The People Vs Tech: How the Internet is Killing Democracy (and how We Save It) by Jamie Bartlett

‘फ्रांसिस फुकोयामा’ के इतिहास के अन्त की घोषणा के ठीक 16 साल बाद ‘क्रिस एण्डरसन’ ने 2008 में अपने एक लेख में थ्योरी के अन्त (The End of Theory: The Data Deluge Makes the Scientific Method Obsolete) की भी घोषणा कर दी। जहां आंकड़ों की बाढ़ हो, वहां थ्योरी की क्या जरूरत है। ‘यूवल नोह हरारी’ ने इसे आंकड़ावाद (dataism) कहा है। इतिहास के अन्त के बाद अब थ्योरी के अन्त और आंकड़ावाद के इस दौर में मनुष्य और लोकतंत्र का भविष्य क्या है। डाटा के पहाड़ पर बैठी गूगल व फेसबुक जैसी टेक कम्पनियां किस तरह से दुनिया के तमाम देशों की लोकतान्त्रिक संस्थाओं को दीमक की तरह चाट रही हैं और इनके साथ मिलकर सरकारें पूरी दुनिया को एक एक्वेरियम [Aquarium] मे तब्दील कर रही है, इसी गंभीर विषय को ‘जेमी बार्टलेट’ ने अपनी पुस्तक The People Vs Tech: How the Internet is Killing Democracy (and how We Save It) में उठाया है।
यह किताब मुख्यतः पश्चिमी लोकतंत्र और वहां फेसबुक व गुगल जैसी विशालकाय टेक कम्पनियों के साथ इसके तनावपूर्ण रिश्ते की पड़ताल करती है। लेकिन इसका सन्दर्भ पूरी दुनिया पर लागू होता है।
जेमी बार्टलेट टेक कम्पनियों की ही भाषा में समस्या को इस तरह से सामने रखते है। लोकतंत्र का ‘हार्डवेयर’ और ‘साफ्टवेयर’ दोनों होता है। हार्डवेयर है वह संरचना जिसके तहत वोट डाले जाते है, फिर उसकी गिनती होती है आदि आदि। साफ्टवेयर है उस जनता का दिमाग जिसका प्रयोग करके वे उपयुक्त उम्मीदवार को वोट डालते है। लेखक कहते हैं कि हार्डवेयर तो वही है लेकिन साफ्टवेयर को यानी हमारे दिमाग को लगातार इन कम्पनियों द्वारा हैक किया जाता है या उसे प्रभावित किया जाता है। और जाहिर सी बात है कि यह किसी एक पार्टी या उम्मीदवार के पक्ष में किया जाता है। इससे सत्ता और इन टेक कम्पनियों का गठजोढ़ स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा बन जाता है। लेखक अपने तर्क केे पक्ष में डोनाल्ड ट्रम्प के चुनाव का उदाहरण देता है। जिसे ‘कैम्ब्रिज एनालिटिका’ ने डोनाल्ड ट्रम्प के पक्ष में सफलतापूर्वक प्रभावित किया। कैम्ब्रिज एनालिटिका ने स्वीकारा कि उसने फेसबुक से मिले डाटा का इस्तेमाल किया। डोनाल्ड ट्रम्प के समर्थन में यह प्रचार अभियान इतना विशेषीकृत था कि आश्चर्य होता है। कामकाजी माओं को जब डोनाल्ड ट्रम्प का प्रचार प्रेषित किया गया तो उन्हें डोनाल्ड ट्रम्प की सिर्फ आवाज सुनाई गयी। इसके पीछे का तर्क यह था कि गोरे अमरीकी पुरूषों के बीच ट्रम्प की जो ताकतवर नस्लवादी पितृसत्तावादी इमेज गढ़ी गई थी उससे कामकाजी महिलाएं अपने को नहीं जोड़ पायेगी। इसलिए उन्हें सिर्फ आवाज सुनाई गयी वह भी बहुत नरम आवाज में। यहां तक कि ट्रम्प जब अपने चुनाव में आनलाइन चंदा इकट्ठा कर रहे थे तो स्क्रीन पर जो बटन दिखायी देता था वह किसी के लिए लाल रंग का होता था, किसी के लिए हरे रंग और किसी के लिए नीले रंग का। यह व्यक्ति की उसके रंग की पसंद के अनुसार किया गया था। जाहिर है इसे व्यक्तिगत आंकड़ों को बिना उस व्यक्ति की अनुमति के इकट्ठा करके उसकी प्रोफाइलिंग बनाके किया गया था। पहले के प्रचार और आज के प्रचार में यही फर्क है। पहले यदि प्रचार की एक होर्डिग लगी है तो उसे कोई भी देख सकता है। लेकिन डाटा के इस युग में मेरे फोन पर मेरी प्रोफाइलिंग के आधार पर प्रचार आयेगा और आपके फोन पर आपकी प्रोफाइलिंग के आधार पर। यहां आप थ्योरी के अन्त की बात समझ सकते हैं। कोई व्यक्ति क्यो एक खास वेबसाइट्स पर जाता है, इसके पीछे के कारणों को जानने की अब कोई जरूरत नहीं है। टेक कम्पनियों के पास यह आंकड़ा है कि आप इन साइट्स पर जाते है। उन्हें बस इसी आकड़े की जरूरत है। जिन्हें वे अपने हिसाब से इस्तेमाल कर सकते हैं, सरकारों के साथ साझा कर सकते हैं या दूसरी कम्पनियों को बेच सकते है।
किताब की दूसरी महत्वपूर्ण प्रस्थापना यह है कि ‘कनेक्टिविटी’ और ‘वैश्वीकरण’ के इस दौर में हम ‘ट्राइबलवाद’ की ओर जा रहे हैं। लेखक के अनुसार डाटा की बाढ़ ने जनता के बीच की विभिन्नताओं को बुरी तरह से उभार दिया है। लेखक ने उदाहरण दिया है कि भले ही हम अपनी भौगोलिक जगह पर अकेले ‘गे’ या ‘लेस्बियन’ हो लेकिन इंटरनेट के माध्यम से हमेे यह पता चल जाता है कि दुनिया में दूसरी जगहों पर ‘गे’ या ‘लेस्बियन’ किस हालात में रह रहे हैैं और उनके साथ उनका समाज कैसे पेश आ रहा है। इसी प्रक्रिया में इस तरह के सभी ‘ट्राइब‘ नेट पर अपने जैसे लोगो की तलाश में रहते हैं और उनके साथ लगातार जुड़ते रहते हैं। इस तरह कनेक्टिविटी के साथ साथ ही एक तरह की ‘रिवर्स कनेक्टिविटी’ भी चलती रहती है। और अपने अपने पुर्वाग्रहों के कारण इन ‘ट्राइब्स‘ में दूरियां बढ़ती रहती हैं।
यहां लेखक एक समान्यीकरण का शिकार हो गया है। वह इन ‘ट्राइब्स‘ में शोषित और शोषक या सटीक रूप से कहे तो दबाने वाला और दबा हुआ का बुनियादी फर्क भूल जाता है। निश्चय ही इण्टरनेट ने इस फर्क को बढ़ाया है, लेकिन यह फर्क समाज में पहले से है और इसके अपने निश्चित सामाजिक आर्थिक संास्कृतिक व राजनीतिक कारण हैं।
लेखक ने इस महत्वपूर्ण पहलू की ओर भी संकेत किया है कि गूगल, फेसबुक जैसी विशालकाय कम्पनियां सिर्फ अपनी रिसर्च के बल पर इतनी बड़ी नहीं बनी है। बल्कि इसके पीछे सैकड़ों उन छोटी ‘स्टार्टअप’ कम्पनियों की रिसर्च है जिन्हें ये कम्पनियां समय समय पर निगलती रही है। और आज भी निगल रही हैं। अपने देश में ही ‘ओला’ और ‘फ्लिपकार्ड’ का हस्र हम जानते है। हालांकि लेखक ने इस पहलू को नजरअंदाज किया है कि वास्तव में यह राज्य प्रायोजित फंडिग से संभव हुए रिसर्च का फायदा उठाकर ही ये कम्पनियां आगे बढ़ी है। ‘अप्रानेट’ (जिसे आज इण्टरनेट कहा जाता है) और ‘टच स्क्रीन’ जैसी बुनियादी चीजों की खोज जनता के पैसे से चलने वाले अनुसंधान कार्यक्रमों में हुई है। 1980-90 के बाद के निजीकरण ने इन खोजो का फायदा इन टेक कम्पनियों की झोली में डाल दिया। पिछले साल आई ‘Mariana Mazzucato’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘The Entrepreneurial State: Debunking Public vs. Private Sector Myths’ में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। भारत में भी हमेशा से ही पब्लिक सेक्टर का ‘आउटपुट’ प्राइवेट सेक्टर का ‘इनपुट’ हुआ करता था।
लेखक ने इस बात को भी बहुत ही मजेदार तरीके से बताया है कि सभी टेक कम्पनियां लोगों को अपनी टेक्नालाजी के माध्यम से एक सुन्दर भविष्य के सपने के बारे में भरोसा करने को कहती है लेकिन वे लोग व्यक्तिगत तौर पर सुन्दर भविष्य में यकीन नहीं रखते। क्योकि उन्हें पता हैं कि वे अपने बिजनेस माडल के माध्यम से पूरी दुनिया में जो असमानता निर्मित कर रहे हैैं वह किसी ना किसी दिन सामाजिक भूकम्प जरूर लायेगा। इसलिए इन टेक कम्पनियों के मालिक पृथ्वी पर चारों तरफ सम्पत्तियां खरीद रहे है। ताकि एक जगह कोई दिक्कत हो तो तुरन्त दूसरी जगह बसा जा सके। कुछ तो परमाणु रोधी बंकर तक का निर्माण करा रहे है।
इसके अलावा लेखक ने ‘इण्टरनेट आफ थिंग्स’ (Internet of things) के बारे में भी रोचक तरीके से बताया हैं। जब वस्तुएं जैसे आपकी फ्रिज, कार, एयरकंडीशन आदि भी इण्टरनेट से जुड़ जायेंगे और आपस में ‘बात‘ करने लगेंगे तब आपके बारे में जो विशाल डाटा प्रवाहित होगा, उस पर कब्जा रखने वाली कम्पनियां इसका कुछ भी दुरूपयोग कर सकती हैं। और इन कम्पनियों से सांठ गांठ करके राज्य आपको एक्विेरियम [Aquarium] की एक छोटी मछली के रूप में तब्दील करने की क्षमता प्राप्त कर लेगा।
दरअसल लेखक ने जिन खतरों की ओर इशारा किया है, खतरा दरअसल उससे कहीं बड़ा है। खतरा ‘सर्विलान्स कैपीटलिज्म’ (Surveillance capitalism) का है, जो आज के बदले हुए राजनीतिक आर्थिक हालात में और कुछ नहीं बल्कि ‘फासीवाद’ है।
तमाम खूबियों और रोचक शैली के बावजूद इस किताब की बड़ी कमजोरी यह हैै कि यह टेक्नोलाजी को समाज में मौजूद वर्ग सम्बन्धों से अलग करकेे देखती है। इसलिए 20 सूत्री इसका समाधान भी कृत्रिम और यूटोपियन है। दरअसल जो दिक्कत टेक कम्पनियों के साथ बतायी गयी है ठीक उसी तरह की दिक्कत विज्ञान की दुसरी तकनीकों या धाराओं के साथ भी है और रही है। उदाहरण के लिए मेडिसिन के क्षेत्र में क्या हो रहा है। मुनाफे की जकड़न ने ‘प्रेस्क्रिप्शन डेथ’ (Prescription death) नामक एक नया शब्द ही गढ़ दिया है। अकेले अमरीका में 2017 में कुल 72000 लोग दवाओं के ओवरडोज या गलत दवाओं के कारण मरे। यानी 200 लोग प्रति दिन। इसमें डाक्टरों द्वारा लिखी जाने वाली गैर जरूरी दवाओं और प्रचार के असर में खुद मरीजों द्वारा दुकान से खरीदी गयी दवाएं शामिल हैं। एक ‘जीन रिसर्च प्रोग्राम’ को फंड कर रही ‘गोल्डमान साक’ [Goldman Sachs] की एक रिपोर्ट पिछले साल ही लीक हो गयी थी जिसमें उसने कहा कि कैसर के इलाज के लिए किया जा रहा जीन रिसर्च अच्छा बिजनेस माडल नहीं है। क्योकि जीन में परिवर्तन करने से व्यक्ति को अपने जीवन में कभी भी कैन्सर नहीं होगा और इससे दवा उद्योग को लगातार मिलने वाला मुनाफा बन्द हो जायेगा।
दूसरी बड़ी दिक्कत लेखक की यह है कि जब समाधान की बात आती है तो वे मध्य वर्ग की तरफ आशा भरी नजर से देखते हैं। समाज की निचली पायदान पर बैठे वर्ग यानी मजदूरों-किसानों को वे अपने डिस्कोर्स में जगह ही नहीं देते। जबकि बड़ी टेक कम्पनियों सहित तमाम कम्पनियों की मुनाफे की हवस के सबसे ज्यादा शिकार ये वर्ग ही है।
आज जब यह कहा जा रहा है कि ‘Data is the new oil’ तो यह नया आयल आम जनता का ही है। और इस आयल पर जनता की कब्जेदारी के साथ साथ आर्थिक राजनीतिक व सांस्कृतिक सस्थाओं व नीतियो पर भी इनकी कब्जेदारी से ही दुनिया बच सकती है और मानवजाति का भविष्य बच सकता है।

जेमी बार्टलेट ने इसी विषय पर बीबीसी के साथ मिलकर ‘सीक्रेट्स आफ सिलीकान वैली’ (Secrets Of Silicon Valley ) नामक महत्वपूर्ण डाकूमेन्ट्री भी बनायी है। उसे भी देखा जा सकता है।

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Kameradschaft [Comradeship]


मेघालय के पूर्वी जैनतिया पहाड़ी पर एक गैर कानूनी कोयला खदान में फंसे 15 खनिकों को आज 26 दिन बाद भी बचाया नहीं जा सका और अभी अभी खबर आ रही है कि वहीं पर पास की एक दूसरी गैरकानूनी कोयला खदान में एक बोल्डर गिर जाने से 2 मजदूरों की मौत हो गयी।

1931 में जर्मनी और फ्रांस के संयुक्त बैनर तले एक फिल्म बनी थी ‘कामरेडशिप’। यह फिल्म भी एक कोयला खदान की दुर्घटना पर केन्द्रित हैं जो फ्रांस और जर्मनी की सीमा पर स्थिति है। दरअसल यह फिल्म एक असल घटना पर आधारित है। 1906 में उत्तरी फ्रांस की एक खदान में हुई दुर्घटना में 1099 मजदूर मारे गये थे। फ्रांस और जर्मनी के बीच मौजूदा तनाव के बावजूद जर्मन खदान मजदूरों की एक टीम यहां बचाव कार्य के लिए आयी थी। इस ऐतिहासिक घटना को फिल्म के निर्देशक ‘जी डब्ल्यू पास्ट’ ने 1906 की सेटिंग में ना रखकर 1919 की ऐतिहासिक सेटिंग में रखा है। यानी प्रथम विश्व युद्ध के तुरन्त बाद या ‘वर्साई सन्धि’ के बाद।
फिल्म के पहले दृश्य में फ्रांस-जर्मनी सीमा पर व कोयला खदान के नजदीक एक जर्मन व एक फ्रेंच बच्चा कंचा खेल रहे है और कंचे के लिए ही लड़ जाते हैं। इसके बाद के एक दूसरे दृश्य में एक डांस क्लब में एक फ्रंेच लड़की एक जर्मन मजदूर के साथ डांस करने से इंकार कर देती है। जर्मन मजदूर इसे अपना अपमान समझता है। इन दो दृश्यों से निर्देशक स्पष्ट संकेत दे देता है कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद विशेषकर वर्साई संधि के बाद दोनों देशों के बीच क्या सम्बन्ध है। इसके साथ ही खदान मजदूरों की जिंदगी की जद्दोजहद, युद्ध के बाद बढ़ती बेरोजगारी आदि के बहुत संजीदा व यथार्थवादी चित्र हैं। इसी बीच खदान से खबर आती है कि नीचे खदान में आग लगने से कई मजदूर फंस गये हैं। खदान मजदूरों के परिवार के लोग बदहवास खदान की ओर भागते हैं। एक बूढ़ा खदान मजदूर खदान कर्मचारियों से नजर बचाते हुए अकेले ही अपने पोते को खोजने खदान में उतर जाता है।
इसी बीच सीमा के इस पार जर्मनी में खदान मजदूरों को इस दुर्घटना के बारे में पता चलता है। एक जर्मन मजदूर स्वयं पहलकदमी लेते हुए एक भावनात्मक भाषण देता है और साथी मजदूरों से अपील करता है कि हमें उन्हें बचाने के लिए चलना चाहिए। उस समय के जहरीले राष्ट्रवादी माहौल के शिकार कुछ मजदूर इसका विरोध करते हैं और कुछ अपने बीबी बच्चों का हवाला देते हैं। तो जवाब मिलता है कि जो वहां खदान में फंसे हुए हैं उनके भी तो बीबी बच्चे हैं। उनके बारे में कौन सोचेगा। इस दिलचस्प बहस के बाद एक जर्मन टुकड़ी फ्रांस की सीमा की ओर चल देती है। उधर इस टुकड़ी को आता देख पहले यह कनफ्यूजन होता है कि जर्मन टुकड़ी हमले के लिए तो नहीं आ रही है। परन्तु बाद में कनफ्यूजन दूर होता है। और वहां विशेषकर खदान में फंसे मजदूरों के परिवार जनों द्वारा इनका जोरदार स्वागत होता है। और फ्रांस के बचाव दल के साथ जर्मन बचाव दल भी सक्रिय हो जाता है। यहां जब जर्मन बचाव दल का एक मजदूर और फ्रेंच बचाव दल का एक मजदूर आपस में हाथ मिलाते हैं तो कैमरा यहां जूम होता है और कुछ देर तक कैमरा टिका रहता है। फिल्म का पोस्टर भी इसी दृश्य का ‘फ्रीज फ्रेम’ है। सन्देश स्पष्ट है। आज के दौर में जब अन्ध-राष्ट्रवाद की जहरीली आंधी पूरी दुनिया में चल रही है तो यह दृश्य मन को बहुत सुकून देता है।
खदान के अन्दर जब एक फ्रेंच मजदूर, जर्मन मजदूर को मास्क लगाये आता देखता है तो उसकी युद्ध की यादें ताजा हो जाती है और खदान मानों युद्ध भूमि में बदल जाती है। फ्लैश बैक में युद्ध के दृश्य चलने लगते हैं, इसी बीच फ्रेन्च मजदूर उस जर्मन बचाव दल के मजदूर पर झपट पड़ता है और गुत्थम गुत्था हो जाता है। बड़ी मुश्किल से जर्मन मजदूर उसे अपने से अलग करता है तब जाकर उस फ्रेंच मजदूर को अहसास होता है कि यह जर्मन मजदूर अपना दुश्मन नहीं दोस्त है। वर्ग भाई है। यह पूरा दृश्य कमाल का है। और बिना किसी डायलाग के उस दौर की पूरी ट्रªेजडी [tragedy] को तो बयां करता ही है, उस दौर की आशा यानी ‘सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद’ की सर्वोच्चता को भी बहुत ही कलात्मक व असरदार तरीके से स्थापित कर देता है।
साम्राज्यवादी-पूंजीवादी हवस और अन्धराष्ट्रवाद के इस दौर में यह फिल्म अपने समय से कहीं ज्यादा आज प्रासंगिक लगती है।
फिल्म में कैमरा वर्क कमाल का है। उस दौर में जब हाथ वाले कैमरे अभी चलन में नहीं आये थे, ऐसे में खदान के अन्दर अनेकों एंगल से शुट करना आसान काम ना था (हालांकि खदान को कृत्रिम तरीके से डिजाइन किया गया था, लेकिन यथार्थ के आग्रह के कारण इसमें भी कैमरा-मूवमेन्ट के लिए काफी अवरोध थे।)। उस जमाने की फिल्म में ‘रिवर्स ट्रैकिंग शाट’ का इतना अच्छा इस्तेमाल आश्चर्य में डाल देता है।
सबसे बढ़कर बात तो यह है कि आज की फिल्मों में जब मजदूरों-किसानों व गरीबों के चेहरे गायब होते जा रहे हैं तो ऐसी फिल्म देखना बहुत ही शानदार अनुभव है जहां सिर्फ मजदूर ही मजदूर है और वो भी अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी और भविष्य के विजन के साथ। सच तो यह है कि सिनेमा से मजदूरों का रिश्ता काफी पुराना है,दरअसल ‘फिल्म’ ने सबसे पहले जिस चेहरे को चूमा था वह मजदूर का ही चेहरा था। ‘लुमये बन्धुओं’ ने 1895 में जो पहली फिल्म बनायी वह एक ‘फैक्ट्री गेट से निकलते मजदूरों’ की ही थी [और रोचक व सुखद बात यह है कि इसमें ज्यादा संख्या महिला मजदूरों की है]। लेकिन जैसे जैसे (विशेषकर 1970-80 के बाद) मजदूरों की विचारधारा समाजवाद ‘कमजोर’ पड़ने लगी और फिल्म माध्यम पर पूंजीवादी चाशनी चढ़ने लगी, वैसे वैसे जल जंगल जमीन से विस्थापन की तरह ही उनका फिल्मों के विषय से भी विस्थापन होने लगा।
लेकिन जैसे जल जंगल जमीन से विस्थापन के खिलाफ मजदूरों-किसानों का बहादुराना संघर्ष जारी है वैसे ही प्रतिबद्ध फिल्मकारों की एक धारा मजदूरों-किसानों को इस ‘वर्जित क्षेत्र’ में प्रवेश दिलाने के लिए फिल्म माध्यम में नये नये प्रयोग कर रही है। उन सभी लोगों के लिए यह फिल्म अंधकार में एक जलती मशाल की तरह है।

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Look Who’s Back : हिटलर ज़‍िन्‍दा है


हिटलर ज़‍िन्‍दा है, कभी वह अख़लाक के फ्रीज़र के गोश्‍त में घुस जाता है, कभी वह जुनैद की टोपी के धागों में उलझ जाता है, कभ्‍ाी वह पहलू ख़ान और रकबर ख़ान के मवेशियों के झुण्‍ड में घुस जाता है, तो कभी वह किसी मुसलमान युवक बुज़ुर्ग को पीट-पीट के मारने वाले लम्‍पटों में शामिल हो जाता है तो कभी एक आठ साल के बच्‍चे को पीट के मारने वालों में शामिल हो जाता है. हिटलर ज़‍िन्‍दा है, वह शामिल है, पुलिस वालों की साम्‍प्रदायिक सोच और कार्यवाइयों में, न्‍यायपालिका के फैसलों में, प्रधानमंत्री के भाषणों में. वह शामिल है कहानियों में, कविताओं में, फिल्‍मों में. महिलाओं के प्रति छेड़छाड़ में, हिंसा में, वह ज़‍िन्‍दा है ब्राम्‍हणवादियों के शुद्ध रक्‍त में.
दरअसल हिटलर कभ्‍ाी मरा ही नहीं. बीच-बीच में वह सिर उठाता ही रहता है कभी हमारे ही भीतर तो कभी छुपे रूप में. लेकिन यह भी सच है कि हिटलर के सिर उठाने के खिलाफ़ व्‍यापक प्रतिरोध भी है. प्रतिरोध है टी एम कृष्‍णा के सुरीले सुरों में, औरतों के साहसी प्रतिरोधों में और चारो ओर चल रहे जनता के प्रतिरोधों में.
लेकिन क्‍या हो अगर हिटलर आज पुन: अपनी क़ब्र से सशरीर ज़‍िन्‍दा हो जाये तो. जी हां, यह सच है, यह सच हुआ 2012 में लिखा गया तिमूर वर्मीज के बेस्‍टसेलर उपन्‍यास ‘लुक हू इज़ बैक’ में. देखते ही देखते इसकी लाखों प्रतियां बिक गयीं. 2015 में इसी उपन्‍यास पर आधारित करके डेविड वानेन्‍ड्त ने एक फिल्‍म बनायी – ‘लुक हू इज़ बैक’.
तंज़‍िया शैली में बनी इस फि़ल्‍म में हिटलर आज 21वीं सदी में वास्‍तव में उस पार्क से उठ बैठता है जिसमें कभी उसका बंकर हुआ करता है. हिटलर को 1945 के बाद की कोई याददाश्‍त नहीं है. वह मौजूदा जर्मनी में घूमता है और धीरे-धीरे उसका रुतबा काबिज़ होता जाता है. अन्‍त में एक बूढ़ी नानी उसे पहचान कर नफ़रत से भर उठती है और उसे अपने घर से बाहर निकाल देती है. हिटलर के माध्‍यम से टीआपी बटोरने वाला एक टेलीविजन चैनल एक प्रोग्राम के माध्‍यम से लोगों के सामने हिटलर को पेश करते हैं (याद करें आज भारत के टीवी चैनल किस तरह फासीवादी कार्यक्रमों के ज़रिये टीआरपी बटोर रहे हैं) अन्‍त में हिटलर को मारने की कोशिश नाकाम हो जाती है और वह एक विजयी की तरह खुली गाड़ी में बैठ कर जर्मनी की सड़कों पर निकलता है. इसी समय शुरू हो जाता है हिटलर के खिलाफ़ जनता का प्रतिरोध. और यहीं यह फि़ल्‍म खत्‍म हो जाती है.
एक अविश्‍वसनीय सी स्क्रिप्‍ट के साथ बनी यह फि़ल्‍म बहुत आसान फि़ल्‍म नहीं है. इसमें सिलसिलेवार तरीके से कहानी नहीं चलती. बल्कि तंज की शक्‍ल में यह फि़ल्‍म हमें बार-बार अहसास दिलाती है कि हिटलर कैसे हमारी ज़‍िन्‍दगी में सायास घुस गया है. हिटलर के माध्‍यम से यह एक ऐसा तंज है कि जब किसी दृश्‍य में हम हंसते हैं तो अगले ही पल हमारा गला रुंधने लगता है. कि हमने ही तो इस फासिस्‍ट को पनाह दी है. हमने ही वोट देकर ‘लोकतान्त्रिक’ माध्‍यम से सारी दुनिया में हिटलरों को चुना है. ये हिटलर जनता से अपनी वैधता हासिल कर जनता पर दमन करते हैं.
समूची दुनिया में चल रहे दक्षिणपंथी आंधी के रूप में हिटलर की वापसी और शरणार्थी संकट पर यह फिल्‍म ज़बरदस्‍त तंज़ करती है.
नहीं, हिटलर कोई मज़ाक नहीं है. हिटलर एक यथार्थ है जो आज हमारे ख़यालों में घुस गया है. ज़रूरत है हमारे ज़हन से हिटलर के रूप में मौजूद फासीवाद के ज़हर को खुरच-खुरच के मिटा देने की. आज हर तरफ़ सिर उठा रहे हिटलरों में को कुचल देने की. देखो हिटलर जि़न्‍दा है की कहानी कहती यह फिल्‍म एक आज के दौर की एक ज़रूरी फि़ल्‍म है.

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The Power of the Documentary by John Pilger

John Pilger


There are 26 films in this festival and each one pushes back a screen of propaganda – not just the propaganda of governments but of a powerful groupthink of special interests designed to distract and intimidate us and which often takes its cue from social media and is the enemy of the arts and political freedom.

Documentary films that challenge this are an endangered species. Many of the films in the festival are rare. Several have never been seen in this country. Why?

There is no official censorship in Australia, but there is a fear of ideas. Ideas of real politics. Ideas of dissent. Ideas of satire. Ideas that go against the groupthink. Ideas that reject the demands of corporatism. Ideas that reach back to the riches of Australia’s hidden history.

It is as if our political memory has been hijacked, and we’ve become so immersed in a self-regarding me-ism that we’ve forgotten how to act together and challenge rapacious power that is now rampant in our own country and across the world.

The term “documentary” was coined by the Scottish director John Grierson. “The drama of film,” he said, “is on your doorstep. It is wherever there is exploitation and cruelty.”

I like those words: “on your doorstep”.

What they say is that the blood, sweat and tears of ordinary people have given us the atrt form that is the documentary film.

A documentary is not reality TV. Political documentary is not the consensual game played by politicians and journalists called “current affairs”.

Great documentaries frighten the powerful, unnerve the compliant, expose the hypocritical.

Great documentaries make us think, and think again, and speak out, and even take action.

The festival will show a documentary called Harvest of Shame directed by Susan Steinberg and Fred Friendly and featuring the great American journalist Edward R. Murrow.

Made in 1960, this film helped pave the way to the first Civil Rights laws that finally ended slavery in the United States, though not the oppression borne of slavery. It has great relevance in the age of Donald Trump, Theresa May and Scott Morrison.

The festival will show a remarkable film entitled I am Not Your Negro, in which the writer James Baldwin speaks not only for African-Americans but for those who are cast aside everywhere, and these include the First Nations people of Australia, still invisible in the country that is unique only because of them.

Next week, we shall show The War Game.

The War Game was made for the BBC in 1965 by Peter Watkins, a brilliant young film-maker then in his early 20s. Watkins achieved the impossible: he re-created the aftermath of a nuclear attack on a town in southern England.

No one has ever matched Peter Watkins’ achievement, or the direct challenge of his art to the insanity of nuclear war. What he did was so authentic it terrified the BBC, which banned The War Game from television for 23 years.

In one sense, this was the highest compliment. His 48-minute black-and-white film had scared the powerful out of their wits. As unclassified files reveal, they knew The War Game would change minds and cause people to question Cold War policies. They knew it might even turn people away from war itself, and save lives.

Today, not a frame of The War Game has been altered, yet it’s right up to date.

Not since the 1960s have we been as close to the risks and provocations and mistakes that beckon nuclear war. The news won’t tell you that. The incessant alerts on your smart phone won’t tell you that.

Governments in Australia – a country with no enemies – seem determined to make an enemy out of China, a nuclear armed power, because that is what America wants.

The propaganda is like a drumbeat. TV and newspapers have joined a chorus of American admirals, inexpert experts and spooks in demanding we take the final steps to a confrontation with China and Russia.

Donald Trump’s vice president, a religious fanatic called Mike Pence, destroyed this month’s APEC conference with his demands for conflict with China. Not a single voice in Australia’s privileged, deferential elite spoke out.

Well-paid journalists have become gormless cyphers of the propaganda of war: lies known these days as fake news and spread by the intelligence agencies. How shaming.

The aim of this festival is to break that collusive silence – not only with The War Game but with documentaries like The War You don’t See and The Coming War on China, and Australian documentaries such as Dennis O’Rourke’s haunting Half Life, Curtis Levy’s The President Versus David Hicks and Salute, Matt Norman’s film about his uncle, Peter Norman, the most courageous and least known of our sporting heroes: the silver medalist who stood on the 1968 Olympic dais with Tommie Smith and John Carlos, whose fists were held high.

The festival will welcome Alec Morgan, who will introduce his historic film, Lousy Little Sixpence. This landmark documentary revealed the secrets and suffering of the Stolen Generation of Indigenous Australia.

We owe a debt to Alec Morgan, who made his film in the early 1980s, around the time Henry Reynolds published his epic history of Indigenous resistance, The Other Side of the Frontier. Together, they turned on a light in Australia.

Alec’s film has never been more relevant. Last week, the New South Wales Parliament passed a law which, for many Aboriginal people, brings back the whole nightmare of the Stolen Generation. It allows the adoption of their children. It allows welfare troopers to turn up at dawn and take babies from birth tables. This was barely news, and it is a disgrace.

I have made 61 documentaries. My first, The Quiet Mutiny, was filmed in 1970 when I was a young war reporter. The Quiet Mutiny revealed a rebellion sweeping the US military in Vietnam. The greatest army was crumbling. Young soldiers were refusing to fight and even shooting their officers.

When The Quiet Mutiny was first broadcast in Britain, the American ambassador, Walter Annenberg, a close friend of President Nixon, was apoplectic. He complained bitterly to the TV authorities and demanded that something be done about me. I was described as a “dangerous subversive”.

This is the highest honour I have received, and I bestow it on all the film makers in this festival. They, too, are dangerous subversives.

One of them is the Mexican director Diego Quemada-Diez whose film, The Golden Dream takes us on a perilous journey through Central America to the US border. It could not be more relevant. The heroes are children: the kind of children Peter Dutton and Scott Morrison and Donald Trump would call “illegal migrants”.

I urge you to come and see this film and to reflect on the crimes our own society commits against children and adults sent to our Pacific concentration camps: Nauru, Manus Island and Christmas Island: places of shame.

Of course, many of us are bothered by the outrages of Nauru and Manus. We write to the newspapers and hold vigils. But then what?

One film in the festival attempts to answer this question.

On 6th December, we shall show Death of a Nation: the Timor Conspiracy, which the late David Munro and I made 25 years ago.

David and I filmed undercover in East Timor when that nation was in the grip of the Indonesian military. We were witnesses to the destruction of whole communities while the Australian government colluded with the dictatorship in Jakarta.

This documentary became part of one the most effective and inspiring public movements in my lifetime. The aim was to help rescue East Timor.

There is a famous sequence in Death of a Nation in which Gareth Evans, foreign minister in the Labor governments of the 80s and 90s, gleefully raises a glass of champagne to toast his Indonesian counterpart, Ali Alatas, as they fly in an RAAF plane over the Timor Sea.

The pair of them had just agreed to carve up the oil and gas riches of East Timor.

They were celebrating an act of piracy.

Earlier this year, two principled Australians were charged under the draconian Intelligence Services Act. They are whistleblowers. Bernard Collaery is a lawyer, a tireless champion of refugees and justice. Collaery’s crime was to have represented an intelligence officer in ASIO, known as Witness K, a man of conscience.

They disclosed that the government of John Howard had spied on East Timor so that Australia could defraud a tiny, impoverished nation of the proceeds of its natural resources.

Today, the Australian government is trying to punish these truth tellers no doubt as an example to us all – just as it tried to suppress the truth about Australia’s role in the genocide in East Timor, and in the invasions of Iraq and Afghanistan, just as it has colluded with Washington to silence the courageous Australian publisher Julian Assange.

Why do we allow governments, our governments, to commit great crimes, and why do so many of us remain silent?

These are questions for those of us privileged to be allowed into people’s lives and be their voice and seek their support. It is a question for film-makers, journalists, artists, arts administrators, editors, publishers.

We can no longer claim to be innocent bystanders. Our responsibility is urgent; as Tom Paine impatiently wrote: “The time is now.”

[http://johnpilger.com/ से साभार ]

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Sankofa

‘ओपन वेन्‍स ऑफ लैटिन अमरीका’ जैसी चर्चित पुस्‍तक के लेखक ‘एडुवार्डो गैलीयानों’ ने कही इतिहास के बारे में लिखा है कि इतिहास कभी भी हमें अलविदा नहीं कहता, बल्कि कहता है- फिर मिलेंगे (History never really says goodbye. History says, ‘See you later.’)। इस बार अफ्रीका के गुलामी वाले दौर के इतिहास से मुलाकात अमरीका में क्रान्तिकारी ब्‍लैक सिनेमा के प्रमुख प्रतिनिधि ‘हेली गरीमा’ (Haile Gerima) की शानदार और प्रभावकारी फिल्‍म सन्‍कोफा (Sankofa) में हुई। और संयोग यह है कि अफ्रीका की एक भाषा में सन्‍कोफा का मतलब भी यही होता है कि अतीत में जाओ और वहां से ऐसी चीज लाओ जिससे भविष्‍य की ओर आगे बढ़ा जा सके। सन्‍कोफा का प्रतीक चिन्‍ह उस सन्‍कोफा पंक्षी को भी आप देखेगे तो उसका सिर पीछे की ओर आैर उसके पैर आगे की ओर दर्शाया गया हैं।
फिल्‍म की शुरूआत ‘घाना’ के एक शहर में उस किले से होती है जहां अतीत में अफ्रीकी गुलामों को अमरीका ले जाये जाने से पहले चेन-हथकड़ी में बांध कर रखा जाता था। एक काला अफ्रीकी गाइड गोरे लोगों को इस किले का भ्रमण करा रहा है और उन्‍हें प्रभावित करने के उद्देश्‍य से उसका इतिहास बता रहा है। वही किले के बाहर एक अफ्रीकन मूल की ब्‍लैक अमरीकन माडल ‘मोना’ एक गोरे अमरीकन से अपना ‘सेक्‍सी फोटोशूट’ करा रही है। किले का स्‍वघोषित ‘सन्‍कोफा’ इस पूरे क्रिया व्‍यापार को देखकर गुस्‍से में है। और क्रोधित होकर बता रहा है कि यहां काले अफ्रीकियों के साथ कितना अत्‍याचार हुआ है। किले के काले सुरक्षागार्ड उसे बार बार हटाते हैं और वह बार बार उन गोरे टूरिस्‍टों के सामने आ जाता है। अमरीकन माडल मोना पर वह क्रोध से चिल्‍लाते हुए कहता है कि अतीत में जाओ, अतीत में जाओ। मानो वह उसे श्राप दे रहा हो। अगले दृश्‍य में, अपनी जड़ों, अपने इतिहास से पूरी तरह अपरिचित अमरीकन माडल मोना जब अपनी जिज्ञासावश उस किले में प्रवेश करती है तो वह घटित होता है जिससे ना सिर्फ मोना बल्कि दर्शक भी स्‍तब्‍ध रह जाते हैं। किला अपने आप बन्‍द हो जाता है। किले में धुप्‍प अंधेरा छा जाता है। और मोना अपने आप को सैकड़ों साल पहले यहां कैद किये गये अपने पूर्वजों यानी अफ्रीकी गुलामों के बीच पाती है। उसके साथ भी अब वही किया जाता है जो उसके पूर्वजों के साथ किया गया था। उसे भी गुलाम बनाकर जलती राड से दागकर अमरीका के प्‍लान्‍टेशन क्षेत्र में गुलामी के लिए भेज दिया जाता है। जब मोना को पकड़कर दागा जा रहा था तो वह चिल्‍लाती है कि वह अमरीकन है अफ्रीकन नहीं है। लेकिन गोरों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह एक पावरफुल कमेन्‍ट है आज के अमरीकी लाेकतंत्र के तथाकथित समावेशीकरण पर।
इस पूरे दृश्‍य को ‘हेली गरीमा’ ने काले अफ्रीकी गुलामों के ‘टफ फेशियल एक्‍सप्रेशन’ के माध्‍यम से लगभग स्टिल फोटोग्राफी के समीप के ‘क्‍लोज अप’ में इतने दमदार तरीके से फिल्‍माया है कि दर्शक भी उस दौर के इतिहास से आंख मिलाने की स्थिति में आ जाता है (इस दृश्‍य की तुलना ‘आक्रोश’ फिल्‍म में जेल में बन्‍द ओमपुरी के चेहरे के भाव से की जा सकती है)। पर्दे पर फिल्‍मायें गये इन ‘शान्‍त’ गुलाम चेहरों का फूटता आक्रोश, गुलामों की पुरानी परम्‍रागत इमेज को मानों बारूद लगाकर ध्‍वस्‍त कर देता है। पृष्‍ठभूमि में अफ्रीका का उन्‍मत्‍त कर देने वाला मादक संगीत (विशेषकर अफ्रीकी ड्रम, जिसे फिल्‍म की शुरूआत में ही सन्‍कोफा को मदमस्‍त होकर बजाते दिखाया गया है।) इसे और प्रभावकारी बना देता है और दर्शकों को पूरी तरह अपनी जकड़ में ले लेता है। ये दृश्‍य उन तमाम गोरे डायरेक्‍टरों की इस तरह के विषयों पर बनी फिल्‍मों के दृश्‍यों से अलग है जहां गुलामों के चेहरो पर प्राय: दीनता का बोध होता है। इस तरह से हेली गरीमा यहां प्रभावपूर्ण तरीके से अपना एक ‘ब्‍लैक एस्‍थेटिक’ भी रच रहे हैं।
बहरहाल बाद की कहानी गुलामों के शोषण, उनके आपसी मानवीय जटिल सम्‍बन्‍धों और उनके निरन्‍तर प्रतिराेध और सामुहिक बगावत की कहानी है। ‘नूनू’ नामक एक ब्‍लैक महिला गुलाम से बलात्‍कार के कारण पैदा हुए उसके पुत्र ‘जो’ की जटिल पहचान और नूनू यानी ‘जो’ की मां के त्रासद मृत्‍यु के बाद अपनी मूल पहचान की खोज की कहानी है, और काले गुलामों के साथ र्इसाई धर्म के रिश्‍ते की कहानी है। यहां मरियम और ईसा मसीह के ‘मासूम’ चित्रों को फिल्‍म के दूसरे दृश्‍याें के साथ जिस खूबी से कन्‍ट्रास्‍ट में फिल्‍माया गया है वह अपने में फिल्‍म के एक स्‍वतंत्र आयाम को खोलता है (यहां क्‍यूबा के मशहूर डायरेक्‍टर ‘तोमास एलिया’ की फिल्‍म ‘द लास्‍ट सपर’ की याद ताजा हो जाती है)। फिल्‍म के अन्‍त में गुलामों का प्रतिरोध सफल होता है और मोना (जो वहां ‘शोला’ नाम से है) भी अपने प्‍लान्‍टेशन मालिक के बलात्‍कार के प्रयास को असफल करते हुए और उसका कत्‍ल करते हुए अपने वर्तमान में लौट आती है। अब वह बदली हुई मोना है। उसका ‘सन्‍कोफा’ पूरा हो चुका है। अब उसके कपड़े अफ्रीकी हैं। उसका फोटोशूट करने वाले गोरे फोटोग्राफर को अब वह पहचानती नहीं हैं और ड्रम बजाने वाले सन्‍कोफा के साथ बैठकर मानो अब वह उस अफ्रीकन संगीत में भविष्‍य का रास्‍ता तलाश रही है। उसके चेहरे का भाव अब शान्‍त, भविष्योन्मुख, गौरवमय और आत्‍मविश्‍वास से भरा हुआ है।
इसी पड़ाव पर ‘जेम्‍स बाल्‍डविन’ की वह मशहूर पंक्ति कानों में गूंजने लगती है- ‘मनुष्‍य इतिहास में कैद है और इतिहास मनुष्‍य में कैद है’(People are trapped in history and history is trapped in them.)
हेली गरीमा 1960-70 के दशक के उस ब्‍लैक फिल्‍म आन्‍दोलन के प्रमुख प्रतिनिधि रहे है, जिसे ‘लांस एंजेल्‍स रिबेलयन ग्रुप’ (L.A. Rebellion Group) के नाम से जाना जाता है। इससे जुड़े फिल्‍मकारों ने काले अफ्रीकियों और उनके मुदृदों पर ना सिर्फ उन्‍ही के परिप्रेक्ष्‍य से फिल्‍में बनायी बल्कि अपनी फिल्‍मों में काले-अफ्रीकियों की ऐसी इमेज गढ़ी जिससे काले-अफ्रीकी अपने आप को इस रूप में पहचान सके जैसे मोना ने अपनी सन्‍कोफा यात्रा के बाद अपने को पहचाना।
हेली गरीमा अपने एक इन्‍टरव्‍यू में कहते हैं कि जब एक काला व्‍यक्ति अपने चारो तरफ नज़र दौड़ाता है तो वह प्रचार पोस्‍टरों-होर्डिंगों, फिल्‍मों, पत्रिकाओं, टेलिविजन आदि में चित्रित असंख्य ‘परफेक्‍ट इमेज’ के ‘बूबीट्रैपों’ से गुजरता है जो ना सिर्फ उसके आत्‍मविश्‍वास को बल्कि उसके समूचे व्‍यक्तित्‍व को लगातार ध्‍वस्‍त करता रहता है। इसके अलावा उसके ऊपर ‘परफेक्‍शन’ का जो लगातार हमला होता है (यानी इसी उच्‍चारण में बोलना है, ऐसा ही व्‍यवहार करना है, ऐसे ही चीजों को अंजाम देना है, ऐसी और इसी तरह फिल्मे बनानी हैं आदि) वह एक तरह का ‘कल्‍चरल जेनोसाइड'(Cultural genocide) है।
हेली गरीमा इस ‘परफेक्‍शन’ के खिलाफ ‘इमपरेक्‍शन’ को सेलेब्रेट करते हैं और अपनी फिल्‍म को भी ‘इमपरफेक्‍ट सिनेमा’ की परम्‍परा में गर्व से रखते हैं। हेली गरीमा जैसे फिल्‍मकार अपनी फिल्‍मों में इमेज का एक ‘काउन्‍टर नैरेटिव’ रचते हैं जो उस ध्‍वस्‍त व्‍यक्तित्‍व और ध्‍वस्‍त आत्‍मविश्‍वास को दुबारा से गढ़ते हुए उसे उसकी जड़ों तक पहुंचाने में उसकी मदद करते हैं और एक तरह से उसका ‘सन्‍कोफाकरण’ करते हैं।
यहां आप इस फिल्‍म की एक झलक देख सकते हैं।

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‘सआदत हसन’ मर गया ‘मंटो’ जिन्दा है……….

मैं उस सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा जो पहले से ही नंगी है। उसे कपड़े पहनाना मेरा काम नहीं है। यह काम दर्जी का है।- मंटो

2017 के ‘जश्न-ए-रेख़्ता’ में जब मैंने ‘नंदिता दास’ को यह कहते सुना कि वे ‘सआदत हसन मंटो’ पर फिल्म बना रही हैं तो मैं कतई उत्साहित नहीं थी। अपने पिछले अनुभवों से मुझे यही लगा कि वे मंटो के जीवन को कुल मिलाकर कुछ अच्छे कपड़े ही पहनाने का काम करेंगी। लेकिन आज जब मैंने फिल्म देखी तो अवाक रह गयी। जिस शिद्दत के साथ उन्होंने और उनकी पूरी टीम ने मंटो और उनके तत्कालीन परिवेश को पर्दे पर उतारा है वह वही कर सकता है जिसमें बकौल नन्दिता दास कुछ ‘मंटोवियत’ अभी बाकी हो।
मंटो कुछ उन कलाकारों में से थे जिन्हें अपनी कला या अपने सच पर इस कदर आस्था थी कि वे उसके पोषण के लिए खुद अपना ही शिकार करने को बाध्य हो जाते थे। इसे ही ‘आत्महंता आस्था’ कहते है। उन्ही के समकालीन बंगाल के ‘ऋत्विक घटक’ भी ऐसे ही कलाकार थे। दोनो को ही अपने जीते जी वो सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने अपने कारणों से दोनों को ही उस समय की प्रगतिशील धारा (मुख्यतः ‘इप्टा’ और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’) से तिरस्कार मिला। जिससे उन्हें गहरी पीड़ा हुई।
फिल्म में जब ‘फैज अहमद फैज’ मंटो की रचना ‘ठण्डा गोश्त’ पर अश्लीलता के आरोप से तो इंकार करते है, लेकिन साथ ही साथ यह भी जोड़ देते हैं कि अदब के हिसाब से यह कोई उल्लेखनीय कृति नहीं है तो मंटो बने ‘नवाजुद्दीन सिद्दीकी’ के चेहरे पर जो दर्द का भाव आता है वह हिलाकर रख देता है। एक दूसरे दृश्य में मंटो अपने इसी दर्द को बयां करते हुए कहते हैं कि इससे तो अच्छा था कि फैज साहब इसे अश्लील रचना ही मान लेते। दरअसल कोई भी कलाकार उस समय अपने को बहुत अकेला महसूस करने लगता है जब उसके अपने सहोदर लोग ही उसे ना समझ पायें या गलत समझ लें। यही वह समय होता है जब वह अपने भीतर ही विस्फोट करने को बाध्य हो जाता है। यह विस्फोट भले ही उस कलाकार के चीथड़े उड़ा दे, लेकिन इसकी अनुगूंज भविष्य में प्रगतिशील धारा के मुहाने को और चौड़ा बनाने में सफल होती है। मंटो भी इसमें सफल रहे। आज मंटो की रचनाओं के विषय ‘जदीदियत’ और ‘तरक्की पसन्द’ अदब का अनिवार्य हिस्सा बन चुके हैं। फिल्म में भी इस विस्फोट की अनुगूंज हमे साफ सुनाई देती है।
यूरोप में एक समय ‘काफ्का’ को ‘लूकाच’ समर्थक परम्परागत मार्क्सवादी आलोचक, पूंजीवादी-पतित लेखक ही मानते थे। बाद में ‘ब्रेख्त’ और अन्य मार्क्सवादी रचनाकारों ने उन्हें साहित्य में स्थापित किया और प्रगतिशील-मार्क्सवादी धारा का मुहाना और चौड़ा किया। मंटों की तुलना अक्सर फ्रांसीसी रचनाकार ‘मोपांसा’ से की जाती है। यह आश्चर्यजनक है कि मोपांसा पर ‘तोलस्तोय’ ने अश्लीलता और आम लोगो में भविष्य ना देख पाने का लगभग वही आरोप लगाया था जो मंटो पर उनके समकालीन प्रगतिशीलों ने लगाया था।
लेकिन फिल्म इस महत्वपूर्ण विषय को अछूता छोड़ देती है। यानी मंटो ‘मंटो’ क्यो थे। या कोई सआदत हसन, ‘मंटो’ क्यो हो जाता है। फिल्म ने इस विषय को भी नहीं छुआ कि मंटो को ‘मंटो’ बनाने में तरक्की-पसंद धारा का कितना योगदान था। फिल्म में यदि उनके आरम्भिक मेन्टर ‘अब्दूल बारी अलग’ का किरदार होता, जिन्होंने मंटों को रूसी साहित्य से परिचित कराया और उन्हें तरक्की-पसन्द धारा की ओर लेकर आये तो फिल्म को एक नयी उंचाई मिल जाती। इस सन्दर्भ में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का उनका प्रवास बहुत महत्वपूर्ण है जहां वे ‘अली सरदार जाफरी’ से मिलते है, जिनका उनपर काफी प्रभाव पड़ा।
हालांकि इस विषय को साधना थोड़ा जटिल जरूर है, लेकिन एक अच्छी रचना (या फिल्म) की एक विशेषता यह भी होती है कि वह संभावनाओं और आकांक्षाओं का मुहाना भी खोल देती है।
बहरहाल फिल्म मंटो के बहाने उस दौर के विभाजन के दर्द और उसकी त्रासदी को जिस मानवीय स्तर पर पेश करती है, वह बेहतरीन है। यह याद करना जरूरी है कि इस विभाजन में करीब 15 लाख लोग मारे गये थे और करीब 2 करोड़ लोगों को इधर से उधर पलायन करना पड़ा था। मंटो का बाम्बे से लाहौर प्रवास इसी दर्दनाक विभाजन के बीच हुआ। इसी मानवीय विपदा के बीच दोनों मुल्कों की ‘आजादी’ आयी। मंटो ने इसे उस पंक्षी की आजादी की संज्ञा दी, जिसके दोनों पर काट दिये गये हों। क्या बेहतरीन कमेन्ट है, दोनो मुल्कों की तथाकथित आजादी पर।
दरअसल इस तरह के विभाजनों, युद्धों, बड़े दंगों, फासीवाद के दौरान होने वाली क्रूरताओं में जनता का एक हिस्सा एक तरह से ‘बैनलटी आॅफ इविल’ (banality of evil) का शिकार हो जाता है। इसे मशहूर दार्शनिक ‘हाना अरेन्ट’ (Hannah Arendt) ने इस रूप में व्याख्यायित किया है कि ऐसे समय जनता के इर्द गिर्द जो माहौल होता है उसमें जनता को यह नहीं लगता कि वह कोई बुरा काम कर रही है। यानी बुराई को यहां एक जस्टीफिकेशन मिल जाता है और यह ‘न्यू नार्मल’ हो जाता है। मंटो ने अपनी प्रसिद्ध कहानी ‘ठण्डा गोश्त’ में इसी ‘बैनलटी आॅफ इविल’ की बात की है, जब कहानी का पात्र ‘ईश्वर सिंह’ एक मुस्लिम घर में सभी पुरूष सदस्यों की हत्या करके, उस घर की एकमात्र महिला सदस्य को अपने कंघे पर उठाकर झाड़ियों में बलात्कार के लिए ले जाता है। लेकिन यह कहानी बड़ी कहानी इसलिए बन जाती है कि मंटो ने दिखाया है कि ‘बैनलटी आॅफ इविल’ का शिकार होने के बावजूद उस समय उसका जमीर वापस आ जाता है जब उसे पता चलता है कि जिसके साथ उसने बलात्कार किया है वह तो ‘ठण्डा गोश्त’ था, यानी वह महिला मरी हुई थी। और इसके असर से अपनी पत्नी के साथ बिस्तर में ईश्वर सिंह खुद एक ठंडे गोश्त में बदल जाता है।
इस कहानी को फिल्म में बहुत ही प्रभावी तरीके से दिखाया गया है। जिसने कहानी पढ़ी है वो भी और जिसने नहीं पढ़ी है वो भी शाक्ड रह जाते है। किसी ने कहा है कि अच्छी रचना वही होती है जो आपको शाक दे। यह फिल्म मंटो की कहानियों के माध्यम से आपको कई जगह शाक देने में सफल रहती है। फिल्म में ‘खोल दो’ कहानी का फिल्मांकन भी बहुत असर कारक है। कहानियों के अलावा मंटो के डायलॉग्स भी आपको कई जगह शाक देते हैं। मंटो के अजीज मित्र ‘श्याम’ जब शराब की बोतल दिखाते हुए मंटो से कहते हैं कि तुम कहां के मुसलमान हुए तो मंटो का जवाब है- ‘इतना तो हूं ही कि दंगे में मारा जा सकूं।’ मंटो का यह कथन आपको हिलाकर रख देता है।
फिल्म के इस ‘ओवरआल इफेक्ट’ का एक बड़ा कारण यह है कि नंदिता दास ने कही भी मंटो को ‘लार्जर दैन लाइफ’ की तरह पेश नहीं किया है। और नवाजुद्दीन ने अपने अभिनय से इसमें नंदिता के परिप्रेक्ष्य की मदद की है।
जिस तरह से मंटो की असल जिंदगी को संभालने में उनकी पत्नी ‘साफिया’ की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका थी, ठीक उसी तरह फिल्म में भी साफिया की भूमिका निभाने वाली ‘रसिका दुग्गल’ ने अपने अभिनय से मंटो के किरदार को उभारने में अपनी भूमिका निभाई है। शायद इसी कारण कई लोगों को उनका अभिनय फीका लगा है।
लाहौर में शूटिंग की इजाजद ना मिलने के बावजूद फिल्म में लाहौर पूरी तरह जीवंत है। यह एक अजीब बात है कि नन्दिता की पिछली फिल्म ‘फिराक’ की कहानी का परिवेश गुजरात था, लेकिन उन्हें गुजरात में इसकी शूटिंग करने की इजाजत नहीं मिली और उन्हें मजबूरन हैदराबाद में इसकी शूटिंग करनी पड़ी। इस बार लाहौर में शुटिंग की इजाजत ना मिलने के कारण उन्हें गुजरात के ही एक गांव ‘वासो’ में लाहौर रचना पड़ा।
मंटो की कहानी पर अश्लीलता के अलावा यह भी आरोप लगता रहा है कि उनकी कहानियों में आशा की कोई किरण नहीं होती। लेकिन फिल्म का समापन ‘फैज अहमद फैज’ की मशहूर नज़्म ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे’ से होती है। जिसका संगीत और गायकी दोनो बहुत ही खूबसूरत है।
फिल्म और साहित्य में रूचि रखने वाले लोगों के लिए यह फिल्म एक खूबसूरत नास्टैल्जिया भी रचती है। एक ही स्क्रीन पर ‘फैज अहमद फैज’, अशोक कुमार, नरगिस, जद्दन बाई, के आसिफ, इस्मत चुगताई, व अन्य को देखना बेहद सुखद अनुभव है।
अंत में, मंटो के ही एक कथन से इसे समाप्त करना ठीक होगा।
हिन्दोस्तान आजाद हो गया, पाकिस्तान भी स्वाधीन हो गया। लेकिन दोनो ही मुल्को में मनुष्य अभी भी गुलाम है- अपने पूर्वाग्रहों का गुलाम, धार्मिक कट्टरता का गुलाम, बर्बरता और अमानवीयता का गुलाम।

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खून की पंखुड़ियां – गुगी वा थ्योंगो

कैद हमेशा यातनादायी नहीं होती, विशेषकर उस वक्त जब आप किसी शानदार किताब की गिरफ्त में हों। मेरा पिछला हफ्ता ‘गुगी वा थ्योंगो’ के मशहूर उपन्यास ‘‘खून की पंखुड़ियां’’ की शानदार गिरफ्त में बीता। इस उपन्यास का अन्तिम पन्ना पलटते ही मैं इस शानदार गिरफ्त से ‘आजाद’ तो हो गयी, लेकिन अब मैं वही नहीं थी जो मैं इस उपन्यास की दुनिया में प्रवेश करने से पहले थी। अब मेरा अनुभव संसार समृृद्ध हो चुका था। वान्जा, करेगा, मुनीरा और अब्दुला समेत मेरे दोस्तों की संख्या बढ़ चुकी थी और इनकी मदद से जिन्दगी को अब मैं पहले से ज्यादा बेहतर तरीके से देख पा रही थी। किसी उपन्यास से इससे ज्यादा क्या उम्मीद की जा सकती है।

मजेदार बात यह है कि यह उपन्यास एक मर्डर मिस्ट्री से शुरु होता है। देश के दो बड़े पूंजीपति और एक शिक्षा-अधिकारी की न्यू इल्मरोग कस्बे में जलकर मौत हो जाती है। पुलिस वान्जा, करेगा, मुनीरा और अब्दुल्ला से पूछताछ करती है। इन चारो के पास अपने अपने कारण है कि वे ये हत्या अंजाम दे सकते थे। लेकिन 450 पेज के इस उपन्यास में आपको अन्त में जाकर ही पता चलता है कि दरअसल हत्या किसने की है। हत्या और हत्या की गुत्थी सुलझने के बीच ही पूरा उपन्यास पसरा है। फ्लैशबैक के सहारे हमें उपरोक्त चारों चरित्रों के बारे में पता चलता कि वे ‘इल्मरोग’ कब और क्यो आये, इन चारों मुख्य चरित्रों के बीच आपसी क्या रिश्ता है और इल्मरोग से इनका क्या सम्बन्ध है।
इन चारो मुख्य पात्र के अलावा ‘इल्मरोग’ गांव भी एक प्रमुख पात्र है। अपने विभिन्न पात्रों और फ्लैशबैक के सहारे ‘गुगी वा थ्योंगा’ इस गांव के अतीत वर्तमान और कुछ कुछ संकेतों में भविष्य की भी कहानी कहते हैं। लगभग सभी पात्रों के और इल्मरोग गांव की पृृष्ठभूमि में केन्या का मशहूर ‘माओ माओ आन्दोलन’ सन्दर्भ बिन्दु के रूप में हर समय मौजूद रहता है। सच तो यह है कि गुगी वा थ्योंगा ने अपनी रचनाओं में सीधे सीधे कभी भी ‘माओ माओ आन्दोलन’ को अपना केन्द्रीय विषय नहीं बनाया, लेकिन अंग्रेज उपनिवेशवादियों के खिलाफ केन्याई जनता का यह शानदार सशस्त्र आन्दोलन नमक की तरह उनके समूचे रचनाकर्म में रचा बसा है।
उपन्यास की मुख्य कहानी केन्या के ‘आजाद’ होने के बाद की है। लेकिन फ्लैशबैक के सहारे यह केन्या के औपनिवेशिक अतीत में जाती है और वहीं से वह सूत्र भी लाती है जिससे आज के केन्या के नवऔपनिवेशिक वर्तमान को समझा जा सकता है।
इल्मरोग गांव में जब भीषण सूखा पड़ता है तो ‘करेगा’ के उत्साहित करने पर गांव के लोग शहर जाकर अपने क्षेत्र के सासंद से मिलकर अपनी पीड़ा बताने का निर्णय लेते हैं। और शुरु हो जाती है गांव के लोगों का अपना ‘लांग मार्च’। कई दिनों के बाद कई तरह की मुसीबतें झेलने के बाद जब वे शहर पहुंचते है तो उन्हें वहां कोई पूछने वाला नहीं है, बल्कि शहर में अव्यवस्था निर्मित करने के आरोप में कई लोगों गिरफ्तार भी कर लिया जाता है यहां तक कि वान्जा से बलात्कार भी हो जाता है। हालांकि एक जनपक्षधर वकील इनके मुद््दों को मीडिया में उठाता है और गिरफ्तार साथियों को छुड़ाता है। यह पूरा एपीसोड बरबस अभी हाल में सूखे के ही कारण दिल्ली के जंतर मंतर पर तमिलनाडु से आये किसानों की याद दिला देता है। बहरहाल मीडिया में आने के कारण इल्मरोग केन्या के नक्से पर आ जाता हैै और सरकार इल्मरोग गांव का विकास करके उसे न्यू इल्मरोग बनाने का फैसला लेती है। और इसके बाद जैसा कि आज भारत समेत पूरी दुनिया में हो रहा है, विकास का रथ गरीबों और उनके संसाधनों को कुचलते हुए विकास की चकाचौध से उन्हें अंधा बनाने लगता है। इस तरह इल्मरोग गांव न्यू इल्मरोग कस्बे में बदल जाता है। यह पूरा एपीसोड दरअसल एक ‘साहित्यिक केस स्टडी’ की तरह है कि वास्तव में पूंजीवादी विकास होता क्या है। उपन्यास में जिस गहराई और व्यापकता के साथ गुगी वा थ्योंगा ने इसे चित्रित किया है वह इस विषय पर मौजूद किसी भी शोध-पत्र पर भारी पड़ेगा। गुगी वा थ्योंगा ने ना सिर्फ इसके आर्थिक पहलू को दर्शाया है वरन्् इसके संास्कृृतिक, मनोवैज्ञानिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और यहां तक कि आध्यात्मिक पहलू की भी ठोस चर्चा की है। इल्मरोग के ‘विकास’ का सरकार ने जब फैसला किया तो वहां सबसे पहले किस चीज की स्थापना की गयी- ‘थाना और चर्च की’। राज्यसत्ता और धर्म के पुराने गठलोड़ को एक सन्दर्भ के बीच महज एक लाइन मेें गुगी वा थ्योंगा ने जबर्दस्त तरीके से उजागर कर दिया।
विकास हो जाने के बाद अब न्यू-इल्मरोग की नयी संस्कृति है (वान्जा के शब्दों में)- ‘खाओ या खुद को खा लिए जाने दो।’
गुगी वा थ्योंगा जैसे रचनाकार जीवन को उसके अन्तरविरोधों में पकड़ते हैं इसलिए अतीत की बात करते हुए वे कभी भी उसे रोमानी नहीं बनाते। अपनी इसी दृृष्टि के कारण गुगी वा थ्योंगा इल्मरोग में हो रहे पूंजीवादी विघ्वंस को ही नहीं देख रहे होते बल्कि इस विध्वंस के अन्दर छुपी संभावना को भी बखूबी पकड़ रहे होते है। इसलिए वे अन्य दूसरे रचनाकारों की तरह इस विध्वंस का रोना नही रोते वरन् इस विध्वंस के कारण पैदा हो रहे मजदूरों के संघर्षो में भविष्य की तस्वीर देखते हैं। न्यू-इल्मरोग में ‘करेगा’ इन मजदूरों को संगठित कर रहा है। करेगा का बड़ा भाई ‘माउ माउ आन्दोलन’ का शहीद है। अब करेगा नये समय में नये वर्ग को संगठित कर रहा है। निरन्तरता और परिवर्तन के द्वन्द को गुगी वा थ्योंगा अच्छी तरह समझते हैं।
अब्दुल्ला, करेगा के बड़े भाई का दोस्त है और उसी की तरह ‘माउ माउ’ आन्दोलन का योद्धा रहा है और इस युद्ध में अपना एक पैर भी गंवाया है। तथाकथित आजादी के बाद जब वह एक फैक्ट्री में काम मांगने जाता है और उसे वहां से लंगड़ा कह कर अपमानित किया जाता है, तभी वह देखता है कि एक बड़ी विदेशी गाड़ी से काले सूट में एक व्यक्ति निकलता है। फैक्ट्री के लोग जिस तरीके से उसे सम्मान देते है, अब्दुल्ला समझ जाता है कि वह फैक्ट्री का मालिक है, लेकिन नजदीक से देखने पर अब्दुल्ला के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता, यह तो वही व्यक्ति है जिसने माउ माउ आन्दोलन से गद््दारी की थी और करेगा के भाई को मरवाया था। करीब आधे पेज का यह विवरण केन्या की आजादी के वर्ग चरित्र का स्पष्ट कर देता है।
वान्जा इस उपन्यास की सबसे जटिल पात्र है और नये केन्या में वहां की औरत के विभिन्न रूपों और उनके अन्तरविरोधों को सामने लाती है। उसके दादा माउ माउ आन्दोलन केे समर्थक थे और उन्हें फांसी दे दी गयी थी, वही उसके पिता अंग्रेज समर्थक थे और माउ माउ आन्दोलन से धृृणा करते थे। वान्जा पूरी तरह से स्वतंत्र महिला है। जीवन के तमाम पड़ावों से गुजरती हुई वह अन्त में अब्दुल्ला को ही अपना पार्टनर चुनती है। अन्य पात्र भी किसी ना किसी तरह से वान्जा के साथ अपने जटिल समीकरणों में बंधे हुए हैं।
मुनीरा भी एक दिलचस्प पात्र है। यह केन्या के नवमध्यवर्ग की दुविधाओं का प्रतिनिधित्व करता है।
उपन्यास के अन्त में अब्दुल्ला जब अपने छोटे भाई जोसेफ से मिलता है (जिसे उसने वास्तव में गोद लिया था) तो उसके हाथ में ‘सेम्बेन ओस्मान’ का उपन्यास ‘‘गाॅड््स बिट््स आॅफ वुड’’[God’s Bits of Wood] था। यह उपन्यास 1940 में सेनेगल में हुई रेल मजदूरों की हड़ताल पर है। यहां गुगी वा थ्योंगा स्पष्ट संकेत देते है कि भविष्य जोसेफ का और उसके बहाने मजदूरों का है। सेम्बेन ओस्मान का जिक्र भी यहां अनायास नहीं है। दरअसल सेनेगल के सेम्बेन ओस्मान ने अपनी फिल्मों के माध्यम से वही किया है जो गुगी वा थ्योंगा ने अपने उपन्यासों और नाटकों के माध्यम से किया है।
पूरे उपन्यास मेें ‘जीवन का सौन्दर्य’ केन्या की श्रमशील जनता के सामाजिक-राजनीतिक-प्राकृतिक-सांस्कृतिक परिवेश में रचा बसा है जिसे अलग से रेखांकित करना असम्भव है। अपने एक इंटरव्यू में गुगी वा थ्योंगा ने कहा भी है कि ‘‘सौन्दर्य सामाजिक निर्वात में पैदा नहीं होता।’’
दरअसल यह उपन्यास प्रकारान्तर से ‘क्रान्तिकारी चेतना’ के निर्माण की कहानी कहता है। यह चेतना आती कहां से हैै, कौन इसका वाहक होता है। इस चेतना से व्यक्ति और समष्टि किस रूप में जुड़े होते हैं।
अल्जीरिया के मशहूर क्रान्तिकारी लेखक ‘फ्रेन्ज फेनान’ ने किसी क्रान्तिकारी लेखक के तीन चरण दर्शाये है- पहला, जब वह जनता के साथ बिना शर्त घुल मिल जाता है, दूसरा, जब वह परेशान होता है कि वह कौन है, उसकी पहचान क्या है और वह इसका उत्तर पाने के लिए इतिहास और अतीत की यात्रा शुरू करता है और तब उसका तीसरा संघर्षशील चरण आता है जहां लेखक जनता को जागृत करने की भूमिका में आ जाता है। शायद इसे ही ग्राम्शी ‘’आरगैनिक इन्टेलेक्चुअल’’ का नाम देते हैं। इसी सन्दर्भ में हम यह समझ सकते हैं कि क्यों इस उपन्यास के बाद गुगी वा थ्योंगा ने अंग्रेजी मेें लिखना छोड़कर अपनी देशज भाषा ‘गिकियू’ अपना ली। और इस भाषा मेें उनकी पहली रचना छपते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
अनुुवाद के बारे में क्या कहा जाय। कहते हैं कि एक भाषा से दूसरी भाषा में जाने से अनिवार्यतः कुछ खो जाता है। यह कितना सच है मैं नहीं जानती लेकिन आनन्द स्वरूप वर्मा द्वारा किये गये इस उपन्यास में मुझे कुछ भी खोया महसूस नहीं हुआ। पात्रों और स्थान का नाम नजरअंदाज कर दे तो ऐसा लगता है कि यह भारत के ही किसी हिस्से की कहानी है। हां वहां के लोकगीतों का अनुवाद जरूर अखरने वाला है, लेकिन शायद यह अनुवाद की ही सीमा है ना कि आनन्द स्वरूप वर्मा की।
अन्त में करेगा के एक शानदार वक्तव्य से इसे समाप्त करना बेहतर होगा-
‘‘मैं मानता हूं कि जब तक एक भी व्यक्ति जेल में है, मैं भी जेल में हूं। जब तक एक भी व्यक्ति भूखा और नंगा है, मैं भी भूखा और नंगा हूं। फिर ऐसी हालत में एक पीड़ित व्यक्ति दूसरे पीड़ित व्यक्ति को अपमानित क्यों कर रहा है? हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि उन लोगों की याद मेें, जिन्होंने हमारी दुनिया को बेहतर बनाने के लिए अपनी जानें दे दीं, जिन्होंने उस वर्ग के दम्भ को खारिज कर दिया और जिनका मुहब्बत, सचाई और खूबसूरती में यकीन था, अपने अन्दर की इस नीचता को, इस तुच्छता को छोड़ दें।’’ (पेज-309)

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Survivors Guide To Prison


अमरीका में जब ‘डोनाल्ड ट्रम्प’ की राष्ट्रपति पद पर जीत हुई तो दो कम्पनियों के शेयरों में 100 प्रतिशत का उछाल आ गया। ये कम्पनियां है- ‘कोर सिविक’ और ‘जीओ ग्रुप’। ये कम्पनियां अमरीका में निजी जेलों का संचालन करती हैं। जिन्हें प्रति कैदी अमरीकी सरकार से पैसे मिलते हैं। यानी जितने ज्यादा कैदी होगे, उतने ही इन्हें पैसे मिलेंगे। इसके अलावा वहां निजी कम्पनियां ठेके पर इन कैदियों से काम भी कराती है, जहां उन्हें न्यूनतम वेतन से काफी कम मजदूरी दी जाती है। डोनाल्ड ट्रम्प का अप्रवासियों, कालों और मुस्लिमों के प्रति जो रुख था, उससे इन कम्पनियों ने अनुमान लगा लिया था कि ट्रम्प के आने के बाद जेलों में कैदियों की संख्या बढ़ेगी। इसलिए इन कम्पनियों ने चुनाव कैम्पेन में ट्रम्प के समर्थन में काफी पैसा बहाया।
आपको यह जानकर शायद आश्चर्य हो कि पूरी दुनिया में जितनी महिलाएं जेलों में है, उसका एक तिहाई अकेले अमरीका में हैं। पूरी दुनिया में जितने कैदी हैं, उसका 22 प्रतिशत अकेले अमरीका में हैं। जबकि अमरीकी आबादी दुनिया की आबादी का महज 5 प्रतिशत है। वहां की जेलों में काले और अप्रवासी लैटिन अमरीकियों की संख्या आबादी में उनके अनुपात से कहीं ज्यादा है।

इसी साल मई में अमरीकी जेलों की स्थितियों पर एक बेहद संवेदनशील फिल्म ‘Survivors Guide To Prison’ आयी है, जिसकी प्रगतिशील खेमे में काफी चर्चा है। एक गोरे और एक काले व्यक्ति, जिन्होंने निर्दोष होने के बावजूद सालों-साल जेल की काल-कोठरी में गुजार दी, के साक्षात्कार के माध्यम से यह फिल्म ना सिर्फ जेल की अमानवीय स्थितियांे, पुलिस की निरंकुशता और कोर्ट की संवेदनहीनता और गरीबों-कालों-अप्रवासियों के प्रति उसके पक्षपात को बेहद असरदार तरीके से सामने लाती है, वरन मानवाधिकार के क्षेत्र में काम कर रहे विभिन्न बुद्धिजीवियों के साक्षात्कारों के माध्यम से जेल-स्वतंत्रता व मानव अधिकारों के बारे में बेहद बुनियादी सवाल उठाती है। फिल्म के निर्देशक ‘मैथ्यू कूक’ और ‘सूसान सरन्डन’ ने बेहद असरदार तरीके से नैरेशन की भूमिका अदा की है। और बीच बीच में इस फिल्म को एक परिप्रेक्ष्य देने की कोशिश की है।
फिल्म में बताये गये इस तथ्य को जानकर बेहद आश्चर्य होता है कि अमेरिका में 95 प्रतिशत मामले ‘Plea bargain’ से हल किये जाते हैं। मतलब कि आरोपी से कहा जाता है कि वह अपना अपराध कबूल कर ले, तो उसे कम दण्ड दिया जायेगा। अन्यथा उसे मंहगे ट्रायल का सामना करना पड़ेगा और उसके बाद अगर वह दोषी पाया गया तो उसे कड़ी सजा दी जायेगी। इसी दबाव में मंहगे ट्रायल का खर्च ना उठा पाने वाले अधिकांश गरीब-काले व अप्रवासी वे जुर्म भी कबूल कर लेते हैं जो उन्होंने कभी किया ही नहीं होता। इसलिए अमरीकी जेलों में निर्दोष कैदियों की भरमार है। और यही कारण है कि पुलिस वहां किसी को भी गिरफ्तार करके जेल भेज देती है और उसे सजा हो जाती हैै। अमरीकी जेलों में कैदियों की बहुतायत का यह एक बड़ा कारण है। मानवाधिकार कार्यकर्ता और लेखिका Alexander Michelle ने फिल्म में अपने साक्षात्कार के दौरान इसे उचित ही एक नये तरह के ‘जिम क्रो’ (1965 के पहले अमरीका के दक्षिणी राज्यों में काले व गोरों के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में अलग अलग नियम होते थे। जो उनके बीच नस्लभेद को कायम रखते थे। इसकी तुलना हम भारत के गांवों में लागू होने वाली अलग अलग मनु-संहिताओं से कर सकते हैं।) की संज्ञा दी है। उन्होंने इस पर एक बेहद महत्वपूर्ण किताब भी लिखी है-Alexander, Michelle-The new Jim Crow _ mass incarceration in the age of colorblindness

ब्लैक एक्टिविस्ट और बहुचर्चित किताब ‘Are Prisons Obsolete?’ की लेखिका ‘एंजिला डेविस’ का इस फिल्म का हिस्सा ना होना थोड़ा अखरता है। यदि एंजिला डेविस से इस फिल्म में साक्षात्कार लिया जाता तो वे जेलों के अस्तित्व पर ही सवाल उठाती। जिस सवाल को यह फिल्म जाने अनजाने छोड़ देती है। हालांकि फिल्म के नैरेशन की तार्किक परिणति इसी सवाल पर होती है। इस सवाल पर चर्चा होनी ही चाहिए कि जेल अपराध-सुधार के लिए है या वर्ग शासन को बनाये रखने का एक हथियार है।
डाकूमेन्टरी फिल्म होने के बावजूद यह कृत्रिम और ‘हार्श लाइट’ का अत्यधिक प्रयोग करती है जो दर्शक को कभी कभी डिस-ओरियन्ट कर देता है। इसके अलावा Extreme Close Up का अत्यधिक प्रयोग भी फिल्म की अब्जेक्टिविटी को प्रभावित करता है। और कहीं कहीं यह किसी डरावनी फिल्म का संकेत देता हैं।
इसके बरक्स ‘जान पिल्जर‘ की 1974 में आयी फिल्म ‘Guilty Until Proven Innocent’ की याद आती है जो बेहद सामान्य तरीके से नेचुरल लाइट में शूट की गयी है और ज्यादा आब्जेक्टिव और प्रभावोत्पादक है।
भारत में इस विषय पर फिल्में काफी कम हैं। कुछ समय पहले ‘के पी ससी’ की फिल्म ‘FABRICATED‘, ‘शुब्रदीप चक्रवर्ती’ की 2013 में आयी फिल्म ‘After the Storm‘ और 1978 में आयी ‘आनन्द पटवर्धन’ की ‘Prisoners of Conscience‘ महत्वपूर्ण फिल्में है। हालांकि ये सीधे सीधे जेलों पर नहीं है। पहली और दूसरी फिल्म फर्जी तरीके से गिरफ्तार किये गये, विशेषकर मुस्लिमों के बारे में है तो तीसरी फिल्म राजनीतिक कैदियों के बारे में है।
‘Survivors Guide To Prison’ भारत के सन्दर्भ में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योकि यहां भी जेलों की स्थिति अमरीका जैसी ही है। यहां भी मुस्लिम, ईसाई, सिख दलित और आदिवासी जनसंख्या में अपने अनुपात से कहीं ज्यादा हैं। 2012 में 22.22 प्रतिशत दलित और 13.47 प्रतिशत आदिवासी तथा 20.02 प्रतिशत मुस्लिम जेलों में थे, जबकि उसी वक्त जनसंख्या में उनका अनुपात क्रमशः 16.63 प्रतिशत, 8.63 प्रतिशत और 14.23 प्रतिशत था। छत्तीसगढ़ व झारखण्ड में हजारों आदिवासी बेल बान्ड ना भर पाने की वजह से जेलों में बने हुए हैं। इसके अलावा जेलों की अमानवीय स्थितियां और गिरफ्तारी के वक्त टार्चर दिया जाना अब सामान्य बात बन चुकी है।
किसी ने बिल्कुल सही कहा है कि किसी भी समाज में जनतंत्र कितना है, इसका पता वहां कि जेलों की स्थितियों से लगाया जा सकता है। और इस मापदण्ड पर दुनिया के सबसे ‘पुराने’ और सबसे ‘बड़े’ लोकतंत्र के ढकोसले की धज्जियां उड़ जाती हैं।
कुल मिलाकर यह अनिवार्य रुप से देखी जानी वाली फिल्म है।

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“Young Karl Marx”: A Must-See Film by Frieda Afary

It is not easy to make a movie about a multidimensional and historical figure like Marx without privileging one aspect of that figure’s life over another.  Raoul Peck’s Young Karl Marx however, has succeeded in presenting a holistic view of the young Marx and his time that also speaks movingly to the problems of our time.
That success seems to be rooted in two elements:
First,  In addition to being very knowledgeable about Marx’s work and time period,  Raoul Peck and Pascal Bonitzer,  the screenplay writers have largely drawn on the  correspondence of  the main characters, Marx, Friedrich Engels, his closest colleague and collaborator, and Jenny von Westphalen, his comrade/wife.  In doing so, they have allowed us to hear these characters think.
Secondly, Peck’s own life-experience has made him a creative intellectual/filmmaker/political activist, sensitive to the issue of human suffering and emancipation.    Born in Haiti, under Duvalier’s dictatorship, he went to the Congo with his family in 1961 where the first democratically elected government of Prime Minister Patrice Lumumba had just been overthrown by U.S.-backed forces loyal to the dictator Mobuto Sese Seko.   After living under the dictatorship of Mobutu for many years, he continued his education in France and Germany where he received degrees in industrial engineering, economics, and film.  He has had jobs as varied as being a taxi driver in New York, a journalist and later, Haiti’s minister of culture in 1996-1997.   During the past 36 years, Peck has made 21 films,   most notably,  Lumumba, about the Congolese revolutionary and independence leader,  and I Am Not Your Negro about the African American writer, James Baldwin.  It is this knowledge and life experience that has been brought to bear on his presentation of the young Marx.
The film thus starts with a chilling scene in which poor peasants– women, men and children –collecting deadwood in Prussia’s Mosel forest in the Rhineland, are assaulted, beaten and killed by agents of landowners who arrive on horsebacks.  In the background, we hear excerpts from one of  Marx’s 1842 essays on the Prussian law on the theft of wood, which he wrote for the newspaper Rheinische Zeitung, where he challenged the very hypocrisy and  inhumanity of this law and its use to kill peasants.   Film viewers are then taken to the office of the Rheinische Zeitung where the 24-year old editor, Marx (not yet a communist) is challenging his colleagues to be more radical, even as the Prussian police is banging on the door with an order to shut down the newspaper and arrest them.
Peck then,  introduces us to Friedrich Engels,  the son/employee of a German textile factory owner in Manchester and a socialist intellectual seeking  the collaboration of workers to help him write a book about the condition of the working class in England.  Marx and Engels meet for the second time at the office of the German philosopher and political writer, Arnold Ruge.  They discuss their respective works, ideals and goals,  and the rest is history.
Since it is not possible to  discuss all the dimensions of Peck’s film, in this short review,  I would like to limit myself to  three aspects which stand out as unique:   I. Marx’s concept of organization;   II. Marx’s challenge to the French Anarchist thinker, Pierre Proudhon;   III.  The role of women.
I. Marx’s Concept of Organization
While a two-hour film cannot possibly allow any writer/director to do justice to the philosophical, economic, political and social issues that Marx was writing about,  or Engels and Marx were jointly writing about,   what comes through in Peck’s film is the following:   Marx saw himself as a philosopher,  the originator  of a unique critique of political economy and  a totally new concept of human liberation.  He was not simply exposing income inequality but challenging alienated labor and the alienation of humanity.   He was a profound philosopher and economist but also not an ivory-tower intellectual.  Thus,  he and Engels actively reached out to workers, men and women,  to poor people,  to other revolutionary intellectuals,  and helped transform the League of the Just from an organization that limited itself to “the brotherhood of men”  to one whose manifesto became the Communist Manifesto,  written and published on the eve of the 1848 Revolutions that shook up Europe.
The fact that Marx’s concept of human emancipation and his views on organization were completely distorted and turned into totalitarian state capitalist societies, as seen in the USSR and Maoist China,   does not permit the abandonment of that concept and its relevance for today.
II. Marx’s Challenge to Proudhon
Peck emphasizes how much the development of Marx’s ideas was a response to what he and Engels thought were the inadequacies of Pierre Proudhon’s views.   At the same time, we see that  Marx and Engels made an effort to reach out to Proudhon in their organizational work, because they respected him as a worker-intellectual and a working-class leader.
The gist of Marx’s critique of Proudhon is expressed in a few scenes in which Marx challenges Proudhon’s view of “property as theft” for being inadequate in its understanding of capitalism and capitalist relations of production, namely alienated mechanical labor and its consequences.   Peck also depicts how Marx took it upon himself to do a serious study of  Proudhon’s  Philosophy of Poverty (1846),  and was compelled to write  Poverty of Philosophy(1847), as a response.
In his Philosophy of Poverty,   Proudhon had argued that if money were abolished and if workers were paid vouchers based on their labor time,  the vouchers would allow autonomous cooperatives and communities to have transparent exchange and social relations without the need for a central plan.
Marx, in his Poverty of Philosophy, and later in the Grundrisse,  critiqued Proudhon’s thesis and argued that under capitalism too,  workers’ wages are based on their labor time.  However, the labor time used as the measure of remuneration under capitalism is not the worker’s actual labor time but the minimum labor time for the production of an exchange value.  Later in Capital he called this measure, an average or  “socially necessary labor time.”  He thought that any conception that fell short of comprehending the capitalist mode of production and its fragmentation of the human being, would not be able to offer an alternative that could truly transcend capitalism.
While the detailed content of these books could not be discussed in The Young Marx, the film does show that  Poverty of Philosophy was meant as a book  for workers as much as for intellectuals.   In one scene, Mary Burns, a worker, is shown holding it up at a labor meeting and calling on the participants to read Marx’s response to Proudhon.
III. The Role of Women
Peck makes a special effort to highlight the role and characters of Marx’s wife,  Jenny von Westphalen and Engels’s companion,  Mary Burns.   Jenny von Westphalen was the daughter of an aristocratic family in Trier and had been Marx’s friend from a young age.   She was not simply Marx’s wife.  As a highly educated woman who had also become a revolutionary,  she was a thinker and a comrade who could carry on debates with Marx and assisted him in the development of his ideas.   She was independent-minded and articulate.   She endured poverty and endless hardships because of having married a revolutionary who kept getting expelled from one country after another for his ideas and activities.   However,  she did not  return to Prussia to live with her aristocratic family,  because she truly believed in the cause for which she and Marx were both fighting.    All of these dimensions of Jenny Marx come through in the film and make viewers truly admire her.
Mary Burns was also not simply Engels’s companion.   She was a militant and vocal Irish worker who challenged the horrible conditions of factory labor and helped introduce Engels to the League of the Just, an organization of revolutionary artisans and workers led by German emigrant artisans, Karl Schapper and Wilhelm Weitling.   She was also very interested in the ideas that Marx and Engels were developing,  and participated in activities with them to introduce these ideas to other workers.
The last scene in the film in which Marx, Engels, Jenny von Westphalen and Mary Burns are sitting around a table and editing the handwritten copy of the Communist Manifesto,  is truly memorable.
IV. Marx’s Relevance for Today
It is the Communist Manifesto,  the culmination of the film,  that Peck argues,  speaks volumes to today’s crisis-ridden capitalism.  In an interview about the film,  he states:   “Both projects [I Am Not Your Negro and The Young Karl Marx] were a sort of response to the world I see around me, and not only here in this country [U.S.] but in Europe and in the Third World.  It’s what I call the rise of ignorance, of confusion . . . I just wanted to give a response and come back to what I call the fundamentals.”  (https://www.npr.org/2018/02/25/588673944/the-young-karl-marx-looks-inside-the-mind-of-a-revolutionary) In another interview, he states:  “Marx was not dogmatic.  Marx always said you need to reanalyze your current situation and your historic situation.” (http://www.newsweek.com/young-karl-marx-movie-raoul-peck-director-review-communist-manifesto-communism-818987)
It is not only Marx’s critique of capitalism but also his ability to comprehend reality in a holistic way, to analyze, to be a critical and independent thinker,  that Peck thinks we can learn from in order to  challenge the growing  populism,  dogmatism and authoritarianism that is engulfing the world.   Peck wants a new generation to know that they can change the world for the better and revolutionize it, provided they begin with the thinkers who give us the foundation to do so.
Hopefully,  Peck will go on to make parts II and III of this film to cover the other periods of Marx’s life.
Frieda Afary
March 23, 2018
Cast: August Diehl as Karl Marx, Stefan Konarske as Friedrich Engels, Vicky Krieps as Jenny von Westphalen,  Hannah Steele as Mary Burns, Olivier Gourmet as Pierre Proudhon, Rolf Kanies as Moses Hess, Niels-Bruno Schmidt as Karl Grun, Alexander Scheer as Wilhelm Weitling.
Director: Raoul Peck
Writers: Pascal Bonitzer and Raoul Peck
Cinematographer: Kolja Brandt
Editor:  Frederique Broos
Composer:  Alexei Aigui
Languages:  German, French, English with English subtitles
Length:  118 minutes

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‘Mephisto’: एक कलाकार जिसने अपनी आत्मा फासीवादियों को बेच दी….

जर्मन फासीवाद पर वैसे तो कई बेहतरीन फिल्में हैं, लेकिन 1981 में आयी यह फिल्म एकदम अलग तरह की है।
‘हेन्डरिक’ एक स्टेज कलाकार है। वह आम तौर से वाम की ओर झुका हुआ हैै। और उसी तरह के नाटक करता है। उसके ग्रुप में ज्यादातर कलाकार वाम की ओर झुके हुए हैं। यह वह समय है जब जर्मनी में नाजीवाद तेजी से अपने पैर पसार रहा है। फिर एक दिन अचानक से खबर आती है कि हिटलर ने सत्ता पर कब्जा कर लिया है।
परिस्थिति पूरी तरह बदल जाती है। हेन्डरिक के बहुत से दोस्त ‘प्रतिरोध दस्तों’ में शामिल हो जाते है और बहुत से देश छोड़ के चले जाते हैं। हेन्डरिक की पत्नी भी देश छोड़ कर फ्रान्स चली जाती है। जाने से पहले वह हेन्डरिक को भी देश छोड़ने के लिए मनाती है। लेकिन वह नहीं मानता और तर्क देता है कि ये नाजी लोकतान्त्रिक तरीके से ही तो सत्ता में आये है,ं और मेरा काम थियेटर करना है और मुझे कुछ नहीं पता। जब उसके दोस्त उसे प्रतिरोध दस्ते में शामिल होने के लिए कहते हैं तो वह कहता है कि मुझे रिजर्व में रख लो। अभी तत्काल मैं शामिल नहीं हो सकता। यहीं से उसका व्यक्तित्व बदलने लगता है। और वह अपने आपको नयी परिस्थिति में ढालने में लग जाता है और उसके अनुसार ही तर्क भी गढ़ने लगता है।
आगे बढ़ने से पहले यह जान लेते हैं कि फिल्म का नाम ‘मेफिस्टो’ का मतलब क्या है। जर्मन लोक कथा में ‘फास्ट’ और ‘मेफिस्टो’ को लेकर अनेक कहानियां हैं। फास्ट एक कलाकार-बुद्धिजीवी है। मेफिस्टों एक दानव है। मेफिस्टों हमेशा लोगो की आत्मा का सौदा करने के लिए घूमता रहता है। जो उसे अपनी आत्मा बेच देता है उसे वह खूब सारा धन व शोहरत देता है। एक दिन फास्ट भी मेफिस्टो को अपनी आत्मा बेच देता है और इस ऐवज में उसे बहुत सा धन व शोहरत मिलती है।
इसी दौरान एक बार स्टेज पर ‘मेफिस्टो’ का रोल करते हुए वीआइपी दर्शक दीर्घा में बैठा हुआ नाजी जनरल हेन्डरिक के अभिनय से प्रभावित हो जाता है और उसे अपने पास बुलाता है। दोनो के मिलन को दर्शक सांस बांधे देख रहे हैं। यह पूरी फिल्म का बहुत ही पावरफुल दृश्य है और बेहद प्रतीकात्मक है। मानो यहीं पर फास्ट यानी हेन्डरिक अपनी आत्मा का सौदा मेफिस्टो यानी नाजी जनरल के साथ करता है। और उसके बाद शुरु होती है आत्मा विहीन खोखले हेन्डरिक की शोहरत की यात्रा और जल्द ही उसे संस्कृति का पूरा जिम्मा दे दिया जाता है।
इसी समय संास्कृतिक मंत्रालय की तरफ से उसे फ्रांस जाना होता है वहां वह अपनी पूर्व पत्नी से मिलता है। वह आश्चर्य करती है कि वह ऐसे माहौल में बर्लिन में कैसे रह पा रहा है। वह कहता है कि मैं थियेटर में रहता हूं। तो उसकी पूर्व पत्नी बोलती है कि आखिर थियेटर बर्लिन में ही तो है। यह बहस इस सर्वकालिक बहस की ओर संकेत करती है कि कला निरपेक्ष होती है या समाज सापेक्ष। इससे पहले भी जब उसकी पत्नी उससे स्टैण्ड लेने को कहती है तो वह बोलता है कि मेरा स्टैण्ड शेक्सपियर है (उस समय वह शेक्सपियर का नाटक ‘हैमलेट’ करने जाने वाला था)। उसकी पत्नी गुस्से से बोलती है कि तुम शेक्सपियर के पीछे छिप नहीं सकते। नाजी लोग अपनी गन्दगी पर पर्दा डालने के लिए शेक्सपियर जैसा क्लासिक नाटक करते हैं। तुम्हे इसे समझना चाहिए। आज भारत की परिस्थिति में भी हम इसे देख सकते हैं। जब नाटककार या कलाकार आज के तीखे सवालों से आंख चुराते हुए अपनी कायरता पर पर्दा डालने के लिए पुराने ‘क्लासिक’ नाटक के पीछे अपने को छुपा लेते हैं।
फ्रांस में जब हेन्डरिक की अपनी पूर्व पत्नी से बहस हो रही होती है तो वही पास में बैठा उसका एक पुराना दोस्त इसे सुन रहा होता है। कुछ समय बाद वह आता है और हेन्डरिक को एक थप्पड़ जड़ देता है। यह दृश्य बहुत ही पावरफुल है। हेन्डरिक इस थप्पड़ का जरा भी विरोध नहीं करता। ‘क्लोज अप’ में चेहरे का भाव यह बताता है कि उसे पता है कि वह इसी लायक है।

जब उसकी दूसरी नीग्रो पार्टनर (जिसके साथ वह कभी पब्लिक में नहीं होता क्योकि उस दौरान जर्मनी में प्रचलित नस्लीय शुद्धता के सिद्वान्त से यह मेल नहीं खाता, इसलिए वह अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके अपनी ‘नीग्रो’ पार्टनर को देश से निकल जाने के लिए बाध्य करता है और उस पर यह अहसान भी जताता है कि उसने उसे सम्भावित नाजी हमले से बचा लिया) अकेले में उसे उसके समझौते या कहे कि उसकी मक्कारी के लिए धिक्कारती है तो वह कोई प्रतिरोध नहीं करता बल्कि तुरन्त आइने में देखता है कि क्या वह सचमुच कमीना है।
नाजी जनरल की चापलूसी करते हुए वह यहां तक चला जाता है कि एक प्रोग्राम में वह कहता है-‘‘बिना संरक्षण के कला टूटे पंखों वाली चिड़िया की तरह होती है।’’
दरअसल जब जब कैमरा हेन्डरिक का क्लोज अप लेता है तो उसके व्यक्तित्व का खोखलापन बहुत पावरफुल तरीके से सामने आ जाता है। और यही लगता है कि जब वो आरम्भ में वाम की ओर झुका था तब भी उसे वाम से कुछ लेना देना नहीं था बस उस समय वाम ही उसके आगे बढ़ने के लिए एक सीढ़ी की तरह था जैसे इस समय नाजी हंै।
फिल्म में एक और दृश्य बहुत ही प्रतीकात्मक और शक्तिशाली है। एक बार जब वह अपने आफिस आता है तो देखता है कि किसी ने आफिस के अन्दर नाजी-विरोधी पर्चे फेंके हुए है। वह जल्दी से जल्दी दूसरे लोगों के आने से पहले सभी पर्चे इकट्ठा करता है, बाथरुम में जाकर उन्हें जलाता है और फिर करीने से राख को इकट्ठा करके उसे अपनी जेब में रख लेता है। दरअसल ऐसे कलाकारो का यही मुख्य काम होता है- प्रतिरोध की आंच से व्यवस्था को बचाना। भारत में भी ऐसे कितने कलाकार हैं जो इस काम में जी जान से लगे हुए हैं।
फिल्म का अन्त बहुत शक्तिशाली है। नाजी जनरल हेन्डरिक को विशाल नवनिर्मित नाटक हाल में ले जाता है और कहता है कि यहां तुम्हारे प्रदर्शन पर तुम्हें बहुत शोहरत मिलेगी। उसे जबर्दस्ती हाल के बीच में जाने को कहा जाता है और उस पर चारों तरफ से लाइट डाली जाती है। इस तेज लाइट से बचने के लिए वह अपना चेहरा छुपाने का असफल प्रयास करता है और अपने से कहता है कि ये लोग मुझसे चाहते क्या हैं, आखिर मैं एक कलाकार ही तो हूं। यहीं पर ‘फ्रीज फ्रेम’ के साथ फिल्म समाप्त हो जाती है।
इस पूरी फिल्म को यदि हम आज के अपने देश के हालात में और उसमें कलाकारों की भूमिका के सन्दर्भ में अनुदित करें तो हमें गजब का साम्य नजर आयेगा। आपको भारत के फास्ट (हेन्डरिक जैसे कलाकार) और मेफिस्टो (फासीवादी यानी सरकारी तंत्र) के बीच की जुगलबन्दी को पहचानने में ज्यादा वर्जिश नहीं करनी पड़ेगी। लेकिन यह काम मैं आप पर ही छोड़ती हूं।

वे नहीं कहेंगे कि वह समय अंधकार का था
वे पूछेंगे कि
उस समय के कवि
चुप क्यो थे?
-ब्रेख्त

[इस फिल्म को 1981 में विदेशी भाषा की कैटेगरी में बेस्ट फिल्म का आस्कर अवार्ड भी मिला। इस फिल्म को हंगरी के डायरेक्टर ‘Istvan Szabo’ ने निर्देशित किया।]

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