaware of what he had done. He continued to perpetuate this objectification of motion throughout his work. Physicists of the day failed to recognize the mistake, although there were plenty of other objections [3].

To this day, modern physicists still accept Einstein’s treat-ment of time as material. An Internet search on the “objectifica-tion of motion” yields only eight entries (with six of them being my own). The “objectification of time” is quite a bit better: 5,420 entries, with only one of the first ones having much to do with physics. If we want to set physics straight, it looks like we have our work cut out for us.

5. Deobjectification of Motion: Changing the Philosophy of Physics

To put physics back on track, we need to “deobjectify” mo-tion. Our common usage of time as if it was a thing makes this inherently difficult. It explains a lot about why Einstein’s error has held sway for so long. In physics, we measure objects and their motions, putting the results on paper as words, equations, and illustrations. In our everyday lives, we prepare lists of “things” to do. By merely speaking of time as a noun, we objecti-fy it. For perhaps millennia, humans have objectified time almost daily. Getting out of that rut will not be easy. We are continually “saving” time, “using” time, “setting aside” time, “making” time, as if time actually existed. This common objectification provided a fertile field for uncommon mistakes. And now, along comes a supposedly smart mathematician who has equations that predict that “time dilates.” Fine, except that time is not a thing, but what things do. Things can dilate, but their motions cannot. Dilation cannot be a property of time because time does not exist, it oc-curs. Those who do not realize this are condemned to waste their objectified time debating the “Twin Paradox” into perpetuity.

In the parlance common to beginning physics, we are sup-posed to believe that SRT repeatedly has proven to be correct. Let us examine one experiment that supposedly “proved” that time dilation actually occurs:

6. Test of SRT: “Time Dilation” and the Hafele and Keating Flight around the Earth

Among the most frequently cited so-called confirmations of SRT remains the Hafele and Keating experiment [9]. This in-volved four supposedly precise atomic clocks on planes flying in opposite directions around the earth. There are two interpreta-tions of the data. I will give both, and you can decide which one is correct.

6.1. Mainstream: Hafele-Keating Supports Time Dilation

In the conventional interpretation, it is believed that Hafele-Keating showed that the east-bound clock slowed down by 59 nanoseconds and that the west-bound clock sped up by 273 na-noseconds relative to a clock on the ground in Washington. Even if true, this would be quite a shock. Einstein had claimed that all moving clocks are supposed to run slow with respect to the ob-server. There should have been little difference between east-ward and westward travel. After a bit of back-tracking by figu-ratively placing the reference clock at the non-rotating center of the earth and including gravity as a major contributor to the re-sult, Hafele and Keating’s calculations seemed to agree with rela-tivity. Unfortunately, for Einstein, this interpretation of the expe-riment indicated that the part about “motion with respect to the observer” had to be discarded. Hafele had to use “motion with respect to the underlying nonrotating inertial space” to get the math to agree with relativity predictions. This is a big step away from the solipsism that underpins relativity [10], but that is sel-dom noted in the many citations of Hafele-Keating as evidence for relativity. Accepting the data as adequate, some skeptics [11] [12] have tried to find a physical reason for the published results. Even that is a waste time, according to the alternative view:

Table 1. Original test results and the changes made by Hafele-

Keating [9] (in nanoseconds, ns) (from Kelly [14], Table 3).
6.2. Skeptical: Hafele-Keating doesn’t Support Relativity

In the second interpretation, skeptics have considered the ex-periment to have been a total failure due to the erratic behavior of the clocks [13][14]. Kelly [14] was able to obtain the raw data for the experiment, which looked like Table 1.

Note that the raw test results actually show both gains and losses for both the eastward and westward trips (Table 1). Of course, all clocks, even the relatively precise cesium beam clocks used in the experiment, fail to keep accurate time at some level. Now, this is not necessarily a death knell for this type of experi-ment. The tendency for a clock to gain or lose time is called “drift.” If the drift occurs at a steady rate throughout the experi-ment, we can add or subtract it to get an accurate time. For ex-ample, if my watch gains a second per day, I will have to subtract 7 seconds from the observed time to get the correct time next week. This is not what happened in the Hafele-Keating experi-ment. Drifts were highly irregular for each of the clocks (Fig. 1). The total range in drift during the course of the experiment was about 7000 ns for an experiment purporting to measure as little as 59 ns. Not only were the drifts for the four clocks highly varia-ble, the drifts for each of the individual clocks changed through-out the experiment (changes in slope of the lines in Fig. 1).

Fig. 1. Sketch of results given by Hafele-Keating [9] (from Kelly [14]). G = time gain; L = time loss.

Drifts determined when the clocks were on the ground in Washington were extrapolated across the time the clocks were in transit. Clock 408 was about the worst: it lost time (L) before the eastward flight and gained time (G) after the flight (Fig. 1). Re-markably, the difference was attributed to time dilation. Clock 447 had the most consistent drift rate, but it showed no signifi-cant gain or loss during both flights, contrary to the conclusions made in the paper (Fig. 1). On top of all this, Hafele and Keating had the temerity to average this mess (bold dashed line in the center of Fig. 1) before applying the adjustments and math (Table 1) that they ultimately anointed as being in “agreement with rela-tivity.”

6.3. Lessons Learned

It seems that every time I evaluate one of the experiments said to confirm SRT or General Relativity Theory (GRT) either the data or the interpretations are poor. Hafele-Keating is no dif-ferent. You might ask: “Aren’t all important experiments con-firmed by others?” Actually, this is seldom the case—of my 320 publications, only one was repeated by others in any detail [15][16]. To go to the trouble of redoing an experiment, one usually must be a highly motivated skeptic. Those opposed present only a minor inconvenience to the conventional wisdom. Repeating the mantra that “Hafele-Keating ‘proves’ Einstein was right about time dilation” is not a scientific statement, but a phi-losophical one. It has nothing to do with math and everything to do with philosophy. Realize, however, that when the words “pa-radox” or “contradiction” turn up, it is because at least one of the beginning assumptions that started it all is incorrect. Thus, the rules or “philosophy” of math do not allow the substitution of length for time [8]. After committing this error, Einstein was ready for space-time.

7. GRT: Space-time

The most notable contribution of GRT is the concept of space-time. In physics, we have invented many matter-motion terms that help us understand the two primary phenomena, matter and motion. These matter-motion terms are concepts, ideas, descrip-tions, or calculations that include a term for matter and a term for motion. Thus, momentum is P mv , where m represents mass (matter) and v represents velocity (motion). Other common mat-

ter-motion terms are force F ma and energy E mc2 [17]. Mat-ter-motion terms are extremely useful, of course, but we must always remember that by combining a term for matter and a term for motion, we have created a creature that neither exists nor occurs. I cannot take a piece of momentum, force, or energy home with me. If one were to propose momentum, force, or energy had xyz dimensions, physicists would not be the only ones to laugh.

Space-time, likewise, is a matter-motion term. Space exists; time occurs. Space-time has been muddled so much by Einstein and his followers that many people actually think that it exists. They even try to present models of it to a skeptical lay public. Nevertheless, like the other matter-motion terms, space-time is a concept, idea, description, or calculation. It is not a thing or a motion. I am not about to take some space-time home with me. It takes a bit to sort this out philosophically, however. Generations have been imbued with the efficacy of space-time and mathema-ticians have spent entire careers preaching about it. To get any-where with this, I need to clarify what I mean by space and time.

7.1. Space

The philosophical confusion begins with the definition of space. Here again, critical choices must be made. Either space is something, or it is nothing. It is the job of all indeterminists to claim, as positivists do, that space is completely empty. After all, one can do the math without having to decide whether space is material or immaterial, as Einstein showed. Of course, if one looks at the real world, one finds no examples of perfectly empty space anywhere. Thus, in the laboratory, we are unable to make a perfect vacuum. Even outer space is not perfectly empty as Einstein first assumed. Microwave background data show that intergalactic space has a temperature of 2.7oK. Temperature is the vibration of matter, so there has to be matter there, whether one calls it “aether,” “dark matter,” or whatever. Decades ago, one wag called intergalactic space a particle zoo. Of course, inde-terminists are free to claim that any particles in a near vacuum are surrounded by perfectly empty space. In UD, however, we obviate that by our Tenth Assumption of Science, interconnec-tion (All things are interconnected, that is, between any two ob-jects exist other objects that transmit matter and motion). Note that this is clearly consupponible with our assumption of infinity above. Any xyz portion of the universe, no matter how small or how large, will always contain matter. It is merely a question of relative scale. If we privileged to have that view, the inside of an electron might look similar to the night sky. Nonetheless, being indeterminists, modern physicists must disagree with what they think are such radical assumptions. For them, disconnection and finity are the preferred, traditional assumptions. They seldom are bothered by today’s erroneous interpretation of space-time.

There is one other way to consider the material-immaterial nature of space. All things in the universe contain what we perceive to be matter and space. The Greek atomists insisted that atoms were true elementary particles filled with solid matter. If anything, the things we call atoms today contain mostly empty space. At one time, the space between you and I may have been considered empty. Now we know that is not the case. Any real thing lies on the continuum between ideal solid matter and ideal empty space. The ideals exist only in our brains—they can have no real existence. To insist, like the young Einstein and his posi-tivist friends, that space really is perfectly empty or immaterial makes one a rank idealist. The material nature of space must be granted if one is to understand what is really meant by space-time.

7.2. Time

Let me summarize my reasons for asserting that time is mo-tion. Like the free will vs. determinism debate, the philosophical struggle over the nature of time is endless. Folks have imagined all sorts of fantasies with regard to time. Of course, in the real world, time, like all phenomena, must fit either of two categories: matter or the motion of matter. This stems from the Fourth As-sumption of Science, inseparability (Just as there is no motion without matter, so there is no matter without motion). Not being “part” of the universe, a piece of time cannot be examined as we do with material objects. This is why we say that time has no existence. That is, it does not have xyz dimensions and location with respect to other things. Universal time is the motion of all things with respect to all other things. In practice, we measure time in specific instances with regard to the relative motions of specific portions of the universe. Because time does not exist, it has no spatial dimensions. One can plot time in the 3-D world, but that does not make it a spatial dimension.

7.3. Space-time

If space is matter and time is motion, any combination of the two will be a matter-motion term like momentum, force, and energy. Space-time, then, is an idea, concept, or calculation that we use to describe aspects of the universe. Like the other matter-motion terms, space-time neither exists nor occurs. The universe does not “consist” of space-time, so all the attempts to produce a physical model of it are merely foolishness. They amount to whimsical contributions to the determinism-indeterminism phi-losophical struggle. Moreover, they are good ones too, as it ap-pears they are winning the contest. What are they winning? For one thing, they now have most educated people believing that the universe exploded from nothing—a grand creation that puz-zles even Hawking when he ponders “what came before.” I even had one thoroughly indoctrinated physics professor tell me that I had no existence, but that the occasion of my birth did!

What then, is space-time? As I mentioned, space-time is a concept or idea. Thus, yesterday I sat at my desk, occupying a certain xyz space. Today, I occupy the same xyz space. The two material spaces are essentially the same, but all things in the un-iverse have kept moving in the meantime. I can imagine myself sitting at my desk yesterday and I could expound on how differ-ent my “space-time position” was yesterday as opposed to today. Of course, none of those space-time positions actually exist de-spite the good Prof’s wild claims and the mathematical mixing of space and time.

7.4. Universal Expansion

The matter-motion term, space-time, came along just in time to set the stage for the similarly indeterministic interpretation that Hubble’s redshifts were evidence for universal expansion. Be aware that Hubble, himself, never believed that the redshifts of faraway galaxies meant the universe was expanding. He al-ways thought it was a measure of distance rather than recession-al velocity—more of a “tired light” effect. For positivists who actually believed in perfectly empty space, there was no reason to entertain such a heresy. Why would light lose energy travel-ing through perfectly empty space?

Of course, Einstein’s objectification of light was critical to the view that the universe was expanding. In the typical Einsteinian way, he construed light, a motion of particles, to be a particle. His “corpuscular” theory of light has a historic parallel with the “caloric fluid” theory of heat. What was once considered a “thing” is now considered the vibratory motion of things. Dur-ing our evolutionary development, we have always had a ten-dency to objectify motion. That is what people do when they express a belief in ghosts: “things” that are not things, but never-theless display motion. The ever-mysterious photon is the “ghost particle” of modern physics. It supposedly is affected by gravitation [18], although it is said to be massless. After all, ac-cording to Einstein, if it had any rest mass at all, it would have infinite mass at the velocity it is said to travel. The photon is not only a particle, it is a wave too. Some of those photons must be pretty large, with wavelengths measured in the thousands of kilometers. Really serious folks actually believe such stuff. It is part and parcel of both SRT and GRT.

8. Test of GRT: “Curved” Empty Space

It wasn’t until Eddington’s famous eclipse observations that Einstein rose to prominence [19, 3]. The idea of the observations was to test the possibility that Einstein’s theoretically empty space surrounding massive bodies was curved. During an ec-lipse it becomes possible to view what happens to light from fa-raway stars when it passes the Sun. Although the instruments that he used were not up to the task [20], Eddington nonetheless reported that light passing the sun indeed was bent toward the sun. This was the first of many experimental “proofs” of GRT and its prediction that space or space-time was curved. Of course, even if Eddington’s measurements had been adequate they would only have shown that the Sun has an atmosphere capable of refraction. GRT predicts that the light bending should be a decreasing function of distance from the Sun. There still should light bending at distances several times the radius of the Sun. Dowdy [21] showed that nothing of the sort actually occurs. There is no bending at distances beyond the Sun’s plasma at-mosphere. GRT has been falsified.

9. Conclusion

If there is any consistency in SRT and GRT, it is the objectifi-cation of motion, Einstein’s most important philosophical error. The whole of modern theoretical physics is founded on this par-ticular error. The remedy for this mistake is the assumption of classical mechanics that the universe presents us with two basic phenomena: matter and the motion of matter. Without that rea-lization, people will continue to debate SRT and GRT without end. As I mentioned before, modern physicists are to be excused for not knowing what time is.

Acknowledgements

I thank Stephen J. Puetz, Steven Bryant, and Bill K. Howell for reviews of the manuscript and for many stimulating discussions of the topic.

References

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Interaction between Gravitation and Electromagnetism in Empty

Vacuum Space”, Proceedings of the NPA 7: 131-136 (2010), http:// www.extinctionshift.com/SignificantFindings.htm

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‘विक्टर जारा’ : संस्कृति का महायोद्धा

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सितम्बर माह में चिली के महान गायक विक्टर जारा को याद करने के बहुत से बहाने हैं। 16 सितम्बर को उनकी शहादत के ठीक 40 साल हो जाते है। 11 सितम्बर 1973 को अमरीकी मदद से अगस्टो पीनोशेट के नेतृत्व में वहां की सेना ने कुछ ही समय पहले चुनकर आयी प्रगतिशील अलेन्दे की सरकार का तख्ता पलट दिया। इस तख्तापलट के सूत्रधार थे – तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन और विदेश मंत्री हेनरी किसिन्जर। तख्तापलट के कुछ ही समय पहले दिये गये किसिन्जर के इस बयान पर गौर कीजिए – ‘वहां की जनता की गैरजिम्मेदारी के कारण यदि देश कम्युनिष्ट हाथों में जा रहा है तो हम इसे चुपचाप देखते नही रह सकते।’
विक्टर जारा उस वक्त वहां की कम्युतिष्ट पार्टी के महत्वपूर्ण सदस्य थे और कम्युनिष्ट पार्टी अलेन्दे सरकार का सक्रिय समर्थन कर रही थी। तख्ता पलट के बाद हुए नरसंहार में चिली का यह महत्वपूर्ण सांस्कृतिक योद्धा भी शहीद हो गया। उन्हे 12 सितम्बर को पकड़ा गया और 4 दिन यातना देने के बाद 16 सितम्बर को उनकी हत्या कर दी गयी।
इसी माह 28 सितम्बर को विक्टर जारा का जन्मदिन भी पड़ता है।
इसके अलावा इसी माह एक महत्वपूर्ण खबर यह आयी है कि विक्टर जारा की ब्रिटिश मूल की पत्नी जोन जारा ने अमरीका में विक्टर जारा के कातिलों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया है। ज्ञातव्य है कि बाद के दिनों में इस तानाशाह सरकार के कई सैन्य अधिकारी अमरीका में बस गये थे और वहां की नागरिकता ले ली थी। उनमें से वे अधिकारी भी शामिल थे जिन्होने विक्टर जारा की हत्या में प्रत्यक्ष भागीदारी की थी। खबर यह भी है कि मुकदमा नामजद दर्ज हुआ है।

JOAN JARA [left]

JOAN JARA [left]

विक्टर जारा पर उनकी पत्नी जोन जारा ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण किताब लिखी है-Victor – An unfinished song। दुनिया को विक्टर जारा के बारे में विस्तार से इसी किताब से पता चला। इस किताब में विक्टर जारा के पकड़े जाने और तत्पश्चात उनकी हत्या किए जाने का बहुत ही मर्मस्पर्शी चित्रण है। विक्टर जारा का सबसे पहले हाथ तोड़ा गया और उनसे कहा गया कि अब वे गिटार बजा कर दिखाये। उनकी हत्या करने के बाद उन्हे अज्ञात जगह पर दफना दिया गया। लेकिन इस काम में लगे एक मजदूर की निगाह विक्टर जारा के शरीर पर पड़ गयी। और उसने अपनी जान का जोखिम उठाते हुए इसकी इत्तला जोन जारा को दे दी। तब जाकर उन्हे जोन जारा ने सम्मानजनक तरीके से अंतिम विदाई दी।
विक्टर जारा का जन्म एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। उनकी मां अमान्डा बहुत अच्छा गिटार बजाती थी। और लोक संगीत में वे पारंगत थी। यहीं विक्टर ने संगीत की अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पायी। और ताउम्र इस विरासत को विकसित करते रहे। शहर में आने के बाद वे मजदूर आन्दोलनों से जुड़ गये और ऐसे आन्दोलनों में सक्रिय सांस्कृतिक कर्मी की भूमिका निभाने लगे। लोक संगीत की उल्लासमयी परंपरा और मजदूर आन्दोलन की राजनीति के कारण उनके गानों में गजब की अपील होती थी। और उन्हे सुनने के लिए लाखों लोग उमड़ पड़ते थे। इसी दौरान उन्होने वहां की कम्युनिष्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली और राजनीतिक अभियानों में जोर शोर के साथ उतर पड़े।
1960 का दशक दुनिया भर में उथल पुथल का दौर था। चिली भी इसका अपवाद न था। इसी दशक में चिली में बड़े पैमाने पर मजदूरों और किसानों की राजनीतिक हड़ताले हुई। संस्कृति के क्षेत्र में भी पूरे लैटिन अमरीका में न्यू सांग आन्दोलन का दौर आया। जिसने सीधे सीधे जनता का पक्ष लिया और संगीत में ‘एक्शन’ की नींव रखी। कहना ना होगा कि विक्टर जारा इस आन्दोलन की नींव में से थे। इसी समय अपनी यूरोप यात्रा के दौरान उन्होने लिखा- ”विरोध गीत’ शब्द का अब कोई औचित्य नही रह गया है। क्योकि यह बहुत ही अस्पष्ट है और इसका काफी दुरुपयोग होता है। मै इसकी जगह ‘क्रान्तिकारी गीत’ शब्द का इस्तेमाल करना पसन्द करुंगा। एक कलाकार को एक सच्चा सृजनकर्ता होना चाहिए और अपने असली अर्थ में क्रान्तिकारी होना चाहिए। एक कलाकार अपनी संप्रेषणीयता की विराट ताकत के कारण उतना ही खतरनाक होता है जितना कि एक गुरिल्ला क्रान्तिकारी।’
विक्टर जारा ने संगीत और जनता के संबधों के बारे एक महत्वपूर्ण बात लिखी है- ‘हमें यह नही सोचना चाहिए कि हम उपर से आकर नीचे जनता तक संगीत को ले जा रहे है। इसके विपरीत हमें खुद जनता तक उठना चाहिए। यह नही समझना चाहिए कि हम अपने आप को जनता तक नीचे ले जा रहे हैं। हमारा काम यह है कि हम वह चीज उन्हे वापस दे जो उनका है यानी उनकी सांस्कृतिक जड़े।’
इसी समझ के आधार पर विक्टर जारा जैसे लोगो के प्रयासों से चिली में मजदूर किसान बस्तियों में नाटक,गायन, नृत्य और कविता की छोटी छोटी मंडलिया तैयार की गयी। अलन्दे की सरकार ने जब वहां की सबसे बड़ी पब्लिशिंग हाउस का राष्ट्रीयकरण किया तो बहुत ही सस्ते दामों पर विश्व भर के क्लासिक और चिली का प्रगतिशील साहित्य जनता को सुलभ हो पाया। जोन जारा ने अपनी उसी पुस्तक में इस परिघटना पर लिखते हुए लिखा है कि यह देखना बहुत ही सुखद होता था कि बसों में सामान्य मजदूर जैक लंडन,टामस मान,गोर्की,मार्क ट्वेन और चिली के लेखकों को पढ़ रहे हैं।
चिली के शासकों ने जब विक्टर जारा की हत्या की होगी तो उनके दिमाग में यही बात रही होगी कि जनता को जगाने वाले को यदि सुला दिया जाय तो जनता भी सोई रहेगी। लेकित जैसा कि अमूमन होता है यह दांव हमेशा उल्टा पड़ता है। हमारे देश में भगत सिंह का उदाहरण है। शहीद भगत सिंह जिन्दा भगत सिंह से ज्यादा प्रभावकारी और शासकों के लिए ज्यादा खतरनाक हैं।
आज पूरे लैटिन अमेरिका में विक्टर जारा को याद किया जा रहा है और उनके गीतों पर थिरकने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। आज लैटिन अमेरिका का कोई भी महत्वपूर्ण आन्दोलन ऐसा नही है जो विक्टर जारा के गीतों से न सजा हो।
विक्टर जारा ने अपनी मृत्यु से कुछ ही दिन पहले एक गीत लिखा था – मैनीफेस्टो। यह वास्तव में आज सभी संस्कृतिकर्मियों का ‘मैनीफेस्टो’ हो सकता है।
Manifesto
I don’t sing for love of singing,
or because I have a good voice.
I sing because my guitar
has both feeling and reason.
It has a heart of earth
and the wings of a dove,
it is like holy water,
blessing joy and grief.
My song has found a purpose
as Violeta would say.
Hardworking guitar,
with a smell of spring.

My guitar is not for the rich no,
nothing like that.
My song is of the ladder
we are building to reach the stars.
For a song has meaning
when it beats in the veins
of a man who will die singing,
truthfully singing his song.

My song is not for fleeting praise
nor to gain foreign fame,
it is for this narrow country
to the very depths of the earth.
There, where everything comes to rest
and where everything begins,
song which has been brave song
will be forever new.

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