मजदूरों के ‘इण्टरनेशनल’ के 150 वर्ष

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2014 में प्रथम विश्वयुद्ध के 100 साल पूरे हुए। इसे मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग में विस्तार से याद किया गया और इसके विविध आयामों पर कई महत्वपूर्ण लेख भी लिखे गये। कई डाकूमेन्ट्री भी इसी साल इस विषय पर बनी। लेकिन 2014 में एक अन्य महत्वपूर्ण घटना के 150 साल पूरे हुए। यह महत्वपूर्ण घटना है- मार्क्स-एंगेल्स के नेतृत्व में 28 सितम्बर 1864 को ‘इण्टरनेशनल वर्किगमेन्स एसोसिएशन’ यानी मजदूरों के पहले इण्टरनेशनल (‘International Workingmen’s association’ or First International) की स्थापना (यह सुखद संयोग है कि 28 सितम्बर ‘भगत सिंह’ का भी जन्म दिवस है)। आज जिसे हम ‘मार्क्सवाद’ कहते हैं, वह इसी इण्टरनेशनल में अनेकों तीखे वैचारिक संघर्षों के दौरान स्थापित हुआ। लेकिन आश्चर्य की बात है कि इसे ना तो वैकल्पिक मीडिया में याद किया जा रहा है और ना ही अपने आप को मार्क्सवादी कहने वाले बुद्धिजीवी या मार्क्सवादी कहलाने वाली पार्टियां ही याद कर रही हैं।
हांलाकि ‘कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो’ फर्स्ट इण्टरनेशनल की स्थापना से काफी पहले 1848 में आ चुका था, लेकिन इसकी मूलभूत प्रस्थापना को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान और स्थापना फर्स्ट इण्टरनेशनल के दौरान ही मिली। ‘कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो’ के अबतक के सबसे खूबसूरत नारे – ‘मजदूरों का कोई देश नही होता, दुनिया के मजदूरों एक हो, मजदूरों के पास खोने के लिए अपनी जंजीरों के अलावा कुछ नही है, पाने को पूरी दुनिया है’, इसी इण्टरनेशनल के दौरान स्थापित हुए और चरितार्थ होने लगे। फर्स्ट इण्टरनेशनल से पहले तक यूरोप का पूंजीपति वर्ग अपने-अपने देश के मजदूरों की हड़ताल को तोड़ने के लिए दूसरे देश के मजदूरों का प्रयोग करता था। लेकिन इण्टरनेशनल की स्थापना के बाद से पूंजीपति के हाथ से उसका यह महत्वपूर्ण हथियार पूरी तरह से छिन गया। यह यूरोप के मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीय एकता के कारण ही संभव हुआ। और इसके पीछे की मुख्य ताकत थी- फर्स्ट इण्टरनेशनल ।
आज हम मजदूर आन्दोलन के क्षेत्र में जितनी भी प्रवृत्तियां पाते हैं, उनकी जड़े इसी इण्टरनेशनल में है। अर्थवाद, अराजकतावाद, शुद्ध ट्रेडयूनियनवाद…… आदि सभी। मार्क्स ने इण्टरनेशनल के भीतर इन सभी प्रवृत्तियों से (विशेषकर ‘अर्थवाद’ और ‘अराजकतावाद’ से) तीखा संघर्ष चलाकर ही मार्क्सवाद को स्थापित किया। मार्क्स का बृहद कार्य ‘दि कैपिटल’ का पहला भाग भी 1867 में छपकर आया। इन्टरनेशनल ने सभी मजदूर नेताओं से इसे पढ़ने का आग्रह किया। इस रुप में ‘दि कैपिटल’ के भी 150 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। 2008 की भयावह मंदी के बाद ‘दि कैपिटल’ का महत्व काफी बढ़ गया है। और मुख्यधारा की मीडिया में भी ‘मार्क्स की वापसी’ के नारे लग रहे हैं। 2008 के बाद से ‘दि कैपिटल’ के पुर्नमुद्रण की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है।
इस तथ्य को बहुत कम लोग जानते हैं कि यह इण्टरनेशनल का ही प्रभाव था कि ब्रिटेन उस वक्त अमरीका में चल रहे गृहयुद्ध में प्रतिक्रियावादी दक्षिण की तरफ से चाहकर भी हस्तक्षेप नही कर पाया। इण्टरनेशनल के प्रभाव में ब्रिटेन का मजदूर दासप्रथा के खिलाफ चल रहे युद्ध में वहां के नागरिकों, मजदूरों का पुरजोर समर्थन कर रहा था। इण्टरनेशनल की तरफ से ‘अब्राहम लिंकन’ को एक प्रशस्ति पत्र भी भेजा गया था जो संभवतः मार्क्स द्वारा ही लिखा गया था।
यह तथ्य बेहद महत्वपूर्ण है कि मजदूरों ने पहले पहल अपने आपको राष्ट्रीय स्तर पर नही बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संगठित किया। चाहे फर्स्ट इण्टरनेशनल हो या फिर इसका पूर्ववर्ती ‘कम्युनिस्ट लीग’ हो, या उससे भी पहले ‘इग्जाइल लीग’ (Exile League) और ‘फेडरेशन आॅफ जस्ट’ (Federation of Just) हों। राष्ट्रीय स्तर पर बहुत बाद में जाकर मजदूरों की राजनीतिक पार्टी बननी शुरु हुई। तथ्यतः देखे तो यूरोप में सबसे पहले जर्मनी में 1869 में मशहूर समाजवादी ‘बेबेल’ और ‘लीब्नेख्त’ के नेतृत्व में मजदूरों की पहली राजनीतिक पार्टी बनी।
मजदूरों की पहली सफल क्रान्ति ‘पेरिस कम्यून’ (1871) भी फर्स्ट इण्टरनेशनल के दौरान ही हुई थी। इसमें इण्टरनेशनल की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका थी। एंगेल्स ने तो ‘पेरिस कम्यून’ को फर्स्ट इण्टरनेशनल की संतान कहा। पेरिस कम्यून पर मशहूर फिल्मकार ‘पीटर वाटकिंग’ ने बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्म ‘ला कम्यून’ बनायी है।
इण्टरनेशनल के ही एक सदस्य कम्युनार्ड ‘Eugene Pottier’ ने ही मजदूरों का मशहूर अन्तर्राष्ट्रीय गीत ‘दि इण्टरनेशनल’ इसी समय जून 1871 में लिखा।
आज जिसे हम ‘आत्मनिर्णय के अधिकार’ (यानी प्रत्येक समुदाय और राष्ट्र को अपना भाग्य खुद चुनने का अधिकार है।) के रुप में जानते है, वह इसी इण्टरनेशनल में स्थापित हुआ था। इण्टरनेशनल ने उस वक्त आयरलैण्ड (जो उस वक्त इग्लैण्ड के खिलाफ अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहा था) और पोलैण्ड (जो जारशाही रुस के खिलाफ अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहा था) की आजादी की मांग को न सिर्फ जोर शोर से उठाया था, वरन उनके समर्थन में अनेकों हड़तालें भी आयोजित की थी।
पेरिस कम्यून के पतन के बाद पूरे यूरोप के शासक वर्ग ने इण्टरनेशनल को अपने निशाने पर ले लिया और ब्रिटेन को छोड़कर प्रायः हर जगह इसे प्रतिबंधित कर दिया गया। इसके अलावा अराजकतावादी ‘बाकुनिन’ जैसे भितरघातियों ने इसे अन्दर से कमजोर करना शुरु कर दिया। ऐसी स्थिति में मार्क्स-एंगेल्स ने इण्टरनेशनल को बचाने के लिए इसका हेडक्वार्टर लंदन से अमरीका शिफ्ट कर दिया। लेकिन अमरीका में उस वक्त मजदूर आन्दोलन की बागडोर वहां के गोरे अभिजात्य मजदूरों के हाथ में थी। और वहां के काले मजदूर, महिला मजदूर, अप्रवासी मजदूरों की वहां की स्थापित यूनियनों में कोई भूमिका ना थी, जबकि वास्तविक संघर्षो में ये मजदूर ही अग्रिम पंक्ति में होते थे। ऐसी स्थिति में वहां जाकर इण्टरनेशनल काफी सुस्त हो गया। अन्ततः अनेकों वस्तुगत-आत्मगत कारणों के चलते मजदूरों का यह पहला इण्टरनेशनल 1876 में समाप्त हो गया। मशहूर मार्क्सवादी लेखक “मारसेलो मुस्तो” [Marcello musto] ने अपनी हालिया प्रकाशित पुस्तक The International 150 years Later में इस पहले इण्टरनेशनल के बहुत से महत्वपूर्ण दस्तावेजों को संकलित किया है।
हालांकि एक दशक से कुछ वर्ष बाद ही इसी कड़ी में ‘बास्तीय किले’ (फ़्रांसीसी क्रान्ति के दौरान) पर हमले की 100 वीं बरसी पर 1889 में पेरिस में मजदूरों के दूसरे इण्टरनेशनल की स्थापना कहीं अधिक व्यापक पैमाने पर हुई।
इतिहास कहां रुकता है।

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U.S. is Responsible for the Ebola Outbreak in West Africa — By Timothy Alexander Guzman

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A History of Guatemala’s Syphilis Experiment: How a U.S. Led Team Performed Human Experimentations in Central America

Dr. Cyril Broderick, A Liberian scientist and a former professor of Plant Pathology at the University of Liberia’s College of Agriculture and Forestry says the West, particularly the U.S. is responsible for the Ebola outbreak in West Africa. Dr. Broderick claims the following in an exclusive article published in the Daily Observer based in Monrovia, Liberia. He wrote the following:

The US Department of Defense (DoD) is funding Ebola trials on humans, trials which started just weeks before the Ebola outbreak in Guinea and Sierra Leone. The reports continue and state that the DoD gave a contract worth $140 million dollars to Tekmira, a Canadian pharmaceutical company, to conduct Ebola research. This research work involved injecting and infusing healthy humans with the deadly Ebola virus. Hence, the DoD is listed as a collaborator in a “First in Human” Ebola clinical trial (NCT02041715, which started in January 2014 shortly before an Ebola epidemic was declared in West Africa in March.

Is it possible that the United States Department of Defense (DOD) and other Western countries are directly responsible for infecting Africans with the Ebola virus? Dr. Broderick claims that the U.S. government has a research laboratory located in a town called Kenema in Sierra Leone that studies what he calls “viral fever bioterrorism”, It is also the town where he acknowledges that is the “epicentre of the Ebola outbreak in West Africa.” Is it a fact? Is Dr. Broderick a conspiracy theorist? He says that “there is urgent need for affirmative action in protecting the less affluent of poorer countries, especially African citizens, whose countries are not as scientifically and industrially endowed as the United States and most Western countries, sources of most viral or bacterial GMOs that are strategically designed as biological weapons.” He also asks an important question when he says “It is most disturbing that the U. S. Government has been operating a viral hemorrhagic fever bioterrorism research laboratory in Sierra Leone. Are there others?”

Well, Mr. Broderick’s claims seem to be true. After all, the U.S. government has been experimenting with deadly diseases on human beings for a long time, history tells us so. One example is Guatemala. Between 1946 and 1948, the United States government under President Harry S. Truman in collaboration with Guatemalan President Juan José Arévalo and his health officials deliberately infected more than 1500 soldiers, prostitutes, prisoners and even mental patients with syphilis and other sexually transmitted diseases such as gonorrhea and chancroid (a bacterial sexual infection) out of more than 5500 Guatemalan people who participated in the experiments. The worst part of it is that none of the test subjects infected with the diseases ever gave informed consent. The Boston Globe published the discovery made by Medical historian and professor at Wellesley College, Susan M. Reverby in 2010 called ‘Wellesley professor unearths a horror: Syphilis experiments in Guatemala.’ It stated how she came across her discovery:

Picking through musty files in a Pennsylvania archive, a Wellesley College professor made a heart-stopping discovery: US government scientists in the 1940s deliberately infected hundreds of Guatemalans with syphilis and gonorrhea in experiments conducted without the subjects’ permission. Medical historian Susan M. Reverby happened upon the documents four or five years ago while researching the infamous Tuskegee syphilis study and later shared her findings with US government officials.

The unethical research was not publicly disclosed until yesterday, when President Obama and two Cabinet secretaries apologized to Guatemala’s government and people and pledged to never repeat the mistakes of the past — an era when it was not uncommon for doctors to experiment on patients without their consent.

After Reverby’s discovery, the Obama administration apparently gave an apology to then-President Alvaro Colom according to the Boston Globe:

Yesterday, Obama called President Álvaro Colom Caballeros of Guatemala to apologize, and Obama’s spokesman told reporters the experiment was “tragic, and the United States by all means apologizes to all those who were impacted by this.

Secretary of State Hillary Rodham Clinton had called Colom Thursday night to break the news to him. In her conversation with the Guatemalan president, Clinton expressed “her personal outrage and deep regret that such reprehensible research could occur,’’ said Arturo Valenzuela, assistant secretary of state for Western Hemisphere affairs.
The study in Guatemala was led by John Cutler, a US health service physician who also took part in the controversial Tuskegee Syphilis experiments which began in the 1930’s. Researchers wanted to study the effects of a group of antibiotics called penicillin on affected individuals. The prevention and treatment of syphilis and other venereal diseases were also included in the experimentation. Although they were treated with antibiotics, more than 83 people had died according to BBC news in 2011 following a statement issued by Dr Amy Gutmann, head of the Presidential Commission for the Study of Bioethical Issues:

The Commission said some 5,500 Guatemalans were involved in all the research that took place between 1946 and 1948. Of these, some 1,300 were deliberately infected with syphilis, gonorrhoea or another sexually transmitted disease, chancroid. And of that group only about 700 received some sort of treatment. According to documents the commission had studied, at least 83 of the 5,500 subjects had died by the end of 1953.

Washington’s reaction to the report is a farce. The apology made to Guatemala’s government was for the sake of public relations. Washington knows about its human experimentations in the past with deadly diseases conducted by government-funded laboratories that are known to be harmful to the public. The U.S. government is guilty in conducting numerous medical experiments on people not only in Guatemala but in other countries and on its own territory. As the Boston Globe report mentioned, the Tuskegee Syphilis Study occurred between 1932 and 1972 by the U.S. Public Health Service to study the “natural progression” of untreated syphilis in the African American population. The U.S. Public Health Service and the Tuskegee Institute collaborated in 1932 and enrolled 600 poor sharecroppers from Macon County, Alabama to study the syphilis infection. However, it was documented that at least 400 of those had the disease (they were never informed that they actually had syphilis) while the remaining 200 did not. They received free medical care, food and even free burial insurance for participating in the study. Documents revealed that they were told that they had “bad blood” which meant that they had various medical conditions besides syphilis. The Tuskegee scientists continued to study the participants without treating their illnesses and they also withheld much-needed information from the participants about penicillin, which proved to be effective in treating Syphilis and other venereal diseases. The test subjects were under the impression that they were receiving free health care from the U.S. government while they were deliberately being lied to by the same administrators who were conducting the tests. Washington is fully aware of its human experimentations with deadly diseases. The government of Guatemala also knew about the Syphilis experiments according to the Boston Globe:

A representative of the Guatemalan government said his nation will investigate, too — looking in part at the culpability of officials in that country. The records of the experiment suggest that Guatemalan government officials were fully aware of the tests, sanctioned them, and may have done so in exchange for stockpiles of penicillin.

However, the U.S. Department of Health and Human Services published the study ‘Fact Sheet on the 1946-1948 U.S. Public Health Service Sexually Transmitted Diseases (STD) Inoculation Study’ and was forced to admit what happened in Guatemala during the syphilis experiments:

While conducting historical research on the Tuskegee Study of Untreated Syphilis, Professor Susan Reverby of Wellesley College recently discovered the archived papers of the late Dr. John Cutler, a U.S. Public Health Service medical officer and a Tuskegee investigator. The papers described another unethical study supported by the U.S. government in which highly vulnerable populations in Guatemala were intentionally infected with sexually transmitted diseases (STDs). The study, conducted between 1946 and 1948, was done with the knowledge of Dr. Cutler’s superiors and was funded by a grant from the U.S. National Institutes of Health to the Pan American Sanitary Bureau (which became the Pan American Health Organization) to several Guatemalan government ministries. The study had never been published.

The U.S. government admitted to its wrongdoing, 62 years too late. What Dr. Broderick wrote is not conspiratorial in any sense. The U.S. government has been involved in bioterrorism; Guatemala is a case in point. Dr. Broderick summarized what average people can do to prevent governments, especially those from the West from creating and exposing populations from diseases they experiment with in laboratories:

The challenge is global, and we request assistance from everywhere, including China, Japan, Australia, India, Germany, Italy, and even kind-hearted people in the U.S., France, the U.K., Russia, Korea, Saudi Arabia, and anywhere else whose desire is to help. The situation is bleaker than we on the outside can imagine, and we must provide assistance however we can. To ensure a future that has less of this kind of drama, it is important that we now demand that our leaders and governments be honest, transparent, fair, and productively engaged. They must answer to the people. Please stand up to stop Ebola testing and the spread of this dastardly disease.

After Guatemala’s ordeal with the U.S. government who deliberately infected people with syphilis, West African nations should be extremely skeptical about the U.S. government’s actions combating Ebola. Professor Francis Boyle of the University of Illinois, College of Law questions the Obama administration’s actions in West Africa. RIA Novosti recently interviewed Boyle and he said the following:

US government agencies have a long history of carrying out allegedly defensive biological warfare research at labs in Liberia and Sierra Leone. This includes the Centers for Disease Control and Prevention (CDC), which is now the point agency for managing the Ebola spill-over into the US,” Prof. Francis Boyle said.

Why has the Obama administration dispatched troops to Liberia when they have no training to provide medical treatment to dying Africans? How did Zaire/Ebola get to West Africa from about 3,500km away from where it was first identified in 1976?”

That’s a good question for Washington, but would the public get any answers? Not anytime soon, since it took more than 62 years for the Guatemala syphilis experiments to be exposed to the public, not by the US government, by a medical historian.
[http://www.globalresearch.ca/ से साभार ]

ग्वाटेमाला में अमेरिका ने किस तरह से वहां के गरीब लोगों पर ‘सीफ्लिस’ [Syphilis] का टेस्ट किया और इसे एक महामारी का रूप दिया, इसे आप इस महत्वपूर्ण डाक्यूमेंट्री में देख सकते हैं.

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‘The Song of The Shirt’ [by Jeremy Seabrook ] किताब में ढाका की फैक्ट्रियों का सच

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बड़े ब्रैंड की एक शर्ट का मेहनताना मात्र 80 पैसे!
चार हजार से ज्यादा रेडिमेड गारमेन्ट फैक्ट्रियां। मजदूरों के ठिकाने दूर तक फैली संकरी झुग्गियों में। सुबह सायरन बजते ही सड़कों पर जैसे जनसैलाब उमड़ पड़ता है। यह 40 लाख से ज्यादा मजदूरों का शहर हैं। हर रोज आते है हजारों और मजदूर। आप रेडिमेड गारमेन्ट के जो भी बड़ा से बड़ा ब्रैंड पहनते हैं, वो सब यही बनते हैं।
प्यूमा जैसे तमाम सुपर ब्रैंड के कपड़े बनते यहां हैं, और बिकते हैं यूरोप व अमेरिका के लकदक शो-रूम में। जो हाथ इन्हें बनाते हैं, उनकी मजदूरी क्या होगी? हर घण्टे के 10 रूपये भी नहीं। एक ब्रैडेड शर्ट का मेहनताना बमुश्किल 80 पैसे के आसपास। यह दुनिया में सबसे कम मजदूरी देने वाला शहर है। जबकि निर्यात से होने वाली आमदनी का 80 फीसदी इसी इंडस्ट्री की देन है। जेर्मी सीब्रूक की पुस्तक ‘द साॅन्ग आफ शर्ट’ में ये बातें सामने आयी हैं।

Devastated A mother looks for her son in the debris of Rana Plaza, Dhaka

Devastated A mother looks for her son in the debris of Rana Plaza, Dhaka

पिछले साल एक फैक्ट्री की दस मंजिला इमारत में आग लगी। वह भरभरा कर गिर गयी। 1100 से ज्यादा मजदूर दफन हो गये। परिजनों को मुआवजे में मिले महज 130 डाॅलर। बेहद असुरक्षित इमारतों में अपनी जान हथेली पर रखकर ऐसे ही काम करते हैं लाखों मजदूर। ज्यादातर फैक्ट्रियां बेहद तंग, गरमी और घुटन भरी होती हैं। हवा में कपड़ों के उड़ते हुए रेशे। गरमी के दिनों में भट्टियों में तब्दील। करीब 12 घण्टे काम। आॅर्डर बढ़ने पर काम के घंटे ज्यादा। ज्यादातर मजदूर भूमिहीन किसान परिवार के है। हर साल आने वाली बाढ़ और तूफान से बर्बाद परिवार। कुछ के खेत गिरवी हैं, कुछ बीमार परिजनों के इलाज में कर्जदार। पैसा कमाने की उम्मीद इन्हे ढाका ले आती है। मगर हादसों से छुटकारा यहां भी नही है। हर साल ऐसी घटनाओं में 100 से ज्यादा मजदूर मर जाते हैं। इनके मालिक कौन हैं? कई कारखानों के मालिक तो देश के करीब 40 सांसद ही हैं। ऐसे कई दूसरे नुमांइदों के भी आर्थिक हित इनसे जुड़े हैं। 2013 के हादसे के बाद जब हड़ताल और दंगे हुए तो न्यूनतम मजदूरी 5000 टका यानी 68 डाॅलर की गयी। 40 फीसदी से ज्यादा फैक्ट्रियों ने इसका पालन नहीं किया। नवंबर 2010 में मजदूरी 1662 टका से बढ़ाकर 3000 टका (20 डाॅलर से 38 डाॅलर) की गयी थी। मजदूरों की रियायती चावल की सरकारी योजना भी जल्दी बंद हो गयी। मजदूरों में 80-90 फीसदी तादात युवा महिलाओं की है। यहां यौन शोषण की घटनाएं भी आम हैं।
[हिन्दी दैनिक ‘दैनिक भास्कर’ के 19 अक्टूबर अंक से साभार]

Thomas Hood ने इसी नाम से एक अत्यन्त मार्मिक कविता 1843 में लिखी थी जो इंग्लैण्ड के टेक्सटाइल महिला मजदूरों की व्यथा बयान करता है।

The Song of the Shirt
WITH fingers weary and worn,
With eyelids heavy and red,
A woman sat, in unwomanly rags,
Plying her needle and thread–
Stitch! stitch! stitch!
In poverty, hunger, and dirt,
And still with a voice of dolorous pitch
She sang the “Song of the Shirt.”

“Work! work! work!
While the cock is crowing aloof!
And work–work–work,
Till the stars shine through the roof!
It’s Oh! to be a slave
Along with the barbarous Turk,
Where woman has never a soul to save,
If this is Christian work!

“Work–work–work
Till the brain begins to swim;
Work–work–work
Till the eyes are heavy and dim!
Seam, and gusset, and band,
Band, and gusset, and seam,
Till over the buttons I fall asleep,
And sew them on in a dream!

“Oh, Men, with Sisters dear!
Oh, men, with Mothers and Wives!
It is not linen you’re wearing out,
But human creatures’ lives!
Stitch–stitch–stitch,
In poverty, hunger and dirt,
Sewing at once, with a double thread,
A Shroud as well as a Shirt.

“But why do I talk of Death?
That Phantom of grisly bone,
I hardly fear its terrible shape,
It seems so like my own–
It seems so like my own,
Because of the fasts I keep;
Oh, God! that bread should be so dear,
And flesh and blood so cheap!

“Work–work–work!

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‘Blow for Blow’ – जुझारु महिला मजदूरों की जुझारु कहानी

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‘Coup pour Coup’ (Blow for Blow) फिल्म फ्रांस के टेक्सटाइल महिला मजदूरों की कहानी है। उनके संघर्षो, उनकी कठिन जीवन स्थितियों की कहानी है। 1972 में बनी यह फिल्म फ्रांस के मई 68 आन्दोलन से प्रभावित है। फिल्म की दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमे असल मजदूरों ने अभिनय किया है। इनमें से अधिकांश वे महिला मजदूर हैं जिन्होने मई 68 आन्दोलन में स्वयं हिस्सा लिया था। सिर्फ मैनेजर और एकाध पुरुष चरित्र ही ‘प्रोफेशनल’ कलाकार हैं। और मजे की बात यह है कि उन्ही का अभिनय कमजोर है। बाकी सभी महिला मजदूर पहली बार अभिनय कर रही थीं। बल्कि यो कहें कि वह अपनी जीवन स्थितियों को कैमरे के सामने दुबारा जी रही थीं। पात्रों के साथ साथ वह फैक्ट्ररी भी असल है जहां फिल्म शूट की गयी है। सच कहें तो यह ‘पीटर वाटकिन’ की परम्परा की फिल्म है। याद कीजिए, पीटर वाटकिन ने भी अपनी मशहूर फिल्म ‘ला कम्यून’ इसी तरह से बनायी थी।
फिल्म में मजदूर महिलाओं ने सिर्फ अभिनय ही नही किया है बल्कि फिल्म निर्माण की पूरी प्रक्रिया में भी अपनी सक्रिय हिस्सेदारी की है। चाहे कैमरा एंगिल की बात हो या फिर पटकथा की बात हो। सच तो यह है कि फ्रेम दर फ्रेम फिल्म शूट करते हुऐ सभी महिला मजदूर बैठक करते थे और साथी कलाकारों के अभिनय पर अपनी राय जाहिर करते हुए फिल्म के तकनीकी पहलुओं पर भी अपनी राय रखते थे और इसकी रोशनी में फिल्म में आवश्यक बदलाव किये जाते थे। एक तरह से यह एक ‘इम्प्रोवाइज्ड’ फिल्म है। फिल्म में मजदूर महिलाओं द्वारा फैक्ट्ररी पर कब्जे की प्रक्रिया को काफी असरदार तरीके से दिखाया गया हैं। जो काफी moving है।
इस फिल्म के डायरेक्टर ‘Marin Karmitz’ हैं। जिनकी मशहूर trilogy ‘Red’, ‘White’ और ‘Blue’ बहुत चर्चित हुई है। Marin Karmitz 68 में फ्रांस में फोटो जर्नलिस्ट थे। इसी दौरान उन्होने कई मजदूर आन्दोलनों विशेषकर महिला मजदूर आन्दोलनों को कवर किया था और उससे खासे प्रभावित हुए थे। खुद उनके शब्दों में- ‘‘हम उस वक्त यह जानने को बेहद उत्सुक थे कि अपने देश की मूक जनता की आवाज हम कैसे बनें। विशेषकर उन हजारों महिला टेक्सटाइल मजदूरों की आवाज जो 1970 में पहली बार हड़ताल पर गयी थी और इसके लिए उन्होने बेहद मुश्किल परिस्थितियों का सामना किया था। मैंने प्रेस फोटोेग्राफर के रुप में ऐसी कई हड़तालों को कवर किया और यहां मैने जो देखा उससे मै इतना प्रभावित हुआ कि मै यह फिल्म बनाने को बाध्य हुआ,जो इन्ही बहादुर महिला मजदूरों के अनुभवों पर आधारित है। इनकी कहानी मुझे लगातार प्रभावित करती रही है। आज धनी देशों में भले ही मजदूरों की स्थिति थोड़ी भिन्न हो लेकिन उन्होंने अपने अधिकारों के लिए जो लड़ाई लड़ी है वह आज भी प्रासंगिक है।’’
पूरी फिल्म आप यहां से डाउनलोड कर सकते हैं।

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Out of this Earth: East India Adivasis and the Aluminium Cartel

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भारत के पूर्वी राज्यों विशेषकर उड़ीसा, छत्तीसगड़ और झारखण्ड में खनन कम्पनियों और वहां के मूल निवासियों के बीच संघर्ष की खबरें आती रही हैं। सरकार अपने चरित्र के अनुसार प्रायः कम्पनियों के साथ ही खड़ी नज़र आती है। जिन्होने भी इन घटनाक्रमों को थोड़ा फालो किया होगा, वे ‘फेलिक्स पडेल’ और ‘समरेन्द्र दास’ का नाम जरुर जानते होगेे। लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता फेलिक्स पडेल और समरेन्द्र दास की संयुक्त रुप से लिखी पुस्तक ‘आउट आॅफ दिस अर्थ’ 2010 में प्रकाशित हुई। इसकी भूमिका ‘अरुंधति राय’ ने लिखी है। 742 पृष्ठों की यह बृहद पुस्तक एक तरफ खनन कम्पनियों और प्रकारान्तर से पूंजीवाद के काम करने के तरीकों की बहुत तीखी पड़ताल करती है तो वही दूसरी तरफ अदिवासियों के जीवन मूल्यों, उनके दर्शन, उनके प्रतिरोध तथा प्रकृति के साथ उनके संबंधो पर पर्याप्त रोशनी डालती है। हांलाकि केस स्टडी के रुप में यह पुस्तक उड़ीसा में अल्यूमिनियम खनन और इससे हो रहे पर्यावरण विनाश तथा आदिवासियों-दलितो के विस्थापन और उनके प्रतिरोध को ही सामने रखती है। लेकिन संदर्भ के बहाने यह किताब पूरी दुनिया का भ्रमण करती है और बहुत दिलचस्प और सशक्त तरीके यह बताती है कि आज जो उड़ीसा में हो रहा है वह कोई अलग थलग घटना नही हैं, वरन साम्राज्यवाद की विशेष नीतियों के तहत यह पूरी दुनिया में घटित हो रहा है। हर जगह ‘दमन और प्रतिरोध’ की कहानी एक ही है।
अल्यूमिनियम को ‘ग्रीन मेटल’ माना जाता है, क्योकि इसे आसानी से ‘रिसाइकिल’ किया जा सकता है। इसके अलावा इसका भार कम होने से इसका बड़े पैमाने पर वाहनो विशेषकर कारों की बाडी बनाने में इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे वाहनो का भार कम हो रहा है और उनकी प्रतिकिमी क्षमता बड़ रही हैं। फलतः ईधन की बचत हो रही है।
लेखक ने इसी मिथक को तोड़ा है। दरअसल अल्यूमिनियम अपने मूल रुप में आक्सीजन के साथ ‘केमिकल बाण्ड’ बनाये रखता है। अल्यूमिनियम निकालने के लिए इस बाण्ड को तोड़ना पड़ता है। इसके लिए काफी उर्जा की जरुरत होती है। इस उर्जा की जरुरत को पूरा करने के लिए अल्यूमिनियम फैैक्टरी यानी ‘स्मेल्टर’ के नजदीक बिजली घर की जरुरत होती है। और इस बिजली घर के लिए पानी की जरुरत को पूरा करने के लिए बड़े बाधों की जरुरत होती है। अब तक बड़े बांधों पर जो भी विमर्श रहा है वह विस्थापन के इर्द गिर्द ही रहा है। यहां तक की अरुंधति राय ने भी बड़े बाधों पर लिखे अपने लेखों में इस पहलू को नजरअंदाज किया है। लेकिन लेखक के अनुसार दुनिया में जहां भी बड़े बांध बने है उनमें से ज्यादातर का उद्देश्य अल्यूमिनियम उद्योग की सेवा करना रहा है। अन्य चीजे इसके बाद ही आती है। 1947 के बाद बना ‘हीराकुण्ड बांध’ भी मुख्यतः बिरला की अल्यूमिनियम कंपनी ‘हिंडाल्को’ को पानी देने के लिए बना था। इस रुप में दुनिया की सभी अल्यूमिनियम कंपनियां सरकारी सब्सीडी का भरपूर इस्तेमाल करती है और अपने उत्पाद का दाम कम से कम रखने में कामयाब रहती है। ये सभी कंपनियां सरकार से सामान्य से कई गुना तक कम दर पर बिजली प्राप्त करती हैं। ‘रिहन्द बांध’ से बन रही बिजली अल्युमिनियम कम्पनी हिन्डाल्को को किस दर पर दी जा रही थी? समाजवादी नेता ‘राममनोहर लोहिया’ द्वारा संसद में पूछे गये एक प्रश्न के जवाब में बताया गया कि हिन्डाल्को को बिजली 1.99 पैसे प्रति यूनिट की दर से दी जा रही है। उस समय सामान्य लोगो को यह बिजली 40 पैसे प्रति यूनिट की दर से दी जा रही थी। यही पर ‘विश्व बैंक’ और ’आईएमएफ’ का पदार्पण होता है। क्योकि बांध बनाने के लिए, बिजलीघर बनाने के लिए, सड़क बनाने के लिए कर्ज यहीं से आयेगा और शर्तो के साथ आयेगा। इस तरह इन कर्जो का पूरा इस्तेमाल ये निजी कंपनियां करती हैं और देश कर्ज के जाल में फंसता चला जाता है। फिर इन कर्जों से निकलने के लिए सरकारों को और कर्ज लेना पड़ता है और फिर और शर्ते माननी होती है। इन शर्तो में यह भी शामिल होता है कि आपको फलां कम्पनी को अपना सलाहकार नियुक्त करना होगा। और अनिवार्यतः ये कम्पनियां यूरोपियन-अमरीकन या जापान की ही होती हैं। यानी कर्ज मिलते ही इसका एक बड़ा हिस्सा तत्काल फिर उन्ही के पास वापस लौट जाता है। 2002 में ब्रिटिश संस्था ‘डीएफआइडी’ से उड़ीसा सरकार को मिले कर्ज में से 350 करोड़ रुपये उन ब्रिटिश सलाहकार फर्मो को देने पड़े जो उड़ीसा सरकार को यह सलाह देने वाली थी कि वे अपने राज्य में निजीकरण की प्रक्रिया को कैसे आगे बढ़ाये। इसके अलावा इन शर्तो में अब यह भी शामिल हो जाता है कि सरकार जनता पर खर्च करने वाली सब्सीडी खत्म करेगी। और यहीं से शुरु हो जाता है – ‘नवउदारवाद’। इस परिघटना का बहुत ही रोचक, सरल और तथ्यतः वर्णन इस किताब में किया गया है।
आज अल्यूमिनियम का इस्तेमाल चीजों को ताजा रखने के लिए डिब्बाबन्द पैकिंग में विशाल पैमाने पर हो रहा है। ‘टेट्रा पैक’ नामक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का काम ही है, ऐसी मशीनों का निर्माण जो डिब्बाबन्द पैकिंग का काम करती हैं। हमारे घरों में भी अल्युमिनियम का ‘फायल पेपर’ अब एक जरुरत बन चुका है। लेखक ने शरीर पर पड़ने वाले इसके खतरनाक दुष्प्रभावों पर काफी जोर दिया है, जिससे प्रायः हम लोग अनजान हैं। कई शोधों का हवाला देते हुए लेखक बताता है कि विश्व में बढ़ रहे ‘अल्जाइमर’ रोग का प्रधान कारण अल्युमिनियम ही है। इसके अलावा कई तरह के कैन्सर तथा अन्य रोगों का भी अल्यूमिनियम एक बढ़ा कारण है। अल्युमिनियम कम्पनियां अपनी ताकत और पैसे के बल पर इन शोधों को दबा रही है। इसलिए यह मुख्यधारा की मीडिया की चिन्ता नही बन रहा है। ये कम्पनियां कई तरह के झूठे शोध भी करा रही है, जिसमें यह स्थापित किया जा रहा है कि अल्जाइमर का अल्यूमिनियम से कोई लेना देना नही है।
अल्यूमिनियम उद्योग आज इसलिए भी इतना ताकतवर है कि इसका सीधा संबंध युद्ध उद्योग से है। आज युद्ध उद्योग में विशेषकर युद्धक विमान बनाने में इसका बड़े पैमाने पर प्रयोग हो रहा है। सभी बड़ी अल्यूमिनियम कम्पनियां किसी ना किसी युद्ध उपकरण बनाने वाली कम्पनियों से जुड़ी हुई हैं। जैसे टाटा की अल्यूमिनियम कम्पनी और ‘एचएएल’ ‘लाकहिड मार्टिन’ (यह एफ 16 बनाती है) से जुड़ी है तो ‘हिल्डाको’ ‘बोइंग’ और ‘एयरबस’ से। इसी कारण इसे ‘स्ट्रैटेजिक मेटल’ भी कहते हैं।
तेल और कोयले की तरह अल्यूमिनियम जमीन के अन्दर निष्क्रिय पड़ा नही रहता। आक्सीजन के साथ सहज बाण्ड होने के कारण यह नमी को जमीन में बनाये रखता है। और इस कारण जमीन की उर्वरा शक्ति बनी रहती है। नियामगिरी के पहाड़ो पर जो बाक्साइट है, उसका महत्व तो और भी ज्यादा है। बारिश के पानी को यह नमी के रुप में सोखकर साल भर अपने छोटे छोटे सोते के रुप वहां के आदिवासियों को बहुमूल्य पानी उपलब्ध कराता है। वेदान्ता कम्पनी को इसी नियामगिरी को खोदने को ठेका मिला है। इससे पर्यावरण का भयानक विनाश होने की उम्मीद है। और इसी से जुड़ा हुआ है विस्थापन का सवाल। जिसे बहुत शिद्दत के साथ इस किताब में उठाया गया है। लेखक ने इस पूरे विस्थापन के सवाल को एक पूरे समुदाय के ‘सांस्कृतिक जनसंहार’ [cultural genocide] से जोड़ कर देखा है। लेखक ने अनुमान लगाया है कि 1947 के बाद करीब 6 करोड़ लोग इस सांस्कृतिक जनसंहार के शिकार हो चुके हैं। इसमें से करीब 75 प्रतिशत आदिवासी और दलित हैं।
विस्थापन के अलावा इन उद्योगो और बांध बनने के दौरान जो औद्योगिक दुर्घटनाएं होती है, लेखक ने उस पर भी चर्चा की है। भारत के पहले बांध हीराकुण्ड बांध पर तो उन 200 मजदूरों के बकायदा नाम दर्ज हैं जो इसके निर्माण के दौरान मारे गयेे। बाद में यह परंपरा खत्म कर दी गयी। और अब तो इस तरह की किसी भी दुर्घटना को औपचारिक रुप से दर्ज नही किया जाता। कान्ट्रैक्ट, सब कान्ट्रैक्ट की पूरी श्रंखला के कारण अब मूल कंपनी ऐसे मामलों में साफ बच निकलती है। लेखक ने भारत में 1991 में घटी एक ऐसी ही दुर्घटना का जिक्र किया है जब एक बांध के टनल में अचानक पानी भर जाने से करीब 400-500 मजदूर मारे गये, लेकिन मुख्य धारा की मीडिया में इसका कहीं जिक्र नही हुआ।

प्रथम विश्व युद्ध के पहले और बाद में किस तरह से बड़ी बड़ी कार्टेलों (अल्यूमिनियम के क्षेत्र में ‘आल्को’ और ‘कैसर’ पहली एकाधिकारी कम्पनियां हैं। भारत में 1938 में जो पहली अल्यूमिनियम कम्पनी ‘इण्डेल’का निर्माण हुआ वह अमरीकी कम्पनी ‘अल्कान’ के सहयोग से हुआ। ‘हिण्डाल्को’,‘कैसर’ के सहयोग से खड़ी हुई।) का निर्माण हुआ और इनके पीछे वित्तीय संस्थाओं और बड़े बैंकों की क्या भूमिका रही है, इसे बहुत विस्तार से बताया गया है। सरकारों के साथ इनके गठजोड़ के लगभग सभी आयामों को विस्तार से बताया गया है। यहां एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। ‘मैकनमारा’ का पहला परिचय यह है कि वह ‘फोर्ड मोटर्स’ के डायरेक्टर थे। उसके बाद वे अमरीका के ‘डिफेंस सेक्रेटरी’ हुए। वियतनाम युद्ध की नीेंव इन्ही के समय पड़ी। और अन्त में वे विश्व बैंक के डायरेक्टर हुए। अपने देश में भी हम इसे आज आसानी से देख सकते हैं। ‘चिदम्बरम’ भारत के वित्त मंत्री बनने से पहले वेदान्ता कम्पनी के डायरेक्टरों में से एक थे। और वेदान्ता की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में वकील भी रह चुके हैं।
‘वेदान्ता’ कम्पनी का विस्तार से वर्णन करते हुए लेखक ने बताया है कि वेदान्ता को ’लंदन स्टाक एक्सचेन्ज‘ में रजिस्टर कराने में ‘जेपी मार्गन’ जैसी वित्तीय कम्पनी की बड़ी भूमिका है। लेखक ने साफ किया है कि आज वेदान्ता, टाटा , बिडला जैसी बड़ी कम्पनियां साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी की गिरफ्त में हैं। इसी संदर्भ में लेखक ने बताया है कि वेदान्ता भारत में जो खनन कार्य कर रही है उसके लिए उसे ‘जेपी मार्गन’, ‘डच बैंक’, ‘एचएसबीसी’, ‘आइसीआइसीआइ’, ‘सिटी ग्रुप’ से मदद मिल रही है। ये सभी दुनिया की बड़ी वित्तीय संस्थाएं हैं।
वेदान्ता उड़ीसा में जो गैरकानूनी तरीके अपना रही है, वह तो ज्यादातर लोग जानते हैं। लेकिन लेखक ने दिखाया है कि यह उसकी पुरानी कार्यपद्धति है। ‘हर्षद मेहता प्रकरण’ में भी वेदान्ता की पूर्ववर्ती ‘स्टारलाइट’ कम्पनी का हाथ था। इसके अलावा लंदन स्टाक एक्सचेंज में रजिस्टर होने के लिए इसने झूठी रिपोर्ट लगायी। ऐसे उत्पादों को अपनी कम्पनी का उत्पाद दिखाया जो कम्पनी बनाती ही नही। वेदान्ता के एक डायरेक्टर ‘रजत भाटिया’ ने जब इस पर आपत्ति की तो अनिल अग्रवाल ने उन्हे निकाल दिया और धमकी दी कि ‘देखते है तुम इस धरती पर कैसे जिन्दा रहते हो।’ इस प्रकरण का बहुत ही दिलचस्प वर्णन लेखक ने किया है।
उड़ीसा सरकार, वेदान्ता द्वारा कानून के उल्लंघन पर क्या रुख अपनाती है, यह एक ही उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है। उड़ीसा में वेदान्ता को लीज पर जो जमीन दी गयी थी, उससे 10 हक्टेयर ज्यादा जमीन पर वेदान्ता ने कब्जा जमा लिया। पहले तो सरकार ने इसे नजरअन्दाज करने का प्रयास किया, लेकिन ज्यादा विरोध होने पर सरकार ने वेदान्ता पर महज 11000 रुपये का जुर्माना लगाया।
इसके अलावा यह भी एक तथ्य है कि नार्वे सरकार ने वेदान्ता को पर्यावरण के उल्लंघन के आरोप में अपनी ‘काली सूची’ में डाला हुआ है। और भारत में पर्यावरण की रक्षा के लिए दिया जाने वाला ‘गोल्डेन पीकाक अवार्ड’ 2009 में किसी और को नही बल्कि इसी वेदान्ता को दिया गया। क्या विरोधाभास है।
इन कम्पनियों की सरकार में घुसपैठ का एक अन्दाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है -‘रियो टिन्टो’ एक बड़ी बहुराष्ट्रीय खनन कम्पनी है। इसने उड़ीसा में लौह अयस्क निकालने के लिए बड़ी जमीन लीज पर ली हुई है। इस कम्पनी के वित्तीय डायरेक्टर ‘गे इलियट’ ने 27 जून 2006 को लंदन में ‘इण्डिया-यूके बिजनेस लीडर्स फोरम’ में एक भाषण दिया। इसमें उन्होंने भारत सरकार को यह सुझाव दिया कि उसे अपनी ‘नेशनल मिनरल पालिसी’ में क्या संशोधन करना चाहिए। बाद में जब ‘नेशनल मिनरल पालिसी’ पर ‘हुडा रिपोर्ट’ प्रकाशित हुई तो यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इसमें गे इलियट के लगभग सभी ‘सुझावों’ को स्वीकार कर लिया गया है।
‘नवउदारवाद’ के इतिहास पर भी किताब में काफी विस्तार से प्रकाश डाला गया है। नवउदारवाद के जनक ‘फ्रेडरिक हाइक’ और उनके शिष्य ‘मिल्टन फ्रीडमैन’ के दर्शन की विवेचना करते हुए ‘चिली’ में इसके पहले प्रयोग की भी विस्तार से चर्चा की गयी है। नवउदारवाद में‘शाक थेरेपी’ की भूमिका पर भी लेखक ने प्रकाश डाला है जिसे बहुत शानदार तरीके से ‘नोमी क्लेन’ ने अपनी पुस्तक ‘शाक डॅाक्ट्रिन’ में रखा है। ‘शाक थेरेपी’ का एक उदाहरण इण्डोनेशिया भी है। इण्डोनेशिया में जैसे ही राष्ट्रवादी ‘सुकर्णो’ ने अपनी अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश की और इस कोशिश में जमीन्दारी उन्मूलन की कोशिश की और इण्डोनेशिया को ‘आइएमएफ’ से बाहर निकाला, पश्चिमी ताकतों ने विशेषकर अमरीका ने वहां तख्तापलट करा दिया। 10 लाख लोगों के कत्लेआम के बाद नये शासक ‘सुहार्तो’ के नेतृत्व में इण्डोनेशिया अगले ही वर्ष 1966 में पुनः ‘आइएमएफ’ का सदस्य बन गया और उसे एक बड़ा लोन मिल गया। शाक थेरेपी सफल रही।
पुस्तक का एक पूरा चैप्टर ‘एनजीओ’ पर है। यह चैप्टर काफी महत्वपूर्ण है। लेखक ने दिखाया है कि ज्यादातर एनजीओ यथास्थितिवाद के पोषक होते हैं और इस रुप में वे कम्पनी की नीतियों को जाने अनजाने लाभ पहुचा रहे होते हैं। कुछ एनजीओ तो कम्पनी के ‘पीआर’ के रुप में भी काम करने लगते है। जबकि कुछ एनजीओ जनता के आन्दोलन पर कब्जा करने और उसे नख दन्त विहीन बनाने का प्रयास करते हैं। एनजीओ के इतिहास को टटोलते हुए लेखक ने इसे औपनिवेशिक समय के ‘मिशनरियों’ से जोड़ा है जो उस समय की उपनिवेशवाद की नीतियों के तहत ही काम करते थे।
लेखक ने यहीं एक दिलचस्प घटना का जिक्र किया है। एक एनजीओ के माध्यम से वेदान्ता ने देश भर के वकीलों का एक सम्मेलन कराया। इस सम्मेलन में ‘अरिजीत पसायत’ ने भी हिस्सा लिया। बाद में सुप्रीम कोर्ट के जज की हैसियत से इन्होने वेदान्ता के खिलाफ एक मुकदमे में वेदान्ता के पक्ष में निर्णय सुनाया। इस मुकदमें में मशहूर वकील ‘संजय पारिख’जब ‘डोग आदिवासियों’ का पक्ष रखने के लिए खड़े हुए तो जज अरिजीत पसायत ने उन्हे बोलने ही नही दिया और एकतरफा फैसला सुना दिया।

भारत और दुनिया में बढ़ रहे भ्रष्टाचार को बढ़ाने में भी इन कम्पनियों का बड़ा हाथ है। सच तो यह है कि अपने फायदे के लिए देश की पूरी की पूरी नौकरशाही को ये कम्पनियां भ्रष्ट कर देती है। इस संदर्भ में लेखक ने छत्तीसगढ़ के एक मंत्री का दिलचस्प बयान उद्धृत किया है जो उसने एक खनन कम्पनी से घूस लेते हुए बोले थे-‘पैसा खुदा तो नही पर खुदा की कसम खुदा से कम भी नही।’
इसके अलावा उड़ीसा के आदिवासी जीवन और उनकी समस्याओं को दर्शाने के लिए लेखक ने साहित्य का भी सहारा लिया है। उड़िया के मशहूर साहित्यकार ‘गोपीनाश मोहन्ती’ के उपन्यास ‘परजा’ को कई बार उद्धृत किया गया हैं। इसी ‘परजा’ उपन्यास में जब एक सरकारी कर्मचारी एक आदिवासी से पूछता है कि तुम्हारा धर्म क्या है तो वह बोलता है कि मेरा धर्म ‘पहाड़’ है। प्रकृति से ये लोग इस रुप में एकात्म हैं। आदिवासियों के अलग इतिहास को रेखांकित करते हुए लेखक आज उनके उपर हो रहे दमन को अशोक के कलिंग विजय से जोड़ता है। उस वक्त करीब 20000 आदिवासी मारे गये थे। उसके बाद अंग्रेजो के समय में कृत्रिम अकाल से उस वक्त की जनसंख्या का करीब एक तिहाई मौत के आगोश में समा गयी
थी। इसके अलावा यदि रोमिला थापर की माने तो कलिंग युद्ध के समय ही करीब 1 लाख लोगों को जबरन विस्थापित करके वहां ले जाया गया था जहां उन्हें जंगल साफ करके उसे कृषि योग्य बनाने की जरुरत थी। जाहिर है यह कठिन काम उन्ही से कराया गया। उड़ीसा में शायद यह विस्थापन की पहली दर्ज घटना है।
लेकिन किताब में कई बातें ऐसी भी हैं जो इसके समग्र प्रभाव को कम करती है और किताब की मूल विषयवस्तु के ही खिलाफ खड़ी हो जाती हैं। किताब में ‘एडम स्मिथ’ को अनेको बार बहुत प्यार से याद किया गया है। और उनकी एक अलग तस्वीर गढ़ने की कोशिश की गयी है। अर्थशास्त्र की सामान्य जानकारी रखने वाला छात्र भी इस बात को जानता है कि आज जो नंगा और लंपट पूंजीवाद है वो अपना दर्शन अपने गुरु ‘एडम स्मिथ’ से ही लेता है। ‘बाजार का गुप्त हाथ सब कुछ नियंत्रित कर लेता है और सरकार का काम सिर्फ कानून व्यवस्था बनाये रखना है’ यह ‘ब्रहम वाक्य’ एडम स्मिथ का ही दिया हुआ है, जिसका शंखनाद आजकल अक्सर होता रहता है। वर्तमान पूंजीवाद की इतनी रैडिकल आलोचना पेश करने के बाद भी लेखक का एडम स्मिथ से लगाव समझ से परे है। इसके विपरीत पहली बार पूंजीवाद की समग्र आलोचना पेश करने वाले ‘कार्ल मार्क्स’ का जिक्र महज 7 बार किया गया है और हर बार नकारात्मक अर्थ में। विशेषकर उनकी ‘स्टेज थ्योरी’ की आलोचना के अर्थ में। एडम स्मिथ की थ्योरी के आधार पर हम पूंजीवाद का कौन सा विकल्प गढ़ पायेंगे?
लेखक की भारतीय दर्शन में काफी रुचि है। वेदान्ता कम्पनी के बहाने भारतीय दर्शन ‘वेदान्त’ और ‘अद्वैतवाद’ की काफी रैडिकल ब्याख्या लेखक ने पेश की है। और वेदान्ता कम्पनी के कार्य-व्यवहार को वेदान्त दर्शन के खिलाफ बताया गया है। कमोवेश इसी तरह का अप्रोच अरुन्धति राय का भी है। वेदान्त, अद्वैतवाद और हिन्दुत्व को एक ही मानते हुए लेखक कहता है-‘‘भारत में आदिवासियों के धर्म और हिन्दुत्व के बीच कोई फर्क नही है।’’ पहली बात तो यह है कि इस किताब में इसकी चर्चा एकदम अनावश्यक है। लेकिन लेखक ने जब इस दर्शन की इतनी रैडिकल ब्याख्या कर दी है तो यहां संक्षेप में कुछ बाते करना जरुरी है। सूत्र में कहे तो अद्वैतवाद पूरे विश्व की एकता की बात करता है। और यह एकता केद्रित होती है ब्राहमण में, जो ‘परम ज्ञान’ है। इस रुप में यह समाज के सभी अन्तरविरोधों से इन्कार करता है। स्त्री-पुरुष, ब्राहमण-दलित, आदिवासी-गैर आदिवासी……….. संक्षेप में कहें तो यह शोषक और शोषित के बीच के अन्तरविरोधों से इंकार करता है। उस पर पर्दा डालता है। जाहिर है इन अन्तरविरोधों में जो शोषक की स्थिति में हैं उनके लिए यह दर्शन अनुकूल है। लेकिन जो शोषित की स्थिति में हैं और यथास्थिति तोड़ना चाहते हैं, उनके लिए यह दर्शन प्रतिक्रियावादी दर्शन है। ‘शंकराचार्य’ के इस प्रसिद्ध कथन ‘ब्रहम सत्यम जगत मिथ्या’ के पीछे की राजनीति यही है, चाहे आप इसे लेकर कितनी भी उलटबांसी कर लीजिए। इसके अतिरिक्त लेखक के वर्णन से ऐसा लगता है कि भारतीय दर्शन में यही एकमात्र दर्शन मान्य है। वेदान्त दर्शन के मजबूत विरोधी ‘बुद्ध दर्शन’ और ‘चार्वाक दर्शन’ का लेखक ने कही जिक्र तक नही किया हैं। आदिवासियों के सर पर इस प्रतिक्रियावादी दर्शन को मढ़ना उनके साथ एक तरह का ‘अकादमिक अत्याचार’ ही है। आदिवासी और दलित कभी हिन्दू नहीं रहे है। उन्हे हिन्दू धर्म का हिस्सा बनाने का प्रयास बहुत बाद में शुरु हुआ है। सवर्णो द्वारा आदिवासी और दलित को हिन्दू बताना दरअसल उन्हे दूसरे धर्मो में जाने से रोकना और उन पर अपनी ‘कल्चरल हेजेमनी’ स्थापित करने का एक प्रयास है।

इतनी बृहद किताब में कुछ छोटी छोटी तथ्यात्मक चूक होना लाजिमी है। लेकिन एक जगह यह चूक काफी खटकती है। इण्डोनेशिया में सुहार्तो द्वारा तख्तापलट का जिक्र करते हुए लेखक ने बताया है कि इसमें 50000 लोग मारे गये थे। लेकिन वस्तुतः इसमें 10 लाख लोग मारे गये थे। इण्डोनेशिया की सरकारी किताब में भी यह संख्या 85000 बतायी गयी है। लेखक को यह 50000 संख्या कहां से मिली, पता नहीं। हालांकि यहां लेखक ने एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी दिया है कि इंडोनेशिया के सलेम ग्रुप ने ( जो नंदीग्राम में अपना केमिकल कारखाना लगाना चाह रहा था ) 65-66 में हुए कत्लेआम में सुहार्तो का साथ दिया था।
कुल मिलाकर देश दुनिया से सरोकार रखने वालों के लिए यह एक अनिवार्य किताब है।
हां फेलिक्स पडेल के बारे एक रोचक तथ्य यह है कि वे ‘चार्ल्स डार्विन’ के पड़पोते के पड़पोते हैं।

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हमारा शिक्षक कौन है- ‘डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन’ या ‘सावित्रीबाई फुले’

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‘शिक्षक दिवस’ नजदीक आने से एक बार फिर यह बहस शुरु हो गयी है कि शिक्षक दिवस को डाॅ राधाकृष्णन से जोड़ने का क्या औचित्य है। आखिर शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान ही क्या है। या इससे भी बढ़कर समाज के लिए ही उनका क्या योगदान है। आखिर राधाकृष्णन का दर्शन क्या है।
दूसरी ओर कई दलित संगठनों ने पहले ही सावित्रीबाई फुले के जन्म दिन (4 जनवरी) को ‘शिक्षक दिवस’ के रुप में मनाना शुरु कर दिया है।
राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर 1888 को अॅान्ध्र प्रदेश के एक गांव में एक ब्राहमण परिवार में हुआ था। दर्शन में उच्च शिक्षा लेने के बाद उन्होने अॅान्ध्र, मैसूर और कोलकाता में दर्शन के प्रोफेसर के रुप में दर्शन पढ़ाया। कुछ समय उन्होंने आक्सफोर्ड में भी धर्म और नीतिशास्त्र पढ़ाया। इसके अलावा वे दिल्ली विश्वविघालय और बनारस हिन्दू विश्वविघालय के ‘वाइस चांसलर’ भी रहे। और सबसे बढ़कर वे भारत के प्रथम उप राष्ट्रपति और द्वितीय राष्ट्रपति रहे। ब्रिटिश सरकार ने उन्हे ‘नाइटहुड’ की उपाधि से नवाजा तो भारत सरकार ने उन्हे ‘भारत रत्न’ से नवाजा। उन्होने कभी भी ‘स्वतंत्रता आन्दोलन’ या किसी भी राजनीतिक- सामाजिक आन्दोलन में हिस्सा नही लिया।
उनका दर्शन था ‘अद्वैत वेदान्त’ का दर्शन। इस पर उन्होने कई किताबे लिखी हैं। उनके समर्थकों का कहना है कि उन्होंने अद्वैत वेदान्त की नई व्याख्या करके पश्चिम को अद्वैत वेदान्त दर्शन की ऊंचाइयों से परिचित कराया। और इस रुप में भारत का सर ऊंचा उठाया।
शंकराचार्या के समय में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा यह दर्शन भारतीय दर्शन के इतिहास में ‘बुद्ध दर्शन’ और ‘चर्वाक’ दर्शन के बरक्स एक प्रतिक्रियावादी दर्शन है जो पूरे ब्रहमांण की एकता की बात करता है और सभी तरह के अन्तरविरोधों को माया मानता है। डाॅ. राधाकृष्णन ने भी इसी से प्रभावित होकर ‘वैश्विक एकता’ (Global oneness) की बात कही और ‘राष्ट्रवाद’ को ‘वैश्विक एकता’ के मार्ग में एक बाधा के रुप में चिन्हित किया (शायद इसी कारण वे स्वतंत्रता आन्दोलन से दूर रहे)। इस रुप में समाज के सारे अन्तरविरोध मसलन दलित-सवर्ण का अन्तरविरोध, अमीर-गरीब का अन्तरविरोध, साम्राज्यवाद- राष्ट्रवाद का अन्तरविरोध जैसे अनेक अन्तरविरोध महज माया रह जाते है। व्यक्ति का मूल लक्ष्य है एकता के इस ‘परम ज्ञान’ को प्राप्त करना। इस परम ज्ञान को वेदो में “ब्राहमण” कहा गया है। राधाकृष्णन भी इसका इसी रुप में प्रयोग करते हैं। इस दर्शन की उलटबांसी यह है कि यदि सब कुछ एक है यानी ‘परम ब्रहम’ या ‘ब्राहमण’ है तो इसका ज्ञान प्राप्त करने का क्या मतलब है। क्योकि ज्ञानप्राप्ति के लिए ‘आब्जेक्ट’ और ‘सब्जेक्ट’ का अलग अलग अस्तित्व जरुरी है। जिससे राधाकृष्णन और अद्वैतवाद दोनो ही इंकार करते है। यानी ज्ञान अपने आप में ही माया है।
भारत के बहुसंख्यक दलितों, आदिवासियों, महिलाओं एवं गरीबों के लिए इस दर्शन में क्या है?
अब हम ‘सावित्रीबाई फुले’ की ओर रुख करते हैं। सावित्रीबाई का जन्म महाराष्ट्र के ‘सतारा’ जिले में 4 जनवरी (कुछ के अनुसार 3 जनवरी) 1831 को एक शूद्र परिवार में हुआ था। अपने पति और साथी ‘ज्योतिबा फुले’ के साथ मिलकर उन्होने 1847 में दलितों के लिए पहला स्कूल खोला। 1848 में उन्होने लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला। उन्होने अपने जीवन में कुल 18 स्कूल खोले। इनमें से एक स्कूल में अधेड़ उम्र के और बुजुर्ग लोगो को भी शिक्षा दी जाती थी। जाहिर है उस वक्त उन्होने इसके लिए सवर्णो का काफी विरोध झेला। शुरु में जब उनके स्कूल में दलित और महिलाएं आने से हिचक रहे थे और स्कूल में संख्या काफी कम थी तो सावित्रीबाई ने शिक्षा और सामाजिक आन्दोलन के बीच के सम्बन्ध को पहचाना और वे ज्योतिबा फुले के साथ विभिन्न मोर्चो पर ‘महिला सम्मान’, ‘महिला अधिकार’ और ‘दलित अधिकारों’ के आन्दोलन में अपनी सीधी हिस्सेदारी की। और शिक्षा तथा सामाजिक आन्दोलन एक दूसरे से गुंथ गये। सावित्रीबाई ने अपने नेतृत्व में उस वक्त नाइयों को संगठित किया कि वे विधवाओं के बाल ना काटे। उस समय प्रथा थी कि पति के मरने के बाद पत्नी को गंजा रहना होगा।
उस समय विधवायें अनेक तरह के यौन उत्पीड़न का शिकार होती थी। फलतः प्रायः वे गर्भवती हो जाती थी लेकिन समाज के डर से उन्हे या तो अपने बच्चे को मारना पड़ता था या फिर उन्हे खुद आत्महत्या करनी पड़ती थी। इससे निपटने के लिए सावित्रीबाई ने अपने घर पर ही ‘बालहत्या प्रतिबन्धक गृह’ की स्थापना की जहां ऐसी महिलाओं को अपने बच्चे को जन्म देने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। और उन्हे दुबारा से सम्मानजनक जीवन जीने का हौसला दिया जाता था। यहां न सिर्फ दलित महिलाएं बल्कि ब्राहमण विधवा महिलाएं भी आती थी। ऐसी ही एक ब्राहमण विधवा के पुत्र को सावित्रीबाई ने गोद भी लिया।
इन सब लड़ाइयों और सामाजिक कामों से ही उन्हे शिक्षा का उद्देश्य भी समझ आया जो उनकी कविताओं में बहुत स्पष्ट तरीके से आया है। ऐसी ही एक कविता में वे कहती है-
‘‘आपको सीखने-पढ़ने का अवसर मिला है
तो सीखो-पढ़ो और जाति के बंधन को काट दो।’’
यानी यहां शिक्षा महज ‘अक्षर ज्ञान’ या ‘पोथी ज्ञान’ नही है, बल्कि सामाजिक अन्तरविरोधों को हल करने और समाज को आगे की ओर एक धक्का देने के लिए है। मशहूर पुस्तक ‘उत्पीडि़तों का शिक्षाशास्त्र’ के लेखक ‘पावलो फेरेरे’ भी शिक्षा को उत्पीडि़तों के ‘चेतना निर्माण’ से जोड़ते है जो उत्पीडि़तों को न सिर्फ अपने बन्धनों के प्रति सचेत करता है वरन उसे काटने की चेतना का भी निर्माण करता है।
इसी सन्दर्भ में सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले दोनो ही वेदों को ‘आलसी की कल्पना’ और ‘झूठी चेतना का रुप’ मानते थे जो दलितो-महिलाओं की चेतना पर एक बोझ है। और इसे उतारकर फेंक देना चाहिए।
ज्योतिबा फुले की मृत्यु के समय सावित्रीबाई फुले ने ही उनकी चिता को अग्नि दी थी। यह उस समय के लिए (आज के लिए भी) बहुत ही क्रान्तिकारी कदम था।
महाराष्ट्र में जब ‘प्लेग’ की बीमारी फैली तो सावित्रीबाई फुले जी-जान से प्रभावित लोगों की सेवा में लग गयी। और प्लेग से प्रभावित एक बच्चे की सेवा करते हुए ही उन्हे भी प्लेग हो गया और इसी से उनकी 10 मार्च 1897 को मौत हो गयी।
अब आप ही तय कीजिये की हमारा शिक्षक कौन है।

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‘Shubhradeep Chakravorty’: Filmmaker with a conscience

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मशहूर डाकूमेन्ट्री फिल्म निर्माता ‘शुभ्रदीप चक्रवर्ती’ का दिनांक 25 अगस्त को एम्स मे ब्रेन हैमरेज होने से मौत हो गयी। लेकिन अपने श्रद्धांजलि वक्तव्य में मशहूर फिल्म निर्माता ‘आनन्द पटवर्धन’ ने जो कहा वह कही अधिक परेशान करने वाला है। उन्होने कहा-‘‘शुभ्रदीप बहुत ही डिप्रेशन में थे क्योकि उनकी फिल्म को ‘सीबीएफसी’ ने पास करने से इंकार कर दिया था।’’ उनकी हाल की फिल्म ‘इन दिनों मुजफ्फरनगर’ पर सरकार ने रोक लगा दी है। मोदी के शासनकाल में यह दूसरी फिल्म है जिसपर रोक लगायी गयी है। इससे पहले पंजाबी फिल्म ‘कौम दे हीरे’ पर भी रोक लग चुकी है। सच तो यह है कि बात सिर्फ इतनी ही नही है। उन्हे हिन्दूवादी संगठनों की तरफ से इधर लगातार धमकियां भी मिल रही थी, जिससे वे काफी परेशान थे। मोदी के आने के बाद क्या इसी तरह के डिप्रेशन में मशहूर साहित्यकार ‘यू आर अनन्तमूर्ती’ (जिनका अभी 22 अगस्त को देहांत हुआ। उनका मशहूर कथन था कि यदि मोदी प्रधानमंत्री बने तो वे देश छोड़ देंगे।) भी नही रहें होंगे। और उन्हे मौत की ओर धकेलने में क्या इसने भी अपनी भूमिका नहीं निभायी होगी। बहरहाल यदि शुभ्रदीप चक्रवर्ती की बात करें तो इनकी पहली ही फिल्म ने लोगो का ध्यान खींचा था। यह फिल्म थी – ‘Godhra Tak: The Terror Trail’। इस डाक्यूमेन्ट्री में उन्होंने साफ साफ स्थापित किया कि साबरमती एक्सप्रेस के बोगी एस-6 में आग बाहर से नही बल्कि अंदर से लगी थी। गोधरा कांड की जांच करने के लिए जब ‘बैनर्जी कमेटी’ बनी थी तब इस फिल्म को भी एक सबूत के तौर पर बैनर्जी कमेटी में शामिल किया गया था। इस फिल्म के प्रदर्शन के दौरान अहमदाबाद और जयपुर में उन पर हिन्दूवादी संगठनों ने हमले भी किये। एक बार तो उन्हे गिरफ्तार भी कर लिया गया था। हालांकि बाद में सबूतों के अभाव में उन्हे छोड़ दिया गया।
उनकी दूसरी फिल्म थी- ‘Encountered on Saffron Agenda‘। इसमें उन्होने गुजरात के फर्जी मुठभेड़ ( गुजरात पुलिस ने 2002 में समीर खान पठान, 2003 में सादिक जमाल, 2004 में इशरत जहां व जावेद शेख तथा 2005 शोहराबुद्दीन शेख को फर्जी मुठभेड़ में मार डाला था।) का पर्दाफाश किया था।
उनकी तीसरी फिल्म थी- ‘Out of Court Settlement‘ यह फिल्म ‘शाहिद आजमी’ (शाहिद आजमी पर तो फीचर फिल्म भी बन चुकी है।) जैसे उन तमाम वकीलों पर है जो निदोर्ष मुस्लिमों का केस लड़ने और उन्हे अनेकों तरह की सहायता पहुंचाने के कारण हमेशा हिन्दुवादी संगठनों की हिट लिस्ट में रहते हैं। आपको पता ही होगा कि शाहिद आजमी की तो इसी कारण हत्या तक कर दी गयी थी।
उनकी चौथी फिल्म थी-‘After the Storm‘ यह फिल्म उन नौजवान मुस्लिमों पर है जो कोर्ट से तो बरी हो चुके है लेकिन जिंदगी को शुरु करने में उनका अतीत उनका पीछा नही छोड़ रहा है।
‘En Dino Muzaffarnagar’ उनकी आखिरी फिल्म साबित हुई।
‘शुभ्रदीप चक्रवर्ती’ उन फिल्मकारो में थे जिनकी फिल्में बहुत साफ तौर पर राजनीतिक होती है और तात्कालिक चुनौतियों से सीधे मुठभेड़ करती है। इसलिए वे हमेशा प्रतिक्रियावादी ताकतों के निशाने पर रहेे।
ऐसे साहसी फिल्ममेकर को हमारा सलाम।

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The Act of Killing

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आज से ठीक 49 साल पहले इण्डोनेशिया में एक भीषण कत्लेआम हुआ था। 1965-66 में हुए इस भीषण कत्लेआम में करीब 10 लाख लोग मारे गये थे। यह जनसंहार मुख्यतः केद्रित था- चीन और तत्कालीन सोवियत संघ के बाद दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी ‘इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी’ अर्थात पीकेआई के खिलाफ। लेकिन इसकी जद में मजदूर यूनियन के सदस्य और बुद्धिजीवी लोग भी थे। बल्कि यो कहे कि इसकी जद में वे सभी लोग थे जो सत्ता से किसी न किसी रुप में अपनी असहमति रखते थे। इस जनसंहार को अंजाम दिया था- सुहार्तो के नेतृत्व वाली इण्डोनेशिया की सेना ने। और बाहर से सहयोग किया था- ‘सीआईए’ (अमरीकी गुप्तचर संस्था) और ‘एमआइ6’ (ब्रिटिश गुप्तचर संस्था) ने। कुछ जानकारों का तो यहां तक कहना है कि इसकी पटकथा दरअसल सीआईए ने ही लिखी थी।
इस भीषण जनसंहार का कारण बहुत साफ था। इण्डोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति सुकर्णो उस वक्त वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ‘पीकेआई’ के साथ मिलकर बड़े पैमाने पर भूमिसुधार की तैयारी कर रहे थे। और देश की अर्थव्यवस्था को अपने पैरो पर खड़ा कर रहे थे। इसी क्रम में इण्डोनेशिया ने अपने आपको साम्राज्यवादी संस्था ‘IMF’ और ‘WORLD BANK’ से अलग कर लिया था। यह बात न ही वहां के प्रतिक्रियावादियों को पसन्द आ रही थी और न ही साम्राज्यवादियों विशेषकर अमेरिका को। यह दौर ‘शीत युद्ध’ का दौर था और सुकर्णो का झुकाव जाहिर है रुस और चीन की तरफ था।
यह तथ्य भी गौर तलब है कि 1966 में तख्तापलट और भीषण कत्लेआम के बाद जब सुहार्तो ने शासन की बागडोर संभाली तो तुरन्त ही इण्डोनेशिया पुनः IMF और WORLD BANK का सदस्य बन गया और उसे तुरन्त ही एक बड़ा लोन आईएमएफ से मिल गया।
तब से लेकर आज तक इण्डोनेशिया की मुख्यधारा की मीडिया और अमरीका और दूसरे यूरोपियन देशों की मीडिया के लिए यह एक वर्जित विषय रहा है। इण्डोनेशिया की इतिहास की किताबों में भी इस पर बहुत कम सामग्री है। वहां की किताबों में इस पूरे अभियान को ‘शुद्धीकरण’ का नाम दिया गया है और इसमें मरने वालों की संख्या महज 85000 बतायी गयी है।
लेकिन पिछले साल आयी आस्कर नामांकित फिल्म ‘दि एक्ट आॅफ किलिंग’ ने इसी वर्जित क्षेत्र में प्रवेश किया है। और विशेषकर यूरोपियन दर्शकों को यह बताने की कोशिश की है कि नाजी जनसंहार के अलावा भी ऐसे कई जनसंहार है जो अभी हमारी स्मृति का हिस्सा नही बने हैं।
फिल्म के निर्देशक ‘जोसुआ ओपनहाइमर’ इस फिल्म के लिए पहले उन लोगो के पास गये जो इस जनसंहार के पीडि़त है। अर्थात जिनके परिवार का कोई ना कोई व्यक्ति उस कत्लेआम में मारा गया है। उनसे बात करते हुए उन्होने पाया कि इतने सालों बाद भी वह डर और आतंक कायम है। प्रभावित क्षेत्रों के हर गांव में सेना की टुकड़ी अब भी बनी हुई है जो हर आने जाने वालों पर नज़र रखती है। इसलिए सबने अपने गम और गुस्से का इजहार तो किया लेकिन कोई भी कैमरे पर आने को तैयार नही था। फिर फिल्म कैसे बनेगी? फिर उन्ही पीडि़त लोगों में से कुछ ने इसका क्लू भी दिया। उन्होने फिल्मकार को बताया कि घटना को अंजाम देने वाले लोगो में विशेषकर ‘डेथ स्क्वैड’ के लोग आज भी खुलेआम घूम रहे हैं और उन्हे नेशनल हीरो का दर्जा मिला हुआ है। और उनमें से कुछ किसी फिल्म में काम करने को व्याकुल हैं। यदि उन्हे कैमरे पर आकर अपने पिछले कामों का कच्चा चिट्ठा देने का प्रस्ताव दिया जाय तो शायद वे तैयार हो जाये, क्योकि उन्हे किसी का डर नही और अपने किये का पछतावा भी नही।
इस भीषण जनसंहार को अंजाम देने वालो से मिलना और उनसे इस विषय पर बात करना फिल्म के निर्देशक जोसुआ ओपनहाइमर के लिए बेहद खतरनाक था। लेकिन जोसुआ ओपनहाइमर ने इस खतरे को मोल लिया। और एक के बाद उस समय के कई ‘डेथ स्क्वैड’ सदस्यों से मिले और उनमें से कइयों ने कैमरे के सामने बकायदा एक्टिंग करके बताया कि उन्होने कैसे लोगो को मारा है। इसके लिए उन्होंने मेकअप-कास्ट्यूम आदि का भी सहारा लिए। दृश्य में जान डालने के लिए आपस में ही पीड़ित की भूमिका भी निभायी। दरअसल यह एक तरह से ‘फिल्म के अन्दर एक फिल्म’ है। इसके कुछ वर्णन बहुत ही डिस्टर्ब करने वाले हैं।
फिल्म के मुख्य चरित्र ‘अनवर कांगो’ (जो उस वक्त ‘डेथ स्क्वैड’ का लीडर था और जिसने अपने हाथो से हजारो लोगो को मारा था) बताता है कि परंपरागत तरीके से मारने पर बहुत खून बहता था। इससे बाद में काफी सफाई करनी पड़ती थी। इससे हम कम लोगो को मार पाते थे। फिर हमने एक ऐसी तकनीक निकाली जिससे खून एकदम नही बहता था और मारने में समय भी कम लगता था। इसके बाद हम ज्यादा से ज्यादा लोगों को मार सके। फिर वह फिल्मकार को अपने घर की छत पर ले गया और बकायदा एक्टिंग करके बताया कि इसी छत पर उसने पतले तार की अलगनी बनाकर कैसे ज्यादा से ज्यादा लोगो को मारा है। उपर जो फिल्म का दृश्य है वह इसी हिस्से का है।
फिल्म के प्रत्येक दृश्य के शूट को ये लोग देखते थे और अपनी और दूसरे की एक्टिंग पर बकायदा कमेन्ट करते थे। लेकिन किसी ने भी अपने किये पर पछतावा व्यक्त नही किया। लेकिन फिल्म का अंत आते आते अनवर कांगो अपने द्वारा अभिनीत दृश्यों को देखकर विचलित हो जाता है और उसे अहसास होता है उसने गलत किया। उसने निर्दोष लोगो को मारा है और किसी के हाथ की कठपुतली बन गया था। उसे अपने किये का पछतावा होता है और वह कैमरे के सामने ही रोने लगता है। कुछ समीक्षकों ने इस दृश्य को फिल्म का सबसे सशक्त दृश्य माना है तो कुछ का कहना है कि इतने जघन्य कृत्यों को अंजाम देने वाले एक व्यक्ति के पछतावे को दिखाकर इसने दर्शकों के अन्दर पनप रहे गुस्से पर पानी का छींटा डालने का प्रयास किया है और इससे फिल्म की धार कमजोर हो जाती है। उनके अनुसार इस हिस्से को हटा देना चाहिए था। खैर इसका फैसला मै आप पर छोड़ती हूं। लेकिन अनवर कांगो का पछतावा कला के एक बुनियादी सिद्धांत की तरफ इशारा करता है कि किसी भी कला की प्रक्रिया अपने भागीदार में कुछ न कुछ बदलाव जरुर करती है। अक्सर यह बदलाव इतना बारीक होता है कि इसे रेखांकित करना मुश्किल होता है। लेकिन कभी कभी यह बदलाव बहुत बुनियादी होता है जैसा कि अनवर कांगो के मामले में हुआ।
खैर फिल्म काफी सशक्त है और डिस्टर्ब करने वाली है। फिल्म का कमजोर पहलू यह है कि इस जघन्य जनसंहार की पीछे की मुख्य ताकत और उसकी राजनीति पर से यह पर्दा नही उठाती। इसलिए जिन्हे इसका संदर्भ नही पता वे इस फिल्म को उसके सही परिप्रेक्ष्य में नही रख पायेंगे।
सच तो यह है कि लगभग सभी ताकतवर सत्ताओं के अपने अपने जनसंहार हैं। यह अन्तर्राष्ट्रीय समीकरणों पर निर्भर करता है कि किस पर चर्चा होगी और किस पर चुप्पी बरती जायेगी।
इस फिल्म की सफलता से प्रभावित होकर जोसुआ ओपनहाइमर इसी विषय पर एक दूसरी फिल्म भी बना रहे है- ‘Look of Silence’. यह फिल्म फिलहाल पोस्ट प्रोडक्शन के दौर में है और जल्द ही रिलीज होने वाली है।
The Act of Killing आप यहां देख सकते हैं।

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फ़िलीस्तीन पर दो कविताएं……..

फ़िलीस्तीन
कई बार
तब्दील हो जाती हूं मैं
पूरी की पूरी फ़िलीस्तीन में.
तुम कहते हो तुम्हारा
कोई वज़ूद नहीं
फ़िलीस्तीन हम औरतों की
तरह है एकदम.
सदियों से
अपने वज़ूद की
लड़ाई लड़ता हुआ
हरदम…..

उल्फ़त
बेपनाह मोहोब्बत करते थे
हमारे अम्मी और अब्बू.
अब्बू ने बहुत उमग कर
अम्मी के होठों पर दर्ज़ की थी
एक आयत.
उसके ठीक एक साल बाद
मैं पैदा हुयी ….
बहुत खुलूस से
उन्होंने मेरा नाम रखा
उल्फ़त……
मेरे रोंए रोंए से नूर छलकता था…..
मिरी अम्मी कहा करती थीं
ये नूर मेरे वतन का नूर है.
मेरा वतन फ़िलीस्तीन है,
जो दर्ज़ नहीं है
दुनिया के नक्शे में कहीं
पर हमारा वतन मौजूद है
हरेक बच्चे के रोंए रोंए में
तभी तो मिरी अम्मी कहा करती थीं
कि मेरे बदन से छलकता हुआ नूर
मेरा वतन है…..मेरा फ़िलीस्तीन है……..
आज अचानक
रौशनी का एक बहुत बड़ा गोला
मेरी आंखों के सामने गिरा
मेरे शरीर का नूर बुझ गया.
मेरी अम्मी मुझे बाहों में
लेकर कर रही हैं स्यापा……..
…….मेरी उल्फ़त मार दी गई…..
…….मेरी उल्फ़त जिसके बदन से
……वतन का नूर छलकता था…..
……मार दी गई……
……आज मैं बेनूर हो गई…….
……बेवतन हो गई……
अब्बू ने अम्मी के कन्धे पे रखा हाथ
और कहा
हमारी उल्फ़त नहीं मर सकती कभी.
वो देखो वहां
उफ़क तक लड़ रहे हैं
हमारे वतन के लोग.
उनकी लड़ाई से छ्लक रहा है
हमारे वतन का नूर
ठीक वैसे ही ….
जैसे छलका करता था
हमारी उल्फ़त के बदन से.
हमारी उल्फ़त ज़िन्दा है,
हमारा वतन ज़िन्दा है….
ज़िन्दा रहेगा
मरते दम तलक……….
कृति

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“448 children killed in Israeli attacks on Gaza, UN says” by Charlotte Silver

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The 72-hour ceasefire had barely expired when Israeli airstrikes on Gaza resumed on Friday.

As Israel claimed it is targeting “terror sites,” its first victim was a ten-year-old child in Gaza City. Ibrahim Dawawsa was killed while playing with some friends in the yard of a mosque close to his home, when a missile ended his life and injured his two young friends.

During the nearly month-long military offensive on Gaza prior to the short ceasefire, Israel killed 448 children and injured 2,502, according to United Nations estimates. As of 8 August, the death toll in Gaza had reached 1,922.
Death toll rose even when bombing stopped

During each day of the ceasefire, the UN’s estimate of the number of children killed rose, as fieldworkers were able to recover the bodies of those killed — some buried in the rubble for weeks. One of the most serious incidents the UN discovered during the first 24 hours of the ceasefire was the badly decomposed bodies of eight members of the Wahdan family, left under a destroyed home in Beit Hanoun.

The dead, which included three children under the age of fifteen, four women and two people over sixty, are believed to have been killed by an airstrike soon after the Israeli ground invasion on 18 July. Al Mezan Center for Human Rights listed the names of the killed, which includes Ghena Younis Saqr, 2; Hussein Hatim, 9; Ahmed Hatim, 13; Zeinab Hatim, 22; Somoud Hatim, 22; Baghdad Hatim, 51; Suad Ahmed, 65; and Zaki Abdel, 67.

Defence for Children International-Palestine, an independent child-rights organization, is in the process of identifying and verifying each child killed in Gaza; thus far, the international organization has confirmed the deaths of 241 children.
on Twitter

181 children confirmed killed in #Gaza & 70 cases being investigated by @DCIPalestine as #Israeli assault continues. pic.twitter.com/9ESbag4RTd
— Defence for Children (@DCIPalestine) August 2, 2014

Siblings killed together

In many of DCI-Palestine’s documented cases, children are killed while in their homes or attempting to flee to safety. Often, cases describe several young siblings or cousins killed together at once.

on Twitter

Israeli drone killed 5 kids from one family on Aug 1 after they fled home that had been struck by drone missiles http://t.co/tcjbSkH943
— Defence for Children (@DCIPalestine) August 7, 2014

In one example, on 29 July, six children between the ages of four months and five years were killed by an Israeli missile in the al-Bureij refugee camp. From the Jabr family, siblings Leen Anwar Mohammad Abu Jabr, 3; Salma, 1; Mohammad Raed Mohammad Abu Jabr, 3; Sama, 1; Tuqa Salah Khalil Abu Isa, 4 months; and their cousin Hala Ahmad Hamdan Abu Jabr, 5, were all killed in one strike.

During this same attack, a pregnant woman had a miscarriage.

In another case, a single Israeli missile killed everyone inside a three-story building near Khan Younis, including nineteen children between the ages of one and sixteen years old.
The United Nations Office for the Coordination of Humanitarian Affairs asserted that Israel’s targeting of nearly 1,000 civilian homes “raise[s] serious concerns about the targeting of civilians and civilian objects and the launching of indiscriminate attacks.”

While celebrating the Eid al-Fitr holiday on 28 July, Hind Imad Qadoura, eleven, her brother Yousef, ten, and their cousin Mohammad Musa Marzouq Elwan, four, were killed when Israel shelled their home in Jabaliya.

But there is no single story that tells how Israel has killed children.

Hazem Naim Mohammed Aqel, who DCI-Palestine describes as an orphan, was killed by a drone missile on 23 July when he went with his cousin to the grocery store in the Zeitoun neighborhood of Gaza City.

On 29 July, Mohammad Abdul-Nasser Mohammad al-Ghandour, fifteen, was hit by a piece of shrapnel from an strike on agricultrual land in Beit Lahia, killing him instantly.

Ibrahim Moatasem Ibrahim Kloub, four, was playing on his balcony with his mother when a drone missile flew into his family’s home, killing him and seriously injuring his mother.

These are just a few of the hundreds of child deaths that are being carefully documented by human rights organizations.
Dangers for pregnant women

The situation for pregnant women is particularly dire. Out of the estimated 46,000 pregnant women in Gaza, ten thousand are displaced. The Palestinian Ministry of Health in Gaza reports that 160 deliveries take place each day. The Israeli assault has caused a marked increase in premature births:

Women are giving birth under increasingly difficult conditions. Maternity clinics have been closed, as are a number of private maternity centers. Other facilities are overstrained. In some, maternity beds are being used to serve the wounded. Shifa hospital has reported a 15 to 20 per cent increase in premature births, which are linked to the stress of hostilities. Home deliveries are reportedly on the rise, increasing the risks for women and their babies.

The UN estimates that around 373,000 children are in need of immediate psychosocial support, observing that surviving children are “showing symptoms of increasing distress, including bed wetting, clinging to parents and nightmares.”
Olivia Watson, an advocacy officer with DCI-Palestine, warned of the long-term costs for surviving children in Gaza in the Israeli publication +972 Magazine:

For the children who manage to escape physical injury, the psychological effects of this latest operation will be hidden, but severe and resounding. Many have lost one or both parents, or other family members. Some have lost their entire extended families. All have experienced violence, fear and instability at close quarters.

Lists of fatalities … obscure the reality that awaits Palestinian children in Gaza. Those who survive will emerge to find their previous lives almost unrecognizable, as the families, schools, hospitals and mosques that framed their world are systematically destroyed.

As Israel’s assault continues, the number child victims continues to climb as well.
http://electronicintifada.net/blogs से साभार

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